कान्हा मैकल की जनजातियों की भोजन विविधता: उपलब्धता और भविष्य

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Published on: 14 August 2019

अमीन चार्ल्स (Ameen Charles)

अमीन चार्ल्स ने कॉलेज की पढाई जबलपुर और बालाघाट से पूर्ण की, वर्ष 1990 से मंडला स्थित एक स्वैच्छिक संगठन के साथ जुड़कर मंडला जिले में आदिवासी समुदाय के साथ कार्य किया और वर्ष 2000 में बालाघाट में स्वैच्छिक कार्य करना प्रारंभ किया | वर्ष 2000 में अमीन चार्ल्स को इंटरनेशनल यूथ फाउंडेशन की ओर से महिलाओं की शिक्षा पर कार्य के लिए यूथ एक्शन नेट अवार्ड प्राप्त हुआ, इंडियन एचीवर्स फोरम की ओर से समाज कार्य के लिए सम्मानित किया गया |

यह अध्ययन सहपीडिया-युनेस्को शिक्षावृत्ति के अंतर्गत किया गया जो कि मध्य प्रदेश के कान्हा और मैकल के क्षेत्र में निवासरत आदिवासी जनजातियों की भोजन की उपलब्धता और उनकी भोजन संबंधी परम्पराओं के भविष्य पर केन्द्रित है| यह अध्ययन बालाघाट, मंडला व डिंडोरी जिले के उन आदिवासी क्षेत्रों में जाकर किया गया जहाँ गोंड और बैगा आदिवासी जनजातियों की बसाहट है| जंगलों के आस-पास स्थित गाँवों में इन जनजातीय समूहों के भोजन, उसकी उपलब्धता और भविष्य पर विस्तार से चर्चा के माध्यम से जानकरी एकत्रित की गयी| समुदाय के बुज़ुर्ग और वर्तमान, दोनों ही पीढ़ी के लोगों से बातचीत की गयी और जानने का प्रयास किया गया कि लगभग 35 से 40 वर्षों में इस समुदाय के खानपान में क्या बदलाव आया है और उसका भविष्य क्या है|

अध्ययन से जो बाते सामने आयी हैं उनसे यह तो स्पष्ट है कि जंगलों से समुदाय का जो रिश्ता रहा है वो लगभग ख़त्म हो गया है, भोजन के कुछ हिस्सों की जो निर्भरता जंगलों पर रही है वो समाप्ति की ओर है- कई प्रकार के कंद, भाजी और फल जो समुदाय को जंगलों से मिल जाते थे वो आज समुदाय की पहुँच से दूर हो गए हैं| जंगलों तक पहुँच नहीं होने की वजह से इन कंद, भाजियों और फलों से जो विविधता और पोषण मिलता था अब उपलब्ध नहीं है और वर्तमान पीढ़ी को इनके बारे में जानकारी भी नहीं है| इसीलिए जब हम भविष्य की बात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि इन भोजन परम्पराओं का भविष्य में बने रह पाना बहुत मुश्किल है क्यूंकि जंगल जाना और इन खाद्य सामग्रियों को जमा करना मुश्किल होता जा रहा है|

इसका दूसरा पक्ष है बाज़ार- कुछ वनोत्पाद हैं जिनका बाज़ारीकरण हो गया है उसमें मशरूम महत्वपूर्ण है, इसकी बाज़ार में काफ़ी माँग है और यह कुछ सीमित समय के लिए  ही उपलब्ध होते हैं, मशरूम जो लगभग चार से पाँच प्रजाति के हैं उसमें से दो प्रजातियाँ हैं जो काफ़ी मात्रा में जंगलों में उपलब्ध हैं और शहरों में अच्छे मूल्य पर बिक जाती हैं तो समुदाय सिर्फ़ इन्हें ही इकठ्ठा करके बाज़ार में बेचने का काम करने लगे हैं| जो पहले कभी बिकता नहीं था और जन जातियाँ इन्हें सुखा कर रखती थीं उनको इकठ्ठा करना अब काफ़ी कम कर दिया गया है|

अध्ययन के दौरान समुदाय के शाकाहारी और माँसाहारी भोजन पर बातें की गयीं जिसमें सामने आया कि एक तरह से अलग-अलग किस्म का माँसाहार जिसकी उपलब्धता अलग-अलग मौसम में हुआ करती थी वो अब नहीं है, मछली और चिकन ही प्रमुख माँसाहार है जो उपलब्ध है, माँसाहार की विविधता जैसे जंगली खरगोश, केकड़ा, घूस, बरसाती छोटी मछली, अन्य पक्षी जैसे लावा, तीतर, बटेर आदि अब इनके भोजन का हिस्सा नहीं है, क्योंकि उपलब्धता नहीं है और सहज भी नहीं है कि इनकी उपलब्धता के प्रयास किये जावें, कुछ वन्य जीव संरक्षण कानून की वजह से भी ऐसा हुआ है| मुख्य बात जो सामने आयी है वो बहुत स्पष्ट है भोजन की विविधता और विविधता से मिलने वाला पोषण अब भोजन में नहीं है|