कान्हा मैकल के आदिवासियों की भोजन विविधता: उपलब्धता और भविष्य

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Published on: 14 August 2019

अमीन चार्ल्स (Ameen Charles)

अमीन चार्ल्स ने कॉलेज की पढाई जबलपुर और बालाघाट से पूर्ण की, वर्ष 1990 से मंडला स्थित एक स्वैच्छिक संगठन के साथ जुड़कर मंडला जिले में आदिवासी समुदाय के साथ कार्य किया और वर्ष 2000 में बालाघाट में स्वैच्छिक कार्य करना प्रारंभ किया | वर्ष 2000 में अमीन चार्ल्स को इंटरनेशनल यूथ फाउंडेशन की ओर से महिलाओं की शिक्षा पर कार्य के लिए यूथ एक्शन नेट अवार्ड प्राप्त हुआ, इंडियन एचीवर्स फोरम की ओर से समाज कार्य के लिए सम्मानित किया गया |

 

कान्हा मैकल पर्वत श्रृँखला मुख्यतः सतपुड़ा पर्वत श्रृँखला का एक हिस्सा है| मध्य प्रदेश के मंडला, बालाघाट, डिंडोरी, जबलपुर और सिवनी जिले मुख्य रूप से इसके हिस्से हैं, इस श्रृँखला का कुछ हिस्सा कवर्धा जिले में आता है जो अब छत्तीसगढ़ राज्य में है, कवर्धा जिले का वो हिस्सा जो डिंडोरी और मंडला जिले की सीमा को छूता है मूल रूप में कान्हा मैकल का ही भाग है| पहले यह भूभाग गोंडवाना राज्य कहलाता था, गोंड राजाओं का क्षेत्र जिसमें जबलपुर और मंडला प्रमुख रूप से गोंडवाना के केंद्र रहे हैं, मुख्यतः छोटे पहाड़, और घने वन जो की मिश्रित वन हैं कान्हा मैकल कहलाता है, साल के घने जंगल अपने आप में व्यापक जैव विविधता वाले क्षेत्र हैं|

कान्हा मैकल का क्षेत्र बहुत खुबसूरत और अद्वितीय प्राकृतिक सुन्दरता को समेटे हुए है। सघन और मिश्रित वन इन सभी जिलों में प्रचुरता से हैं, इन जंगलों की खासियत है कि ये कभी सूखे दिखाई नहीं देते। हर मौसम में इन जंगलों में हरियाली होती है जिसकी वजह है साल या सरई (Shorea robusta) के बड़े-बड़े पेड़। सरई के पेड़ों की वजह से इस क्षेत्र का तापमान भी संतुलित रहता है। इसके साथ साथ साजा (Terminalia elliptica), महुआ या बहेरा (Madhuca longifolia), जामुन (Syzygium cumini or black plum) और कई अन्य प्रजातियों के पेड़ इन जंगलों में हैं। इन जंगलों की विस्तृत श्रृँखला महत्वपूर्ण जैव विविधता को भी बनाये रखे हुए है, इन्हीं जंगलों में बंगाल टाइगर पाया जाता है, साथ ही बायसन, हिरन (deer), बारहसिंघा (reindeer), चीतल (spotted deer), जंगली सूअर (wild boar), जंगली कुत्ते और नीलगाय (Boselaphus tragocamelus) भी पाई जाती है।

इन जंगलों के बीच में ही मानव सभ्यता निवास करती है जिसमें गोंड और बैगा जनजाति प्रमुख है। कान्हा मैकल क्षेत्र उसी पट्टी का हिस्सा है जो गुजरात से शुरू होकर झारखंड और ओड़ीसा तक जाता है जिसमें अलग-अलग जनजातियाँ निवास करती हैं, वह क्षेत्र जिसमें गोंड और बैगा जन जाति निवास करती है कान्हा मैकल कहलाता है| बहुत अधिक जैव विविधता वाले इस क्षेत्र में भोजन की पूरी श्रृँखला यहाँ उपलब्ध रही है जिसमें शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन उपलब्ध हैं साथ ही यह लोगों के जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराता रहा है| एक समय था जब किसी तरह की भोजन की ज़रुरत के लिए यह आदिवासी समुदाय किसी अन्य पर निर्भर नहीं था, इनकी पूरी भोजन की ज़रूरतें जंगल से ही पूरी हो जाती थीं|

इन जंगलों ने ही गोंड और बैगा जन जातियों को बचा कर रखा है यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। गोंड बस्तियाँ जंगलों के क़रीब ही हुआ करती थी जबकि बैगा एक प्रकार से घुमन्तु जाति रही है जो जंगलों के अन्दर अपना जीवन बिताने में अधिक सहज महसूस करती है| जंगलों के बीच में छोटे-छोटे मैदान, खेत और गाँव की बसाहट देखी जा सकती है| दोनों जनजातियाँ मूलरूप से किसान नहीं रही हैं, झूम खेती (Shifting cultivation) ने धीरे-धीरे वर्तमान स्वरुप लिया है जिसमें आज स्थायित्व दिखाई देता है| दोनों जनजातियों में बैगा जन जाति वनों के अधिक करीब रहती आई है, गोंड जाति में समय के साथ काफ़ी बदलाव आए हैं और विकास की धारा में गोंड जन जाति ज़्यादा तेज गति से जुड़ सकी है, वहीं बैगा जन जाति में मुख्य धारा से जुड़ने में झिझक साफ़ देखी जाती है।

विकास की धारा से जुडाव की दर गोंड और बैगा में अलग-अलग इसलिए रही है क्योंकि गोंड बस्तियाँ कुछ व्यवस्थित और पहुँच में आसान रही हैं बैगा बस्तियों के मुकाबले में दूसरी वजह कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक भी है जैसे बैगा परिवार में किसी की मृत्यु होने पर वे उस घर को छोड़ कर दूसरा घर बना लेते थे जहाँ किसी सदस्य की मृत्यु हुई, झूम खेती भी इसकी वजह रही है कि बैगा बस्तियाँ लगातार बसती और उजड़ती रही हैं इन सबके चलते बैगा जाति अधिक घने जंगलों में निवास करती रही हैं जिससे उन तक पहुँच आसान नहीं रही, सड़क जैसी मूलभूत सुविधा का विस्तार भी धीरे-धीरे उन तक पहुँचा इसी तरह से शिक्षा और स्वास्थ्य का भी हाल रहा है, बैगाओं का एकांत प्रिय होना और अधिकतर समय जंगलों में बिताना, क्योंकि उनकी जो ज़रुरत थी वो जंगलों से पूरी हो जाती थी, यही कुछ वजहें हैं जिससे इन्हें बाक़ी समाज से जुड़ने में काफ़ी समय लगा, और आज भी जुड़ाव का स्तर कुछ कम ही है, जिसकी वजह शिक्षा की कमी है साथ ही अन्य समुदायों की ओर से स्वीकार्यता और विश्वास की कमी भी रही है | बैगा जन जाति की निर्भरता किसी अन्य जाति या अन्य समुदायों पर कम ही रही है- पहला तो पशुपालन में भी ये पीछे रहे हैं इनके पास पशुधन कम ही रहा और रहा भी तो इन्हें चराने के लिए किसी की ज़रुरत  नहीं होती थी, जबकि गोंड जातियों ने यादव समाज को अपने गाँव में बसाया, उन्हें जगह दी जिससे कि वे उनके पशुओं की देखभाल कर सके|

दोनों जन जातियों में काफ़ी समानताएँ भी देखी जा सकती हैं पर ये आपस में कभी एक दूसरे को समान नहीं मानते और अपने आपको, अपनी पहचान को एक दूसरे से भिन्न ही बताते एवं मानते हैं। हालाँकि दोनों ही जातियों का जीवन इन जंगलों पर निर्भर रहा है, जिसे हम उनके जीवन के अलग-अलग पहलुओं में देख-परख सकते हैं जैसे कि आवास। गोंड जाति की आवास व्यवस्था बैगा जाति से कुछ बेहतर होती है उनके घर मिट्टी के बने होते हैं पर बेहतर रख-रखाव उन्हें अधिक सुरक्षा एवं आराम देते हैं। वहीं बैगा जनजाति के लोग झोपड़ीनुमा घरों या एक कमरे का घर बना कर अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं। हालाँकि बैगा भी मिट्टी के घर बनाने लगे हैं पर उनमे स्वच्छता और सुरक्षा का आभाव रहता है, कई बार बाँस की बनाई टटिया में मिट्टी थोप कर दीवार बना ली जाती है और उसमें दरवाजा भी बाँस के बने टट्टे का होता है। छत में खपरैल की जगह घास का प्रयोग किया जाता है, इस तरह के घर किसी भी मौसम में इन्हें आराम और सुरक्षा देने योग्य नहीं होते। इसी तरह जब हम इनके रीति-रिवाज़ों और दैनिक क्रिया-कलापों को देखते हैं तो उसमें भी अंतर दिखाई देता है।

जब हम भोजन और उसकी उपलब्धता के बारे में समझने का प्रयास करते हैं तो इसमें भी कुछ मुलभूत अंतर दिखाई देते हैं। भोजन में अंतर कुछ मायनों में देखा जा सकता है जिसमें भोजन बनाने की प्रक्रिया एक मुख्य हिस्सा है, बैगा कच्चा या कम पका हुआ भोजन करते रहे हैं, आग में भून कर माँस और कंदों का सेवन करते रहे हैं जबकि गोंड भोजन को कई और  तरीकों से बना कर खाते हैं, बैगा अपने खाने में तेल का प्रयोग ही नहीं करते रहे हैं पर गोंड तेल का कुछ प्रयोग करते हैं|

हालांकि वर्तमान विकास की प्रक्रियाओं के नज़रिये से देखें तो इनके भोजन व्यवहार में व्यापक बदलाव आया है। विगत दिनों समुदाय के लोगों से की गई बातचीत[1] में एक बात बहुत स्पष्ट रूप से निकल कर आ रही है जो ये खुद भी महसूस करते हैं वो है आज के भोजन की गुणवत्ता, लगातार हो रहे अलग-अलग प्रकार के बदलाव ने इनके खान-पान की मूल आदतों में बदलाव किया है, धनियाजोर गाँव के प्रताप मरकाम से की गई बातचीत ने यह बताया कि जंगलों में उनकी पहुँच नहीं होने की बजह से आज कई प्रकार के खाने से समुदाय दूर हो गया है और धीरे-धीरे वे उन्हें भूलते भी जा रहे हैं। इन मूल आदिवासी समाज के भोजन के कुछ प्रमुख हिस्से रहे हैं जिसमें शाकाहारी और माँसाहारी दोनों प्रकार के भोजन शामिल हैं। प्रायः जंगलों में मिलने वाली 10 से 12 प्रकार की भाजियाँ इनके दैनिक भोजन का हिस्सा रही हैं, माँसाहार में पक्षी, जंगली पशु जैसे खरगोश, हिरन, मूस (Rodents), सूअर और मुर्गियाँ तथा बारिश के दिनों में मिलने वाली मछलियाँ, केकड़े इनके भोजन का हिस्सा थे जो इनकी थाली से दूर होते जा रहे हैं। पहले भोजन की एक विस्तृत श्रृँखला रही है- जैसे यदि हम मौसम के आधार पर वर्गीकरण करें जो सहजता से उपलब्ध रहे हैं:

 

मौसम

शाकाहारी भोजन

मांसाहारी भोजन

अनाज

दालें

तेल

बारिश

चरोटा भाजी (Cassia tora), चेंच भाजी, अम्बाड़ी (Hibiscus cannabinus),

पकरी भाजी, केवलार भाजी (Bauhinia purpurea), ककड़ी Cucumis sativa /cucumber) मेथी (fenugreek), बदेला (कचरिया) (Cucumis melovar / wild musk melon) ककोडा और लगभग चार से पांच प्रकार के मशरूम

केकड़ा (Crab), मछली (Fish), अंडे (Egg), पक्षी (Birds)

मक्का (Maize), चावल, पेज

(a drink that can be made from grounded maize or from the water left from boiling rice or from millets such as kodo/kutki), कोदों (kodo millet-Paspalum scrobiculatum/cow grass), कुटकी (kutki millet/Paspalum scrobiculatum)

उड़द (Vigna mungo /black gram), चना (Gram), कुरथी (Macrotyloma uniflorum/ Gram or Horse gram), मसूर(Lens culinaris /lentil/red gram),

राई Mustard (Brassica nigra), गुल्ली (Mahua fruit), अलसी (Linum Usitatissimum /linseed or flaxseed)

 

 

 

ठण्ड

कई प्रकार के कांदे (Tubers) जैसे : अरबी (Colocasia esculenta /Colocasia or taro root), निन्नी बिट्टी (Ninni Bitti), सूरन, (Amorphophallus campanulatus /elephant foot yam), मटारू, (Mataru) निरबिस कांदा (Nirbis Kanda) कनिया कांदा, जंगली फल, लौकी (bottle gourd), कद्दू, (Pumpkin) गिलकी, मूली (Radish), सेम ( a species of beans), बरबटी (Vigna unguiculata /cowpea)

मछली, मुर्गी, अंडे (जंगली पक्षी और मुर्गी दोनों के), घूस

चावल (Rice), कोदों, कुटकी, गेंहू (Wheat)

उड़द (Vigna mungo /black gram), चना (Gram), कुरथी (Macrotyloma uniflorum/ Gram or Horse gram), मसूर (Lens culinaris /lentil/red gram)

राई, गुल्ली, अलसी, घी

गर्मी

महुआ (Madhuca longifolia), कांदे और सुखाई हुई भाजी, जंगली फल (Tubers and dried vegetables, wild fruits)

 

मछली (Fish), मुर्गी (Chicken), अंडे (Eggs) (जंगली पक्षी और मुर्गी दोनों के), घूस

चावल (Rice), कोदों, कुटकी

उड़द, चना, कुरथी, मसूर,

राई (Brassica nigra), गुल्ली (Mahua fruit), अलसी

 

 

 

 

यानि इस अध्ययन के अनुसार जब हम इनके वर्ष भर की खाद्य श्रृँखला और उपलब्धता की और देखते हैं तो यहाँ के निवासियों के अनुसार परंपरागत रूप से इन्हें सब कुछ और बेहतर रूप में उपलब्ध था।

एक और महत्वपूर्ण बात जो सामने आयी वो है खाद्य सामग्री को सुखाकर रखने की परंपरा- बारिश और ठंड के मौसम में जब खाद्य सामग्री, सब्ज़ियाँ और भाजियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं तो उन्हें सुखा लिया जाता है, जिसमें मुख्य रूप से सब्ज़ियाँ हैं, बारिश में चेंच और चरोटा भाजी, केवलार भाजी, अम्बाड़ी, कचरिया, भेदरा (छोटा टमाटर या Cherry Tomato), बरबटी (cowpea), सेम (Beans) आदि को सूरज की धूप में सुखा कर रखा जाता है जो गर्मियों में या जब हरी सब्ज़ियों की उपलब्धता कम होती है उस समय उपयोग की जाती हैं।

इसी तरह जंगलों से मिलने वाले कम से कम छः प्रकार के कंद/कांदे (Tubers) इनके भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। हर कांदे के बारे में और उसकी उपलब्धता के बारे में सभी को पता नहीं होता, कुछ लोग ही इन्हें पहचान पाते हैं। कुछ कांदे तो बहुत सहज रूप में उपलब्ध हैं जैसे सूरन (elephant yam), अरबी या घुइंया (colocasia), रताल (yam) आदि, ये कांदे आज भी इनके घरों में उपलब्ध हैं और इनका प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन वो कांदे जो जंगलों में हैं उनका मिलना मुश्किल होता जा रहा है। कुछ कांदों का बाज़ार उपलब्ध है तो ख़ासकर बैगा जाति इन्हें खोदकर ला रही हैं जिसमें तीखुर और बैचान्दी शामिल हैं, लेकिन इनका रोजमर्रा के भोजन में ये शामिल नहीं हैं। कुछ और कांदे हैं जैसे कनिहा कांदा जो कि कमर की गहराई तक खोदने पर ही मिलता है, इसकी पहचान आसान नहीं होती, इसके अलावा और भी प्रकार हैं जिनके बारे में जानने और उनके गुणों के बारे में जानना ज़रुरी है, मौसम के आधार पर उपलब्धता की वजह से ग्रामीण भी एक समय में सभी के बारे में जानकारी नहीं दे पाते।

सामान्यत: बैगा जंगल के ज़्यादा भीतरी इलाकों में बसे होने के कारण जंगल को अधिक क़रीब से जानते हैं इनके पास जानकारी भी है कि क्या खाने से कम प्यास लगेगी और कितना पोषण मिलेगा या भूख मिटेगी। जंगलों में इनका भ्रमण अपने लिए भोजन सामग्री की खोज के लिए भी होता है साथ ही घर के लिए कुछ लकड़ी या रस्सी, या पत्तल आदि ले आते हैं। भोजन में पेज इनका प्रमुख पेय है, चावल, कोदों या कुटकी का पतला पेज काफ़ी मात्रा में पिया जाता है इससे इन्हें प्यास कम लगती है और पोषण भी मिलता है, जहाँ तक चावल का प्रश्न है तो यह अनाज की श्रेणी में बहुत महत्वपूर्ण है। पेज और भाजी के आलावा चावल और सब्ज़ी, या चावल और दाल प्रमुख रूप से खाया जाने वाला भोजन है। चावल में भी मोटा चावल इन्हें अधिक पसंद है इनका मानना है कि मोटे चावल से पेट अच्छे से भर जाता है।

यहाँ जो दालें खाई जाती है उसमें उड़द और मसूर दाल प्रमुख है साथ ही कुछ मात्रा में चना दाल तथा कुछ अन्य दालें हैं जिन्हें बीजों से बनाया जाता है जिसमें बरबटी के बीजों से दाल, सेम के बीजों से दाल और छोटी मटर की दाल है जो घर में चक्की से पीस कर या दरदरी करके बनाई जाती है इसे भी चावल के साथ खाया जाता है।

इस पूरे क्षेत्र में रोटी का चलन काफ़ी कम है, मक्का से पेज और मक्का उबाल कर खाया जाता है, बड़े से घड़े में मक्के को साबुत उबाल लिया जाता है और उसे खाया जाता है, बहुत कम घरों में मक्के की रोटी बनाई जाती है, इसी तरह गेंहू की रोटी भी कम खाई जात्ती है, गेंहू का प्रयोग कभी-कभी दलिया बना कर खाने में किया जाता है।

हर मौसम में इनके खाने में फल भी शामिल रहा है, आम (Mango), अमरुद (Guava) के आलावा जामुन (Black berry), चार-चूरना (Chaar- Curna) और करोंदा (Karonda) इन्हें जंगलों और आसपास के परिवेश से मिल जाता है इसमें बेल (Aegle marmelos) और आंवला (Phyllanthus emblica) जो प्राय: जंगलों से ही प्राप्त होता रहा है, बेल को आग में भून कर खाया जाता या पके बेल को कच्चा ही खाया जाता है, जंगलों से एक और बड़ी महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री के रूप में शहद भी इन्हें प्राप्त हो जाया करता था, प्राय: जंगलों में इसे तोड़ कर वहीं खाया जाता था और कुछ भाग घर में लाकर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खाया जाता था, वर्तमान समय में इसका बाज़ारीकरण होने की वजह से जो लोग इसे जंगलों से तोड़ते हैं वे भी खाते नहीं बल्कि बेच देते हैं।

इनकी भोजन बनाने की पूरी प्रकिया भी बड़ी सरल रही है। सामान्यत: भोजन लकड़ी के चूल्हे में ही बनाया जाता है और पहले तो मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग किया जाता था। भोजन बनाने में जिसे लकड़ी के चम्मच के प्रयोग से बनाया जाता था, अब भी पेज आदि बड़े मिट्टी के बर्तन में बनाते हैं पर इसमें व्यापक बदलाव आया है, स्टील या अल्युमिनियम के बर्तन का प्रयोग बढ़ गया है अब कांसे या पीतल के बर्तन भी बहुत कम प्रयोग किये जाते हैं या उपलब्ध ही नहीं हैं।

पूरे समुदाय में तेल का प्रयोग काफ़ी कम मात्रा में किया जाता है, सरसों/राई का तेल, गुल्ली का तेल अथवा अलसी का तेल खाया जाता है पर इसकी मात्रा काफ़ी कम होती है। मांसाहार बनाने में तेल का प्रयोग तो किया जाता है पर वो भी काफ़ी कम होता है। मांसाहार को बनाने के इनके अलग-अलग तरीके हैं। जंगलों में जाने पर यदि पक्षी किसी तरह शिकार कर लिए गए तो उन्हें भून कर खाया जाता है, मांसाहार को भूनकर खाना इन्हें अधिक पसंद है बजाए सब्ज़ी बनाकर।

एक बात जो फील्डवर्क के दौरान प्रमुख रूप से सामने आई है वो यह है कि इनके भोजन में मांसाहार की मात्रा काफ़ी कम होती जा रही है। अब इसकी भी अलग-अलग वजहें हैं जिसमें एक प्रमुख वजह तो जंगलों तक इनकी कम होती पहुँच है। जंगलों के संरक्षण के कानूनों ने इनके भोजन का एक बड़ा हिस्सा इनकी थालियों से दूर कर दिया है, साथ ही छोटे-छोटे नाले और नदियों से मिलने वाली मछलियाँ और केकड़े भी इन्हें काफ़ी कम मात्रा में मिल रहे हैं। इसी तरह धान की फ़सल के बाद मिलने वाले घूस का सेवन भी इन लोगों ने कम कर दिया है या यूँ कहें बंद ही कर दिया है। बाहरी सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव या कुछ हद तक दबाव भी कहा जा सकता है कि मांसाहार को निषिद्ध माना जाने लगा है, इसमें अलग-अलग तर्क हो सकते हैं पर जो खाद्य इन्हें सहज रूप में उपलब्ध थे वे इस समुदाय से दूर होते जा रहे हैं।

दोनों आदिवासी समुदायों में शराब एक प्रमुख पेय रहा है, महुआ से शराब बनाकर पीना और तमाम सामाजिक और दैनिक रूप में शराब इन समुदाय में एक तरह से सांस्कृतिक रूप में विद्यमान है, पर इस पर भी अंकुश लग रहे हैं, या कहा जा सकता है अंकुश लगाया जा रहा है, सांस्कृतिक और तथा कथित सामाजिकता की दुहाई गाँव के गाँव को शराब और मांसाहार से दूर कर रही है।

आदिवासी समाज में खान-पान की पूरी शैली प्राकृतिक रूप में बहुत समृद्ध रही है और इसमें प्रकृति का बड़ा योगदान रहा है। जैसे बारिश के समय मिलने वाले पिहरी (मशरूम) और पुटपुरा एक महत्वपूर्ण भाग है क्योंकि इसकी उपलब्धता वर्ष में सिर्फ एक बार होती है, और मशरूम की तो कई प्रकार की प्रजातियाँ हैं जिनका सेवन यह समुदाय करता रहा है। मशरूम जमा करने के लिए जंगलों में जाना इनके लिए एक बड़ा काम रहा है, इसी तरह बाँस की करील भी इन्हें वर्ष में एक बार प्राप्त होती है बारिश के महीने में, इसे लगभग सभी लोग बड़े चाव से खाते रहे हैं पर इसकी उपलब्धता और इस तक पहुँच काफ़ी कम होती जा रही है। सभी तरह से विश्लेषण करें तो यह तो समझ में आता है कि आदिवासी समाज की भोजन की आवश्यकता को इनके आसपास का परिवेश और जंगल पूर्ण करने में सक्षम रहा है, जो इनसे दूर होता जा रहा है।

निष्कर्ष
आज से सिर्फ 30 वर्ष पहले तक इन समुदायों का जंगलों में आना-जाना आसान था और जंगलों के उत्पाद का संकलन और उपयोग पर समुदायों की सीधी पहुँच थी | धीरे-धीरे नए वन और वन्यजीव कानूनों के अस्तित्व में आने पर और कानूनों को लागू करने की वजह से समुदायों की पहुँच कम होती गयी और इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ा है, ना सिर्फ खाद्य बल्कि समुदायों की अन्य ज़रूरतों की पूर्ति पर भी असर पड़ा है जैसे जलाऊ लकड़ी, खेती के उपकरण बनाने के लिए लकड़ी की उपलब्धता, कुआँ आदि बनाने के लिए पत्थर, घर बनाने के लिए लकड़ी और घास आदि | इन वजहों से ख़ासतौर पर बैगा समुदाय की घुमंतू प्रवृत्ति पर भी लगाम लगी और उन्हें अपने लिए स्थाई आवास या बस्तियों के रूप में बसने की ज़रुरत  महसूस हुई, स्थाई रूप से बसने के कारण उनके आस-पास के जंगलों तक उनकी पहुँच भी एक सीमित दायरे में सिमट गयी जो सीधे रूप में इनकी भोजन सामग्री की उपलब्धता पर असर डाल रही है | डिंडोरी जिले के बैगा चक और कवर्धा जिले के तरेगांव क्षेत्र में ही बैगाओं की बस्तियाँ सघन रूप में हैं बाकि जिलों में इनकी बसाहट बिरली है और दूर-दूर है |

लगभग 30 वर्ष पूर्व तक जंगलों तक बेहतर पहुँच के कारण इन समुदायों को विविध वन से प्राप्त होने वाली खाद्य सामग्री सहज और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी आज इसमें व्यापक कमी आयी है, कमी दोनों रूप में है एक तो वनों तक पहुँच का मामला है दूसरा वनों में उपलब्धता का भी प्रश्न है, साथ ही समुदाय में पीढ़ियों के बदलाव के फलस्वरुप पारंपरिक ज्ञान के हस्तांतरण का भी है, बच्चे अपने माता-पिता के साथ जंगलों में जाया करते थे और उनका ज्ञान वर्धन होता था, अब जंगल जाना और मुक्त रूप से जंगलों में विचरण करना संभव नहीं है तो बच्चों और युवाओं को वो जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती जो उन्हें किसी भी वनस्पति के बारे में जानने को मिल जाया करती थी |

इस अध्ययन से यह अनुमान मिलता है कि कान्हा मैकल के गोंड और बैगा समुदायों की भोजन / खाद्य आपूर्ति जो जंगलों से प्राप्त होती थी उस तक पहुँच बड़े पैमाने पर प्रभवित हुई है| जहाँ तक भविष्य की बात है तो बड़ा स्पष्ट है कि पारंपरिक ज्ञान के हस्तांतरण नहीं होने की वजह से उपलब्ध खाद्य सामग्री की जानकारी नहीं है और लगातार कम होती जा रही है, जंगलों तक पहुँच और ज्ञान के हस्तांतरण के साथ साथ समुदायों का बाहरी दुनिया से संपर्क बढ़ा है जिसने समुदायों की खाद्य प्रवृति पर उनकी खान-पान की आदतों में बदलाव किया है इसका कितना असर वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों पर पड़ेगा यह भी एक अलग अध्ययन का विषय है |

 


[1] यह अध्ययन लेखक द्वारा एकत्रित प्राथमिक डेटा और जानकारी पर आधारित है जिसमें जानकारी प्राप्त करने का स्रोत समुदाय ही है| यह लेख अगस्त 2018 से सितम्बर 2018 के दौरान मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के बैहर विकासखंड के लगभग 20 गाँवों, मंडला जिले के मवई विकासखंड के 18 गाँवों, डिंडोरी विकासखंड के समनापुर विकासखंड के 5 गाँवों और कवर्धा विकास खंड व बोडला विकासखंड के 3 गाँवों  में भ्रमण और गोंड तथा बैगा समुदाय से चर्चा, जिसमें व्यक्तिगत और समूह चर्चा शामिल है, के आधार पर लिखा गया है| इन गाँवों के भ्रमण के दौरान लगभग 160 से 180 लोगों से बातचीत की गयी जिसमें बैगा समुदाय के 32 लोग शामिल थे, इस अध्ययन में पुरुषों से चर्चा अधिक हो पाई सिर्फ 19 महिलाओं से बातचीत हो पाई है|