मड़ई: बरकई गांव की

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Published on: 12 July 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

कोंडागांव जिले का बरकई गांव, रायपुर- जगदलपुर राजमार्ग से कुछ हटकर स्थित है। रायपुर से आते हुए कोंडागांव से लगभग २० किलोमीटर पहले फरसगांव आता है।  यहीं से बरकई के लिए रास्ता कटता है जो यहाँ से करीब ६-७ किलोमीटर पड़ता है। बरकई एक छोटा गांव है जिसकी आबादी लगभग साड़े तीन-चार हजार है।  यहाँ गोंड, कलार, लोहार और घड़वा समुदाय के लोगों का बाहुल्य है। एक समय यह गांव घड़वा धातु शिल्प का बड़ा केंद्र था, उनके लगभग बीस परिवार यहाँ रहते हैं पर धातु ढलाई का काम अब केवल तीन परिवार करते हैं। बन्नू राम घड़वा और उनका बेटा जीतेन्द्र घड़वा उन्हीं में से हैं। इस गांव में मार्च  माह २०१८ में जो मड़ई का आयोजन हुआ उसके बारे में अधिकांश जानकारी बन्नूराम घड़वा द्वारा दी गई है।

बस्तर क्षेत्र के निवासियों के लिए मड़ई एक बड़ा ही आनंद दायक और रोमांचक अवसर होता है। गांव के सयाने लोग कहते हैं मड़ई अपने मूलरूप में देवी-देवताओं की भेंट-जोहार और उनके वार्षिक भ्रमण-जात्रा, पूजा और बलि तथा गांव को उनके द्वारा दिए जाने वाले संरक्षण पर केंद्रित था, इसके मध्य लोगों का आपसी मेलजोल और समस्याओं का हल, इलाके की सामाजिक, धार्मिक स्थिति की समीक्षा एवं व्यक्तिगत परेशानियों के निवारण हेतु क्रिया कलाप सहज ही हो जाते थे। धीरे -धीरे इसमें आर्थिक एवं व्यापारिक पक्ष भी जुड़ता गया और वर्तमान मड़ई के स्वरुप में बाजार और मनोरंजन बड़े पैमाने पर भूमिका रखते हैं।

मड़ई का जो सांस्कृतिक और धार्मिक रूप बस्तर क्षेत्र में देखने को मिलता है वह छत्तीसगढ़ के अन्य भागों में नहीं मिलता। रायपुर-बिलासपुर तक आते-आते  इनकी महत्ता और आयोजन की विशालता कम होने लगती है और सरगुजा-रायगढ़ तक पहुंचते-पहुंचते इनका अस्तित्व लगभग समाप्त हो जाता हैं। 

बरकई गांव की मड़ई प्रतिवर्ष मार्च-अप्रेल माह में आयोजित की जाती है, इस साल इसका आयोजन  ६ और ७ अप्रेल को किया गया। तिथि का निर्धारण गांव  के सरपंच, कोटवार, पुजारी और प्रमुख लोग मिलकर करते हैं। बरकई गांव की मड़ई यहाँ के प्रमुख देव भंगाराम के सम्मान में आयोजित की जाती है। गांव में इनका देवस्थान है और इनकी महत्ता बारह गांवों तक है। इसीलिए इन्हे बारह पाली का देव माना जाता है और बरकई की मड़ई बरहपाली की मड़ई कहलाती है। मड़ई में इन सभी बारह गावों के देवी देवता भंगाराम देव से मिलने आते हैं। यदि एक भी देवी-देवता छूट गया तो उस गांव के लोगों पर परेशानी आने का भय रहता है। एक बार मड़ई की तिथि निश्चित होने के बाद बरकई गांव का कोटवार घूम-घूम कर इसका ऐलान करता है। सभी बारह गांवों के लोग तैयारी आरम्भ कर देते हैं।

मड़ई में राँधना गांव से चिंगड़ाइन माता, भीरा गांव से हटवारिन माता, कोटलपारा गांव से कर्राबूँधिन माता, कोसापारा गांव से बूकलइन माता, सोनाबेड़ा गांव से डंगई माता, नालझर गांव और उलेरा गांव से माउली माता तथा भाटगांव से बूढी माता बरकई के भंगाराम देव से मिलने आते  हैं। प्रत्येक गांव से १०-१५ लोग चुने जाते हैं जो उस गांव के देवों को बरकई लाते हैं। वास्तव में देवी-देवताओं को उनकी मूर्तियों के रूप में नहीं बल्कि ध्वजा जिसे डांग या बैरख कहते हैं, के रूप में लाया जाता है। यह एक लम्बा बांस होता है जिसके शीर्ष पर पीतल का कलश लगा होता है एवं पूरे बांस पर कपड़ा चढ़ाया रहता है। लाल एवं सफ़ेद कपड़ा माता को दर्शाता है जबकि काला कपड़ा भंगाराम देव, बड़ा देव और माउली का प्रतिधित्व करता है।

बरकई गांव की मड़ई आज भी अपने पुरातन रूप में आयोजित की जा रही है अभी यहाँ बाजार एवं व्यावसायिक मनोरंजन का उतना दखल नहीं हुआ है। मड़ई वाले दिन सुबह से ही लोग नाहा-धोकर, गांव और अपने-अपने घरों के देवी देवताओं के डांग, डोलियां और आंगा सजाने लगते हैं। सारे गांव और आस-पास के गांवों के चम्पा के फूल इकठ्ठाकर बिक्री हेतु उनकी ढेरियां बनाली जाती हैं। लोग स्वयं ही देवताओं और सिरहा लोगों को पहनाने के लिए इन्हे धागे में पिरोकर मालाएं बना लेते हैं। दोपहर तक अन्य गावों से वहां के देवी-देवताओं के डांग और आंगा आने शुरू होजाते हैं। बरकई के लोग उनका स्वागत करते हैं और सब एक स्थान पर इकठ्ठा हो जाते हैं। इस समय तक देव और उनके प्रतिनिधियों का मिलन आरम्भ हो जाता है फूल मालाओं का आदान-प्रदान और अर्पण इतना व्यापक रूप से होता है की समूचा गांव चम्पा फूलों की पखुड़ियों और खुशबू से सराबोर हो जाता है। हर ओर सिरहा ही सिरहा नाचते-झूमते नजर आते हैं जिन पर कोई न कोई देवी-देवता आया होता है। अब गांव की परिक्रमा आरम्भ होती है, सिरहों का शृंगार और उनकी गतिविधियां देखते बनती हैं। समूचा माहौल जैसे एक मिथकीय अनभूति से भर उठता है।

मड़ई में आने वाले देवी देवताओं की संख्या निश्चित और पूर्व स्वीकृत होती है, किसी नए देव को घुसने की अनुमति नहीं होती। परन्तु कभी-कभी कोई नया देवी-देवता इस मड़ई में प्रवेश करने का प्रयास करता है तो उसे पकड़ लिया जाता है। यह नया देव किसी व्यक्ति पर आकर प्रवेश का प्रयास करता है, क्योंकि वह व्यक्ति नया सिरहा बनता है इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया जाता। देव के आग्रह करने पर  गांव के प्रमुख लोग उसपर बकरे की बलि देकर गांववालों  को सामूहिक भोज करने का दंड लगते हैं। ऐसा करने पर नए सिरहा और देव को मड़ई में शामिल करलिया जाता है।

स्थानीय और विभिन्न गाँवो से आए लोग सभी देवी-देवताओं का यथा सम्मान पूजन, बलिदान कर मड़ई की प्रथाएं पूर्ण कर समूचे अनुष्ठान को संपन्न करते हैं। रात को युवक युवतियां मिलकर ओढ़या नृत्य गान करते हैं। अगली सुबह विभिन्न गावों से आए देवी-देवता मड़ई की परिक्रमा कर वापस जाते हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.