बस्तर के राजवंश की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी के सम्मान में प्रति वर्ष होली के उपरांत फ़ाग मड़ई का आयोजन दंतेवाड़ा में किया जाता है। बस्तर दशहरा के सामान यह आयोजन भी राजपरिवार एवं जनसामान्य के सामंजस्य से संपन्न होता है। फाग मड़ई, फागुन शुक्ल की सष्ठी से ले कर चौदस तक आयोजित की जाती है। यह उत्सव बस्तर के राजवंश एवं यहाँ के आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों की साझा विरासत की दर्शाता बस्तर की संस्कृति, आदिवासी तथा गैर आदिवासी विश्वासों एवं मान्यताओं सम्मिश्रण है। अतः यहाँ के सार्वजानिक उत्सवों में यहाँ के जान सामान्य ही नहीं राजवंश, आदिवासी एवं गैर आदिवासी समुदायों के देवी देवताओं की सहभागिता सामान्य है।
अनुष्ठान एवं उनके क्रम
बसंत पंचमी के दिन, दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार के सम्मुख अष्टधातु से निर्मित, एक त्रिशूल स्तम्भ की स्थापना की जाती है। इसी दोपहर को आमा मऊड रस्म का निर्वाह किया जाता है जिसके दौरान दंतेश्वरी का छत्र नगर दर्शन के लिये निकाला जाता है तथा बस स्टेंड के निकट स्थित चौक में देवी को आम के बौर अर्पित किये जाते हैं। इसके पश्चात मड़ई के कार्यक्रमों का आरम्भ मेंडका डोबरा मैदान में स्थित देवकोठी से होता है जहाँ प्रात: देवी का छत्र लाया जाता है और छत्र को सलामी दी जाती है। मंदिर के पुजारी दीप प्रज्जवल करते हैं एवं कलश की स्थापना की जाती है।
Trident on pillar believed to have been installed by the Kakatiya rulers/ काकतिय राजाओं द्वारा स्थापित त्रिशूल स्तंभ. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Danteshwari in procession with her Chhattra/ जुलूस में दंतेश्वरी का छत्र. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Salute to Danteshwari /दंतेश्वरी को सलामी. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Procession of Danteshwari and other village deities /दंतेश्वरी और अन्य ग्राम देवताओं का जुलूस. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Danteshwari doli /दंतेश्वरी की डोली. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Devotee worshipping the chhatra emblem of Danteshwari /दंतेश्वरी को श्रद्धांजलि देते भक्त. Photo credit: Anzaar Nabi.
पटेल द्वारा पुजारी के सिर में भंडारीन फूल से फूलपागा (पगड़ी) बांधा जाता है। आमंत्रित देवी-देवताओं और उनके प्रतीकों, देवध्वजों एवम छत्र के साथ दंतेश्वरी की पालकी परिभ्रमण के लिये निकाली जाती है। देवी की पालकी नारायण मंदिर लाई जाती है जहाँ पूजा-अर्चना तथा विश्राम के पश्चात सभी वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुँचते हैं। इसी रात लगभग आठ बजे ताड-फलंगा धोनी की रस्म अदा की जाती है। इस रस्म के अंतर्गत ताड के पत्तों को दंतेश्वरी तालाब के जल से धो कर उन्हें मंदिर में रखा जाता है, इन पत्तों का प्रयोग होलिका दहन के लिये होता है।
आखेट ( शिकार ) नृत्य की परम्परा
राजपरिवार के उत्तराधिकारी को दंतेश्वरी देवी का प्रथम पुजारी माने जाने की लम्बी प्रथा है। प्राय: प्रधान पुजारी ही पालकी के साथ नगर परिभ्रमण में सम्मिलित होते हैं किंतु कभी-कभी राजा भी इसका हिस्सा बनते हैं। नगर के जयस्तम्भ के पास सेवादारों द्वारा राजा का इस तरह विधिवत स्वागत किया जाता है कि देखने वालों को राजतंत्र पुनर्जीवित दिखाई पड़ता है। यहाँ से राजा अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी के दर्शन के लिये पहुँचते हैं तथा फागुन मड़ई के अन्य रस्मों में अपनी सहभागिता करते हैं। फागुन मडई अपने आगाज के पश्चात आयोजन की विविध श्रंखला से गुजरती है जिसमें पर्व के दूसरे दिन खोर खुंदनी रस्म होती है, जिसके दौरान पुन: दंतेश्वरी की डोली निकाली जाती है। पर्व के तीसरे दिन नाच मांडनी का आयोजन होता है जिसमें मांदर-नगाड़े की थाप पर सेवादार दंतेश्वरी के सम्मुख नृत्य का प्रदर्शन करते हैं।
Aakhet (hunt) theater performance of the Madia Adivasis /आखेट ( शिकार ) नृत्य. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Akhet (hunt) performance /आखेट ( शिकार ) नृत्य. Photo Credit: Anzaar Nabi.
Dance performed in front of Danteshwari/दंतेश्वरी के सामने नृत्य का प्रदर्शन. Photo Credit: Anzaar Nabi.
इसके पश्चात अगले चार दिवस तक आखेट नृत्यों की परम्पराओं का निर्वहन होता है जिसके तहत लम्हामार, कोडरीमार, चीतलमार एवं गंवरमार का प्रदर्शन किया जाता है जो कि क्रमश: खरगोश, कोतरी, चीतल तथा गौर के शिकार पर आधारित आखेट नृत्य हैं। इन नृत्यों में जानवरों का स्वांग रचा जाता है जिसके लिये तूम्बे से बने मुखौटों का प्रयोग किया जाता है। फागुन मंडई में निभाये जाने वाले आखेट नृत्यों में सर्वाधिक लोकप्रिय गंवरमार को कहा जा सकता है जिसे देखने के लिये भारी अंख्या में दर्शनार्थी जमा होते हैं। गंवरमार नृत्य में गंवर (वन भैंसा) का प्रतीकात्मक शिकार किया जाता है। परम्परानुसार इसमे एक पात्र गंवर का स्वांग रचता है व उसका अभियन करते हुए वह शिकार के वातावरण को निर्मित कर देता है। अब इस गंवर को हाका लगाकर घेरा जाता है। स्वांग के अनुसार शिकार होने से बचने के लिये गंवर छिप जाता है। किसी सयान के इशारे पर जिसपर देवी की कृपा हो गंवर को तलाश लिया जाता है तथा इसके साथ ही मंदिर के पुजारी द्वारा फायर कर गंवर का प्रतीकात्मक शिकार किया जाता है। आखेट जनजातीय समाज का अभिन्न हिस्सा है तथा नृत्य परम्पराओं में इसका प्रदर्शन फागुन मडई के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। पूरी पूरी रात चलने वाले इन आखेट नृत्यों को बहुतायत संख्या में लोग देखने पहुँचते हैं।
आंवरामार
गंवरमार प्रथा के दूसरे दिन अर्थात त्रयोदशी को उत्सव पूर्वक मड़ई आयोजित की जाती है। इस दौरान मांईजी के छत्र के साथ दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी को पालकी में बिठाकर नगर का भ्रमण कराया जाता है। इस परिभ्रमण में छत्र, सैकड़ों देवी-देवताओं के देवलाट आदि के साथ साथ बहुत बडी संख्या में ग्रामीण भी सम्मिलित होते हैं। अगले आयोजन के रूप में आंवरामार का आयोजन उल्लेखनीय है। इस दिन प्रथमत: दंतेश्वरी की पालकी में आंवला फल अर्पित किया जाता है जिसके पश्चात पुजारी, सेवादार, बारह-लंकवार व जनसामान्य दो समूहों में बंटकर एक दूसरे पर इसी आंवले से प्रहार करते हैं।
The ritual of aawaramar/आंवरामार की रस्म. Photo Credit: Anzaar Nabi.
यह जन-मान्यता है कि आंवरामार विधान के दौरान प्रसाद स्वरूप चढ़े इस फल की मार यदि शरीर पर पड़ती है तो व्यक्ति वर्ष भर निरोगी रहता है। इस आयोजन के दूसरे दिन सुरक्षित रखे गये ताड़ के पत्तों से होलिका दहन किया जाता है। दंतेवाड़ा के होलिकादहन की भी असामान्य कहानी है जो होलिका से न जुड कर उस राजकुमारी की स्मृतियों से जुडती है जिसका नाम अज्ञात है, लेकिन कहा जाता है कि किसी आक्रमणकारी से स्वयं को बचाने के लिये उन्होंने आग में कूद कर अपनी जान दे दी थी। दंतेवाड़ा के ख्यात शनिमंदिर के निकट ही सति शिला स्थापित है जिसे इस राजकुमारी के निधन का स्मृतिचिन्ह मान कर आदर दिया जाता है। इसके सम्मुख ही परम्परागत ताड के पत्तों से होलिका दहन होता है एवं उस आक्रमणकारी को गाली दी जाती है जिसके कारण राजकुमारी ने आत्मदाह किया था।
होलिका दहन
होली के पर्व पर ग्रामीण राजकुमारी की याद में जलाई गई होलिका की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से रंगोत्सव मनाते हैं। एक व्यक्ति को फूलों से सजा कर होलीभांठा पहुंचाया जाता है जिसे लोग लाला कहते हैं। अब माईजी के आमंत्रित देवी-देवताओं के साथ होली खेलने का समय है। पुजारी सहित सभी सेवादार देवी-देवताओं के साथ सति-शिला स्थल से होलिका दहन की राख लेकर मेंढका डोबरा मैदान स्थित मावली गुड़ी पहुँचते हैं। यहाँ रंगभंग रस्म का निर्वहन होता है जिसके बाद शंकनी-डंकनी नदी के संगम पर पादुका पूजन किया जाता है। इसी दौरान उपस्थित समुदाय पर अभिमंत्रित जल से छिडकाव कर उनका शुद्धिकरण इस मान्यता के साथ किया जाता है कि मेले में आयोजन के दौरान जाने अनजाने में हुए अपकारों के दुष्प्रभावों से शरीर मुक्त हो सके। पर्व के अंतिम चरण में आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई के साथ ही दक्षिण बस्तर का प्रसिद्ध फागुन मंडई महोत्सव संपन्न होता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.