माड़िया मृतक खाम्ब/ Memorial Pillars of the Madias

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मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर। भारत भवन, भोपाल तथा शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली में ३० वर्ष का कार्यानुभव।
आदिवासी लोक कला एवं हस्तशिल्प पर शोधकार्य और लेखन।

भारत के अनेक आदिवासी समुदायों में मृतक संस्कार बहुत ही विस्तृत और महत्वपूर्ण होते हैं। वे अपने मृतक पूर्वजों को सम्मानित करने एवं उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए उनके मृतक स्मृति स्तम्भ बनवाते हैं। यह मृतक स्तम्भ केवल सांसारिक स्मृति के लिए ही नहीं होते, बल्कि वे मृतक के परालौकिक जीवन में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह परंपरा मध्य प्रदेश के भील, भिलाला, एवं बस्तर के माड़िया आदिवासियों में प्रचलित है। सदियों पुरानी इस परंपरा में समय के साथ अनेक परिवर्तन भी हुए हैं, लेकिन यह अपना अस्तित्व बनाए रखने में अब तक सफल रही है। डॉ. वेरियर एल्विन तथा अन्य विद्वानों ने बस्तर के दण्डामि माड़ियाओं में इस प्रथा का उल्लेख किया है। 20वीं सदी के आरंभ तक अधिकांशतः ये लोग एक शिलाखण्ड को मृतक की स्मृति-स्वरूप स्थापित करते थे।

Image: जगदलपुर–दंतेवाड़ा मार्ग पर स्थित यह तीन माड़िया मृतक स्तम्भ हैं। जिनमें बायीं एवं दायीं ओर वाले स्तम्भ, प्राकृतिक शिलाखंड को खड़ा कर स्थापित किये गए हैं और प्राचीन हैं। ये  माड़िया मृतक स्तम्भों के आदिम रूप हैं। (फोटो:१९८९)

कुछ लोग लकड़ी के खाम्ब पर बुनियादी प्रतीक चिह्नों को उकेर कर मृतक स्तम्भ स्थापित करते थे। 20वीं सदी के मध्य तक आते-आते अनगढ़ शिलाखण्ड का मृतक स्मृति स्वरूप प्रयोग लगभग खत्म सा हो गया और लकड़ी के स्तम्भ पूरी तरह चलन में आ गए। लकड़ी पर उत्कीर्ण कर बनाए गए पुराने माड़िया स्तम्भ जगदलपुर के जनजातीय संग्रहालय एवं भोपाल स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में देखे जा सकते हैं।

 

Image: लकड़ी को उत्कीर्ण कर बनाया गया यह माड़िया मृतक स्तम्भ काफी पुराना है। इसमें मृतक को हाथी बैठा और एक हाथ में टंगिया तथा दुसरे हाथ में छतरी पकडे दर्शाया गया है।यह स्मृति स्तम्भ माड़िया परम्परा के उस दौर को दर्शाता है जब उन्होंने अनघढ़ शिलाखंड के स्थान पर नक्काशीदार काष्ठ स्तम्भ बनवाने आरम्भ कर दिए थे।  डॉ.वैरियर एल्विन ने इस स्तम्भ का चित्र अपनी पुस्तक ट्राइबल आर्ट ऑफ़ मिडिल इंडिया  में प्रस्तुत किया है। (फोटो:१९८९)  

     

 

Image: इस माड़िया मृतक स्तम्भ में मृतक को हाथी बैठा और एक हाथ में टंगिया तथा दुसरे हाथ में छतरी पकडे दर्शाया गया है। छत्र , वाहन और शस्त्र , सत्ता तथा वैभव के प्रतीक माने जाते हैं। प्रत्येक माड़िया अपने पूर्वज को संपन्न और प्रतिष्ठित दर्शाना चाहता है। (फोटो:१९८९) 


   

Image: इस माड़िया मृतक स्तम्भ में मृतक को घोड़े पर सवार और एक हाथ में तलवार पकड़े दर्शाया गया है। मृतक के ऊपर चंद्र -सूर्य उकेरे गए हैं  जो बस्तर राजदरबार का प्रतीक चिन्ह है। बस्तर के राजा सूर्यवंशी राजपूत थे और उनकी रानी चंद्रवंशी थीं अतः सूर्य और चंद्र उनके संयुक्त प्रतिक हैं। यह चन्द्रवंश की कुलदेवी मानिकेश्वरी और सूर्यवंश की कुलदेवी दंतेश्वरी के भी संयुक्त प्रतीक हैं। बस्तर क्षेत्र में समस्त अनुष्ठानिक उपयोग की वस्तुओं पर यह प्रतीक चिन्ह अवश्य बनाया जाता है। (फोटो: १९८९)  

 

Image: यह स्तम्भ इस परम्परा के सन १९८० के बाद वाले दौर को दर्शाता है जब यह स्तम्भ लकड़ी और पत्थर के मिश्रित उपयोग से बनाये जा रहे थे। सन १९८९ में बनाया गया यह स्तम्भ श्रीमती पायको बसे नामक माड़िया स्त्री का है। स्तम्भ का निचला भाग पत्थर का और ऊपरा भाग लकड़ी का बना है। लकड़ी वाले भाग की नक्काशी कर उस पर रंगांकन किया गया है जबकि पत्थर वाले भाग पर रंगो से चित्रांकन किया गया है। यह एक विलक्षण और दुर्लभ स्तम्भ है जिसमें मृतक स्त्री को  शीर्ष भाग में खड़ा दर्शाया गया है। ठीक उसके नीचे पत्थर वाले भाग पर हाथी चित्रित किया गया है, यह प्रतीत होता है जैसे मृतक हाथी पर खड़ी है। शीर्ष पर छत्र और उस पर चिड़िया बनायीं गयी है। (फोटो: १९८९) 

             

 

Image: स्तम्भ मगन वेवर नमक माड़िया का है जिसे सन १९९० में बनाया गया है।  इसका  निचला भाग पत्थर का और ऊपरा भाग लकड़ी का बना है। लकड़ी वाले भाग को तराशकर चारों दिशाओं में चार बैल के चेहरे, उनके ऊपर तीन कलश बनाये गए हैं।  इनके ऊपर लोहे का त्रशूल लगाया गया है। (फोटो: २००२ ) 

वर्ष 1980 के आते-आते वन विभाग की नई नीतियों के कारण लकड़ी की सुगम उपलब्धता में आदिवासियों को कठिनाई होने लगी। इसका प्रभाव दण्डामि माड़ियाओं की इस प्राचीन परंपरा पर भी पड़ा। वे लकड़ी के स्थान पर मृतक का स्तंभ बनाने के लिए कुछ अन्य माध्यम खोजने पर मजबूर हो गए। कुछ कल्पनाशील शिल्पियों ने लकड़ी और पत्थर के मिश्रित प्रयोग से मृतक स्तंभ बनाने शुरू कर दिए। इस समय तक ये मृतक स्तंभ तैल रंग से भी रंगे जाने लगे थे। वर्ष 2000 तक आते-आते एक बार फिर माड़िया स्मृति स्तम्भों के स्वरूप में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला। इस समय तक मृतक स्तम्भ बनाने के लिए लकड़ी का प्रयोग अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच चुका था और लकड़ी के स्थान पर प्रस्तर शिला का उपयोग होने लगा। क्योंकि पत्थर के पाट पर आकृतियां उत्कीर्ण करना एक कठिन और श्रम-साध्य काम था, अतः स्तम्भ पर आकृतियां उत्कीर्ण करने की बजाय उन्हें तेलरंग से चित्रित किया जाने लगा।

Image: सन १९९१ में बनाये गए इस स्तम्भ का निचला भाग पत्थर का और ऊपरा भाग लकड़ी का बना है। लकड़ी वाले भाग की नक्काशी कर उस पर दौनों ओर पशु चहरे बनाये गए हैं और शीर्ष पर लोहे के त्रिशूल तथा चिड़िया लगाए गए हैं। पत्थर वाले भाग पर लाल, पीले एवं काले रंगो से चित्रांकन किया गया है।चित्रांकन में अधिकांशतः वही अभिप्राय अंकित किये गए हैं जो पहले लकड़ी के खम्बों पर उकेरे जाते थे, जैसे कांवड़ पर लांदा ले जाते युवक, हल बैल ले जाता किसान, विभिन्न पशु, नृत्य करतीं स्त्रियाँ आदि।  (फोटो: २००२ )

           

Image: जगदलपुर–दंतेवाड़ा मार्ग पर स्थित, सीमेंट कंक्रीट से बने यह मृतक स्तम्भ किन्ही माड़िया कॉमरेड के हैं। इनमें स्तम्भ के शीर्ष पर त्रिशूल स्थान पर कम्युनिस्ट पार्टी का चिन्ह हंसिया-हथौड़ा लगाया गया है। (फोटो: १९८९)

वर्तमान में पत्थर के पाट पर तेल रंग से चित्रित मृतक स्तम्भ एवं ईंट और सिमेंट के गारे से बनाए गए मट्ठ अधिक प्रचलन में हैं। मृतक स्मृति रचना को बीत, उरूसकाल, खम्ब और मट्ठ के नाम से जाना जाता है। बीत छोटे-छोटे पत्थरों का वर्गाकार ढेर होता है। मृत व्यक्ति की याद में इसे परिवार के लोगों द्वारा बनाया जाता है। उरूसकाल एक फीट से लेकर पन्द्रह-बीस फीट और कभी-कभी इससे भी लम्बा शिलाखण्ड होता है। इसे भी मृतक की स्मृति में जमीन में गाड़ कर खड़ा किया जाता है। यह मृतक की गौरव गाथा और उसके सम्मान का यह प्रतीक हेता है। इसके अतिरिक्त मृतक की याद में जब ईंट और सिमेंट के गारे से मंदिर-नुमा आकृति बनाई जाती है, तो उसे मट्ठ कहा जाता है।  

         

     

Image: सीमेंट कंक्रीट से बने यह मृतक स्मृति स्थान मट्ठ कहलाते हैं। इनमें एक चबूतरे पर छोटी मंदिरनुमा आकृति बनाई जाती है। कभी-कभी इसे मोटर कार, हवाईजहाज अथवा कोई अन्य रूप दे दिया जाता है। कभी इस पर मृतक की मानवाकृति भी बना दी जाती है। मट्ठ पर चमकीले रंगों से चित्रकारी भी की जाती है।  (फोटो: २००२)

दण्डामि माड़िया मृत्यु को सबसे बड़ी घटना मानते है। इसके प्रति काफी भावुक, संवेदनशील और सतर्क होते हैं। बदलते हुए परिवेश में माड़िया आदिवासियों की जीवनशैली में अनेक बदलाव हुए हैं, लेकिन उनके मृतक संस्कार अब भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। दण्डामि माड़िया समाज में सभी आयु वर्ग के मृतक संस्कार समान रूप से किए जाते हैं। सभी आयु वर्ग के शव लकड़ी की चिता पर जलाए जाते हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में शव को जलाया नहीं, बल्कि दफनाया जाता है। सर्प दंश, बीमारी से या जानवर द्वारा खाए जाने वाले व्यक्ति या कम उम्र के बच्चे को दफना दिया जाता है। इसके अलावा गर्भवती स्त्री और गुनिया को भी दफनाया जाता है।

Image: सन १९९१ में बना यह मृतक स्तम्भ प्रस्तर शिला से एवं इसका शीर्ष लकड़ी को उत्कीर्ण कर बनाया गया है। स्तम्भ को पांच खण्डों में विभक्त कर, प्रत्येक खंड में पर तैल रंगों से चित्रकारी की गयी है। यहाँ स्तंभ के सबसे निचले खंड में मृतक स्त्री को हाथी पर बैठा दर्शाया गया है। (फोटो: २००२)

          

 Image: यह चित्र ऊपर दर्शाये गए मृतक स्तम्भ का दूसरा पक्ष है। इसमें चित्रित किये गए नाव , मोटर कार एवं सायकल के चित्र माड़िया संस्कृति पर समकालीन सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव को दर्शाते हैं। (फोटो: २००२)

यदि मृतक अत्यंत वृद्ध, सम्मानित अथवा धनी होता है, तो उसकी स्थिति के अनुसार स्मृति स्तम्भ स्थापित किए जाते हैं। मृत व्यक्ति की स्मृति को चिरकाल तक जीवित रखने के लिए इनके निर्माण किए जाते हैं। सबसे पहले यह निर्णय किया जाता है कि मृतक स्तम्भ किस रूप में बनवाना है। कभी-कभी तो स्वयं मृतक अपने स्मृति स्तंभ के रूप का चुनाव करता है। वह मृत्यु के पूर्व परिवार वालों को अपनी इच्छा से अवगत करा देता है कि उसकी मृत्यु के उपरांत किस ढंग से स्मृति स्तम्भ का निर्माण करवाना चाहिए। मृतक स्तम्भ बनवाना अत्यंत आवश्यक प्रथा नहीं है, बल्कि यह परिवार की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। यदि माड़िया परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है तो वह मृतक स्तम्भ का निर्माण नहीं करवाता।

मृतक की स्मृति के रूप में बीत, उरूसकाल, खाम्ब, मट्ठ अक्सर गांव की मुख्य सड़क, मुख्य रास्ता, या ऐसी जगह पर बनाया जाता है, जहां से आवागमन अधिक होता है। मृतक स्तम्भ के लिए गांव से सहयोग लेने के बदले  में गांव को एक बार शराब, मांस और भोज दिया जाता है।

          

Image: लकड़ी को उत्कीर्ण कर बनाया गया यह माड़िया मृतक स्तम्भ इस परंपरा का एक आदर्श उदाहरण है। स्तम्भ को छः खण्डों में बाँटा गया है शीर्ष पर दो कलश बनाये गए हैं। ऊपरी कांड में मृतक को हाथी पर सवार दर्शाया गया है। उसके नीचे दो गौरसींग माड़िया नर्तक बने हैं, उसके नीचे माड़िया युगल, उसके नीचे कांवड़ पर लांदा लेजाते युवक, उसके नीचे कार्यरत स्त्री तथा सबसे नीचे मीन युगल दर्शाये गए हैं। (फोटो: १९८९)    

माड़िया मृतक स्तम्भ और मट्ठ, माड़िया कला के श्रेष्ठ रूप एवं कलागत गरिमा से परिपूर्ण होते हैं। इन पर विभिन्न प्रकार के रूपाकारों, आकृतियों और रंगों का कुशल संयोजन होता है। स्तम्भ लकड़ी, पत्थर और सिमेन्ट से तैयार किया जाता है । सामान्यतः जमीन से ऊपर इनकी लम्बाई पांच से नौ फीट की होती है। कुछ असाधारण स्तम्भ दस-पन्द्रह फीट तक लम्बे होते हैं। पत्थर के खाम्ब अक्सर आयातकार होते हैं। गोल खाम्ब बहुत कम देखने को मिलते हैं। इनका शीर्ष भाग नुकीला रखा जाता है। इस शीर्ष भाग पर चिड़िया या आदमी की आकृति उकेरी जाती है। जब पत्थर कम मोटाई का होता है, तो इस पर आकृतियां उकेरी नहीं जाती, बल्कि विभिन्न रंगों के माध्यम से बनाई जाती हैं। पत्थर पर आकृतियों के उकेरने की प्रक्रिया काफी जटिल और श्रम-साध्य है। इस कारण पत्थरों पर आकृतियों को उकेरने की बजाय बाद मे उस पर रंगों से काम शुरू किया गया। पत्थर के खाम्ब जिन पर आकृतियां उकेरी गई हों, अधिक मात्रा में नहीं मिलते हैं।

Image: सीमेंट कंक्रीट से बने इस मृतक स्तम्भ में शीर्ष पर बनाये गए कलश को मृतक के चेहरे का रूप दिया गया है। स्तम्भ के शीर्ष पर त्रिशूल के साथ मयूर पंख भी लगाए गए हैं। (फोटो: २००२)

लकड़ी से निर्मित मृतक स्तम्भ बस्तर के पारम्परिक काष्ठ शिल्प एवं माड़िया कला चेतना के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। लकड़ी पर अत्यंत सुन्दर एवं संतुलित कला-कर्म देखने को मिलता है। खाम्ब के रूप में लकड़ी का प्रयोग सबसे अधिक किया गया है। खास तौर से साल या सागौन की लकड़ी प्रयोग की जाती है। इस काम में अक्सर एक पेड़ के पूरे तने का इस्तेमाल किया जाता है। उसे चारों तरफ से समतल कर दिया जाता है। चारों तरफ मृतक के प्रिय अस्त्र-शस्त्र, हल-बैल, पशु-पक्षी और कीट-पतंगों को उकेरा जाता है। गौर नृत्य की वेश-भूषा में नर्तक और नर्तकी अक्सर देखने को मिलते हैं।

स्तम्भों के शीर्ष पर विभिन्न मुद्राओं मे और विभिन्न दिशाओं की ओर उड़ते हुए या बैठे हुए पक्षियों को बनाया जाता है। कभी-कभी पक्षी आकृतियां लकड़ी के स्थान पर लोहे की चादर को काटकर बनायी जाती हैं, जिन्हें स्तम्भों पर ठोंक दिया जाता है। शीर्ष पर एक लोहे का त्रिशूल भी लगाया जाता है।

           

 Image: यह सभी मृतक स्तम्भ प्रस्तर शिला से बनाये गए हैं, इसका  शीर्ष  लकड़ी को उत्कीर्ण कर बनाया गया है। जिसपर लोहे के त्रिशूल एवं लकड़ी को तराशकर बनाई गयी चिड़ियाँ लगायी गयी हैं।  

दण्डामि माड़िया विश्वास के अनुसार स्तम्भ मानव काया का घोंसला है और स्तम्भ के ऊपर बैठी चिड़िया मानव का जीव रूप है। त्रिशुल महादेव का प्रतीक है, जिसे स्तम्भ के शीर्ष पर लगाने से उनका आशीर्वाद मृतक व्यक्ति पर सदैव बना रहता है। आदिवासियों का विश्वास है कि यदि स्मृति स्तम्भ को दीमक चाट ले तो समझना चाहिए कि मृतक की आत्मा को मोक्ष हो गया। यदि पूरी तरह नष्ट हो जाए तो मृतक की आत्मा स्वर्ग चली गई है। जिस बीत, स्तम्भ या मट्ठ पर लाल, हरा-नीला या अन्य कोई कपड़ा लपेटा जाता है, वह गायता का स्मृति स्तंभ होता है। आदिवासी पुजारी गायता बस्तर के आदिवासियों का सम्मानित व्यक्ति है।

Image: इस मृतक स्तम्भ पर लगे लाल कपड़े एवं लाल झंडे को देखकर हम कह सकते हैं की यह किसी गुनिया का है।  यह सन १९९२ में बनाया गया है। (फोटो: २००२) 

समय के परिवर्तन के साथ अब काष्ठ स्तम्भों की जगह सिमेंट के बने स्तम्भ और मट्ठ अधिक प्रचलन में हैं। मट्ठ के शीर्ष पर एक कलश रखा जाता है, जिसमें मृतक की आत्मा का निवास माना जाता है। सिमेन्ट के स्तम्भ के उपरी सिरे को भैंस के सींग और कांच की आंखों से सजाया भी जाता है। इसके शीर्ष पर विभिन्न प्रकार की पक्षियों की आकृतियां बनाई जाती हैं। कहीं-कहीं पर जहाज की आकृतियां भी बनाई जाती हैं। स्मृति स्तम्भों पर उत्कीर्ण किए जाने वाले विषयों में एकरूपता के साथ निजी व क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण विभिन्न आकृतियों की बनावट में अन्तर दिखाई देता है।

Image: पूर्णतः सीमेंट कंक्रीट से बना यह  मृतक स्तम्भ सन १९७५ में बनाया गया है।  शीर्ष पर दो  कलश बनाए गए हैं तथा त्रिशूल  लगाया गया है ।  (फोटो: २००२)

स्तम्भों पर आम तौर पर सबसे ऊपर के कोष्ठ में मृतक को किसी सवारी पर छत्र और शस्त्र सहित दर्शाया जाता है। अन्य आकृतियां जो बनाई जाती हैं वे हैं, भैंसा, सांप, कछुआ, शेर, कुत्ता, सल्फी का वृक्ष, विभिन्न प्रकार के पक्षी, हल-बैल, मोटरकार, ट्रक, हवाई जहाज, हिरण, तीर-धनुष और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का रुपांकन होता है। गौर, बाघ, घोड़ा, मोर, कबूतर, तोता, सांप, कछुआ, शेर, कुत्ता, हिरण, सूअर, मछली, तीर-धनुष से सज्जित युवक, शिकार-दृश्य, चावल से बना नशीला पेय, हाट जाती स्त्रियां, सामूहिक मद्यपान जैसे दृश्यों का रूपांकन आदिवासी कलाभिव्यक्ति के अंग हैं। स्मृति चिहृों में अंकित आकृतियां प्रतीकात्मक होती हैं।

दण्डामि माड़िया मृतक स्तम्भों पर प्रयुक्त किए जाने वाले अधिकांश रंग चटक गहरे होते हैं। इसमें काला, लाल, पीला और नीला या हरा रंग विशेष रूप से सभी स्तम्भों पर देखने को मिलता है। सफेद रंग का इस्तेमाल बहुत कम जगहों पर देखने को मिलता है। मृतक स्तम्भ बनाने का कार्य दण्डामि माड़िया स्वयं बहुत कम करते हैं।

Image: कार्यरत लोहार काष्ठशिल्पी 

यह कार्य लोहार, बढ़ई या अन्य किसी कुशल कारीगर जो मकान आदि बनाने का कार्य करते हैं, उनसे करवाते हैं। इसके बदले में कारीगर को काम करते समय तक भोजन, पानी और आवास की व्यवस्था करते हैं और अंत में चार-पांच सौ रुपए, कपड़ा, बर्तन और गाय-भैस आदि उपहार-स्वरूप दिया जाता है।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.