बस्तर के अनुष्ठानिक खाम्ब /Ritual posts of Bastar

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Published on: 16 July 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर। भारत भवन, भोपाल तथा शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली में ३० वर्ष का कार्यानुभव। आदिवासी लोक कला एवं हस्तशिल्प पर शोधकार्य और लेखन।

खाम्ब लकड़ी से बना एक मोटा एवं लम्बा खूंटा है। सामान्यतः आदिवासियों में और एक हद तक गैर-आदिवासियों में भी विभिन्न अवसरों पर खाम्ब स्थापित करने की प्रथा है। यह खाम्ब किसी वृक्ष के तने या शाख का अनगढ़ खूंटा हो सकता है अथवा सुव्यवस्थित नक्काशीदार हो सकता है ।

बस्तर के आदिवासियों में विभिन्न आयोजनों एवं अनुष्ठानों हेतु भिन्न-भिन्न प्रकार के खाम्ब स्थापित करने की परम्परा रही है। इनमें कुछ खाम्ब देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। भीमा देव के लिए उनके देवस्थान पर स्थापित किया जाने वाला खाम्ब इसी श्रेणी में आता है। विवाह खाम्ब, बलिदान खाम्ब और माड़िया मृतक खाम्ब महत्वपूर्ण अनुष्ठानों की पूर्ति हेतु बनाए जाने वाले खाम्ब हैं, जबकि घोटुल खाम्ब एवं बैरख खाम्ब सजावट एवं उपयोग की दृष्टि से बनाया जाता है।

अध्ययन की सुगमता के लिए खाम्ब को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है।

1. देवी-देवताओं के प्रतिनिधि स्वरूप

2. अनुष्ठान हेतु

3. सजावटी एवं उपयोगी

 

देवी-देवताओं के प्रतिनिधि-स्वरूप खाम्ब

भीमादेवः बस्तर के आदिवासियों का विश्वास है कि भीमादेव वर्षा के देवता हैं, जो अच्छी वर्षा कराते हैं। इससे अच्छी फसल होती है। भीमादेव बीमारी से ग्राम की रक्षा करते हैं। भीमादेव का निर्माण पति-पत्नी युग्म के रूप में दो काष्ठ स्तम्भों से किया जाता है। स्तम्भ का ऊपरी भाग गर्दन की तरह उकेरा जाता है। भीमादेव के स्तम्भ को ग्राम सीमा पर स्थापित किया जाता है। गांव के लोग प्रतिवर्ष भीमाजात्रा का आयोजन भादों  महीने के शुक्रवार को करते हैं। वर्षा होने की स्थिति में नारियल, धूपबत्ती से उनकी पूजी की जाती है। अगर बारिश नहीं होती है तो फिर पूरा गांव मिलकर बड़े पैमाने पर भीमाजात्रा का आयोजन करता है। गोंड आदिवासी युवक-युवतियां इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। भीमादेव का सिरहा बुलाया जाता है।

              

जनश्रुति है कि भीमा नाम का एक राजा था। एक समय उसके राज्य में लगातार चार वर्षो तक वर्षा न होने के कारण अकाल पड़ गया। प्रजा द्वारा गुहार करने पर भीमा ने इन्द्र देव से वर्षा करने के लिए प्रार्थना की। इन्द्र देव ने भीमा से कहा कि पहले खेत में धान बो दो, उसके बाद वर्षा होगी। भीम ने इन्द्र देव की आज्ञा का पालन किया। भीमा के हल चलाने, धान बोने के कारण अच्छी बारिश हुई और प्रजा सुख से रहने लगी। तभी से आदिवासी अच्छी वर्षा और अच्छी फसल होने की कामना से भीमादेव की पूजा आराधना करते हैं। भीमादेव से संबंधित यह विश्वास ओडिशा और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है। बस्तर में कहीं-कहीं इन्हें भीमा, भिमानी युगल के रूप में और कहीं-कहीं केवल भीमादेव के रूप में माना जाता है।

अनुष्ठान के लिए खाम्ब

बलिदान खाम्बः बस्तर के आदिवासी एवं गैर-आदिवासी समाज में पशुबलि एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। लगभग प्रत्येक गांव की देवगुडी के अहाते में एक ओर पशुबलि का स्थान होता है, जहां लकड़ी का एक बेलनाकार अथवा चैकोर खम्बा गड़ा रहता है। यहां बकरे या सुअर की बलि दी जाती है और उसके रक्त से खाम्ब पर टीका किया जाता है। मैंने अनेक बलिदान खम्ब देखे, इन पर किसी प्रकार की नक्काशी नहीं होती। केवल उपर के भाग में दो या तीन धारे उकरे दी जाती हैं। देव गुढ़ी में बलिदान खाम्ब की स्थापना समारोह-पूर्वक की जाती है और इसके सड़-गल जाने पर भी अपने आप गिर जाने तक यूंही गड़ा रहने दिया जाता है। पुराना खाम्ब गल जाने पर नया खाम्ब फिर समारोह-पूर्वक स्थापित किया जाता है। खाम्ब आमतौर पर सागौन अथवा हल्दू की लकड़ी का बनाते हैं।

 

विवाह खाम्बः बस्तर में विशेषतः गौण्ड आदिवासियों में विवाह के समय विवाह मण्डप के मध्य एक विशेष खम्बा गाड़ा जाता है, जिसे विवाह खाम्ब कहते हैं। महुआ के वृक्ष की लकड़ी से वर के जीजा या मित्र द्वारा बनाए गए इस खाम्ब पर ऊपर त्रिभुजों की कतार, फूल आदि भी उकेरे जाते हैं। कभी-कभी इसे महावर के रंग से सजाया भी जाता है। विवाह के बाद इस खाम्ब को नदी में ठंडा किया जाता है। मान्यता है कि यदि यह खाम्ब किसी दुश्मन के हाथ लग जाए तो वह इसके द्वनारा जादू-टोना करा देता है।

माड़िया खाम्ब (मृतक स्तम्भ)

दण्डामी माड़िया मृत्यु को सबसे बड़ी घटना मानते है। यदि मृतक अत्यंत वृद्ध, सम्मानित अथवा धनी होता है, तो उसकी स्थिति के अनुसार स्मृति स्तम्भ गाड़े जाते हैं। मृत व्यक्ति की स्मृति को चिरकाल तक जीवित रखने के लिए इनका निर्माण किया जाता है। इन्हें गांव की मुख्य सड़क, मुख्य रास्ते या ऐसी जगहों पर बनाया जाता है, जहां से समान्यतः आवागमन अधिक होता है।

         

स्मृति स्तम्भों पर आम तौर पर मृतक को विशेष रूप से समृद्ध रूप मेंदर्शाया जाता है। खाम्ब के चारों तरफ मृतक के प्रिय अस्त्र-शस्त्र, जानवर, हल-बैल, पशु-पक्षी और कीट-पतंगों को उकेरा जाता है। र्नतक और नर्तकी अक्सर गौर नृत्य की वेश-भूषा में देखने को मिलते हैं। अन्य अभिप्रायः जो उकेरे जाते हैं वे हैं  भैंसा, सांप, कछुआ, शेर, कुत्ता, सल्फी का वृक्ष, मद् पीता हुआ व्यक्ति, विभिन्न प्रकार की पक्षियों, हल-बैल, मोटरकार, ट्रक, हवाई जहाज, हिरण आदि।

सजावटी एवं उपयोगी खाम्ब

घोटुल खाम्बः बस्तर अंचल की मुरिया जनजाति के सांस्कृतिक केन्द्र व युवा संगठन का नाम  घोटुल है। अविवाहित मुरिया युवक और युवतियं घोटुल के सदस्य होते हैं। घोटुल का प्रत्येक युवक चेलिक और युवती मोटियारी कहलाती है। घोटुल के प्रत्येक सदस्य के अलग-अलग नाम होते हैं। चेलिकों का मुखिया सिरेदार तथा मोटियारिनों की मुखिया बेलोसा नाम से जानी जाती है। घोटुल की देखरेख व व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक समिति गठित की जाती है। समिति के प्रत्येक सदस्य के अलग-अलग पदनाम, आधिकार और उत्तरदायित्व होते हैं। अनुशासनहीनता के लिए दण्ड का प्रावधान है। विवाहित जीवन अपनाते ही घोटुल की सदस्यता निरस्त कर दी जाती है।

 

घोटुल गृह सामान्यतः लकड़ी, मिट्टी, घास से निर्मित किए जाते हैं। घोटुल गृह के सामने ही लकड़ी से खम्भों पर घास अथवा खपरैल की छत से बना एक माण्डा होता है। घोटुल गृह की सीमा को लकड़ी की बाड़ घेर दिया जाता है। घोटुल गृह की सीमा में ही एक लम्बा-चौड़ा समतल दालान या आंगन होता है। इसी आंगन के बीचोंबीच घोटुल खाम्ब स्थापित किया जाता है, जिसके चारों ओर घूम-घूम कर घोटुल के नृत्य-गीत सम्पन्न होते हैं।

घोटुल खाम्ब लकड़ी का एक बड़ा और मोटा खाम्ब होता है, जो कमर की ऊंचाई से लेकर 6-7 फीट लम्बा होता है। घोटुल खाम्ब के ऊपरी भाग पर लालटेन भी रखा जाता है। घोटुल खाम्ब पर चिड़िया, गाय-बैल, जंगली जानवर, तीर-धनुष, पेड़-पौधे, नृत्यरत युवक-युवतियां एवं ज्यामितीय रूपाकार उकेरे जाते हैं। यह अलंकरण मुरिया जनजाति की निजता, सौन्दर्य-प्रियता और उसकी विशिष्ट सांस्कृति को प्रदर्शित करते हैं।

घोटुल गृह के खम्भे, दरवाजों और दीवारों पर भी नक्काशी की जाती है । इनमें कई प्रकार के पशु-पक्षी, युवक-युवतियां, तीर-धनुष, बेल-बूटे और आड़ी-तिरछी और टेढी रेखाओं के माध्यम से कई ज्यामितीय आकृतियों का अंकन करते हैं। घोटुल गृह के कलात्मक खम्भे मुरिया काष्ठ कला की श्रेष्ठ व बेजोड़ कृतियां हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.