ग्रामीण क्षेत्रो के मेले जनसामान्य के मेल मिलाप का आयोजन एवं मनोरंजन स्थल तो होते ही हैं साथ ही वे व्यापर का महत्वपूर्ण अवसर भी होते हैं। अधिकांशतः मेले किसी पर्व , त्यौहार , पूजा अदि से सम्बद्ध होते हैं जिनका आयोजन पूर्व निर्धारित तिथियों एवं स्थान पर होता हैं। बस्तर क्षेत्र में प्रचलित हल्बी बोली में मेले को मढ़ई कहते हैं , मढ़ई , मेले से इस मायने में भिन्न होती है कि इसमें बाजार के साथ साथ देवी -देवताओं की जात्रा का आयोजन भी सम्मिलित होता है।मेला ‘होता’ तो है ही, 'लगता', 'भरता' और 'बैठता' भी है।
छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरूप के मेलों का लंबा सिलसिला है, इनमें मुख्यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखा, रायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ- हरिहाट, चइत-राई और व्यापारिक मेला, कटघोरा-कोरबा अंचल का बार, दक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजार, मातर और मेला अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवन्त उत्सव हैं।
मेला-मड़ई के स्वरूप में समय के कदमताल, परिवर्तन अवश्य हुआ है, किन्तु धार्मिक पृष्ठभूमि में समाज की आर्थिक-सामुदायिक आवश्यकता के अनुरूप इन सतरंगी मेलों के रंग की चमक अब भी बनी हुई है और सामाजिक चलन की नब्ज टटोलने का जैसा सुअवसर आज भी मेलों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.