مرزا غالب اور ان کی شاعری (Mirza Ghalib and his Poetry)

in Overview
Published on: 07 June 2016

Dr. Kausar Mazhari

Professor, Department of Urdu, Jamia Millia Islamia

मिर्ज़ा ग़ालिब और उनकी शायरी

कौसर मज़हरी

 

 

ज़ाती कवाइफ़ और तसानीफ़

 

पैदाइश: दिसम्बर 27, 1797, मुकाम अकबराबाद यानी आगरा उत्तर प्रदेश

असल नाम: मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान

तखल्लुस: असद, ग़ालिब उर्फ़ मिर्ज़ा नौशः

खिताब: नज्मुद्यौल्लाह दबीरुल्मुल्क बहादुर निज़ाम खान जंग

वालिद का नाम:  मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग खाान

माँ का नाम: इज़्जतुल निस्स बेगम

ता’लीम

इब्तिदाई ता’लीम आग्रा ही में मौलवी मुअज़्ज़म साहिब से हासिल की।जब इन की उम्र चौदह साल की थी तो एक इरानी नज़ाद नोमस्लम आलिम मुल्लाह अब्दुस समद आग्रे में आए।रिवायत है कि मिर्ज़ा ने दो सालों तक मुल्लाह अब्दुस समद इक्तिसाब फ़ैज़ किया।हाली ने यह भी लिखा है कि अकसर मिर्ज़ा को यह भी कहते सुना गया है कि च्यूँकि लोग उन्हें बेउस्तादा कहा करते थे इसी गरज़ से इन्होंने एक फर्ज़ी नाम का उस्ताद गढ़ लिया था।हाालाँकि इस नाम का एक फ़ारसी नज़ाद आलिम ज़रूर था। इतनी बात ज़रूर कही जा सकती है कि बाज़ाबितः किसी ता’लीम इदारे में हुसूल इल्म के लिये वक्त नहीं लगाया था अलबत्ता इनका ज़ाती मुताला और मुशाहिदा कुछ एसा था कि काएनात और अश्या ए काएनात के बातिन तक इन की फ़िक्र पहुँच जाया करती थी।

 

शायरी

मिर्ज़ा ग़ालिब की उम्र जबकि महज़ 13 बरस की थी या’नी 1810 में इनकी शादी हो गई।इनकी शादी नवाब अहमद बख्श खान के छोटे भाई नवाब इलाही बख्श खान की बेटी उमराऊ बेगम से हुई।इलाही बख्श खान मा’रूफ़ खुद भी एक कुहनः मश्क़ शायर थे।शादी के बाद 1812 में ग़ाालिब आगरा से दिल्ली मुंतक़िल हो गए।

 

पेंशन और कलकत्ता का सफ़र

मिर्ज़ा के चचा के इंतिक़ाल के बाद ही जबकि इनकी उम्र 9 बरस थी अंग्रेज़ों की तरफ़ से पेंशन मुकर्रर हो गई थी।शादी के बाद अख्राजात बढ़े तो इन्होंने कलकत्ता जाकर हुकूमत आलियः में अपना मुक़दम्मा पेश करने का इरादा किया और दिल्ली से 1826 में रख्त ए सफ़र बांधा। कानपुर होते हुए वह लखनऊ पहुँचे जहाँ इनका इस्तिक़बाल किया गया और इनके एज़ाज़ में एक मुशायरे का भी इन्इक़ाद किया गया।लखनऊ में वह तक़रीबन एक साल तक रुके और फिर बनारस और पटने होते हुए 1828 में कलकत्ता पहुँचे। वहाँ इन्हें काई कामयाबी नहीं मिली।आखिरकार नवंबर 1829 में वह फिर दिल्ली आ गए। यहाँ आकर रेज़िडेंट के यहाँ अपना इस्तिाग़ासः दाइर किया जिसका फ़ैसला 1836 में यह आया कि इन्हें सालियानः पेंशन के तौर पर जो 750 रुपये मिलते है वही मिलेंगे इज़ाफ़ा की कोई गुंजाइश नहीं।उन्होंने अपने मुक़दम्मे की अपील मुल्क ए इंग्लिस्तान के हुज़.ूर भी पेश की लेकिन यहाँ भी वह नाकाम रहे।इस तरह वह कमोबेश 16 बरसों तक अपने पेंशन में इज़ाफ़े के लिए हुकूमत से लड़ते रहे लेकिन कामयाबी नहीं मिली।मुकदम्मा लड़ने के लिए दूसरों से पैसे लेकर और भी मक़रूज़ हो गए।लेकिन उन्होंने उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा।यह शे’र देखिए

 

                कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

                रंग लावेगी हमारी फ़ाक़-ए-मस्ती एक दिन

 

गालिब और क़िला

मिर्ज़ा ग़ालिब दिल्ली के अदबी हल्क़े में मश्हूर थे।इनके माली हालत कमज़ोर हो चुकी थी लिहाज़ा दोस्तों ने इन्हें किले की मुलाज़िमत इख्तियार करने पर आमादः किया।हक़ीम एहसनुल्लाह खान और मौलाना नसीरुद्दीन उर्फ मियाँ काले साहब के कहने पर बहादुर शाह ज़फ़र ने ग़ालिब को खिल्लत फ़ाकिरः और नज्मुद्दौला दबीरुल्मुल्क निजाम जंग के खिताब से नवाज़ा।साथ ही पचास रुपये माहवार तन्ख्वाह मुकर्रर कर दी।ग़ालिब से यह भी फरमाइश की गई कि वह खानदान तैमूरी की तारीख लिखे।

 

कुछ दिनों बाद 1854 में मिर्ज़ा फ़ख्रुद्दीन वली अहद हुए।च्यूँकि मिर्ज़ा फखू्र ओ ग़ालिब के शागिर्द थे इसलिए तन्ख्वाह की रक्म बढ़ा दी गई।जुलाई 1856 में मिर्ज़ा फ़ख्रू का इंतिक़ाल हो गया और 1857 में जैसा कि तारीख बताती है लाल किले पूरी तरह उखड़ गया।

               

1857 के हंगामे का ज़िक्र ग़ालिब ने अपने खुतूत में और फ़ारसी तस्नीफ़ ‘दस्तनबो’ में भी किया है।इसके बाद पेंशन और तन्ख्.वाह दोनों से ग़ालिब महरूम हो गए।इन्होंने वाली रामपुर नवाब यूसफ़ अली को खत लिखा जिसके बाद उन्हें सौ रुपये माहवार आखिर दम तक मिलते रहे।

 

आखिरी अयाम

मिर्ज़ा ग़ालिब आखिरी उम्र में कम सुनते थे बल्कि यह नौबद आ गई थी कि मिलने वाले लिखकर रुक्अः इनके सामने बढ़ाते थे फिर वह जवाब दिया करते थे।मौत से कुछ दिनों पहले इनपर बेहोशी सी तारी रहने लगी।

 

मौत से एक रोज़ पहले दिमाग़ पर फ़ालिज गिरा और 15 फ़ेब्रवरी 1869 को वफ़ात पा गए।इनकी कब्र बस्ती हज़रत निज़ामुद्दीन में है। इसी से ज़रा आगे बढ़ने पर हज़रत निज़मुद्दीन औलिया का मज़्हार भी है जिसके आंगन में उर्दू और फ़ारसी के बड़े नामवर शायर हज़रत अमीर खुसरो भी मदफ़ून है।

 

मिर्ज़ा ग़ालिब की तसानीफ़

दीवान ग़ालिब  इसमें मिर्ज़ा का उर्दू कलाम है जिसमें ग़ज़लों के अलावा कसाइद क़त्आत और रुबाईयात है।

 

दस्तांबो  इस किताब में 1850 से लेकर 1857 के हालात दर्ज है।यह किताब फ़ारसी में है जो पहली बार 1858 में शाए’ हुई।उर्दू में इसका तर्जुमा ख्वाजा अहमद फ़ारूक़ी ने किया है।

 

मेहृ नीम रोज़  तैमूर से हुमायूँ के अहद तक के हालात लिखे। फिर बादशाह की फरमाइश पर हकीम एहसनुल्लाह खान ने हज़रत आदम से चेंगिज़ खान की तारीख मरतब की जिसे ग़ालिब ने फ़ारसी में मुंतक़िल किया।

 

क़ाते’ बुरहान फारसी लग़त बुरहान ए क़ाते’ अज़ मौलवी मुहम्मद हुसैन तबरीज़ी का जवाब है। क़ाते’ बुरहान की इशाअत 1861 में हुई बाद में ए’तिराज़ात का इज़ाफ़ः करके ग़ालिब ने इसी को ‘दुरफ़्शे कावियानी’ के नाम से 1865 में शाए’ किया।

 

मयखाना आरज़ू फ़ारसी के कलाम का पहला एडिशन 1845 में इसी नाम से छपा। फिर बाद में कुल्लियात की शकल में कई एडिशन छपे।

 

सबद चीन इस नाम से फ़ारसी कलाम 1867 में छपा।इस मज्मूए में मस्नवी गहरबार के अलावा वह कलाम है जो फ़ारसी के कुल्लियत में शामिल नहीं हो सका था।

 

दुआ सबाह अरबी में दुआ अल सबाह हज़रत अल ीसे मंसूब है। ग़ालिब ने इसे फ़ारसी में मंज़ूम किया। यह अहम काम इन्होंनें अपने भांजे मिर्ज़ा अब्बास बेग की फ़रमाइश पर किया था।

 

उद -ए -हिन्दी:  पहली मरतबा मिर्ज़ा एक उर्दू खुतूत का यह मज्मूअः 1868 में छपा।

 

उर्दू मुअल्ला : ग़ालिब के उर्दू के खुतूत का मज्मूअः है जो 1869 में शाए’ हुआ।

 

मकातिब ग़ालिब मिर्ज़ा के वे खुतूत शामिल है जो इन्होंने दरबार रामपुर को लिखे थे और जिसे इंतियाज़ अली खान अरशी साहब ने मरतब करके पहली मरतबः 1937 में शाए’ किया।

 

नकात ग़ालिब रुक़ैयात ग़ालिब  नक़ाद ग़ालिब में फ़ारसी सिर्फ के क़वाइद उर्दू में और रुक़ैयात ग़ालिब में पंद्रह फ़ारसी मक्तूब पंज आहंग से मुंतखब करके दर्ज किये थे।ग़ालिब ने मास्टर प्यारे लाल आशोब की फरमाइश और दरख्वास्त पर यह कारनामा अंजाम दिया था।

 

क़ादिरनामा मिर्ज़ा ने आरिफ़ के बच्चों के लिए आठ सफ़हात पर मुश्तमल यह एक मुख्तमर रिसाला लिखा जिस में ‘खालिक़ बारी’ की तर्ज़ पर फ़ारसी लग़ात का मफ़हूम उर्दू में लिखा गया था। जैसे इस नज़्म का पहला शे’र है

                क़ादिर अल्लाह है और यज़दाँ है खुदा

                है नबी मुरसल पयंबर रहनुमा

 

2

ग़ालिब की शायरी

           हज़ारों ख्वाइशें एसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले

           बहुत निकले मरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

 

ग़ालिब का यह शे’र कुछ इतना ही मश्हूर ओ मा’रूफ़ है कि आम आदमी भी इसे पढ़ता रहता है। इस की सबसे बड़ी वजह यह है कि ग़ालिब ने इंसान के एहसास और जज़्बे को छुआ है।  ग़ालिब शायरों की भीड़ में दूर से पहचाने जाते है।  ग़ालिब की सबसे बड़ी खूबी तो यह है कि वह किसी भी मज़्मून को कुछ इस अंदाज़ से पेश करते है कि क़ारी या सामे’ खुदबखुद इस की तर्ज़ मुतज्जवेह हो जाता है। इस बात का खुद ग़ालिब को भी अंदाज़ः था कि इनका तर्ज़ इज़्हार दूसरों से यकसा जुदागानह है और वह अपने अंदाज़ बयान का फ़ख्रियः इज़्हार भी करते है।

               

                है और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे

                कहते है कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयाँ और

 

 

मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में इनकी ग़ज़ल गोई को खास इम्तियाज़ी शान हासिल है। जब वह मुश्किल पसंदी और फ़ारसीज़दः उस्लूब से बाहर आए तो इनकी ग़ज़लों में इस नौ के अश्आर अपनी बहार दिखाने लगे।

 

                हवस को है नशात–ए–कार क्या क्या

                न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या क्या

 

                है आदमी बजाए खुद एक महशर ए खयाल

                हम अंजुमन समझते है खल्वत ही क्यों न हो

               

                हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

                तुम्हें कहूँ कि यह अंदाज़ गुफ्तगू क्या है

 

                देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा

                मैनें यह जाना कि गोयाँ यह भी मेरे दिल में है

 

                और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया

                साग़र–ए–जम से मेरा जाम–ए–सिफ़ाल अच्छा है

               

                हाल दिल लिखूँ कब तक जाउँ इनको दिखला दूँ

                उँगिलयाँ फ़िगार अपनी जाम–ए–खून चुका अपना

 

इन अश्आ’र से ग़ालिब का अंदाज़ बयान पता चलता है कि वह किसी पामाल मज़्मून को भी बड़ी खूबसूरती से पेश कर दिया करते थे।

 

ग़ालिब ने अपनी ग़ज़लों में इंसानी ज़िंदगी और जज़्बात के मुख्तलिफ़ shades पेश किए है। काइनात के हुस्न और महबूब के हुस्न पर ग़ालिब ने बड़ी खूबसूरती से शाइराना नज़र डाली है लेकिन च्यूँकि गज़ल का फ़न रम्ज़– ओ–ईमा का फ़न होता है इसलिए ग़ालिब की ग़ज़लों में जो जमालीयाती पर्तौ या हुस्न की शम्ए रोशन है वह इन की तख्लीक़ी हुनरमंदी पर दलालत करती है। इस ज़ेल में चंद शे’र मुलाहज़ः कीजिए

 

                जब वह जमाल ए दिल फ़रोज़ सूरत ए मेहर ए नीमरोज़

                आप ही हो नज़्ज़ारा सोज़ परदा में मुँह छुपाए क्यों

 

                वह आई घर में हमारी खुदा की क़ुदरत है

                कभी हम इनको कभी अपने घर को देखते है

               

                आराइश ए जमाल से फ़ारिग नहीं हनोज़

                पेश ए नज़र है आइना दाइम नक़ाब में

 

                तू और सू ए गैर नज़र हा ए तेज़ तेज़

                मैं और दुख तेरी मिज़ा हाए दराज़ का

               

                घुंचा फिर लगा खुलने  आज हमने अपना दिल

                जो किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया

 

                सद जल्वा रूबरू है जो मज़्गाँ उठाइये

                ताक़त कहाँ कि दीद का एहसा उठाइये

 

                भ्रम घुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का

                अगर इस तरह पुरपेचोखम का पेच निकले

 

                करे है कत्ल लगावत में तेरा रू देना

                तेरी तरह कोई तीग़ ए निगाह को आब तो दे

 

मज़्कूर बाला अश्आर में ग़ालिब ने महबूब और इससे मुतअल्लिक़ मुख्तलिफ़ पहलुओं को अलग अलग अंदाज़ में बल्कि यह कहते कि अलग अलग मज़्मून की शकल में पेश किया है। यहाँ इसका मौक़ा नहीं कि इन अश्आर की तश्रीह–ओ–ता’बीर पेश की जाए क्योंकि दूसरे शायरी औसाफ़ पर भी गुफ़्तगू होगी।

 

इश्क़ एक एसा मौज़ू है जिसे आफ़ाक़ी कहा जाता है। या’नी इस मज़्मून को तमाम ज़बानों के शाइरा ने अपने अपने तौर पर बांधा है और बरता है। उर्दू शायरी में इस मज़्मून का इतना बड़ा सरमायः है कि पूरी किताब लिखी जा सकती है बल्कि फ़िराक़ गोरखपुरी ने तो उर्दू की इश्क़िया शायरी के उन्वान से एक किताब तहृीर भी की थी यह अलग बात है कि तमाम गो शए नहीं आ सके थे या यूँ कह ले कि इसकी नौईयत ही कुछ और थी। खैर बात ग़ालिब की ग़ज़लों में इश्क़ के मज़्मून की हो रही है।

 

अगर देखा जाए तो ग़ालिब की पूरी शायरी में मुहब्बत और इश्क़ का जज़्बः अपनी मुख्तलिफ़ सूरतों में जल्वःगर नज़र आता है। कहीं शोखी और खिलंदरपान से काम लेते हुए नज़र आते है तो कहीं इनकी नफ़्सीयाती उलझन इन्हें किसी और तरफ़ ले जाती है कभी वह दूसरे आशिकों पर तंज़ करते है और कभी अपने जज़्बे इश्क़ और दीवानगी को बुलंद मुक़ाम अता करते है। कभी वह फ़रहाद, तो कभी क़ैस को इश्क़ के मज़्मून के दरमियान ले आते है। च्यूंकि यह दोनों किरदार एसे है जो अपनी दीवानगी शौक़ और अपने जज़्बे इश्क़ की इंतिहा के लिए मश्हूर है।

 

आइये कुछ अश्आर देखिए जिनसे दीवानगी और इश्क़ के कई रंग वाज़ेह होते है

 

                वाए दीवानगी ए शौक़ कि हर दम मुझको

                आप जाना उधर और आप ही हैरान होना

 

               मैंने मज्नूँ पे लड़कपन में ‘असद’

               संग उठाया था कि सर याद आया    

 

               दिल में ज़ौक़–ए–वस्ल ओ याद ए यार तक बाक़ी नहीं

               आग इस घर में लगी एसी कि जो था जल गया

 

               आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब

               दिल का क्या रंग करूँ खून ए जिगर होने तक

 

             तेशे बग्.ौर मर न सका कोहकन असद

             सरगश्तः ए ख़ुमार ए रुसूम ओ कुय्ूाद था

 

              संभालने दे मुझे आए नाउम्मीदी क्या कियामत है

             कि दामान ए खयाल ए यार छूटा जाए है मुझसे

 

             फ़ना ता’लीम ए दर्स ए बेखुदी हूँ उस ज़माने से

             कि मजनूँ लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर

 

             शौक हर रंग रक़ीब-ए-सर ओ सामाँ निकला

             क़ैस तस्वीर के परेद में भी उयर्ँ निकला

 

            इश्क़ से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया

            दर्द की दवा पाई दर्द ए लादवा पाया

 

            जज़्बा-ए-बे इख्तियार ए शौक देखा चाहिए

            सीना शमशेर से बाहर है दम शमशेर का

 

           गर किया नासेह हम को क़ैद अच्छा यूँ सही

           यह जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छूट जाएँगे क्या

 

           हुए है पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख्मी

           न भागा जाए है मुझसे न ठहरा जाए है मुझसे

 

इश्क़ की आशुफ़्.तः सरी या इसका बेमहाबापन अपने अंदर एक एसी आँच रखती है जो खस ओ खाशाक आलिम को खाकिस्तर में बदल सकती है। इश्क़ ही से ज़िंदगी में मज़ा है और यह इश्क़ ही दर्द की दवा भी है और एसा दर्द है जिसकी कोई दवा नहीं। ग़ालिब ने फ़रहाद और मज्नूँ को तंज़ का निशाना इसी वजह से बनाया है कि वह ‘रुसूम ओ क़ैद’ का पाबंद था। या अपनी ता’रीफ़ करते है जब कै.स ह्यमज्नूँहृ मक्तब इश्क़ में ‘लाम अलिफ़’ लिख रहा था उस वक्त मेरी फ़ना फ़ी अलइश्क़ ह्यफ़ना ता’लीम दर्स बेखुदीहृ की ता’लीम मुकम्मल हो चुकी थी। ग़ालिब तो फ़रहाद को खुसरो की इशरतगाह का मज़्दूर कहता है

 

          इश्क़ ओ मज़्दूरी इशरतगाह ए खुसरो क्या खूबॐ

         हम को तस्लीम ए निकोनामी फ़रहाद नहीं

 

इस हवाले से मजनूँ गोरखपुरी लिखते है

   ग़ालिब की तबीयत जिस बात को किसी तरह क़बूल नहीं कर सकती वह यह है कि फ़रहाद वस्ल की        आर्ज़ू से इस कदर बेक़ाबू हो गया कि वह क़स्र ए शिरीन तक पहाड़ काटकर नहर जारी करने के लिए        तैय्यार हो गया और यह न सोचा कि यह तो रक़ीब की‚ जो एक जाबर शाहनशाह है‚ मज़्दूरी करना है        और उसी के लिए ऐश ओ निशात मुहैय्या करना है

ग़ालिब:  शख्स और शायर , अज़ मजनूँ गोरखपुरी (अलीगढ़: एडयूकेशनल बुक हाउस 2010: 57)

 

ग़ालिब की शोखी ओ ज़राफ़त एक अलग मज़्मूँ का मुतक़ाज़ी है। कभी खुद पर हँसना‚ कभी दूसरो पर तंज़ करना‚ और कभी महबूब से शोखी‚ और कभी खालिक़ काईनात से शोखी। इसी तरह एक इंसान या एक बंदः अपने वुजूद काइनात और मुआशिरे से किस तरह का रिश्तः रख सकता है‚ या यह कह ले कि ग़ालिब इनपर बतौर एक शायर या फ़नकार के‚ किस तरह निगाह डालते है‚ वह गौरतलब है। यह अश्आर देखिए

 

         पकड़े जाते है फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़

         आदमी कोई हमारा दम–ए–तहरीर भी था?

 

          इन परीज़ादों से लेंगे खुल्द में हम इंतक़ाम

          क़ुदरत–ए–हक़ से यही हूरें अगर वा हो गयी

 

           खुदा के वास्ते पर्दः न क़ा’बा का उठा वाइज़

           कहीं एसा न हो याँ भी वही क़ाफ़िर सनम निकले

 

           जानता हूँ सवाब–ए–ताअत ओ ज़हद

           पर तबीयत इधर नहीं आती

 

           हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

           दिल के खुश रखने को ग़ालिब यह खयाल अच्छा है

 

तंज़ ओ ज़राफ़त के लिए ज़हानत और फ़तानत की ज़रूरत होती है। मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़हनी साख्त और मैलाने तब्अ इस बात की गवाही देती है और इसीलिए तो हाली ने इन्हें ‘हैवान ज़रीफ़’भी कहा था। इस शोखी और ज़राफ़त में ग़ालिब की तुरफ़गी फ़िक्र की जल्वःसामानी नज़र आती है। जिस जिंदःदिली और खुशतब्ई से ग़ालिब का शायरी आहंग या शोखी ओ ज़राफ़त वाला लिहाज़ा तश्कील पाता है वह लाइक़ तवज्जोह है। कभी किसी को शायद दिल लगी और तमस्खुर या महज़ ठठोल मालूम हो लेकिन ग़ालिब की इस नौअ के अश्आर में भी एक तरह का अल्मिया और ज़ख्मखुर्दः किरदार उभरता है। शैख मुहम्मद इक्राम के बकौल:

 

जो जो इन्हें ज़िंदगी के निशेबोफ़राज़ से आगाही होती गई वह इन वाक़ैयात पर मुस्कुराने लगे जिनके लिए पहले आँसू बहाते थे।मिर्ज़ा की शोखी की असल बिना इनकी ज़िद्दततराज़ी और हर बात में नया पहलू निकालने की आदत थी। लेकिन यह भी ज़ाहिर है कि जिस तरीक़े से इन्होंने रंजोग़म की बातों में शगुफ़्तगी तब्अ को बरकरार रखा‚ वह उसी आदमी का हिस्सा हो सकता था जिसने बकौल इनके ‘सख्ती ओ सुस्ती ओ रंजोग़म को हमवार’ कर दिया हो।

 

(शैख मुहम्मद इक्राम,ग़ालिबनामा ,एहसान बुक डिपो लखनऊ साल अशा’त नदारद: 221)

 

मज़्कूरः बाला तर्ज़–ए–फ़िक्र की रोशनी में अब यह अश्आर मुलाहज़ः कीजिए:

 

       चाहते है खूबरूयों को असद

       आप की सूरत तो देखा चाहिए

 

       निकाला चाहता है काम क्या ता’नों से तू ‘ग़ालिब’

       तेरे बेमेहर कहने से वह तुझपर मेह्रबां क्यों हो

 

        जब मयकदा छूटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद

        मस्जिद हो‚ मदरसा हो‚ कोई खानक़ाह हो

 

       ता’त में ता रहे न मय ओ अंग्बीं की लाग

       दोज़ख में डाल दो कोई लेकर बिहिश्त को

 

        मैनें कहा कि बज़्म ए नाज़ गैर से चाहिए तिही

        सुनके सितमज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया कि यूँ

 

         वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको

         क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर में

 

ग़ालिब की ग़ज़लों में जो गहरी फ़िक्री मज़ामीन मिलते है इनपर तफ़सीली गुफ्तगू मुमकिन नहीं। अल्बत्तः यह देखना ज़रूरी है कि आखिर वह कौनसे अवामिल (factors) है जिनकी बुनियाद पर इन्हें विज्दान (intuition) के बजाय ज़हन के शायर के तौर पर पेश किया गया? या इसे यूँ समझ ले कि इनकी शायरी में गहरे फिकरी रुमूज़ की कारफ़रमाई नज़र आती है। असलूब अहमद अंसारी का मानना है कि ‘ग़ालिब के यहाँ बाज़ाबः फ़िक्री निज़ाम की तलाश अबस है। वह ज़िंदगी की जल्वः हाए सद रंग की तस्वीरकशी करते और ज़िंदगी के मुतअल्लिक़ मुख्तलिफ़ और बाज़ औक़ात मुतज़ाद अंदाज़ हाए नज़र को हमारे अंदर उभारते है।’ नक्.ग़ालिब  (नई दिल्ली: ग़ालिब अकादेमी‚ अक्तूबर 1970: 35)

 

लेकिन मैं समझता हूँ कि ग़ालिब का बाज़ाबः कोई फ़िकरी निज़ाम भले ही न हो‚ मगर इनकी पूरी शायरी पर फ़िकर और फलसफ़े की गहरी छाप ज़रूर नज़र आती है। वह पूरी काईनात और इंसानी दुनिया को ग़ौर से और सवालिया अंदाज़ में देखते है। आइये कुछ अश्आर देखते है जिनमें ग़ालिब की गहरी फ़िकर और तखय्युल के नक्.क़ोश उभरते है।

 

         रात दिन गरदिश में है सात आसमाँ

         हो रहेगा कुछ न कुछ घबराए क्या?

 

          घर हमारा जो न रोते भी तो वीरान होता

          बहर अगर बहर न होता तो बयाबाँ होता

 

          गम–ए–हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज़

          शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक

 

           मैं अदम से भी परे हूँ वरना ग़ाफ़िलॐ बारहा

           मेरी आह ए आतिशे से बाए अन्क़ा जल गया

 

          मंज़र एक बुलंदी पर और हम बना सकते

          अर्श से परे होता काश कि मकान अपना

 

 

इन शे’रों में जो फिकरी अब्आद (dimension) है‚ वह गरचः तज्राबात ओ मुशाहदात के बाद पैदा हुए है‚ मगर गरज़ करने से यह पता चलता है कि यह तजुरबे और मुशाहिदे तो हमारे भी है और दूसरे शाइराँ के भी‚ लेकिन दूसरों के यहाँ इस कदर मुख्तलिफ़ अब्आद क्यों पैदा नहीं हो सके? सीधासा जवाब यह हो सकता है कि ग़ालिब के खयाल की बुलंदी और मुशाहिदें दोनों ने जिद्दततराज़ी और तख्लीक़ी हुनरमंदी के फ़ैज़ से एसे नु.कूश और अब्आद पैदा किए है। इनकी परवाज़ खयाल इनके मुशाहिदे को और भी बुलंद कर देती है। यह शे’र सुनिए:

 

             सब कहाँ? कुछ लाला ओ गुल में नुमायाँ हो गई

             खाक में क्या सूरतें होगी कि पिन्हाँ हो गई

 

इस शे’र में ग़ालिब की मज़्मून आफ्रीनी और जिद्दततराज़ी देखी जा सकती है। इस तरह ग़ालिब पूरे आलिम दाम खयाल तसव्वुर करते है। गोयाँ खयाल का जाल सा बिछा हुआ है। ग़ालिब ने अपने फ़िकरी कैनवस पर हैरतअंगेज़ नुक़ूश और मुबालगः आमेज़ तस्वीरें बनाई है

               

         अर्ज़ कीजिए जो हीर अंदेशा की गरमी कहल

         कुछ खयाल आया था ओ हश्त का कि सहरा जल गया

 

        हाथ धो दिल से यही गरमी गर अंदेशे में है

        आबगीनः तंदी सहबा से पिघल जाए है

 

        है परे सरहदे अदराक से अपना मसजूद

        क़िला को अहल नज़र क़िबला नुमा कहते है

 

        इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं

        जी खुश हुआ है राह को पुरचार देखकर

 

उर्दू गज़ल में जो रिवायती तर्ज़ इज़हार रहा है‚ ग़ालिब ने इससे खुद को अलग किया‚ जिससे इनका अपना अंदाज़ बयान पैदा हुआ। इस्तिआरों (metaphors) और तश्बीहों (similes) के बरमहल और बरजस्तः इस्तिमाल पर ग़ालिब को दस्तरस है। यह दोनों सन्अतें एसी है जिनसे अश्आर का मानीयाती निज़ाम परत दर परत बनता जाता है। ग़ालिब की ग़ज़लों में तसव्वुफ़ (mysticism) के मज़ामीन भी आबोताब के साथ नज़र आते है। इन्होंनें  मिर्ज़ा बेदिल से मुतासिर होकर वहदतुलवुजूदी अश्आर कहे। जो शायर तसव्वुफ़ के शे’र कहता है इसकी शायरी में हुस्न के साथ एक तरह की रिफ़अत भी पैदा हो जाती है। ग़ालिब भी इस हक़ीक़त से बेखूबी वाकिफ़ थे। फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने मज़्मू में लिखा है कि‚ ‘इंसान की अज़मत का शऊर इर्फान-ए-नफ़्स और काइनात के रुहानी पहलू का एहसास यह तमाम बातें ग़ज़ल में तसव्वुफ़ ही के लगाव से आती है। (मज़्मून नगार मई 1938)

 

यूँ भी यह मक़ूलः आम है कि तसव्वूफ़ बराए शे’र गुफ़्तन खूब अस्त। लेकिन अगर हाली की बात मान ली जाए तो फ़िर ग़ालिब की मतसूफ़ाना शायरी की वक्.आत और इसके मेयार को तस्लीम करना पड़ेगा। वह लिखते है कि तसव्वुफ़ से इनको खास मुनासिबत थी। हक़ाइक और मा’रूफ़ की किताबी और रिसाले कसरत से इनके मुतालअः से गुज़रे थे‚ और सच पूछिए तो इन ही मतसूफ़ाना खयालात ने मिर्जा को न सिर्फ अपने हमसफ़रों में बल्कि बारहवी और तेरहवी सदी हिज्री के तमाम शुअरा में मुमताज़ बना दिया था (यूसुफ़ सलीम चिश्ती, बहवाला शरह दीवान ग़ालिब: 150)

 

 

हाली ने शायद अहद मीर के ख्वाजा मीर दर्द को भुला दिया। दूसरे शुअरा भी निकल आएँगे। आतिश के कलाम में भी और इस तरह के दूसरे शुअरा भी है जिनके क़लाम में इस मज़मून के अशआ’र मिलते है। फिर यह कहना कि नज़ीरी और बेदिल के बाद किसी और ने गोयाँ फ़ारसी में भी बयान नहीं किया‚ यह राय गौरतलब है। ग़ालिब क्योंकि बाकमाल तख्लीक़ी फ़नकार थे‚ इसलिए सूफ़ी न होते हुए भी कभी कभी अच्छे शे’र निकाल ले जाते थे। यह अशआ’र मुलाहिज़ा की जाए।

               

        दहर जुज़ जल्वः ए यकताई मा’शूक नहीं

        हम कहाँ होते अगर हुस्न न होता खुदबीं

 

       कतरा में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल

       खेल लड़कों का हुआ‚ दीदा ए बीना न हुआ

 

       महरम नहीं है तू ही नवा हाए राज़ का

       या वरना जो हिजाब है परदा है साज़ का

 

      उसे कौन देख सकता कि यगानः है वह यकता

      जो दुअई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

 

      न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा होता

      डुबोया मुझको होने ने‚ न होता मैं तो क्या होता

 

      इश्क़ कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना

      दर्द का हद से गुज़रना है दुआ हो जाना

 

इन शे’रों की तशरीह नहीं की जाएगी कि यहाँ बहरहाल‚ महज़ मिसाइल पेश करनी थी। इनके अलावा भी बहुत से अशआर इसी मज़्मून के है‚ लेकिन इनमें सक़ालत है और दिल को मुतासिर नहीं करते।

 

ग़ालिब की शोहरत इनकी ग़ज़लों में इंसानी जज़्बात और सच्चे मुशाहिदात–आ–तजुरबात की खूबसूरत पेशकश के सबब है। यही वह इंसानी जज़्बात और एहसासात (emotions and feelings) है जो अपने अंदर आफ़ाक़ी तौर पर कशिश रखते है। यही वजह है कि ग़ालिब की गज़लों के अशआ’र हमारे दिलों को अपनी तरफ़ खींच लेते है। यूँ भी कह सकते है कि एसे अशआ’र में समाजी रंग और हालात ज़िंदगी की तस्वीरें नज़र आती है। इनमें भी ग़ालिब का जो शायरी आहंग और तर्ज़ बयान है‚ वह सोने पर सुहागे का काम करता है और फिर एसे अशआ’र हमारे ज़हन ओ दिल दोनों को मुतासिर करते है। यहाँ चंद मुंतख़ब अशआ’र पेश किए जाते है।

 

वह आए घर में हमारे जुदा की कुदरत है

कभी हम इनको कभी अपने अपने घर को देखते है

 

        ग़म–ए–हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज

        शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

 

        हज़ारों ख्वाइशें एसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले

        बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

 

         जानता हूँ सवाब–ए–ताअत ओ ज़हद

         पर तबीयत इधर नहीं आती

 

         रंज से खूगर हुआ इंसान तो मिट जाता है रंज

         मुश्किलें मुझपर पड़े इतनी कि आसान हो गई

 

         बस कि दुश्वार है हर काम का आसान होना

         आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना

 

         दिल ही तो है न संग–ओ–खिश्त दर्द से भर न आए क्यों

         रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यों

 

 

इन शे’रों में आप देख सकते है कि ग़ालिब ने इंसानी नफ्सीयात और जज़्बात को किस गहराई से महसूस किया है।

 

ग़ालिब ने ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा है‚ तज्ज़िया किया है और ग़म–ओ–नशात दोनों तरह के लम्हों को अपनी गज़लों का हिस्सा बनाया है।

 

इन्होंने ज़िंदगी और इंसानों की हक़ीक़तों को करीब से देखा‚ समझा‚ और अपने ग़ज़लों में पेश किया। इनकी शायरी में बनावट के बजाए एक तरह की बरजुस्तगी मिलती है। ग़ालिब को इनके एसी असलूब और तर्ज़ अदा ने बड़ा शायर और फ़नकार बना दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

               

 

 

                                

 

 

 (1)ذاتی کوائف اور تصانیف

پیدائش         :    27 دسمبر 1797، مقام اکبر آباد یعنی آگرہ، اترپردیش

اصل نام        :    مرزا اسداللہ بیگ خاں

تخلص          :    اسد، غالب

عرف            :    مرزا نوشہ

خطاب           :    نجم الدولہ دبیرالملک بہادر نظام جنگ

والد کا نام      :    مرزاعبداللہ بیگ خاں

ماں کا نام      :    عزّت النسا بیگم

تعلیم: ابتدائی تعلیم آگرہ ہی میں مولوی محمد معظّم صاحب سے حاصل کی۔ جب ان کی عمر چودہ سال (14) کی تھی تو ایک ایرانی نژاد نومسلم عالم ملّا عبدالصمد آگرے میں آئے۔ روایت ہے کہ مرزا نے دو سالوں تک ملا عبدالصمد سے اکتساب فیض کیا۔ حالی نے یہ بھی لکھا ہے کہ اکثر مرزا کو یہ بھی کہتے سنا گیا ہے کہ چوں کہ لوگ انھیں بے استادا کہا کرتے تھے، اسی غرض سے انھوں نے ایک فرضی نام کا استاد گھڑلیا تھا۔ حالاں کہ اس نام کاایک فارسی نژاد عالم ضرور تھا۔ اتنی بات ضرور کہی جاسکتی ہے کہ غالب نے باضابطہ کسی تعلیمی ادارے میں حصول علم کے لیے وقت نہیں لگایا تھا، البتہ ان کا ذاتی مطالعہ اور مشاہدہ کچھ ایسا تھا کہ کائنات اور اشیائے کائنات کے باطن تک ان کی فکر پہنچ جایا کرتی تھی۔

شادی:          مرزا غالب کی عمر جب کہ محض 13 برس کی تھی یعنی 1810 میں ان کی شادی ہوگئی۔ ان کی شادی نواب احمد بخش خاں کے چھوٹے بھائی نواب الٰہی بخش خاں کی بیٹی امراؤ بیگم سے ہوئی۔ الٰہی بخش خاں معروف خود بھی ایک کہنہ مشق شاعر تھے۔ شادی کے بعد 1812 میں غالب آگرے سے دہلی منتقل ہوگئے۔

پنشن اور کلکتہ کا سفر: مرزا کے چچا کے انتقال کے بعد ہی جب کہ ان کی عمر 9 برس تھی، انگریزوں کی طرف سے پنشن مقرر ہوگئی تھی۔ شادی کے بعد اخراجات بڑھے تو انھوں نے کلکتہ جاکر حکومت عالیہ میں اپنا مقدمہ پیش کرنے کا ارادہ کیا اور دہلی سے 1826میں رخت سفر باندھا۔ کانپور ہوتے ہوئے وہ لکھنؤ پہنچے جہاں ان کا استقبال  کیا گیا اور ان کے اعزاز میں ایک مشاعرے کا بھی انعقاد کیا گیا۔ لکھنؤ میں وہ تقریباً ایک سال تک رکے اور پھر بنارس اور پٹنہ ہوتے ہوئے 1828 میں کلکتہ پہنچے۔ وہاں انھیں کوئی کامیابی نہیں ملی۔ آخرکار نومبر 1829 میں وہ پھر دہلی آگئے۔ یہاں آکر ریذیڈنٹ کے یہاں اپنا استغاثہ دائر کیا جس کا فیصلہ 1836 میں یہ آیا کہ انھیں سالانہ  پنشن  کے طور پر جو 750 روپے ملتے ہیں وہی ملیں گے، اضافہ کی کوئی گنجائش نہیں۔ انھوں نے اپنے مقدمے کی اپیل ملکہ انگلستان کے حضور بھی پیش کی لیکن یہاں بھی وہ ناکام رہے۔ اس طرح وہ کم و بیش 16 برسوں تک اپنے پنشن میں اضافے کے لیے حکومت سے لڑتے رہے لیکن کامیابی نہیں ملی۔ مقدمہ لڑنے کے لیے دوسروں سے پیسے لے کر اور بھی مقروض ہوگئے۔ لیکن انھوں نے امید کا دامن کبھی نہیں چھوڑا۔ یہ شعر دیکھیے:

قرض کی پیتے تھے مے لیکن سمجھتے تھے کہ ہاں

رنگ لائے گی ہماری فاقہ مستی ایک دن

غالب اور قلعہ: مرزا غالب دہلی کے ادبی حلقے میں مشہور تھے۔ ان کی مالی حالت کمزور ہوچکی تھی، لہٰذا دوستوں نے انھیں قلعہ کی ملازمت اختیار کرنے پر آمادہ کیا۔ حکیم احسن اللہ خاں اور مولانا نصیرالدین عرف میاں کالے صاحب کے کہنے پر بہادر شاہ ظفر نے غالب کو خلعت فاخرہ اور نجم الدولہ دبیرالملک نظام جنگ کے خطاب سےنوازا۔ ساتھ ہی پچاس روپے ماہوار تنخواہ مقرر کردی۔ غالب سے یہ بھی فرمائش کی گئی کہ وہ خاندان تیموری کی تاریخ لکھیں۔

کچھ دنوں کے بعد 1854 میں مرزا فخرالدین ولی عہد ہوئے۔ چوں کہ مرزا فخر و غالب کے شاگر دتھے اس لیے تنخواہ کی رقم بڑھا دی گئی۔ جولائی 1856 میں مرزا فخرو کا انتقال ہوگیا اور 1857 میں جیسا کہ تاریخ بتاتی ہے، لال قلعہ پوری طرح اجڑ گیا۔

1857 کے ہنگامے کا ذکر غالب نے اپنے خطوط میں اور فارسی تصنیف ‘دستنبو’ میں بھی کیا ہے۔ اس کے بعد پنشن اور تنخواہ دونوں سے غالب محروم ہوگئے۔ انھوں نے والیٔ رام پور نواب یوسف علی خاں کو خط لکھا جس کے بعد انھیں سو روپے ماہوار آخر دم تک ملتے رہے۔

آخری ایام: مرزا غالب آخری عمر میں کم سنتے تھے بلکہ یہ نوبت آگئی تھی کہ ملنے والے لکھ کر رقعہ ان کے سامنے بڑھاتے تھے، پھر وہ جواب دیا کرتے تھے۔  موت سے کچھ دنوں پہلے ان پر بے ہوشی سی طاری رہنے لگی۔

موت سے اک روز پہلے دماغ پر فالج گرااور 15 فروری 1869 کو وفات پاگئے۔ ان کی قبر بستی حضرت نظام الدین میں ہے۔ اسی سے ذرا آگے بڑھنے پر حضرت نظام الدین اولیا کا مزار بھی ہے جس کے آنگن میں اردو اور فارسی کے بڑے نامور شاعر حضرت امیر خسرو بھی مدفون ہیں۔

مرزا غالب کی تصانیف:

دیوان ِ غالب:  اس میں مرزا کا اردو کلام ہے جس میں غزلو ں کے علاوہ قصائد، قطعات اور رباعیات ہیں۔

دستنبو:         اس کتاب میں 1850 سے لے کر 1857 تک کے حالات درج ہیں۔ یہ کتاب فارسی میں ہے جو پہلی بار 1858 میں شائع ہوئی۔ اردو میں اس کا ترجمہ خواجہ احمد فاروقی نے کیا ہے۔

مہر نیمروز: تیمور سے ہمایوں کے عہد تک کے حالات لکھے۔ پھر بادشاہ کی فرمائش پر حکیم احسن اللہ خاں نے حضرت آدم سے چنگیز خاں تک کی تاریخ مرتب کی جسے غالب نے فارسی میں منتقل کیا۔

قاطع بُرہان: فارسی لغت ‘برہانِ قاطع’ از مولوی محمد حسین تبریزی کا جواب ہے۔ قاطع برہان کی اشاعت 1861 میں ہوئی بعد میں اعتراضات کا اضافہ کرکے غالب نے اسی کو ‘دُرفش کاویانی’ کے نام سے 1865 میں شائع کیا۔

میخانۂ آرزو: فارسی کے کلام کا پہلا ایڈیشن 1845 میں اسی نام سے چھپا۔ پھر بعد میں کلیات کی شکل میں کئی ایڈیشن چھپے۔

سبد چین: اس نام سے فارسی کلام1867 میں چھپا۔ اس مجموعے میں مثنوی ابر گہربار کے علاوہ وہ کلام ہے جو فارسی کے کلیات میں شامل نہیں ہوسکا تھا۔

دعائے صباح: عربی میں دعاء الصباح حضرت علی سے منسوب ہے۔ غالب نے اسے فارسی میں منظوم کیا۔ یہ اہم کام انھوں نے اپنے بھانجے مرزا عباس بیگ کی فرمائش پر کیا تھا۔

عودہندی: پہلی مرتبہ مرزا کے اردو خطوط کا یہ مجموعہ 1868 میں چھپا۔

اردوئے معلیٰ: غالب کے اردو خطوط کا مجموعہ ہے جو 1869 میں شائع ہوا۔

مکاتیب غالب: مرزا کے وہ خطوط شامل ہیں جو انھوں نے دربار رامپور کو لکھے تھے اور جسے امتیاز علی خاں عرشی صاحب نے مرتب کرکے پہلی مرتبہ 1937 میں شائع کیا۔

نکات غالب رقعات غالب: نکات غالب میں فارسی صَرف کے قواعد اردو میں اور رقعات غالب میں اپنے پندرہ فارسی مکتوب ‘پنج آہنگ’ سے منتخب کرکے درج کیے تھے۔ غالب نے ماسٹر پیارے لال آشوب کی فرمائش اور درخواست پر  یہ کارنامہ انجام دیا تھا۔

قادرنامہ: مرزا نے عارف کے بچوں کے لیے آٹھ صفحات پر مشتمل یہ ایک مختصر رسالہ لکھا تھا جس میں ‘خالق باری’ کی طرز پر فارسی لغات کا مفہوم اردو میں لکھا گیا تھا۔ جیسے اس نظم کا پہلا شعر ہے:

 

قادر اللہ اور یزداں ہے خدا

ہے نبی مرسل، پیمبر رہنما

 

(2)  غالب کی شاعری

ہزاروں خواہشیں ایسی کہ ہر خواہش پہ دم نکلے

بہت نکلے مرے ارمان لیکن، پھر بھی کم نکلے

غالب کا یہ  شعر کچھ اتنا مشہور و معروف ہے کہ عام آدمی بھی اسے پڑھتا رہتا ہے۔ اس کی سب سے بڑی وجہ یہ ہے کہ غالب نے انسان کے احساس اور جذبے کو چھُوا ہے۔ غالب شاعروں کی بھیڑ میں دور سے پہچانے جاتے ہیں۔

غالب کی سب سے بڑی خوبی تو یہی ہے کہ وہ کسی بھی مضمون کو کچھ اس انداز سے پیش کرتے ہیں کہ قاری یا سامع خود بخود اس کی طرف متوجہ ہوجاتا ہے۔ اس بات کا خود غالب کو بھی اندازہ تھا کہ ان کا طرز اظہار دوسروں سے یکسرجداگانہ ہے اور وہ اپنے انداز بیان کا فخریہ اظہار بھی کرتے ہیں:

 

ہیں اور بھی دنیا میں سخنور بہت اچھے

کہتے ہیں کہ غالب کا ہے اندازِ بیاں اور

 

مرزا غالب کی شاعری میں ان کی غزل گوئی کو خاص امتیازی شان حاصل ہے۔ جب وہ مشکل پسندی اور فارسی زدہ اسلوب سے باہر آئے تو ان کی غزلوں میں اس نوع کے اشعار اپنی بہار دکھانے لگے:

ہوس کو ہے نشاطِ کار کیا کیا

نہ ہو مرنا تو جینے کا مزا کیا کیا

ہے آدمی بجائے خود اک محشر خیال

ہم انجمن سمجھتے ہیں خلوت ہی کیوں نہ ہو

ہر ایک بات پہ کہتے ہو تم کہ تو کیا ہے

تمھیں کہو کہ یہ اندازِ گفتگو کیا ہے؟

دیکھنا تقریر کی لذت کہ جو اس نے کہا

میں نے یہ جانا کہ گویا یہ بھی میرے دل میں ہے

اور بازار سے لے آئے اگر ٹوٹ گیا

ساغر جم سے مرا جامِ سفال اچھا ہے

حال دل لکھوں کب تک، جاؤں اُن کو دکھلا دوں

انگلیاں فگار اپنی، خامہ خونچکاں اپنا

 

ان اشعار سے غالب کے انداز بیان کا پتہ چلتا ہےکہ وہ کسی پامال مضمون کو بھی بڑی خوبصورتی سے پیش کردیا کرتے تھے۔

غالب نے اپنی غزلوں میں انسانی زندگی اور جذبات کے مختلف Shades پیش کیے ہیں۔ کائنات کے حسن اور محبوب کے حسن پر غالب نے بڑی خوبصورتی سے شاعرانہ نظر ڈالی ہے، لیکن چوں کہ غزل کا فن رمز و ایما کا فن ہوتا ہے، اس لیے غالب کی غزلوں میں جو جمالیاتی پر تو یا حسن کی شمعیں روشن ہیں، وہ ان کی تخلیقی ہنرمندی پر دلالت کرتی ہیں۔ اس ذیل میں چند شعر ملاحظہ کیجیے:

 

جب وہ جمالِ دل فروز صورتِ مہرِ نیم روز

آپ ہی ہو نظارہ سوز پردہ میں مُنھ چھپائے کیوں

وہ آئیں گھر میں ہمارے خدا کی قدرت ہے

کبھی ہم ان کو کبھی اپنے گھر کو دیکھتے ہیں

آرائشِ جمال سے فارغ نہیں ہنوز

پیشِ نظر ہے آئینہ دائم نقاب میں

تو اور سوئے غیر نظر ہائے تیز تیز

میں اور دکھ تری مژہ ہائے دراز کا

غنچہ پھر لگا کھلنے، آج ہم نے اپنا دل

خوں کیا ہوا دیکھا، گُم کیا ہوا پایا

صد جلوہ روبرو ہے جو مژگاں اٹھائیے

طاقت کہاں کہ دید کا احساں اٹھائیے

بھرم کھُل جائے ظالم تیرے قامت کی درازی کا

اگر اس طرۂ پُرپیچ و خم کا پیچ و خم نکلے

کرے ہے قتل، لگاوٹ میں تیرا رو دینا

تری طرح کوئی تیغ نِگہ کو آب تو دے

 

مذکورہ بالا اشعار میں غالب نے محبوب اور اس سے متعلق مختلف پہلوؤں کو الگ الگ انداز میں، بلکہ یہ کہیے کہ الگ الگ مضمون کی شکل میں پیش کیا ہے۔ یہاں اس کا موقع نہیں کہ ان اشعار کی تشریح و تعبیر پیش کی جائے کیوں کہ دوسرے شعری اوصاف پر بھی گفتگو ہوگی۔

عشق ایک ایسا موضوع ہے جسے آفاقی کہا جاتا ہے۔ یعنی، اس مضمون کو تمام زبانوں کے شعرا نے اپنے اپنے طور پر باندھا اور برتا ہے۔ اردو شاعری میں اس مضمون کا اتنا بڑا سرمایہ ہے کہ پوری کتاب لکھی جاسکتی ہے، بلکہ فراق گورکھپوری نے تو ‘ارد وکی عشقیہ شاعری’ کے عنوان سے ایک کتاب تحریر بھی کی تھی، یہ الگ بات ہے کہ تمام گوشے نہیں آسکے تھے یا یوں کہہ لیں کہ اس کی نوعیت ہی کچھ اور تھی۔ خیر، بات غالب کی غزلوں میں عشق کے مضمون کی ہورہی ہے۔

اگر دیکھا جائے تو غالب کی پوری شاعری میں محبت اور عشق کا جذبہ اپنی مختلف صورتوں میں جلوہ گر نظر آتا ہے۔ کہیں شوخی اور کھلنڈرے پن سے کام لیتے ہوئے نظر آتے ہیں تو کہیں ان کی نفسیاتی الجھن انھیں کسی اور طرف لے جاتی ہے، کبھی وہ دوسرے عاشقوں پر طنز کرتے ہیں اور کبھی اپنے جذبۂ عشق اور دیوانگی کو بلند مقام عطا کرتے ہیں۔ کبھی وہ فرہاد تو کبھی قیس کو عشق کے مضمون کے درمیان لے آتے ہیں۔ چوں کہ یہ دونوں کردار ایسے ہیں جو اپنی دیوانگیٔ شوق اور اپنے جذبۂ عشق کی انتہا کے لیے مشہور ہیں۔ آئیے کچھ اشعار دیکھیے جن سے دیوانگی اورعشق کے کئی رنگ واضح ہوتے ہیں:

 

وائے دیوانگیٔ شوق کہ ہر دم مجھ کو

آپ جانا اُدھر اور آپ ہی حیراں ہونا

میں نے مجنوں پہ لڑکپن میں اسدؔ

سنگ اٹھایا تھا کہ سر یاد آیا

دل میں ذوقِ وصل و یادِ یار تک باقی نہیں

آگ اس گھر میں لگی ایسی کہ جو تھا، جل گیا

عاشقی صبر طلب اور تمنا بے تاب

دل کا کیا رنگ کروں خونِ جگر ہونے تک

تیشے بغیر مر نہ سکا کوہکن اسدؔ

سرگشتۂ خمارِ رسوم و قیود تھا

سنبھلنے دے مجھے اے ناامیدی کیا قیامت ہے

کہ دامانِ خیال یار چھوٹا جائے ہے مجھ سے

فنا تعلیم درس بیخودی ہوں اس زمانے سے

کہ مجنوں لام الف لکھتا تھا دیوارِ دبستاں پر

شوق ہر رنگ رقیب سر و ساماں نکلا

قیس تصویر کے پردے میں بھی عریاں نکلا

عشق سے طبیعت نے زیست کا مزا پایا

درد کی دوا پائی، دردِ لادوا پایا

جذبۂ بے اختیارِ شوق دیکھا چاہیے

سینۂ شمشیر سے باہر ہے دم شمشیر کا

گر کیا ناصح نے ہم کو قید، اچھا یوں سہی

یہ جنونِ عشق کے انداز چھُٹ جائیں گے کیا؟

ہوئے ہیں پاؤں ہی پہلے نبرد عشق میں زخمی

نہ بھاگا جائے ہے مجھ سے نہ ٹھہرا جائے ہے مجھ سے

 

عشق کی آشفتہ سری یا اس کا بے محابا پن، اپنے اندر ایک ایسی آنچ رکھتا ہے جو خس و خاشاک عالم کو خاکستر میں بدل سکتی ہے۔  عشق ہی سے زندگی میں مزا ہے اور یہ عشق ہی درد کی دوا بھی ہے اور ایسا درد ہے جس کی کوئی دوا نہیں۔ غالب نے فرہاد اور مجنوں کو طنز کا نشانہ اسی وجہ سے بنایا ہے کہ وہ تو ‘رسوم و قیود’ کا پابند تھا۔ یا اپنی تعریف کرتے ہیں جب قیس (مجنوں) مکتب عشق میں ‘لام الف’ لکھ رہا تھا اس وقت میری فنا فی العشق  ‘(فنا تعلیم درس بیخودی)’ کی تعلیم مکمل ہوچکی تھی۔ غالب تو فرہاد کو خسرو کی عشرت گاہ کا مزدور کہتا ہے:

 

عشق و مزدوریٔ عشرت گہِ خسرو کیا خوب!

ہم کو تسلیمِ نکو نامئی فرہاد نہیں

اس حوالے سے مجنوں گورکھپوری لکھتے ہیں:

‘‘غالب کی طبیعت جس بات کو کسی طرح قبول نہیں کرسکتی وہ یہ ہے کہ فرہاد وصل کی آرزو سے اس قدر بے قابو ہوگیا کہ وہ قصرِ شیریں تک پہاڑ کاٹ کر نہر جاری کرنے کے لیے تیار ہوگیا اور یہ نہ سوچا کہ  یہ تو رقیب کی، جو ایک جابر شہنشاہ ہے مزدوری کرنا ہے اور اُسی کے لیے عیش و نشاط مہیا کرنا ہے۔’’

(غالب، شخص اور شاعراز مجنوں گورکھپوری، ایجوکیشنل بک ہاؤس، علی گڑھ، 2010، ص 57)

غالب  کی شوخی و ظرافت ایک الگ مضمون کا متقاضی ہے۔ کبھی خود پر ہنسنا کبھی دوسروں پر طنز کرنا اور کبھی محبوب سے شوخی اور کبھی خالق کائنات سے شوخی۔ اسی طرح ایک انسان یا ایک بندہ اپنے وجود، کائنات اور معاشرے سے کس طرح کا رشتہ رکھ سکتا ہے یا یہ کہہ لیں کہ غالب ان پر بطور ایک شاعر یا فنکار کے، کس طرح نگاہ ڈالتے ہیں، وہ غور طلب ہے۔ یہ اشعار دیکھیے:

 

پکڑے جاتے ہیں فرشتوں کے لکھے پر ناحق

آدمی کوئی ہمارا دم تحریر بھی تھا؟

ان پری زادوں سے لیں گے خلد میں ہم انتقام

قدرتِ حق سے یہی حوریں، اگر واں ہوگئیں

خدا کے واسطے پردہ نہ کعبہ کا اٹھا واعظ

کہیں ایسا نہ ہو یاں بھی وہی کافر صنم نکلے

جانتا ہوں ثوابِ طاعت و زُہد

پر طبیعت ادھر نہیں آتی

ہم کو معلوم ہے جنت کی حقیقت لیکن

دل کے خوش رکھنے کو غالب یہ خیال اچھا ہے

 

طنز و ظرافت کے لیے ذہانت اور فطانت کی ضرورت ہوتی ہے۔  مرزا غالب کی ذہنی ساخت اور میلان طبع اس بات کی گواہی دیتے ہیں اور اسی لیے تو حالی نے انھیں ‘حیوان ظریف’ بھی کہا تھا۔ اس شوخی اور ظرافت میں غالب کی طُرفگیٔ فکر کی جلوہ سامانی نظر آتی ہے۔ جس زندہ دلی اور خوش طبعی سے غالب کا شعری آہنگ یا شوخی و ظرافت والا لہجہ تشکیل پاتا ہے، وہ لائق توجہ ہے۔ کبھی کسی کو شاید دل لگی اور تمسخر یا محض ٹھٹھول معلوم ہو، لیکن غالب کے اس نوع کے اشعار میں بھی ایک طرح کا المیہ اور زخم خوردہ کردار ابھرتا ہے۔ شیخ محمد اکرام کے بقول:

‘‘جوں جوں انھیں زندگی کے نشیب و فراز سے آگاہی ہوتی گئی وہ ان واقعات پر مسکرانے لگے جن کے لیے پہلے آنسو بہاتے تھے... مرزا کی شوخی کی اصل بنا ان کی جدت طرازی اور ہر بات میں نیا پہلو نکالنے کی عادت تھی۔ لیکن یہ بھی ظاہر ہے کہ جس طریقے سے انھوں نے رنج و غم کی باتوں میں شگفتگیٔ طبع کو برقرار رکھا، وہ اسی آدمی کا حصہ ہوسکتا تھا جس نے بقول ان کے ‘سختی و سستی و رنج و غم کو ہموار’ کردیا ہو۔’’

(غالب نامہ از شیخ محمد اکرام، احسان بکڈپو، لکھنؤ، سال اشاعت ندارد، ص 221)

مذکورہ بالا طرزِ فکر کی روشنی میں اب یہ اشعار ملاحظہ کیجیے:

 

چاہتے ہیں خوب رویوں کو اسد

آپ کی صورت تو دیکھا چاہیے

نکالا چاہتا ہے کام کیا طعنوں سے تو غالب

ترے بے مہر کہنے سے وہ تجھ پر مہرباں کیوں ہو

جب میکدہ چھٹا تو پھر اب کیا جگہ کی قید

مسجد ہو، مدرسہ ہو کوئی خانقاہ ہو

طاعت میں تا رہے نہ مے وانگبیں کی لاگ

دوزخ میں ڈال دو کوئی لے کر بہشت کو

میں نے کہا کہ بزم ناز غیر سے چاہئے تہی

سُن کے ستم ظریف نے مجھ کو اٹھا دیا کہ یوں

واعظ نہ تم پیو نہ کسی کو پلا سکو

کیا بات ہے تمھاری شراب طہور میں

 

غالب کی غزلوں میں جو گہرے فکری مضامین ملتے ہیں ان پر تفصیلی گفتگو ممکن نہیں۔ البتہ، یہ دیکھنا ضروری ہے کہ آخر وہ کون سے عوامل (factors) ہیں جن کی بنیاد پر انھیں وجدان (intuition) کے بجائے ذہن کے شاعر کے طور پر پیش کیا گیا؟ یا اسے یوں سمجھ لیں کہ ان کی شاعری میں گہرے فکری رموز کی کارفرمائی نظر آتی ہے۔ اسلوب احمد انصاری کا ماننا ہے کہ ‘‘غالب کے یہاں باضابہ فکری نظام کی تلاش عبث ہے۔ وہ زندگی کے جلوہ ہائے صدرنگ کی تصویر کشی کرتے اور زندگی کے متعلق مختلف اور بعض اوقات متضاد انداز ہائے نظر کو ہماے اندر ابھارتے ہیں۔’’ (نقش غالب: غالب اکادمی، نئی دہلی،اکتوبر 1970، ص 35)

لیکن میں سمجھتا ہوں کہ غالب کا باضابطہ کوئی فکری نظام بھلے ہی نہ ہو، مگر ان کی پوری شاعری پر فکر و فلسفے کی گہری چھاپ ضرور نظر آتی ہے۔ وہ پوری کائنات اور انسانی دنیا کو غور سے اور سوالیہ اندازمیں دیکھتے ہیں۔ آئیے کچھ اشعار دیکھتے ہیں جن میں غالب کی گہری فکر اور تخیل کے نقوش ابھرتے ہیں:

 

رات دن گردش میں ہیں سات آسماں

ہو رہے گا کچھ نہ کچھ، گھبرائیں کیا؟

گھر ہمارا جو نہ روتے بھی تو ویراں ہوتا

بحر اگر بحر نہ ہوتا تو بیاباں ہوتا

غم ہستی کا اسد کس سے ہو جُز مرگ علاج

شمع ہر رنگ میں جلتی ہے سحر ہونے تک

میں عدم سے بھی پرے ہوں ورنہ غافل! بارہا

میری آہِ آتشیں سے بالِ عنقا جل گیا

منظر اک بلندی پر اور ہم بنا سکتے

عرش سے پرے ہوتا کاش کہ مکاں اپنا

 

ان شعروں میں جو فکری ابعاد (dimension) ہیں وہ گرچہ تجربات و مشاہدات کے بعد پیدا ہوئے ہیں، مگر غور کرنے سے یہ پتہ چلتا ہے کہ یہ تجربے اور مشاہدے تو ہمارے بھی ہیں اور دوسرے شعرا کے بھی، لیکن دوسروں  کے یہاں اس قدر مختلف ابعاد کیوں پیدا نہیں ہوسکے؟ سیدھا سا جواب یہ ہوسکتا ہے کہ  غالب کے خیال کی بلندی اور مشاہدے دونوں نے جدت طرازی اور تخلیقی ہنرمندی کے فیض سے ایسے نقوش اور ابعاد پیدا کیے ہیں۔ ان کی پرواز خیال ان کے مشاہدے کو اور بھی بلند کردیتی ہے۔ یہ شعر سنیے:

 

سب کہاں، کچھ لالہ و گل میں نمایاں ہوگئیں

خاک میں کیا صورتیں ہوں گی کہ پنہاں ہوگئیں

 

اس شعر میں غالب کی مضمون آفرینی اور جدت طرازی دیکھی جاسکتی ہے۔ اس طرح غالب پورے عالم کو دام خیال تصور کرتے ہیں۔ گویا خیال کا جال سا بچھا ہوا ہے۔ غالب نے اپنے فکری کینوس پر حیرت انگیز نقوش اور مبالغہ آمیز تصویریں بھی بنائی ہیں:

 

عرض کیجے جوہرِ اندیشہ کی گرمی کہاں

کچھ خیال آیا تھا وحشت کا کہ صحرا جل گیا

ہاتھ دھو دل سے یہی گرمی گر اندیشے میں ہے

آبگینہ تندیٔ صہبا سے پگھلا جائے ہے

ہے پرے سرحدِ ادراک سے اپنا مسجود

قبلہ کو اہل نظر قبلہ نما کہتے ہیں

ان آبلوں سے پاؤں کے گھبرا گیا تھا میں

جی خوش ہوا ہے راہ کو پُرخار دیکھ کر

 

اردو غزل میں جو روایتی طرز اظہار رہا ہے، غالب نے اس سے خود کو الگ کیا، جس سے ان کا اپنا ‘انداز بیان’ پیدا ہوا۔ استعاروں (metaphor) اور تشبیہوں (simile) کے برمحل اور برجستہ استعمال پر غالب کو دسترس ہے۔ یہ دونوں صنعتیں ایسی ہیں جن سے اشعار کا معنیاتی نظام  پرت در پرت بنتا جاتا ہے۔

غالب کی غزلوں میں تصوف  (mysticism) کے مضامین بھی آب و تاب کے ساتھ نظر آتے ہیں۔ انھوں نے مرزا بیدل سے متاثر ہوکر وحدت الوجودی اشعار کہے۔ جو شاعر تصوف کے شعر کہتا ہے اس کی شاعری میں حسن کے ساتھ ایک طرح کی رفعت بھی پیدا ہوجاتی ہے۔ غالب بھی اس حقیقت سے بخوبی واقف تھے۔ فراق گورکھپوری نے اپنے مضمون میں لکھا ہے کہ‘‘انسان کی عظمت کا شعور عرفانِ نفس اور کائنات کے روحانی پہلو کا احساس یہ تمام باتیں غزل میں تصوف ہی کے لگاؤ سے آتی ہیں۔’’ (مضمون: نگار، مئی 1938)

یوں بھی یہ مقولہ عام ہے کہ تصوف برائے شعر گفتن خوب است۔ لیکن اگر حالی کی بات مان لی جائے تو پھر غالب کی متصوفانہ شاعری کی وقعت اور اس کے معیار کو تسلیم کرنا پڑے گا۔ وہ لکھتے ہیں کہ تصوف سے ان کو خاص مناسبت تھی۔ حقائق و معارف کی کتابیں اور رسالے کثرت سے ان کے مطالعہ سے گزرے تھے اور سچ پوچھیے تو ان ہی متصوفانہ خیالات نے مرزا کو نہ صرف اپنے ہم عصروں میں بلکہ بارہویں اور تیرہویں  صدی ہجری کے تمام شعرا میں ممتاز بنا دیا تھا۔ (بحوالہ: شرح دیوان غالب: یوسف سلیم چشتی، ص 150)

حالی نے شاید عہد میر کے خواجہ میردرد کو بھلا دیا۔ دوسرے شعرا بھی نکل  آئیں گے۔ آتش کے کلام میں بھی اور اس طرح کے دوسرے شعرا بھی ہیں جن کے کلام میں اس مضمون کے اشعار ملتے ہیں۔ پھر یہ کہنا کہ نظیری اور بیدل کے بعد کسی اور نے گویا فارسی میں بھی بیان نہیں کیا، یہ رائے غور طلب ہے۔ غالب چوں کہ باکمال تخلیقی فنکار تھے، اس لیے صوفی نہ ہوتے ہوئے بھی کبھی کبھی اچھے شعر نکال لے جاتے تھے۔ یہ اشعار ملاحظہ کیجیے:

 

دہر جز جلوۂ یکتائی معشوق نہیں

ہم کہاں ہوتے اگر حسن نہ ہوتا خودبیں

قطرہ میں دجلہ دکھائی نہ دے اور جزو میں کُل

کھیل لڑکوں کا ہوا، دیدۂ بینا نہ ہوا

محرم نہیں ہے تو ہی نواہائے راز کا

یاں ورنہ جو حجاب ہے پردہ ہے ساز کا

اُسے کون دیکھ سکتا کہ یگانہ ہے وہ یکتا

جو دوئی کی بو بھی ہوتی تو کہیں دو چار ہوتا

نہ تھا کچھ تو خدا تھا، کچھ نہ ہوتا تو خدا ہوتا

ڈبویا مجھ کو ہونے نے، نہ ہوتا میں تو کیا ہوتا

عشرت قطرہ ہے دریا میں فنا ہوجانا

درد کا حد سے گزرنا ہے دوا ہوجانا

 

ان شعروں کی تشریح نہیں کی جائے گی کہ یہاں بہرحال، محض مثالیں پیش کرنی تھیں۔ ان کے علاوہ بھی بہت سے اشعار اسی مضمون کے ہیں، لیکن ان میں ثقالت ہے اور دل کو متاثر نہیں کرتے۔

غالب کی شہرت ان کی غزلوں میں انسانی جذبات اور سچے مشاہدات و تجربات کی خوبصورت پیش کش کے سبب ہے۔ یہی وہ انسانی جذبات و احساسات (emotions & feelings) ہیں جو اپنے اندر آفاقی طور پر کشش رکھتے ہیں۔ یہی وجہ ہے کہ غالب کی غزلوں کے اشعار ہمارے دلوں کو اپنی طرف کھینچ لیتے ہیں۔ یوں بھی کہہ سکتے ہیں کہ ایسے اشعا ر میں سماجی رنگ اور حالات زندگی کی تصویریں نظر آتی ہیں۔ ان میں بھی غالب کا جو شعری آہنگ اور طرز بیان ہے، وہ سونے پر سہاگے کا کام کرتا ہے اور پھر ایسے اشعار ہمارے ذہن و دل دونوں کو متاثر کرتے ہیں۔ یہاں چند منتخب اشعار پیش کئے جاتے ہیں:

 

وہ آئیں گھر میں ہمارے خدا کی قدرت ہے

کبھی ہم ان کو کبھی اپنے گھر کو دیکھتے ہیں

غم ہستی کا اسدؔ کس سے ہو جُز مرگ علاج

شمع ہر رنگ میں جلتی ہے سحر ہونے تک

ہزاروں خواہشیں ایسی کہ ہر خواہش پہ دم نکلے

بہت نکلے مرے ارمان، لیکن پھر بھی کم نکلے

جانتا ہوں ثوابِ طاعت و زہد

پر طبیعت ادھر نہیں آتی

رنج سے خوگر ہوا انساں تو مٹ جاتا ہے رنج

مشکلیں مجھ پر پڑیں اتنی کہ آساں ہوگئیں

بسکہ دشوار ہے ہر کام کا آساں ہونا

آدمی کو بھی میسر نہیں انساں ہونا

دل ہی تو ہے نہ سنگ و خشت درد سے بھر نہ آئے کیوں

روئیں گے ہم ہزار بار کوئی ہمیں ستائے کیوں

 

ان شعروں  میں آپ دیکھ سکتے ہیں کہ غالب نے انسانی نفسیات اور جذبات کو کس گہرائی سے محسوس کیا ہے۔

غالب نے زندگی کو بہت قریب سے دیکھا ہے، تجزیہ کیا ہے اور غم و نشاط دونوں طرح کے لمحوں کو اپنی غزلوں کا حصہ بنایا ہے۔

انھوں نے زندگی اور انسانوں کی حقیقتوں کو قریب سے دیکھا، سمجھا اور پیش کیا۔ ان کی شاعری میں بناوٹ کے بجائے ایک طرح کی برجستگی ملتی ہے۔ غالب کو ان کے اسی اسلوب اور طرزِ ادا نے بڑا شاعر اور فنکار بنا دیا۔