रामनामी सम्प्रदाय वस्तुतः छत्तीसगढ़ के सतनामी पंथ से निःसृत और कबीरपंथी प्रभाव से उपजा संप्रदाय है। सन १७५६ में जन्मे गुरू घासीदास ने यहाँ सतनाम पंथ की स्थापना की थी। गुरू घासीदास ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं और ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा तथा वर्णों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। उन्होंने मूर्तिपूजा को वर्जित किया।
इनके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्तिपूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, पर स्त्री गमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं। उन्होंने सत्य के प्रतिक के रूप में ‘जैतखाम’ को दर्शाया, यह एक सफ़ेद रंग किया हुआ स्तंभ होता है जिस पर सफ़ेद झंडा फहराता है। सफ़ेद रंग को सत्य का प्रतीक माना जाता है।
Image: जैत खम्ब. Photo Credit: Mushtak Khan.
छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनामपंथ के आज भी लाखों अनुयायी हैं। इसी सतनामी पंथ के लोगों में रामनामी संप्रदाय का उदय हुआ था।
कहते हैं आज से ११० वर्ष पहले यह संप्रदाय अस्तित्व में आया। सन १८९० के आसपास जांजगीर जिले के चारपारा गांव के दो सतनामी भाइयों परशुराम भारद्वाज और लहरी के माध्यम से इसका प्रस्फुटन हुआ। इसके उदभव के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। सारस कला गांव की प्रतिष्ठित रामनामी साध्वी सैतबाई रामनामी कहती हैं- “चारपारा गांव में परशुराम और लहरी, सतनामी समुदाय के दो भाई रहते थे। वे दौनों ही बचपन से ही रामराम प्रेमी थे और रामराम भजन करते थे। उन्हें एक रात आकशवाणी हुई कि तुम दौनों अपने शरीर पर रामराम नाम लिखवाओ और रामराम नाम का भजन करो। सुबह उन्होंने देखा कि उनकी कुटिया की दीवार पर रामराम के चार अक्षर स्वतः ही लिख गए हैं। उन्होंने उसे नमस्कार किया और आरती की। फिर सभी गांववालों को बुलाकर यह बताया और दिखाया। अनेक लोगों को इस घटना पर विश्वास हो गया और उस समय से वे रामराम नाम का भजन करने लगे।“
Image: सैत बाई रामनामी. Photo Credit: Mushtak Khan.
इस घटना अथवा कथा के कई रूप यहाँ प्रचलित हैं। कुछ रामनामी बताते हैं कि परशुराम भरद्वाज एक सतनामी समुदाय के व्यक्ति थे जिन्हें कोई असाध्य बीमारी थी। उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे एक रात घर छोड़कर जंगल को चल दिए। रस्ते में उन्हें एक साधू मिला जिसने उन्हें कहा जिसे तुम ढूंड रहे हो वह तो तुममें है, घर जाओ और रामराम नाम का भजन करो। तुमसे ही रामराम नाम का प्रकाश फैलेगा। सुबह उनकी बीमारी दूर हो गयी और उनके पूरे शरीर पर स्वतः ही रामराम का नामअंकित हो गया। परशुराम भरद्वाज ने अपने साथी लहरी के साथ रामराम नाम का प्रसार किया।
ग्राम चंदली डीह के गुलाराम रामनामी जो रामनामी सभा के सचिव भी हैं, बताते हैं कि सन १८८० के दशक में इस क्षेत्र में एक बड़े साधू मुकुंद दास बैरागी जो वैष्णव समाज के थे, वे सत्य की खोज में बोतल्दा पहाड़ पर तपस्या करते थे। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त थीं, वे पानी पर चल सकते थे, अग्नि उन्हें जलाती नहीं थी। एक रात उन्हें आकाशवाणी हुई कि इस कलियुग में तुम सत्य की खोज में हो तो कलियुग में उद्धार नाम जाप से होगा जिसका प्रकाश चारपारा गांव में हो चुका है। वे जब चारपारा गांव पहुंचे तब वहां के सतनामी समुदाय के परशुराम और लहरी से मिले और देखा कि उनकी कुटिया की दीवार पर स्वतः ही रामराम के चार अक्षर काले रंग से लिखे उभर आये हैं और परशुराम के शरीर पर भी स्वतः रामराम लिखा गया है। उन्हें विश्वास हुआ और उन्होने भी अपने समूचे शरीर पर रामराम लिखवा लिया। उसी समय से रामनामी संप्रदाय अस्तित्व में आया और इसके अनुयायियों ने अपने शरीर और वस्त्र पर रामराम लिखवाना आरम्भ किया।
Image: कलश पूजा. Photo Credit: Mushtak Khan.
गुलाराम रामनामी बताते हैं कि‘ रामनामी संप्रदाय एक वर्ण एवं जाति विहीन समुदाय है जिसमें कोई गुरु शिष्य नहीं, कोई छोटा–बड़ा नहीं है। कोई मूर्ती, मंदिर, देवी-देवता, कर्म कांड नहीं है। न स्वर्ग है न नर्क है न मोक्ष है केवल नाम का स्मरण है बस उसी में रमना है।‘
आरम्भ में तो ब्राह्मणों सहित अनेक जातियों के लोग इस संप्रदाय का अंग बने परन्तु सतनामियों ने इसे सर्वधिक संख्या में अपनाया।
गुलाराम रामनामी कहते हैं, “रामनामी संप्रदाय के लोग रामायण भी पढ़ते हैं, परन्तु दशरथ पुत्र राम, लक्षमण और सीता, हनुमान आदि को देवरूप में नहीं मानते। वे किसी देवी-देवता की जय-जयकार भी नहीं करते। रामायण के केवल उन अंशों को पढ़ते और मानते हैं जिनमे नाम की महिमा और महत्त्व का बखान किया गया है तथा समाज में समरसता लाने की बातें कही गई हैं। हम रामायण के उन अंशों को जो जाति व्यवस्था और भेदभाव को बढ़ावा देते हैं, छोड़ देते हैं। वे कहते हैं हम रामायण को, जाति व्यवस्था के विरुद्ध और अछूतों के अधिकार के समर्थन में तर्क स्वरुप प्रयोग करते हैं।“
नाम महत्त्व की धारा में रामनामी संप्रदाय पंद्रहवीं शताब्दी में हुए संत कबीर के अधिक निकट है। रामनामी अपने भजनों में कबीर एवं अन्य संतों की वाणियों का भी उच्चार करते हैं। कबीर रचित बीजक, साखी, सुखसागर आदि ग्रन्थ रामनामी पढ़ते हैं।
कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि नाम, रूप से बढ़कर है। कबीर राम-नाम को उदात्त एवं व्यापक स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बाँधे जाने का विरोध करते हैं। कबीर के राम निर्गुण-सगुण के भेद से परे हैं। उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुणराम’ शब्द का प्रयोग किया–
निर्गुण राम जपहु रे भाई।’
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं।
वह कहते हैं -
व्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी।
रावण-राव कवन सूं कवन वेद को रोगी।
कबीर राम की किसी खास रूपाकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि रूपाकृति की कल्पना करते ही राम किसी खास ढाँचे में बँध जाते हैं। कबीर राम की अवधारणा को एक भिन्न और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे।
वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र में कबीरपंथी संप्रदाय का बहुत प्रभाव है, यहाँ दामाखेड़ा नामक स्थान पर कबीरधाम की स्थापना की गयी है।अनेक गांवों में कबीर आश्रम हैं।
जो बात संत कबीर पंद्रहवीं सदी में कह रहे थे, लगभग उसी बात को रामनामियों ने उन्नीसवीं सदी में आगे बढ़ाया। वे भी राम के संकीर्ण रूप को छोड़कर राम नाम की अनंत और सर्वव्यापी धारा को लेकर आगे बढ़े। परन्तु वे कबीर के गुरु महत्त्व को अस्वीकार करते हैं। रामनामी समुदाय इस मायने में कबीर पंथ से पूर्णतः भिन्न है, यहाँ गुरु, गुरुगद्दी, गुरुपूजा परम्परा का कोई स्थान नहीं है।
एक अन्य तथ्य जो रामनामियों को कबीर के निकट लाता है वह है, रामनामी साधुओं द्वारा मोरमुकट धारण करना। कबीर भी मोर मुकट धारण करते थे, यह उनके प्रचलित छायाचित्रों से ज्ञात होता है। यद्यपि इस बात का कोई सीधा सम्बन्ध रामनामी नहीं स्वीकारते परन्तु यह एक साम्य तो है ही।
Image: रामनामी ओढ़नी और मोर मुकुट. Photo Credit: Mushtak Khan.
रामनामी साध्वी सैतबाई कहती हैं “हमारा रामराम, दशरथ का बेटा राम नहीं है। वह तो राजा के घर पैदा हुआ मनुष्य है। नाम तो राजा राम के जन्म से बहुत पहले बन गया है। ईश्वर तो निराकार निरंजन है। वह तुम्हारे में भी बसा है हमारे में भी बसा है। उसका तो कोई रूप नहीं है, रेखा नहीं है। उसको कोई देखा है क्या? हम किसी मंदिर में नहीं जाते, किसी का मूर्ती नहीं मानते, मूर्ती को प्रणाम नहीं करते। हम दुर्गा, गणेश आदि देवी–देवता को नहीं मानते सिर्फ नाम को मानते हैं। जो हमने शरीर पर लिखाया है वही नाम है, हम उसीका भजन करते हैं। जब हम भजन करते है तो हमें नाम का अनुभव होता है, हमारे मन में नाम चक्र घूमता है। “
Image: शरीर पर रामराम लिखाई. Photo Credit: Anzaar Nabi.
रामनामी समुदाय में आचरण की परिशुध्दता पर सर्वाधिक महत्त्व है। शाकाहार, माँस–मदिरा का त्याग, निष्काम चित्त, वासनाओं का त्याग महत्वपूर्ण है। निरंतर भजन और स्मरण ही सर्वोपरि है।
रामनामियों के मंदिर नहीं होते परन्तु उनके भजन आश्रम होते हैं। उनके सबसे पुराने भजनआश्रम ग्राम पिरदा, विकासखंड मालखरौदा, जिला जांजगीर; ग्राम उड़कानन, विकासखंड बिलाईगढ़ तथा शिवरी नारायण में हैं। इन आश्रमों में कोई मूर्ति नहीं होती, दरवाजे के ऊपर और दीवार पर रामराम लिखा होता है। कहते हैं उड़कानन का आश्रम एक रामनामी भक्तिन ने बनवाया था। पहले यहाँ उसका स्मारक भी था जिसे बाद में हटा दिया गया। यहाँ चैत्र मास की सप्तमी, अष्टमी और नवमी को भजन का आयोजन और मेला होता है। इसी प्रकार शिवरी नारायण स्थित आश्रम में माघ पूर्णिमा शुक्ल पक्ष द्वादशी से आरम्भ होकर तीन दिन चलने वाले मेले के अवसर पर अनेक रामनामी एकत्रित होते हैं और भजन होता है।
Image: दिवार पर रामराम की लिखाई. Photo Credit: Mushtak Khan.
सबसे पहले सतनामी ही रामनामी बने। सतनामी पंथ के प्रवर्तक गुरु घासीदास ने कहा “मनखे–मनखे एक बराबर।“ उन्होंने सतनाम को माना, सतनाम को ही ईश्वर माना। उनके यहाँ सत्पुरुष ही सतनाम है।
रामनामी, रामनाम को मानते हैं, आत्माराम का जाप करते हैं, समूचे ब्रह्ममांड को राममय मानते हैं। दशरथ पुत्र राम को नहीं, निराकार सर्व व्यापी, सारे ब्रह्ममांड के कण–कण में व्याप्त राम का जाप करते हैं। उनके लिए ये ब्रह्ममांड स्वरुप, राम है।
उनके अनुसार निराकार और साकार एक दूसरे में समाहित हैं। निराकार में ही साकार समाया हुआ है। जो मन में निराकार होता है वह बोलने पर साकार हो उठता है। जैसे किसी व्यक्ति का नाम निराकार होता है परन्तु जब हम उसके नाम का उच्चार करते हैं तब उस व्यक्ति की छवि हमारे मन में उभरती है और वह नाम साकार हो उठता है।
रामनामी समुदाय के लोग कहते हैं सन १९१० के आसपास इस क्षेत्र में जात-पाँत और छुआ–छूत बहुत बढ़ गया था सतनामियों, रामनामियों को अछूत माना जाता था उन्हें मंदिर जाने, राम नाम लेने और रामायण पढ़ने से रोका जाता था। यहाँ तक कि सवर्ण समाज के लोगों ने न्यायालय में रामनामियों पर एक मुकदमा दायर कर दिया था कि हमारे राम का नाम अछूत अपने शरीर पर नहीं लिखवा सकते। न्यायालय में रामनामियों की और से यह तर्क दिया गया कि वे राजा दशरथ के पुत्र राम को नहीं बल्कि निराकार, निर्गुण, कण–कण में व्याप्त राम नाम का भजन करते हैं और उसे शरीर पर लिखवाते हैं। वे एक राम नहीं उसकी अविरल नाम धारा, रामराम लिखवाते हैं। न्यायालय का फैसला रामनामियों के पक्ष में गया। न्यायालय ने कहा इस स्वतंत्र देश में सबको अपने विश्वास मानने की स्वतंत्रता है। रामनामियों के पास न्यायालय के इस फैसले की प्रति सुरक्षित है।
सतनामी समाज के प्रबुद्ध लेखक डॉ. अनिल कुमार भतपहरी मानते हैं कि रामनामी एक प्रकार का आंदोलन था जो छूआ–छूत से व्यथित और अपमानित सतनामियों ने सवर्ण समाज के व्यवहार के विरुद्ध किया था। उन्होंने राम के मंदिर में प्रवेश न करने देने के विरोध स्वरुप अपने शरीर पर रामराम लिखवाकर अपने शरीर को ही मंदिर स्वरूप बना लिया था। रामनामी सम्प्रदाय को जहाँ भक्ति आंदोलन से जोड़ा जाता है, वही दलित आंदोलन से भी इसका गहरा जुड़ाव है। इस सम्प्रदाय का उदय अछूत और जाति प्रथा के खिलाफ हुआ। यद्यपि बाद में इसमें कुछ ऐसे तत्व प्रवेश कर गए जिन्होंने सतनामी समाज की राजनैतिक शक्ति को कम करने हेतु उसकी एकता को विभाजित करने का काम किया।
सन १९६० में देश भर में फैले रामनामियों को संगठित करने के उद्देश्य से अखिल भारतीय रामनामी सभा का गठन कर उसका पंजीयन कराया गया। यही सभा रामनामियों की समाजिक गतिविधियां और उनके बड़े भजन मेले का आयोजन तथा संचालन करती रही है। इस में सात पदाधिकारी और इक्कीस सभासद होते हैं जिनका चुनाव लोकतान्त्रिक विधि से किया जाता है। आरम्भ में इसमें समूचे शरीर पर रामराम लिखवाये लोगों को वरीयता दी जाती थी परअब यह स्थिति नहीं है।
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