रामनामी सम्प्रदाय के पहचान प्रतीक/ Markers of Ramnami identity

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Published on: 19 March 2019

मुश्ताक खान

मुश्ताक खान
चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

रामनामी सम्प्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक हैं- भजन खांब अथवा जैतखांब, शरीर पर रामराम नाम लिखवाना, सफ़ेद कपड़े जिस पर काले रंग से रामराम लिखा हो पहनना ओढ़ना, घुँघरू बजाते हुए भजन करना तथा मोरपंखों से बना मुकट धारण करना। इन्हे देखकर आसानी से पहचाना  सकता है कि अमुक व्यक्ति रामनामी सम्प्रदाय का सदस्य है।

भजन खांब अथवा जैतखांब

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि रामनामी संप्रदाय के प्रथम पुरुष परशुराम भरद्वाज और लहरी मूलतः सतनामी समाज से थे, अतः जब उनके द्वारा रामराम नाम प्रकाशित हुआ तब उन्होंने सबसे पहला जो प्रतीक अपनाया वह जैतखांब था, जिसे सतनामी समाज के लोग पहले से अपनाए हुए थे। सतनामियों का जैतखांब एक चबूतरे पर स्थापित लकड़ी अथवा सीमेंट से बना स्तम्भ है जो सफ़ेद रंग से पुता है और जिस पर सफ़ेद ध्वजा लगी है। रामनामी भजन अथवा जैतखांब में अंतर यह रखा गया कि इसमें स्तम्भ और ध्वजा पर काले रंग से रामराम नाम को अनेक बार लिखा गया है। बड़ी आयु के रामनामी बताते हैं कि आरम्भ में तो लकड़ी का ही जैतखांब बनाते थे परन्तु कालांतर में इसका स्वरुप बहुत बदल गया है।

Jayeth Khamb

Image: बड़े भजन मेला की लिए स्थापित जैतखंब की छत पर बने स्तम्भ एवं उनपर अंकित रामराम नाम। Photo Credit: Mushtak Khan.

वर्तमान में परशुराम भरद्वाज द्वारा ग्राम चारपारा में स्थापित जैतखांब का कोई अवशेष नहीं है, इसी प्रकार ग्राम पिरदा में जहाँ पहला बड़ेभजन आयोजित हुआ था वहां उस समय का कोई जैतखांब नहीं बचा है। आजकल बड़े भजन मेला के लिए जो जैतखांब बनाए जा रहे हैं उसमें एक बड़े चबूतरे के चरों कोनों मध्य में कुल मिलाकर पांच खम्बे बनाकर उन पर छत बनादी जाती है। छत के ऊपर चारों कोनों के खम्बों को एक सामान ऊचाई तक तथा मध्य के खम्बे को उनसे ऊंचा बनाया जाता है। मध्य मुख्य खम्बे को गोल बनाया जाता है। इस समूचे ढाँचे को जैतखांब अथवा भजन खांब या जयस्तम्भ भी कहते हैं। इसे सफ़ेद रंग से पोतकर उस पर काले रंग से रामराम लिख देते हैं। बड़े भजन मेले का आरम्भ ऐसे ही जैतखांब पर कलश एवं ध्वजा चढ़ा कर किया जाता है ।

इसी में बैठ कर रामनामी संत भजन करते हैं, बैठक करते हैं, यदि आवश्यक हो तो सामुदायिक विवाह संपन्न कराते हैं। यही बड़े भजन मेले का केंद्र बिंदु और गतिविधियों का नियंत्रण कक्ष होता है।

 

रामनामी वस्त्र एवं ओढ़नी

रामनामी वस्त्र एवं ओढ़नी, रामनामी संप्रदाय की एक पहचान और उनकी धार्मिक-सामाजिक गतिविधियों तथा इस सम्प्रदाय के संतों के पहनावे का महत्वपूर्ण अंग हैं। मोटे सूती सफ़ेद कपड़े की सवा दो मीटर लम्बी दो चादरें रामनामी पुरुषों एवं संतों की परम्परागत पोशाक हैं। ऊपर ओढ़ी जाने वाली चादर ओढ़नी कहलाती है। कुछ पुरुष इसी कपड़े की कमीज, कुरता या बनयान भी बनवा लेते हैं। स्त्रियां भी इसी प्रकार ओढ़नी ओढ़तीं हैं। इन ओढ़नियों पर काले रंग से रामराम नाम की लिखाई जाती है। समूची ओढ़नी पर नाम की असंख्य पुनरावृति से उसे पूरी तरह भर दिया जाता है। रामनामी ओढ़नी सफ़ेद कपड़े पर काले रंग से की गई कैलिग्राफी द्वारा संयोजित एक अद्भुद चित्रकृति के समान प्रतीत होती है। छोटे–बड़े विभिन्न आकार के अक्षरों का संयोजन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया जाता है।

Group of Ramnamis Clad with Ramram Drapery

Image: बड़े भजन मेला के आरम्भ हेतु कलश पूजन के उपरांत आपस में हल्दी लगाते रामनामी । Photo Credit: Anzaar Nabi. 

कपड़े पर काले रंग से लिखाई का यह कार्य किसी कपड़ा छापने वाले कारीगरों द्वारा नहीं स्वयं रामनामी समाज के किसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है। धीरे–धीरे कपड़े पर लिखाई की यह कला जानने वाले रामनामी कम होते जा रहे हैं। अब तो छपाई और मशीन की कशीदाकारी द्वारा भी ओढ़नी पर रामराम लिखवाया जा रहा है। इस क्षेत्र में हसौद के पास धमनी गांव में ऋतुराज रामनामी जो पहले हाथ से कपड़े पर लिखाई करता था ,अब छपाई करने लगा है। परन्तु अब भी अनेक रामनामी अपने परम्परागत तरीके से कपड़े पर लिखाई करते हैं, गांव डोंगीपार के बलवंत रामनामी उनमें से एक हैं।

A Ramnami Inscribing Ramram on a piece of Drapery

Image:  रामनामी ओढ़नी बनाने हेतु सफ़ेद सूती कपड़े पर काजल से विशेष रूप से तैयार किये गए काले रंग से रामराम नाम लिखता एक रामनामी । Photo Credit: Anzaar Nabi. 

कपड़े पर लिखाई का यह कार्य एक धार्मिक कृत्य के रूप में  किया जाता है। सबसे पहले कपड़े को धोकर उसका कलफ दूर किया जाता है। काला रंग बनाने के लिए मिट्टी के तेल से जलने वाली चिमनी का धुँआ एकत्रित किया जाता है। इसके लिए चिमनी को जलाकर उसके ऊपर फूटे मटके को रख दिया जाता है। इससे चिमनी से निकलने वाला धुँआ खपरे की सतह पर जमा होने लगता है। जब धुएं की यह परत बहुत मोटी हो जाती है तब इसे खुरचकर अलग जमा कर लेते हैं। धुएं को घोलने के लिए एक विशेष घोल तैयार किया जाता है। इसके लिए देसी बबूल की छाल को उबलते पानी में डालकर रात भर रखा रहने देते हैं। इस प्रकार बबूल की छाल से निकलने वाला चिपचिपा गोंद जिसे कासा कहते हैं पानी में निकल आता है।अब इस कासायुक्त पानी में काले धुएं का चूर्ण मल–मल कर घोला जाता है। इस तरह तैयार काली स्याही से बांस की कलमों द्वारा कपड़े पर लिखाई की जाती है। लिखाई करते समय लिखने वाला नाम भजन करता रहता है। बांस की मोटी–पतली कलमें छोटे–बड़े अक्षर लिखने के काम आती हैं।

मोर मुकट

रामनामी समाज में मोर मुकट, निष्काम अवस्था अथवा वासना परित्याग का द्योतक है। यह वासनामुक्त आचरण और परिशुद्धता का परिचायक है। सामान्य रामनामी इसे सामूहिक भजन के समय ही पहनते हैं। त्यागी रामनामी जो गृहस्थ जीवन छोड़कर सन्यास अपना चुके होते हैं, वे इसे हमेशा पहने रखते हैं। रात को सोते समय अथवा इसकी आवश्यकता न होने पर इसे उतार कर रख दिया जाता है। घर में इसे रखने के लिए एक अलग विशेष स्थान होता है। इसे सदैव पतले सफ़ेद कपड़े में लपेट कर रखा जाता है। स्त्री एवं पुरुष दौनों ही इसे धारण करते हैं परन्तु युवा इसे धारण नहीं करते।

Ramnamis in a Goshti with their Peacock Head-Dress

Image: बड़े भजन मेला के आरम्भ में रामनामी समुदायकी सभा। Photo Credit: Anzaar Nabi.  

मोर मुकट रामनामियों को कृष्ण एवं कबीर के निकट ले जाता है, वे दौनों भी मोर मुकट धारण करते थे। परन्तु रामनामी इस समानता पर कुछ नहीं कहते। कृष्ण एवं कबीर के मोर मुकट से रामनामियों का मोर मुकट की बनावट भिन्न है, इसमें अनेक मोर पंख लगे रहते हैं एवं इसे मुकट के रूप में ही बनाया जाता है।

पहले किसी रामनामी की मृत्यु होने पर उसकी रामनामी ओढ़नी और मोर मुकट उसके शव के साथ ही दफना दिया जाता था। अब यह प्रथा समाप्त हो गयी है। अब यह सामान उसके करीबी रिश्तेदार को दे दिया जाता है। अधिकांश रामनामी अपने लिए मोर मुकट स्वयं ही बना लेते हैं। एक मुकट बनाने में लगभग एक सौ पंखों की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य भी भजन के दौरान ही कर लिया जाता है। इसे बनाने के लिए मोर पंख, कपड़ा तथा मोटा सुई धागा आवश्यक होता है। मुकट पर भी रामराम लिखा जाता है।

शरीर पर लिखाई

शरीर पर रामराम नाम का गोदना करना ,रामनामी संप्रदाय की मूल एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहचान थी जिसमें अब शिथिलता आ रही है। रामनामी संप्रदाय के उदभव की आस्था मूलक एवं सामाजिक विद्रोह मूलक दौनों ही मान्यताओं के अनुसार यह रामनामियों के लिए यह अनिवार्य था की वे अपने शरीर पर रामराम नाम गुदवाएं। रामनामी विश्वास करते हैं कि उनके सम्प्रदाय के प्रथम पुरुष परशुराम भारद्वाज के शरीर एवं कुटिया की दीवार पर स्वतः ही रामराम उभर आया था। नाम की इसी महिमा के विश्वास में इस सम्प्रदाय के अनुयायिओं ने अपने शरीर पर गोदना पद्यति से रामराम लिखवाना आरम्भ किया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार रामनामियों को अछूत कहकर सवर्ण जाति के लोग उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने देते थे और न ही उन्हें रामायण आदि धर्मग्रन्थ छूने देते थे। इससे अपमानित होकर उन्होंने सामाजिक आक्रोश स्वरुप अपने शरीर पर रामराम नाम लिखवा लिया था।

रामनामियों में यह पारम्परा रही है के बच्चे के जन्म के छठे दिन उसकी छठी की जाती है और उसी दिन उसके माथे पर रामराम नाम के चार अक्षर अंकित करा दिए जाते हैं। इसके उपरांत उसकी पांच वर्ष की आयु होने पर एवं विवाह के समय भी उसके शरीर पर लिखाई कराइ जाती है। शरीर पर कितना और कहाँ-कहाँ लिखवाना है यह स्वयं लिखवानेवाला या उसके अभिभावक तय करते हैं।

A Ramnami with Ramram Tattoo on her Face

Image: बड़े भजन मेला के दौरान विभिन्न गांवों से आये रामनामी समुदाय के लोग यहां लगी चाँदनियों में सुस्ताते हैं। Photo Credit: Anzaar Nabi. 

 

A Ramnami with Ramram Tattoo all over his Body

Image: एक नखशिख रामनामी जिसके समूचे शरीर पर रामराम लिखाया गया है। Photo Credit: Anzaar Nabi.  

जब लोग गृहस्थ जीवन छोड़कर सन्यास लेते हैं तब उन्हें त्यागी कहा जाने लगता है, स्त्री एवं पुरुष दौनों ही त्यागी बन सकते हैं। अधिकांशतः पति-पत्नी दौनों ही एक साथ त्यागी हो जाते हैं। एक त्यागी रामनामी के लिए आवश्यक है कि वह सर, भोंह एवं दाढ़ी-मूछ के बालों का त्याग करे। स्त्री त्यागी को इनके साथ सभी प्रकार के सुहाग चिन्ह जैसे सिन्दूर, बिंदी, चूड़ी एवं आभूषण भी त्यागने होते हैं। स्त्रियाँ सोने-चांदी के आभूषणों को त्यागकर रामनामी आभूषण धारण करलेती हैं। यह रामनामी आभूषण शरीर पर गोदना करके बनाए जाते हैं। माथे पर बिंदी, गले में हार, कलाइयों में चूड़ियां, हाथ-पैर के पंजों पर चक्र, कलाई से ऊपर चौक अंकित किया जाता है। स्त्री और पुरुष शरीर के किन भागों पर और कितना गोदना करते हैं उन्हें उसी के अनुसार सम्बोधन दिया जाता है। सामान्यतः शरीर के किसी भी हिस्से में रामराम लिखवाने वाले को रामनामी, माथे पर रामराम नाम लिखवाने वाले को शिरोमणि और पूरे माथे पर रामनाम लिखवाने वाले को सर्वांग रामनामी, पूरे चेहरे एवं हाथ-पैरों के कुछ हिस्सों पर रामराम लिखवाने वाले को बदन भर और समूचे  शरीर पर रामनाम लिखवाने वाले को नखशिख रामनामी कहा जाता है। नखशिख रामनामी अपने शरीर का कोई अंग बिना लिखा नहीं छोड़ते। वे अपनी जनन इन्द्रियों, पलकों एवं जीभ पर भी रामराम लिखवा लेते हैं।

यद्यपि शरीर पर लिखने का कार्य गोदना पद्यति से किया जाता है, परन्तु रामनामी इसे गुदना नहीं मानते। वे कहते हैं गुदना में अक्षर नहीं आकृतियां बनाई जाती हैं, जबकि उनके यहाँ शरीर पर आकृतियां नहीं बनाई जातीं, रामराम नाम लिखा जाता है, अतः वे इसे लिखाई करना ही कहते हैं। वे इस काम के लये गुदना करने वाले व्यवसायिक लोगों को नहीं बुलाते। लिखवाने वाले के परिवार के ही कोई सदस्य यह कार्य पूरा कर देते हैं।  

लिखाई करने के लिए तीन या चार महीन सुइयां धागे से एकसाथ बांध ली जातीं हैं, उन्हें काजल और  मिट्टी के तेल के घोल में डुबाकर शरीर की त्वचा पर बारबार चुभाया जाता है। लिखाई करते समय असंख्य बार सुइयां लिखवाने वाले के शरीर में चुभाई जाती हैं। यह कार्य बड़े सवेरे से आरम्भ किया जाता है, साथ में भजन गायन का कार्य चलता रहता है। लिखने वाला और लिखवानेवाला भी भजन गाता रहता है। कुछ लोग स्वयं भी अपने शरीर पर लिखाई कर लेते हैं। लिखाई की प्रक्रिया पूरी होने पर हल्दी के घोल का लेप किया जाता है।    

रामनामी सम्प्रदाय के उदय के आरंभिक वर्षों में यह प्रथा अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रचलित थी, परन्तु पिछले तीन दशकों में इस प्रथा के प्रति इस समाज में उपेक्षा का भाव विकसित हुआ है। नई पीढ़ी इसके प्रति उदासीन है। वे उन प्रौढ़ एवं वृद्धों का सम्मान तो करते हैं जिन्होंने शरीर पर रामराम नाम लिखवाया है, परन्तु स्वयं अपने शरीर पर वे यह लिखवाना नहीं चाहते। सम्पूर्ण शरीर पर रामराम गुदवाने वाले रामनामियों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। वर्तमान में लगभग १५० से भी कम इस प्रकार के स्त्री-पुरुष शेष बचे हैं।

घुँघरू

घुंघरुओं का रामनामी समाज में बड़ा महत्त्व है। भजन करते समय यह लोग केवल घुँघरू बजाते हैं। वे इन्हें अपने पैरों में बांध कर एक विशेष लय पर झूमते और घुमते हुए भजन गायन करते हैं। बैठ कर भजन करते समय वे इन्हे हाथ से जमीन से टकराकर एक लयबद्ध ढंग से बजाते हैं। कांसे से बने घुंघरुओं को सूत की पतली रस्सी से गूंथ कर इनकी छोटी पैंजना बनाली जाती है, इसे रामनामी अधिकांशतः साथ रखते हैं।

A Ramnami with Ghungru

Image:  रामनामी कांसे से बने विशेष घुंघरुओं का प्रयोग करते हैं ,इन्हें विशेष धातु शिल्पी बनाते थे , वर्तमान में इन्हें बनाने वाले शिल्पी विलुप्ति की कगार पर हैं। Photo Credit: Mushtak Khan.

रामनामियों द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले घुँघरू सामान्य घुँघरू नहीं होते, इन्हें विशेष प्रकार के कांसे से धातु ढलाई पद्यति द्वारा बनाया जाता है। पहले छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा एवं बलौदा बाजार क्षेत्र में बहुत से रामनामी धातु शिल्पी इन्हे बनाते थे परन्तु पिछले दशक में यह कला समाप्त हो गई है।  

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.