रायगढ़ के मृणशिल्प | Terracotta from Raigarh

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Published on: 07 February 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

 

रायगढ़, छत्तीसगढ़ का एक जनजातिय बहुल क्षेत्र है जहां कुम्हार बड़ी संख्या में रहते हैं। इन कुम्हारों ने यहां के मिटटी के बर्तन एवं अन्य आकृतियों के आकार प्रकार को अपने-अपने ढंग से न केवल समृद्ध किया है बल्कि स्थानीय आदिवासियों के कठिन जीवन को और अधिक सुविधाजनक बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निबाही है।

 

 

रायगढ़ के हाट बाजार में बिकते मिट्टी के बर्तन।

रायगढ़ हाट बाजार में बिकते मिट्टी बर्तन। 

 

रायगढ़ में मिटटी का काम करनें वाले कुम्हारों की प्रमुख दो शाखाएं हैं- लरिया और उड़िया। इनके अतिरिक्त बहुत थोड़ी संख्यां में अजधिया कुम्हार यहा जशपुर क्षेत्र में रहते हैं। यहां उड़िया कुम्हार सर्वाधिक संख्या में हैं और वे ही सर्वाधिक कलात्मक मृणशिल्प बनाते हैं। क्योंकि रायगढ जिले की बहुत बड़ी सीमा उड़ीसा से जुड़ी है इस कारण उड़ीसा प्रभाव यहां बहुत ज्यादा है। यद्यापि उन्हें यहा रहते उनकी पीढियां गुजर गई हैं परन्तु उनकी कृतियों पर उड़िया छाप स्पष्ट दीखती है। इनमें उड़िया कुम्हार ही रायगढ के मूल कुम्हार माने जाते हैं। 

 

 

Dool Putali

उड़िया कुम्हारों द्वारा बच्चों के खेलने के लिए बनाया खिलौना , डोली। 

 

 

कहते हैं, रायगढ़ में बहुत पहले झोपड़ियों की छतें ज्यादातर खपरैलों की नहीं घास फंस की बनाई जाती थीं। उड़ीया कुम्हार उस समय खपरैल बनाते थे, पर वे उन्हे चाक पर बनाते थे  जिसके कारण खपरैल का उत्पादन अधिक नहीं हो पता था और उनकी कीमत भी ज्यादा रहती थी। कहते हैं कि एक बार रायगढ़ के महाराज रींवा गये, वहां उन्होने कुम्हारों को बहुत ही आसान तरीके से बहुत ज्यादा तादाद में खपरैल बनाते देखा इससे प्रभावित होकर वे अपने साथ रींवा से कुछ कुम्हारों को लेते आये और उन्हें रायगढ़ में बसा दिया। रींवा से आयात होकर सरगुजा आये कुम्हार, लरिया कुम्हार कहलाये, और कोई भी उड़िया कम्हार इनसे रोटी बेटी का संबंध नहीं रखता।

 

 

चावल उबलने के लिए बनाया गया विशेष बर्तन पैना।

चावल उबालने के लिए बनाया जाने वाला विशेष बर्तन, पैना।

 

पर्सीपानी गांव के उड़िया कुम्हार बताते है कि जब पृथ्वी का सृजन हुआ तब कुम्हार चार भाई थे। उड़ीसा में पुरी जहां जगन्नाथ भगवान रहते है वहां उन चारों में भाई बांटा हो गया। दो भाई उड़िया और शेष दो कहलाये लरिया कुम्हार। उड़ियां कुम्हारों में भी दो गोत्र हुए उनमें से जो जनेउ पहनते हैं वे सबसे ऊंचे कुम्हार माने गये। इनके आपस मे रोटी बेटी के सम्बंध नहीं होता था।आजकल उड़ीसा और लरिया कुम्हारों के आपस में रोटी बेटी के सम्बन्ध होने लगे हैं।

 

अधिकांशत काले मृणशिल्प बनाने वाले कुम्हार, उड़िया कुम्हार हैं। यह लोग खाना पकाने वाले बर्तन अधिकतर काले और पानी भरने आदि के काम आने वाले बर्तन लाल रंग के बनाते हैं। जबकि सुन्दर पुर की तरफ के कुम्हार दोनों प्रकार के बर्तनों को लाल रंग का ही बनाना पसन्द करते हैं। लरिया एवं उड़िया कुम्हारों के काम करने के ढंग में कोई खास अन्तर नहीं है केवल हाथ की कारीगरी और दक्षता का ही अन्तर है।

 

 

सब्जी -भाजी पकने के लिए मिट्टी की बानी कढ़ाई।

खाना पकाने के लिए बनाया गया बर्तन, तेलई।

 

जिस कार्य के लिए कभी रायगढ़ के महाराज रीवां से  लरिया कुम्हारों  को लाए थे, उसे उन्होने बहुत मेहनत से अन्जाम दिया।  आज समूचे रायगढ़ में उनेक बनाए खपरैल बिकते हैं। इन कुम्हारों ने अपने कार्य चक्र को मौसम चक्र के अनुरूप बांट रखा है। बरसात  को छोड़कर अधिकांश समय यह  लोग ईट और खपरैले बनाते रहते हैं और यह काम मई के अन्त तक चलता है।  बरसात शुरू होने पर सारा काम घर के अन्दर सिमट आता है और तब छोटे-छोटे बर्तन खिलौने आदि बनाने का काम शुरू किया जाता है। ताकि दीपावली उन्हे बेचा जा सके। ठण्डों में खपरैल, जिन्हे यहां खपरा कहा जाता है, बनाने का काम कम होता है।

 

 

रायगढ़ के कुम्हार पारा में लरिया कुम्हारों के अनेक परिवार रहते हैं जिनका प्रमुख व्यवसाय ईटे और खपरैल बनाना है। इस काम में पुरूष और स्त्रियों की समान भागीदारी रहती है। पुरूष मिट्टी लाने और उसमें  भूसा मिलाकर गारा तैयार करने में बहुत श्रम करते हैं, जबकि स्त्रियों ओर छोटे बच्चों का  कार्य बहुत सुबह के धुंधलके  में और फिर सुर्यास्त के बाद बची धीमी रोशनी में होता है। खपरैल थापने का काम बहुत सबेरे से आरंभ कर दिया जाता है। यह कार्य घर की औरतें और बच्चे तो करते ही हैं  साथ ही कुम्हार या अन्य जाति की स्त्रियां इसे मजदूरी की तरह भी करती हैं।

 

बरसात के दिनों में कुछ कुम्हार खेती या मजदूरी भी कर लेते हैं  पर आधिकांशतः वे धर में बैठकर कुछ बर्तन, अलंकृत चिमनियां और खिलौने आदि बना लेते हैं। विभिन्न आकारों वाली चिमनियां और दीपकों  से  सजी लक्ष्मी बनाने मे लरिया कुम्हार, रायगढ़ के ही अजधिया और उड़िया कुम्हारों से पूरी तरह भिन्न हैं। क्योंकि लरिया कुम्हार मूलतः रींवा के निवासी थे, इस कारण उनके  मूर्ति शिल्पों पर बुन्देलखण्ड की छाप स्पष्ठ रूप् से दीखती है। सात या नौ दीपकों को अपने प्रभामण्डल में समेटे पेवड़ी के पीले रंग से जगमगाती लक्ष्मी वे बहुत ही सुन्दर बनाते हैं  जिस पर मिटटी के कच्चे रंग लगाए जाते हैं।

पुतली

पुतली 

 

शेर

 

खिलौना शेर।

 

ये लोग खिलौने का मूल आकार चाक पर ही गढ़ लेते हैं। यदि आकृति अलंकरण युक्त हो तो उसके अलग-अलग भाग चाक पर बना लिए जाते हैं। जिन्हे कुछ सूखने पर जोड़ दिया जाता है।  अधिकांश आकृतियां जिनमें दिये जुडे होते हैं, इसी  प्रकार बनाई जाती हैं। सुनहरी रंग का प्रयोग भी वे सदा कदा करते हैं, खास तौर पर देवी देवताओं के मुकुट और गहनों में। रायगढ़ नगर के लरियां कुम्हार भादों माह में पोला उत्सव के लिए बैल आकृतियां भी बनाते हैं। लेकिन इनके बनाए बैल उड़िया कुम्हारों के बनाए बैलों से अपने रंग रोगन के कारण अलग ही दीखते हैं। अब तो कुछ कुम्हारों ने लक्ष्मी की मूर्ति बनाने के लिए स्वयं अपने बनाए, लगभग अनगढ़ सांचों को प्रयोंग करना भी आरंभ कर दिया है।

 

 

Lakshmi saar

लक्ष्मी सार, इसे कृषक अपनी अनाज रखने की कोठी में रखते हैं।

 

रायगढ़ के पास बोइरदादर और पर्रीपानी गांव बेहतरीन उड़िया कुम्हारों के गढ़ हैं। बोइरदादर में तो करीब पचास घर उड़िया कुम्हारों के हैं जो विभिन्न प्रकार के बर्तनों के साथ भांति-भांति की अलंकृत आकृतियों वाले गमले बहुत बड़ी मात्रा में बनाते हैं। रायगढ़, सारंगगढ़, खर्सिया, बगीचा, कुनकुरी और उड़ीसा के सीमावर्ती भागों में उड़िया कुम्हारों की बहुत घनी आबादी है। विशेषतौर पर इनकी  जनसंख्या कोटरा पाली, विश्वनाथ पाली, बनोरा, तारपाली, पतरापाली, बातपाली, सम्बलपुरी, रेगड़ा, भुरा जमुरा, बसना, झेर बेंग, पंजर, रायपाली, बाराडोली, पडगा, नेतनगर, डुमरमुड़ा, झलमला, नापाली गांवों में अधिक है। इनमें से रायगढ नगर के आस-पास के कुम्हार ही गमले बनाने का कार्य करते हैं। गमले बनाना इनका पुराना धन्धा नहीं है, यह तो बढते सरकारी दफ्तरों और उनसे पलने वाले कर्मचारियों और डाकबंगलों की बाड़  से उपजा नया बाजार है।

 

 

 

हाथी

हाथी सवार

 

उड़िया कुम्हार स्वीभाव से ही सौन्दर्य प्रेमी होते हैं, उनका आकार बोध और अलंकरण के प्रति सहज रूझान गजब का है। उनके बनाए बर्तन, मटके और घरेलू उपकरण अपने आकारों में इतने कोमल और लयात्मक होते हैं  कि देखते ही बनता है। वे बर्तन के मुंह की कोर बड़ी सफाई से पलटते है जो लरिया कुम्हारों में देखने को नही मिलती। बनाए जाने वाले मिटटी के बर्तन हैं- गमले, हंडी, गगरी, मटकी, डीवी (छोटी हांडी), कनोजी (साग बनाने का बर्तन), कढ़ाई, तैलई (भात परोसने का  ढक्कन), बुगनिया (दाल बनाने का बर्तन), कूंडा(भात बनाने का बर्तन)। ये लोग खपरैल भी चाक पर ही बनाते हैं। इस कारण इनके बनाए खपरैल आकार में बड़े और सुघढ़ होते हैं। कभी-कभी इन खपरैलों पर चिड़िया, कलश, अथवा मंदिरनुमा कलश भी बनाया जाता है।  यदि कबेलू (खपरैल) पर चिड़िया बैठानी है तो पहले कबेलू पर मिटटी का एक ठोस खूंट जोड़ देंगे और फिर उसमें खोखले पेट वाली चिड़ियां को फिट कर देगें। मैनें कुछ कबेलू ऐसे भी देखे जिन्हें नाली के रूप् में इस्तेमाल किया गया था और जिनके सिरे किसी पशु मुख की आकृति में बदल दिय गये थे।

 

बर्तनों के अतिरिक्त उड़िया कुम्हार पुतलियां (मानव आकृति) बनाने में भी बहुत माहिर होते हैं। वे अधिकांशतः ठोस ओर छोटी आकृतियां  गढ़ते हैं जिनमें सतह का चिकनापन और बाद में मिटटी की पटिटयां को जोड़ कर किया गया अलंकरण विशिष्ट होता है। इस प्रकार बनाई गई आकृतियों में  देह कमान के समान तनी हुई और स्फूर्तिवान दिखती है। जिनमें न तो सापेक्षता का आग्रह  दिखता है और न ही विरूपता की फूहड़ता। यह बात ध्यान देने योग्य है कि हाथी यद्यपि स्थूलकाय पशु है परन्तु उड़िया कुम्हार उसे भी बैल की तरह कृषकाय बनाते हैं। सारंगगढ़ क्षेत्र में बच्चों के खेलने के लिए बनाई जाने वाली आकृति दूल-पूतरी भी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें दूल्हा-दुल्हन को एक डोली में बैठा बनाया जाता है, परन्तु चेहरे पर नाक उड़िया तरीके से मिटटी को तर्जनी और अंगूठे से पिचका कर बनाइ्र्र जाती है और आंखे तथा गहने भी पटिटयां चिपकाकर बनाए जाते हैं।

 

यहाँ चिकनी कन्हार मिट्टी, बर्तन बनाने के लिए अच्छी मानी जाती है। मिट्टी खदानों से लाकर पहले फोड़कर सुखाई जाती है, फिर उसमें पानी डाल कर फुलाते हैं। मिट्टी का सुखाना आवश्यक है, नहीं तो वह ठीक से फूलती नहीं है, उसमें सूखी मिंगी रह जाती है। मिट्टी की तैयारी औरतें करती है, मिट्टी फुलाने के बाद उसमें थोड़ी रेत मिलाई जाती है। रेत मिलाने से मिट्टी में काम अच्छा होता हैं। यदि मिट्टी पुरानी या ढीली हो जाती है तो उसमें राख भी मिला दी जाती है।

 

चाक लकड़ी का बनाया जाता है, यह  बैलगाड़ी के पहिये के आकार का होता है। इसकी बाहरी परिधि भांवरा कहलाती है जो बांस की खपच्चियों पर जूट और रस्सी लपेट कर और उसपर  मिटटी की परतें चढ़ा कर बनाई जाती है। चाक  के मध्य भाग में एक विशेष पत्थर लगा कर छोटा सा छेद बना देते हैं, जिसे घोड़िया  कहते हैं।  इसमें जमींन में गढ़ा हुआ लकड़ी का कीला फिट हो जाता है, जिस पर चाक  घूमता है। चाक हाथ से घुमाया जाता है। चाक  की चैड़ाई ढाई फुट के करीब होती है। इस क्षेत्र के उड़िया कुम्हार चाक पर, खड़े होकर एवं झुक कर काम करते हैं इन्हें  बैठकर काम करना नहीं आता। जो लरिया कुम्हार हैं वो चक्के को बैठकर डन्डे से घुमा कर चलाते हैं और वे बड़ी-बड़ी हंडिया नहीं बना सकते वे केवल छोटी-छोटी वस्तुए ही बना पाते हैं।

 

कुम्हार का चाक

 

रायगढ़ के कुम्हार बैल गाड़ी के पहिये जैसे आकार के चाक पर काम करते हैं। वे इसे लकड़ी, बांस, जूट और मिट्टी से बनाते हैं। इसका व्यास ढाई फिट और वजन एक क्विण्टल तक रखा जाता है।

 

 

बर्तनों को पकाने से पहले उन पर मोहिनी माटी का घोल पोता जाता है फिर उन्हें धुप में सुखा कर भट्टी में पका लिया जाता है। बर्तन काले करने के लिए उन्हें विशेष तौर पर पकाया जाता है, इसमें बर्तन पकाते समय उन पर राख और पानी डालते हैं, जिससे धुंआ होता है और बर्तन काले हो जाते हैं। बर्तनों का अबा लगाकर उसके उपर गीली मिटटी का लेप नहीं करते बल्कि सूखी राख की मोटी पर्त जमाते है।

सामान्यतः कुम्हार गांव-  गांव जाकर घरों में बर्तन बेचते हैं और हाट बाजारों में भी बेचते हैं। गांव में बिक्री हेतु जाने से उन्हें कीमत स्वरुप धान और अनाज मिल जाता है और बाजार में बेचने से कुछ पैसे इकटठा हो जाते हैं। बरसात के चार महीने बर्तन बनाने का काम बन्द हो जाता है। तब यह किसी किसान के यहां मजदूरी भी कर लेते हैं।

कुम्हार अपने चाक में समलाई देवी का वास मानते हैं, उसे नारियल, सुपारी, बकरा या मुर्गी चढाते हैं। यह बलि दशहरा के महीने में दी जाती है। ठाकुर देव को ग्राम पति मानते हैं और उस पर हरेली के दिन अपनी मन्नते पूरी होने पर, मिटटी के घोडे़ चढ़ाते हैं। गांव में रहने वाली सभी जातियां यह घोडे़ चढ़ाती हैं।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.