छत्तीसगढ़ की पूर्वी सीमा पर बिहार से सटा हुआ सरगुजा अंचल मृणशिल्प की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है। सारे सरगुजा क्षेत्र में घरों की छतें खपरैलों की बनाई जाती हैं। गांवो के अधिकांश लोग मई और जून में खेती का कोई काम न होने के कारण अपने लिए खपरैल स्वयं बनाते हैं। परन्तु मिटटी के बर्तन और मिटटी की अन्य वस्तुएं बनाने का काम कुम्हार ही करते हैं। केवल कुम्हारों के भी कुछ गांव यहां आबाद है जिनमें हर घर में मिटटी के बर्तन बनाए जाते हैं। इनमें अंबिकापुर से रामानुजगंज की ओर जाने वाली सड़क पर ककना ग्राम से दाहिनी ओर सात कि.मी अंदर जाने पर पहाड़ी के नीचेबसा गांव आरा प्रमुख है।
परम्परिक चाक पर खड़े होकर काम करता शोभित कुम्हार ,गांव सोनपुर खुर्द , सरगुजा।
गांव के एक ओर नदी बहती है और दूसरी ओर पहाड़ी है, जिस पर बडे़-बडे़ पत्थरों के पिंड कुम्हारों की मिटटी के लांदों जैसे बिखरें पडे़ है। गांव के पहले इमली के तीन पेड़ है, जिनके पास एक विशाल पत्थर पिंड रखा है। यह ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। गांव के बीच में एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे गांव का देवल्ला है, जहां महादेव की पूजा की जाती है। लगभग 35-40 परिवारों के इस गांव में एक घर बनिया का, दो-तीन घर अन्य जातियों तथा शेष सब कुम्हारों के हैं। जूठन और पीतांबर कुम्हार इस गांव के विशेष गुनी कुम्हार माने जाते हैं। इनके बाद मोतीराम का नंबर आता है। गांव के किसी भी कुम्हार से पूछा जाए कि कौन कुम्हार यहां अच्छा काम करता है, तो वे सहज ही इनका नाम बताते हैं।
नदी के किनारे से उपयुक्त गुण वाली मिट्टी निकलता कुम्हार ,गांव सोनपुर खुर्द , सरगुजा।
मिट्टी को पहले फोड़ा जाता है।
मिट्टी को सुखाने रखा जाता है।
मिट्टी में आवश्यकता के अनुसार रेत मिलाया जाता है।
मिट्टी को अच्छी तरह गूंथ कर उसके कंकड़ निकाले जाते हैं।
तैयार मिट्टी के पिंड को चाक पर जमाते भीखन कुम्हार,गांव सोनपुर खुर्द , सरगुजा।
कुम्हार समुदाय के बारे में किसी भी कुम्हार को कोई समग्र जानकारी नहीं है, स्थानिय स्तर पर वे जैसा देखते हैं वैसा बताते हैं। आरा गांव के खिरूाम कुम्हार कहते हैं कि सरगुजा मैं दो प्रकार के कुम्हार पाए जाते है माठिया और रखौता। माठिया कुम्हारों की स्त्रियां कांच की चूड़ियां नही पहनती। यह लोग कांसे या तांबे के कडे़ पहनती हैं, जिन्हे माठिया कहते हैं। माठिया कुम्हार, मुर्गा और सुअर की बलि नहीं चढ़ाते और न ही इनका मांस खाते है। यह लोग गोल चपटा ठोस चाक, बर्तन आदि बनाने के लिए प्रयोग करते है, जिसे लकड़ी के ड़ंडे की सहायता से घुमाया जाता है। रखौता कुम्हार, मुर्गा और सुअर का मांस खाते हैं तथा इसकी बलि चढ़ाते हैं । कुम्हारों की इन दोनों शाखाओं का आपस में रोटी-बेटी का संबंध नही होता। यह एक दूसरे के घर का पानी भी नहीं पीते ।
ग्राम परसापारा के अर्जुन कुम्हार बताते हैं कि सरगुजा में कुम्हार दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे कुम्हार जो चक्र अथवा चाक बनाना और उसे चलाना नहीं जानते, वे केवल हाथ से ही मिटटी के बर्तन बनाते हैं । इन्हे कोड़ाकुल कुम्हार कहते हैं। वे सूअर पालते हैं, कुम्हारों में इन्हे सबसे निम्न श्रेणी का समझा जाता है। दूसरे वे कुम्हार, जो चक्र बनाना और उसे चलाकर बर्तन बनाना जानते हैं, इन्हें चक्रधारी कहा जाता है। चक्रधारी कुम्हारों की स्त्रियां प्राचीन समय से ही कांच या लाख की बनी चूड़ियां नहीं पहनती थीं। वे कांसे या तांबे का बना कड़ा जिसे माठिया कहा जाता है, पहनती थीं। परन्तु बाद में कुछ कुम्हारों की स्त्रियां चूड़ियां पहनने लगीं तो उन्हे नीच समझा जाने लगा और वे चूरिया कुम्हार कहे जाने लगे। चक्रधारी कुम्हारों में अनेक गोत्र होते है। इनमें चक्रधर पांडे सबसे ऊंचे समझे जाते हैं और अधिकांश कुम्हार अपने आपको चक्रधर पांडे ही बताते हैं।
वर्तमान में सरगुजा के अनेक कुम्हार परम्परागत चाक छोड़कर बिजली से चलनेवाले आधुनिक चाक प्रयोग करने लगे हैं। बिजली के चाक पर काम करते हुए गांव सोनपुर खुर्द , सरगुजा के भीखन कुम्हार।
चाक पर आकार देने के बाद बर्तन पर बांस एवं लकड़ी से बने औजारों से अलंकरण किया जाता है।
देवनगर गांव के सुखराम कुम्हार कहते हैं, कुछ कुम्हार सरगुजा के मूल निवासी नहीं हैं और सिंगरोली जिले से यहां आकर बस गये हैं। सिंगरौलिया और स्थानिय टटहा कुम्हारों के आपस में विवाह संबंध नहीं होते। ये एक दूसरे के साथ खाना खा सकते हैं, परन्तु भात एक साथ नहीं खाते हैं। चक्र बनाने में टाट का प्रयोग करने के कारण सरगुजिहा कुम्हार टटहा कुम्हार भी कहलाते है। टटहा कुम्हारों में अनेक गोत्र होते हैं। इनके नाम उनके द्वारा अपनाए गए रिति-रिवाजों के आधार पर रखें जाते हैं, जैसे सूअर पालने वाले कुम्हार सूअरहा, मुर्गी पालने वाले मुरगिहा कुम्हार कहलाते हैं। वे कहते हैं कि सरगुजा में सिंगरौलिया और सरगुजिहा कुम्हार इस तरह घुल मिल गए हैं कि उन्हें पहचानना कठिन है । कई पीढ़ियों पहले सरगुजा में आकर बसे सिंगरौलिया कुम्हारों ने पूरी तरह सरगुजा की भाषा और रीति रिवाजों को अपना लिया है। कुम्हारों के व्यवसायिक देवता महादेव कहलाते हैं। सरगुजा के कुम्हार चक्र में इनका वास मानते हैं और कार्तिक एकादशी के दिन मुर्गा, नारियल, सुपारी चढ़ाकर इनकी पूजा की जाती है।
बनाई जाने वाली आकृति के वभिन्न हिस्से चाक पर बनालिये जाते हैं , फिर आधा सूखने पर उन्हें आपस में जोड़कर पूरी आकृति तैयार की जाती है।
सरगुजिहा कुम्हारों का चक्र बैलगाड़ी के पहिए के आकार का होता है। वह अपनी धुरी पर हाथ की सहायता से घुमाया जाता है। इस पर कार्य करते समय झुक कर खड़ा रहना पड़ता है। यह जमीन से लगभग एक फुट ऊंचा होता है। इसके बनाने में खैर की लकड़ी मिटटी और टाट का प्रयोग किया जाता है। चक्र बनाने में टाट का प्रयोग करने के कारण सरगुजिहा कुम्हार टटहा कुम्हार भी कहलाते है। ग्राम सिरसी के धरम कुम्हार ने बताया कि टटहा कुम्हारों में अनेक गोत्र होते हैं। इनके नाम उनके द्वारा अपनाए गए रिति-रिवाजों के आधार पर रखें जाते हैं, जैसे सूअर पालने वाले कुम्हार सूअरहा, मुर्गी पालने वाले मुरगिहा कुम्हार कहलाते हैं। वे कहते हैं कि सरगुजा में सिंगरौलिया और सरगुजिहा कुम्हार इस तरह घुल मिल गए हैं कि उन्हें पहचानना कठिन है। कई पीढ़ियों पहले सरगुजा में आकर बसे सिंगरौलिया कुम्हारों ने पूरी तरह सरगुजा की भाषा और रीति रिवाजों को अपना लिया है ।
सरगुजा के कुम्हार साल भर अनेक प्रकार के मिटटी के बर्तन बनाते हैं । गांवों के कुम्हार हाट बाजारों की अपेक्षा गांवों में घर-घर जाकर सामान बेचना अधिक पसंद करते हैं । गांवों में उन्हे मिटटी के बर्तनों के बदले पैसे नहीं, बल्कि अनाज, तेल, दाल, धान आदि मिलता है । आधिकांश कुम्हार अपने साल भर के खाने का प्रबंध इसी प्रकार करते हैं तथा हाट बाजारों में कुछ सामान बेच कर पैसा भी कमा लेते हैं ।
गांव सोनपुर खुर्द के भीखन कुम्हार बताते हैं कुछ कुम्हारों के बनाये बर्तनों में चमक बहुत अधिक होती है। उनकी बनाई मिटटी की वस्तुएं चीनी के बर्तनों के समान चमकती हैं। इसका कारण वे बताते हैं कि वे बर्तनों को आग में पकाने से पहले उन पर पालिश करते हैं। इसे सरगुजा की भाषा में लेसना कहते हैं। पालिश दो प्रकार से की जाती है। कुछ कुम्हार बर्तनों के सूख जाने पर उन पर, मिटटी और कपडे़ धोने के सोडे के एक दिन पुराने घोल का लेप चार या पांच बार करते हैं और फिर उन्हें सुखा कर उन्हे आग में पका लेते हैं। इस प्रकार पालिश करने पर बर्तनों का रंग गहरा कत्थई हो जाता है। जबकि कुछ कुम्हार मिटटी और आम के गोंद का कुछ दिन पुराना घोल बर्तनों पर चार या पांच बार लगाकर फिर उन्हे पकाते हैं। इस विधि से पालिश करने से बर्तन करने से बर्तन बहुत ही ज्यादा चमकने लगते है और उनका रंग भी गहरा नहीं होता ।
तैयार बर्तनों को पकाने से पहले उन पर पालिश की जाती है ,पालिश के रूप में प्रयुक्त की जाने वाली लाल गेरू मिट्टी।
पालिश में चमक लाने के लिए उसमें आम के पेड़ की छाल का रस मिलाया जाता है, आम के वृक्ष की छाल।
आम वृक्ष की छाल को कूट कर उसे पानी में मिलाकर चूल्हे पर पकाया जाता है ,उसमें थोड़ा कास्टिक सोडा भी मिलते हैं।
तैयार गाढ़े घोल को कपड़े से छान लेते हैं।
एक बर्तन में गेरू को पानी में घोलकर आग पर पकाते हैं , उसमें थोड़ा कास्टिक सोडा भी मिलते हैं।
अब पकाये हुए गेरू और आम की छाल के रस को मिलाकर एक कपड़े से तैयार आकृतियों पर लगते हैं और उन्हें धूप में सूखाने रखते हैं। पालिश करते हुए गांव सोनपुर खुर्द, सरगुजा के भीखन कुम्हार।
बर्तन या मूर्ति का काला या गेरू के रंग का होना मुख्यतः उन्हे पकाने की विधि पर निर्भर है। यदि मूर्तियां पकाते समय भटटी में हवा चली गई तो बर्तनों को धुंआ लग जाता है और वे काले हो जाते हैं। मूर्ति पर धुंआ न लगे और उसे गेरू से रंग कर पकाया जाए तो वह गेरू के रंग की हो जाएगी। मूर्ति या बर्तन पर रूपहली चमक लाने के लिए पकाने से पहले उन पर नदी की रेत (जिसमें अभ्रक के छोटे कण मिले रहते हैं ) में थोड़ा सा आम का गोद मिलाकर उसे दो तीन दिन तक भिगो कर रखते हैं। फिर इसका पतला घोल कपड़े की सहायता से मूर्ति पर पांच या छः बार लगाया जाता है। इस प्रकार पकाए गए बर्तनों पर रूपहली चमक आ जाती है ।
पालिश किये हुए बर्तन धूप में सुखाए जा रहे हैं।
पालिश किये हुए बर्तनों को भट्टी में पकाया जाता है। भट्टी समतल भूमि पर लगाई जाती है। पहले सूखी लकड़ियां और गोबर के उपले बिछाई जाती हैं।
बर्तनों को जमाने के बाद उन्हें सूखी लकड़ियां और गोबर के उपलों से ढाका जाता है और उसके ऊपर पुवाल बिछाई जाती है। अब इसे मिट्टी के घोल से लीपा जाता है।
इसके बाद भट्टी में आग जला दी जाती है जिससे बर्तन पक कर तैयार हो जाते हैं।
भैयाथान के पास ग्राम हर्रापारा के कुम्हार एक विशेष प्रकार की सुराही बनाते हैं, जिसमें भरा हुंआ पानी अपने आप बाहर नही निकलता। सुराही दुहरी दीवार की बनी होती है और इसमें पानी भरने तथा निकालने के छिद्र अलग-अलग होते हैं। इस सुराही के लिए यहां के कुम्हार दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं । दैनिक उपयोग के बर्तनों के अतिरिक्त यहां के कुम्हार हाथी, पढ़की रूखा दिया, कलश, मछली कलश तथा बंदर कलश बहुतायात से बनाते हैं। सरगुजा की लोक जातियां, हाथी को गणेश भगवान का प्रतीक मानती हैं। मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर धारण करने वाले गणेंश सरगुजा में पूर्ण रूप से हाथी में कैसे रूपांरित हो गए, यह भी एक आश्चर्यजनक बात है। गणेंश हिन्दू लोक मानस के देवता है, जिनका रूप विधान भी उपलब्ध है और कैलेंडरों में उनके चित्र भी यहां की लोक जातियों ने देखे हैं। फिर भी इनकी पूजा विवाह के समय, हाथी की प्रतिमा के रूप् में ही की जाती है। कहते हैं पहले इनकी पूजा राजपूत, अहीर, बरगाय, रजवार राऊत आदि जातियों मे ही की जाती थी। परंतु बाद में अनेक आदिवासी जातयिों, गोंड, कॅवर, नगेसिया, अगारयिा, पनका, पंडों आदि ने भी इस रिवाज को अपना लिया है। कुछ तो विवाह के समय इसकी पूजा करते हैं। कुछ सिर्फ शोभा के लिए इसे विवाह मंडप में रख लेते हैं।
जिस व्यक्ति के यहां लड़के का विवाह होना होता है वह कुम्हार से आग्रहपूर्वक इसे बनाने के लिए कहता है। विवाह से एक दिन पहले कुम्हार हाथी की प्रतिमा, चार रूखा दिया और विवाह में काम आने वाले मिटटी के बर्तन उस व्यक्ति के घर पहुंचा देता है। विवाह मंडप में हाथी को रख कर उसके चारों ओर, चार रूखा दिया रखे जाते हैं, जिनमें दीप जलाए जाते हैं और गणेश पूजन कर विवाह के कार्य आरंभ किए जात हैं। जो आदिवासी जातियां इसकी पूजा नहीं करती, वे इसे विवाह मंडप में वैसे ही रख लेती हैं।
सरगुजा के कुम्हारों द्वारा बनाई जाने वाली विभिन्न आकृतियां।
हाथी के बाद दूसरी आकृति जो सरगुजा के कुम्हार बहुतायत से बनाते हैं, वह है चिड़िया। इसे यहां चिरई और पड़की अथवा फड़की भी कहते हैं। चिरई और पड़की की आकृति में मूल भेद यह है कि चिरई जहां छोटी और पतली होती है, वहीं पड़की मोटी और बड़ी होती है। यह आकृति अधिकांशतः खपरैल के साथ बनाई जाती है। झोपड़ी की खपरैल से बनी छत के दोनों कोनों पर एक विशेष प्रकार का बड़ा कवेलू रखा जाता है, जो मोखन कहलाता है। इसी मोखन पर यह आकृति बनाई जाती है। कभी-कभी इस पड़की के साथ दो या तीन बच्चे भी बनाए जाते हैं, तब यह छऊआ पड़की कहलाती है। छऊआ सरगुजिहा बोली में बच्चे को कहते हैं।
चिरई की विभिन्न गतियों और अवस्थाओं तथा उनके आकार के सरलीकृत विविध रूप जो सरगुजा में देखने को मिलते हैं, वे शायद ही कहीं मिलें। इन पक्षी आकृति को घर की छत पर रखने के संबंध में यहां के आदिवासी अलग-अलग कारण बताते हैं। कुछ का कहना था कि इससे घर की शोभा बढ़ती है, तो कोई घर में चिड़िया का बैठना शुभ मानते हैं। कुछ तो कहते है कि इन्हे देखकर अन्य चिड़िया भी यहां बैठती हैं, जिससे उन्हे उनका शिकार करने में आसानी होती है। कुछ भी कारण रहा हो, परंतु सरगुजा के आदिवासियों में पक्षी प्रेम इस सीमा तक है कि ये पक्षी आकृति छत से उतर कर इनके दैनिक उपयोग की मिटटी और पीतल की चिमनियों तक जा पहंचती है।
गांव सोनपुर खुर्द के शोभित कुम्हार और उनके जैसे अनेक कुम्हार एक विशेष प्रकार का दिया, जिसे रूखा पड़की कहते हैं ,बनाते हैं। इसकी प्रमुख विशेषता यह होती है कि इसमें तेल चिड़ियां के पेट में भरा जाता है, जो धीरे-धीरे दिए में आता रहता है। इस प्रकार एक बार भरा हुआ तेल काफी दिनों तक काम देता है।
पारम्परिक चिमनी, रूखा पड़की बनाने वाले गांव सोनपुर खुर्द, सरगुजा के शोभित कुम्हार।
रूखा पड़की के पेट में जलाने के लिए तेल भरते हुए।
तैयार चिमनी, रूखा पड़की
चिड़िया की मूल आकृति की धारणा और उसके सरलीकृत रूप् को गढ़ने में सरगुजा के कुम्हारों ने अदभुत कल्पनाशीलता से काम लिया है। आकृति की धारणा और उसके सरलीकृत रूप् को गढ़ने में चाक का प्रयोग और कम से कम विवरणात्मक काम करके गतिशील उड़ती हुई या चौंक कर उड़ने को तैयार चिड़िया का मूर्तिकरण देखती ही बनता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.