सामान्यतः यही माना जाता है कि लोक कलाओं में कलाकार कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लेते, वे अपने परिवार के साथ काम करते-करते स्वतः ही उसे आत्मसात कर लेते हैं। लोक कला एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सहज ही हस्तांतरित होती चलती है। वर्तमान पीढ़ी पारम्परिक कला को समकालीन स्वरुप में ढालकर उसका समकालीन औचित्य स्थापित करती है। इस प्रकार लोककला अपने पुरातन परम्परागत सन्दर्भ को बनाये रखते हुए वर्तमान में अपना अर्थ खोज लेती है।
ग्राम श्रीकोतंगा स्थित प्रशिक्षण केंद्र
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही उसकी आवश्यकताओं और उपयोग की वस्तुओं के उत्पादन का आरम्भ हुआ। कालांतर में विभिन्न सामग्रियों से उपयोगी वस्तुओं के बनाने वाले शिल्पियों के व्यावसायिक समूह बन गए जैसे कुम्हार, लोहार, बढ़ई, सुनार, ताम्रकार, बसोर, चर्मकार, जुलाहे आदि। यह व्यवस्था रूढ़ होकर व्यावसायिक जातियों में रूपांतरित हो गयी और उनकी अगली पीढ़ियां उसी व्यवसाय से आबद्ध हो गयीं। इस व्यवस्था के चलते इन शिल्पियों के बच्चे अपने माता पिता के साथ उनके काम में हाथ बंटाते-बंटाते न केवल उनके पूर्वजों द्वारा अर्जित सामग्री और तकनिकी सम्बन्धी विवरण और बारीकियां समझ लेते थे, साथ ही वे बनाये जा रहे उत्पादों का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व एवं सन्दर्भ भी सहज रूप से जान जाते थे। इस व्यवस्था के चलते कोई औपचारिक प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
मध्यकाल के उपरांत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में विशेषतः कपड़ा उद्योग सम्बन्धी अनेक भारतीय हस्तकलाएँ विलुप्ति की कगार पर पहुँच गयी। राजसी संरक्षण के आभाव में भी कुछ हस्तकलाएं निर्जीव हो चली थीं। देश की स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा स्थिति का आकलन किया गया। इसी समय सन १९५२ में श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में आल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड की स्थापना की गयी। तदुपरांत विलुप्त होती हस्तकलाओं को बचाने हेतु व्यापक पैमाने पर शिल्प प्रशिक्षण कार्यक्रम की योजना चलाई गयी। इस प्रशिक्षण का नाम गुरु-शिष्य परंपरा रखा गया। यह शिल्प प्रशिक्षण स्वतंत्र भारत में चलाया गया सबसे पहल प्रशिक्षण कार्यक्रम था। इसके अंतर्गत एक अनुभवी दक्ष कारीगर के नीचे दस से पंद्रह प्रशिक्षु रखे जाते थे जो चार से छः हफ्ते का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। बाद में शिल्प तकनीक की जटिलता के आधार पर प्रशिक्षण की अवधि तीन माह और छः माह तक भी बढ़ाई गयी। इस प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में आरम्भ में व्यवसायिक शिल्पकार जातियों के बच्चे प्रशिक्षण लेते थे। इस प्रकार उन्हें एक विधिवत कार्यक्रम के अनुसार तकनिकी प्रशिक्षण और उसका प्रमाणपत्र प्राप्त हो जाता था।
इस प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रमों के सफलतापूर्वक चलने से इनमें प्रशिक्षित शिल्पियों का एक नया वर्ग अस्तित्व में आ गया। यह किसी शिल्पविधा को स्किल के रूप में सीखते हैं। वे उस शिल्पविधा की तकनीक और निर्माण पद्यति तो सीख लेते हैं परन्तु उस शिल्प के सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक औचित्य एवं पीढ़ियों द्वारा अर्जित पारम्परिक ज्ञान से उतने परिचित नहीं हो पाते फलस्वरूप सम्बंधित शिल्प का कौशल, तकनीक एवं पद्यति तो सतत प्रचलन में रहती है परन्तु उसके सन्दर्भ का विलुप्त होने का अंदेशा बना रहता है।
प्रशिक्षण केंद्र में बने भित्ति अलंकरण के उदहारण
प्रशिक्षण केंद्र में बने भित्ति अलंकरण के उदहारण
हस्तशिल्प में स्थिति थोड़ी भिन्न है, वहां तकनीक एवं सामग्री का उपयोग महत्वपूर्ण है। यद्यपि लोक कला और हस्तशिल्प का विभेद कठिन है तथा विवाद का विषय है, फिर भी इसे यूं देखें कि एक कुम्हार मिट्टी के बर्तन बना रहा है और एक छत्तीसगढ़ की रजवार महिला मिट्टी के भित्ति अलंकरण बना रही है। कुम्हार कुछ ही आकारों का हजारों की संख्या में पुनरुत्पादन कर रहा है दूसरी ओर रजवार महिला प्रत्येक बार नए आकर का सृजन कर रही है। कच्ची मिट्टी का काम टैराकोटा की तुलना में अपेक्षाकृत सरल कार्य है पर उसके सामाजिक संदर्भ महत्वपूर्ण हैं। उकेरे जाने वाले मोटिफ् एवं पैटर्न प्रतीकात्मक पारम्परिक अर्थ रखते हैं। कुम्हार द्वारा कच्ची मिट्टी के आकार बनाकर उन्हें भट्टी में आग द्वारा पकाकर स्थाई रूप देना, सामग्री और तकनिकी ज्ञान में कुशलता की मांग करता है। दौनों ही प्रकार के कामों के अपने-अपने सन्दर्भ हैं पर कुम्हार का कार्य पूर्णतः व्यावसायिक है, बाजार के अनुरूप और किसी उत्पाद की पुनरावृति पर आधारित है। जबकि रजवार महिला द्वारा बनाये जा रहे भित्ति अलंकरण अव्यावसायिक एवं निजि उपभोग के लिए। अतः इन दोनों ही प्रकार के कार्यों में प्रशिक्षण हेतु प्रशिक्षुओं के चुनाव में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण है।
कुम्हारों द्वारा बनाये मिटटी के बर्तन
कुम्हारों द्वारा बनाये मिटटी के खिलौने
रजवार स्त्रियों द्वारा बनाए जाने वाले भित्ति अलंकरण
रजवार स्त्रियों द्वारा बनाए जाने वाले भित्ति अलंकरण
सोनाबाई रजवार और सुन्दरबाई रजवार की कला को मिली विश्वव्यापी ख्याति एवं छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में की जाने वाली भित्ति अलंकरण कला में रोजगार की संभावनाओं को देखते हुए, शासन द्वारा सं २०१४ में सरगुजा जिले के गांव सरिकोतंगा में इस कला का एक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया। एक बड़े परिसर में बना इस प्रशिक्षण केंद्र का भवन पक्का और व्यवस्थित रूप से बनाया गया है। बरामदे एवं प्रवेश कक्ष के साथ दो बड़े हॉल बनाए गए हैं। कच्ची सामग्री और तैयार कलाकृतियों को रखने की समुचित व्यवस्था है। प्रशिक्षण केंद्र की सारी दीवारें प्रशिक्षित प्रशिक्षुओं द्वारा बनाए भित्ति अलंकरणों से भरे हुए हैं। आरंभ में दीवार पर ही इस क्षेत्र की महान कलाकार सोनाबाई रजवार को श्रद्धांजलि स्वरुप उनका व्यक्तिचित्र बनाया गया है।
प्रशिक्षण केंद्र
प्रशिक्षण केंद्र में बने भित्ति अलंकरण के उदहारण
प्रशिक्षण केंद्र में बने भित्ति अलंकरण के उदहारण
भित्ति चित्र बनती महिलाओं का पोस्टर
प्रशिक्षण केंद्र की प्रशिक्षिका एवं प्रशिक्षणार्थी
इस प्रशिक्षण केंद्र में सर्वप्रथम सुंदरीबाई रजवार को प्रशिक्षका नियुक्त किया गया था। उनके उपरांत आत्माराम पनिका और वर्तमान में बॉबी सोनवानी (घसिया) यहाँ प्रशिक्षिका हैं। अब तक इस केंद्र से ६० प्रशिक्षु कच्ची मिट्टी से बनाये जाने वाले भित्ति अलंकरण कला का प्रशिक्षण ले चुके हैं।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.