इमली- वैकल्पिक आय का साधन/ Tamarind: a source of livelihood

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Published on: 08 April 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

जंगल, बस्तर के आदिवासियों के लिए सदैव ही जीवकोपार्जन का माध्यम रहे हैं। आदिवासी जीवन का प्रत्येक पहलू जंगल और उसके पेड़-पौधों से सम्बद्ध है। आदिवासी तथा उनके देवी-देवताओं का अस्तित्व वनों के बिना संभव ही नहीं है। इस क्षेत्र में बढ़ते शहरीकरण और व्यवसायीकरण से वनों की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है। अनेक प्रकार के शोषण, अनियमितताओं और बाधाओं के बावजूद वनोपज आदिवासियों एवं यहाँ के ग्रामीणों के लिए नकद आय का एक महत्वपूर्ण साधन हैं। विभिन्न ऋतुओं के अनुरूप, लगभग साल भर इन वनों से किसी न किसी प्रकार के फल, फूल, पत्ते और बीज आदि प्राप्त होते ही रहते हैं।

तेन्दु पत्ता, सरगी पत्ता, छिंद पत्ता और सरई पत्ते के अतिरिक्त आंवला, महुआ, टोरी, साल बीज, चिरोंजी, मधुमक्खी का मोम और शहद, गोंद, राल और धूप अथवा धुंअन विभिन्न प्रकार के कंद आदि अनेक उत्पाद है जो सहज ही वनों से प्राप्त हो जाते हैं और जिनके संग्रह से यहाँ के ग्रामीणों को कुछ आमदनी हो जाती है। बस्तर की वनोपज में इमली का भी अपना स्थान है।

A Tamarind Tree

Image: Tamarind Tree/इमली का पेड़. Photo Credit: Mushtak Khan (All pictures belong to Mushtak Khan unless otherwise specified)

इमली को यहाँ प्रचलित गोंडी बोली में हिंता कहते हैं। हल्बी बोली में इमली को तैतर कहा जाता है तथा इससे बनी शराब तैतर दारू कहलाती है। इमली का वृक्ष बस्तर की आदिवासी देवधामी संस्कृति में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता। इसके वृक्ष में किसी देवी-देवता का स्थान नहीं होता और इसकी लकड़ी भी किसी अनुष्ठान में काम नहीं आती। लेकिन अपने खट्टे स्वाद के करण यह यहाँ के भोजन का अभिन्न अंग है। नमक-मिर्च के साथ बनाई गई इसकी चटनी चावल के पेज के साथ बहुत ही स्वाद से खाई जाती है। यहाँ के मुरिआ आदिवासी मानते हैं कि मिर्च के साथ इसे खाने से मलेरिआ बुखार में लाभ होता है।

बस्तर के ग्रामीण इलाकों में इमली के वृक्ष बहुतायत से मिलते हैं, इन्हें कई ग्रामीण अपने आंगन अथवा झोपड़ी के पास रोपते भी हैं। इमली के वृक्ष में साल में एक बार फल लगते हैं जो आम तौर पर सर्दियों के मौसम में लगते हैं।इमली के फलों को कच्चा और पक्का दोनों अवस्थाओं में तोड़ा जाता है। मार्च-अप्रेल के महीने में यह पक कर तैयार हो जाते हैं। एक पेड़ से साल भर में लगभग दो से चार क्विन्टल इमली प्राप्त हो जाती है। इमली को मंडी में ३० से ३५ रुपये प्रति किलो  हिसाब से बेचा जाता है। इस प्रकार एक इमली वृक्ष से एक वर्ष में लगभग १०,०००  से १४,००० रुपये की आमदनी होने की सम्भावना रहती है।

Ripe Tamarind

Image: Ripe Tamarind/पका हुआ इमली

इसके अतिरिक्त इमली से उसका गूदा, रेशा और बीज अलग करके भी ग्रामीण स्त्रियां २० से ४० रूपये प्रति दिन कमा लेती हैं। अक्टूबर-नवम्बर माह में यह काम अधिक चलता है। एक किलो इमली गूदा निकालने की मजदूरी बीस रुपये मिलती है। इस समय बस्तर के गांवों में हर जगह औरतों और बच्चों को इमली फोड़ते देखा जा सकता है। इमली के रेशों से स्थानिय लोग शराब बनाते हैं। इमली के बीज से उसका छिलका अलग करके उन्हें पीसकर इमली बीज का का आंटा  तैयार किया जाता है जिसका प्रयोग पारम्परिक चित्रकारी और कपड़ा छपाई में किया जाता है।

A woman making tamarind bricks

Image: Woman separating seeds from the pulp/महिला गूदे से बीज अलग करती हुई

Woman preparing to make tamarind bricks

Image: Preparing to put tamarind pulp in a square mould/इमली के गूदे को चौकोर सांचे में डालने की तैयारी

 

Woman filling the square mould

Image: Woman filling tamarind in the square mould/चौकोर सांचे में इमली भरती हुई औरत

 

Tamarind brick

Image: Tamarind brick/इमली की चकती

 

Tamarind brick

Image: Tamarind brick/इमली की चकती

 

Mould used to make tamarind bricks

Image: Square mould used to make tamarind brick/इमली की चकती बनाने के लिए चौकोर सांचा

इमली संग्रह से वैकल्पिक आय की संभावनाओं को देखते हुए सरकार ने भी इसके लिए समुचित मूल्य निर्धारण की नीति बनाई है।

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.