गोटुल

in Overview
Published on: 31 August 2019

प्रगति कुलकर्णी (Pragati Kulkarni)

टाटा सामाजिक विज्ञानं संसथान की ग्रेजुएट प्रगति कुलकर्णी प्रदान नाम के गैर सरकारी संगठन के साथ मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में तीन साल काम कर चुकी हैं | वे बहुत ही निष्ठावान नारीवादी हैं और आदिवासी
जीवनशैली में कड़ा विश्वास रखती हैं | उनके हिसाब से उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की प्राथमिकताएं आदिवासी औरतों से सीखी हैं |

 

गोटुल शब्द मैंने पहली बार सुना तब में छत्तीसगढ़ में एक संस्था के साथ काम कर रहा था | गोटुल के बारे में लोगों के अलग अलग विचार थे, कुछ बुरे कुछ अच्छे | मैंने कभी गोटुल देखा नहीं था, पर आदिवासीयों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता, शहरों में रहने वाले गोंड समुदाय के लोग, लेखक या पत्रकार से बातचीत और कुछ जानकारी से मेरे दिमाग में एक ढांचा बना हुआ था, की गोटुल कैसा होगा | मैंने जितने लोगों से बात की उससे एक निष्कर्ष निकल के आया की गोटुल विषय पर यदि चर्चा होती है, तो मुख्य तर्क यह होता है की गांव के युवा गोटुल में यौन संबंध बनाते हैं | कुछ लोगों का मानना है की ऐसा कुछ नहीं होता था, कुछ कहते हैं अभी भी होता है और कुछ लोगों का मानना है की ऐसा होता था, पर बाहरी शोधकर्ताओं, अधिकारीयों, नक्सलियों और अन्य लोगों की आवजाही के कारण अब ऐसा कुछ नहीं होता | मेरी सोच भी यहीं तक सिमित थी की गोटुल में सिर्फ युवा नाचते गाते हैं और पुराने समय में गोटुल में यौन संबंध बनाते होंगे पर अब शायद ऐसा कुछ नहीं होता हैं | मैं मध्यप्रदेश राज्य के बालाघाट जिले से हूँ, जहां एक बड़ी आबादी गोंड है, पर मैंने कभी गोटुल शब्द नहीं सुना था | ये बात मुझे काफी समय बाद पता चली की गोंड समुदाय में भी अलग अलग समूह हैं और सिर्फ बस्तर या उसके आस पास रहे वाले मुरिया और माडिया आदिवासियों के गांव में ही गोटुल होता है |   

मैंने पहली बार गडचिरोली, महाराष्ट्र के टेकला गांव में गोटुल देखा था, जो मेरे सोच से काफी अलग था | गाँव के बीच एक मामूली सी झोपडी, जिसमे कोई दीवारें नहीं थी, बस कुछ खम्बों पर एक छत | गोटुल में बांस की चटाई, कुछ बड़े बर्तन और ढोल रखे थे | हमारे एक साथी ने गांव के लोगों से बात किया की हम किसलिए गाँव आये हैं | कुछ देर बाद गांव के एक आदमी ने गोटुल का ढोल बजाया और धीरे धीरे गाँव के लोग गोटुल में जमा होना शुरू हुए | हमने कार्यक्रम दिया, जिसके बाद गांव के लोगों ने हमारे लिए खाना बनाया और उस रात हम वही गोटुल में रुके | अगले एक हफ्ते तक हम ऐसे ही गांव-गांव जा कर कार्यक्रम देते रहे | हम एक गांव ‘जुव्वी’ में शाम को पहुंचे, अगले दिन गांव में नवाखाई (धान कटाई ख़त्म होने के बाद जब नया चावल खाना शुरू करते है, उस त्यौहार को नवाखाई कहते हैं) का त्यौहार था | उस दिन गांव के युवा घर घर जाके नाच रहे थे, सभी घर के लोग उन्हें चावल, मक्का, मिर्च, नमक इस तरह का कुछ सामान दे रहे थे, साथ ही सभी घर के लोग उन्हें अपने घर का कूड़ा भी जमा करके देते | कूड़ा देने का अर्थ है की घर के सभी दुःख भी उसके साथ बहार चले जाते हैं, जिसे सारे गांव से युवा जमा करके कहीं जला देते हैं और फिर सभी युवा जमा किये हुए चावल और अन्य चीजों को गोटुल में लाके मिलकर पकाये | उस रात हम एक दोस्त के घर सोये और लगभग रात को 1 बजे मेरी नींद खुली और मुझे गोटुल से गाने और ढोल की आवाज़ आ रही थी | मैं गोटुल गया तो गांव के लड़के लड़कियां आग के पास बैठ के गाने गा रहे थे, मुझे देख कर उन्होंने मुझे लंदा पिने के लिए दिया, लंदा कोदो से बनी एक शराब है जिसे किसी बड़े कार्यकम, शादियों या त्यौहार के समय बनाया जाता है | इसी तरह सभी युवा शादियों या त्योहारों के समय मिलकर गोटुल में नाचते हैं | ये गोटुल से जुड़ा मेरा पहला अनुभव था, और मैंने अभी तक जैसा भी सुना था गोटुल के बारे में वैसा मुझे कुछ लगा ही नहीं | मुझे पता चला की गोटुल सिर्फ गांव के लोगों के लिए नहीं है, गांव में आने वाला कोई भी व्यक्ति वहां रुक सकता है, गोटुल में लोग गांव से जुड़े विषयों पर बातचीत या चर्चा करते हैं, त्योहारों और सामुदायिक कार्यकर्मों में गोटुल का बड़ा महत्व है और गोटुल सिर्फ गांव के युवाओं के लिए नहीं है |

कुछ महीनो के बाद मैं नारायणपुर, छत्तीसगढ़ के मरकाबेड़ा गाँव गया | इस गांव का गोटुल अलग था, यहाँ का गोटुल काफी बड़ा था और इसमें दीवारें भी थी | मरकाबेड़ा में मै अपने कुछ दोस्तों से मिलने गया था तो मैं रात को उनमे से एक घर रुका था | मैंने गांव के एक बुजुर्ग गांडो वड्डे से बातचीत की , उन्होंने मुझे एक कहानी सुनाई की

“पुराने समय में दो बुढा बूढी रहते थे, जिनके 7 बेटे थे उनमें सबसे छोटा था लिंगो | बड़े 6 भाइयों की शादी हो चुकी थी, बुढा बूढी और 6 भाइयों की बीवियां लिंगो को बहुत प्यार करते थे | जिसके कारण उसके बड़े भाइयों को उससे जलन होने लगी, एक बार वो लिंगो को अपने साथ शिकार पर लेके गए और जंगल में छोड़ के आ गए | जंगल में भटकते हुए लिंगो सेमरगांव पहुंचा, वहां उसने एक झोपडी बनाया | वो रोज़ जंगल जेक शिकार करता और शाम को अपनी झोपडी में बैठ के 18 वाद्य बजाता था, जिसे सुन के आस पास के गांव के युवा युवती उसके पास आते और रात भर नाचते गाते थे | इसी झोपडी को गोटुल कहा जाने लगा |”

 इस तरह की और भी कई कहानियां हैं | कांकेर के कोदापाखा गांव के एक व्यक्ति जयलाल नरेटी से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया की “गांव के सभी लोग काम पे जाते थे और बच्चे घर में रहते थे | सभी लोग अपने बच्चों को किसी एक घर में छोड़ के जाते थे, बड़े बच्चे यहाँ वहां घुमने चले जाते थे लेकिन छोटे बच्चे खूब शोर करते थे | इसलिए गांव वालों ने मिल के गोटुल बनाया ताकि सभी बच्चे एक जगह रहें और बड़े बच्चे उनकी देखभाल करे या उन्हें कुछ सिखाएं |"

 गोटुल में युवाओं की भागीदारी और काम के बारे में कांकेर के करेल गांव की एक बुजुर्ग महिला रामबती दुग्गा कहती हैं “मेरे गांव के सभी लड़के लड़की रोज़ गोटुल में नाचने जाते थे | हम सभी गोटुल में एक दुसरे का कोई नाम रखते थे, मेरा नाम अलोसा था | दुलोसा और सुलकी मैंने अपने दोस्तों का नाम रखा था, हम चेलिक (गोटुल में आने वाले लडकों को चेलिक और लड़कियों को मोटियारी कहते हैं) लोगों का कंघी करते थे | गांव में कोई शादी या पंडूम (त्यौहार) होने से मांझी (गोटुल में आने वाले सभी युवाओं का मुखिया) सबको काम देता था, किसी को पत्तल बनाना है, कोई खाना बनाएगा, कोई लकड़ी लाने जायेगा, कोई खाना परोसेगा | रोज़ सबको गोटुल जाना ज़रूरी रहता था, गोटुल में छोटे बच्चे खेलते थे या कभी हमारे साथ नाचते थे | हम लोग कभी रेला नाचते थे, कभी हुलकी, कभी मांदरी, कभी कोलांग | कभी-कभी हम पास गांव के गोटुल जाते थे नाचने, उनको हमारा नाचा पसंद आया तो वो हमको बकरा, सूअर या चावल ऐसा कुछ देते थे | जीते तो वापस आके गोटुल में बनाना है खाना है और अगले साल उस गांव के लोगों को अपने गोटुल में बुलाते थे |”

ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है की गोटुल किसी भी मुरिया - माडिया आदिवासी या गांव के लिए बहुत ज़रूरी है | गोटुल किसी एक गांव के लिए नहीं बल्कि पुरे मुरिया और माडिया समुदाय के लिए महत्वपूर्ण कड़ी है, जो पुरे समुदाय को आपस में जोड़ के रखता है |

मुरिया और माडिया समुदाय की जीवनशैली का एक अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद गोटुल धीरे धीरे ख़त्म होने लगे | जिसमे सबसे बड़ा कारण यह अवधारणा थी की युवा गोटुल में यौन संबंध बनाते हैं, इस बात को बहुत से लोग नकारते हैं या शोधकर्ताओं को दोष देते हैं की उन्होंने इस तरह की अवधारणा फैलाई हैं |  गोटुल के बारे में बनी इस अवधारणा के कारण बहुत सी जगहों पर अलग अलग तरह से गोटुल को ख़त्म करने की कोशिश की गई | इसाई मिशनरीयों एवं अन्य धार्मिक प्रचारकों द्वारा धर्म परिवर्तन के कारण भी गोटुल व्यवस्था में फर्क पड़ा, बस्तर क्षेत्र के बहुत से गांव में धर्म परिवर्तन किये हुए आदिवासियों को गोटुल में आने की मनाही है | एक समाचार के अनुसार माओवादियों ने भी गोटुल को ख़त्म करने की कोशिश की ताकि युवा आदिवासी माओवादी क्रांति में जुड़ें, बीजापुर जिला के खेतुलनार गांव के एक व्यक्ति से गोटुल के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया की “हमारे गांव में गोटुल का जगह है पर वहां गोटुल नहीं है | हमारे पिताजी लोग जाते थे गोटुल उनके समय में, पर बाद में दादा लोग (माओवादी) आये और उन्होंने बोला की ये सब यहाँ नहीं चलेगा तब से गोटुल नहीं है” | एक अन्य समाचार के अनुसार BBC द्वारा एक फिल्म में गोटुल को नाईट क्लब की तरह दिखाया गया, जिसके बाद 1970 के दशक में नारायणपुर जिला कलेक्टर ने अबूझमाड़ में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया | रामकृष्ण मिशन या आश्रम शालाओं में जाने वाले आदिवासी बच्चे अपना पूरा समय आश्रम में ही बिताते हैं तो वे भी गोटुल नहीं जा पाते हैं | इस तरह की गतिविधियों के कारण बहुत से गांव के आदिवासी अब इस बात को नकारने भी लगे हैं की उनके गांव में गोटुल था या वो खुद कभी गोटुल जाते थे | भारत की आज़ादी के बाद आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए या उनके विकास के लिए विभिन्न नीतिया बनी गई, जिसके कारण अधिकारीयों और अन्य लोगों से मुरिया एवं माडिया आदिवासियों का संपर्क बढ़ा | जो बच्चे स्कूल जाने लगे उनकी सोच में भी काफी बदलाव आने लगा |

इस बदलाव को समझने के लिए कांकेर के चाहचाड गांव के एक परिवार की तीन पीढियों के साक्षात्कार हैं, जिसमें मलयार सलाम जो लगभग 80 साल के हैं, बताते हैं

“हमारे समय में हम रोज़ गोटुल जाते थे, नाचते थे, खेलते थे | हम सभी को रोज़ एक एक लकड़ी लेके जाना होता था, उसमें आग लगा के रात भर उसके आस पास नाचते थे | कोई भी लड़का लड़की एक दिन दो दिन तक गोटुल नहीं आया तो पता करने जाते थे क्यों नहीं आ रहा है, सही कारण होने से कोई बात नहीं लेकिन बिना कारण नहीं आया तो उसको दंड लगाते थे | दंड सब लोग मिल के देते थे, जैसे चावल, मुर्गी, बकरा या महुआ | किसी को अगर कोई काम है या नहीं आ पायेगा गोटुल तो उसको बता के जाना होता था | हमारे समय में जैसा था वैसा गोटुल तो अब बचा ही नहीं है |”

मलयार सलाम के बेटे सन्तु सलाम जिनकी उम्र लगभग 50 साल है कहते हैं “मैं जब छोटा था तब हम रोज़ गोटुल नाचने जाते थे | सब काम करते थे जैसा शादी हुआ, त्यौहार हुआ उसमें नाचना, खाना बनाना, लकड़ी लाना, शादी का मंडप बनाना ये सब | फिर कोई लोग स्कूल जाते थे कोई काम पे जाते थे इसलिए कुछ लोग रोज़ नहीं आते थे, तो हमने दंड लगाना बंद कर दिया |”

सन्तु सलाम के बेटे गोविन्द सलाम जो अभी 22 साल के हैं उनका कहना है “हम लोग हर शनिवार रात को गोटुल नाचने के लिए जाते है | बहुत देर तक तो कोई नहीं नाचता, लडकियां ही ज्यादा नाचती हैं | लड़के कभी नाचते हैं, कभी खड़े रहते हैं, बात करते रहते हैं | स्कूल जाने वाले बच्चे कम ही आते हैं गोटुल में |” इन तीनों साक्षात्कार से समझ आता है की शायद अब गोटुल अपने सम्पूर्ण सवरूप में नहीं है, पर शादियों, जात्राओं, त्योहारों आदि में आज भी गोटुल का एक बड़ा हिस्सा है | किसी भी गांव तक सरकार या बाहरी व्यक्ति की पहुँच ही यह तय करती है की गांव के गोटुल, उससे जुड़े कार्य और गोटुल की कार्यप्रणाली मैं कैसे या कितने बदलाव आये हैं | अबूझमाड़ या उसके आस पास के इलाकों में अभी भी गोटुल की कार्यव्यवस्था जीवित है | नारायणपुर और गडचिरोली जिला में अभी भी गोटुल के अंतर्गत लोग धार्मिक या सामुदायिक फैसले करते है, ज्यादातर गांव में युवा अभी भी रोज़ गोटुल में नाचने जाते हैं और गोटुल का एक अच्छा अनुभव इन इलाकों में मिलता है | नारायणपुर, कांकेर, बीजापुर, कोंडागांव और दंतेवाडा में ऐसे गोटुल जो शहर से दूर हैं वहां भी गोटुल काफी अच्छी स्थिति में हैं, युवा नाचने जाते हैं, लोग अपने गांव के लड़ाई झगडे सुलझाते हैं, शादी या त्योहारों में लोग गोटुल में पूजा और अन्य निर्णय लेते हैं | कांकेर, दंतेवाडा और कोंडागांव के ऐसे गांव जो शहर से पास हैं, जहाँ बड़े स्कूल या आश्रम शालाएं हैं, जहाँ खदान या अन्य बड़े उद्योग हैं, ऐसी जगहों में गोटुल या तो नहीं है या सिर्फ नाम भर के हैं |

यदि हम बात करें की क्या गोटुल को दुबारा शुरू करना चाहिए, तो बहुत से लोग अलग अलग तरह से गोटुल को दुबारा शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं | पर ऐसा करने में बहुत सी परेशानीयां है क्योंकी मुरिया एवं माडिया समुदाय अब वैसा नहीं रहा जैसा पहले था | गोटुल में सिखने की जगह बच्चे या युवा अब स्कूल में जाते हैं, रेला, हुलकी और कोलांग की जगह अब बॉलीवुड के गानों ने ले ली है, बहुत से आदिवासी अब धर्म परिवर्तन कर चुके, हल और नांगर की जगह ट्रेक्टर आ गए, कोदो, कुटकी, मडिया के बजाय अब चावल उगता है और पैसा कमाना ही एक मुख्य उद्देश्य रह गया है | गोटुल बहुत से गांव में ख़त्म हो रहा है, पर बहुत से मुरिया एवं माडिया समुदाय के लोग हैं जो गोटुल को बचाने की कोशिश भी कर रहे हैं | लालसू नोगोटी जो गडचिरोली जिला के भामरागढ़ तहसील में गोटुल और उसके ढांचे को एक संगठन के रूप में उपयोग करते हुए, त्यौहार, जात्रा, संघर्ष और अन्य आदिवासी मुद्दों पर चर्चा करते हैं | कांकेर जिला के दमकसा गांव से शेर सिंह आचला जो एक अध्यापक रहे हैं, वे विभिन्न जात्राओं एवं कार्यक्रमों में गोटुल एवं उसकी ज़रूरत के बारे में बात करते हैं | सुखरंजन उसेंडी जो की कांकेर के पखांजूर तहसील से हैं, उन्होंने गोंडी भाषा में ‘गोंडवाना ता गोटुल’ नाम से फिल्म बनाई, जिसमें वे गोटुल की महत्ता और ज़रूरत समझाते हैं | कुसुम आलाम, मनिरावन दुग्गा, सुनहेर सिंह ताराम, उषाकिरण आत्राम जैसे कुछ लेखक हैं जो गोटुल के बारे में लिखते हैं |

गोटुल सिर्फ मुरिया एवं माडिया समुदाय में ही नहीं बल्कि पुरे गोंड समुदाय के लिए उनकी संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा रहा है, इसलिए ज़रूरत है की गोटुल के बारे में बनी गलत अवधारणाओं को ख़त्म किया जाए और उससे जुडे अच्छे कार्यों एवं अनुभवों के बारे में लिखा जाए | ताकि मुरिया, माडिया एवं गोंड समुदाय की आगे आने वाली पीढ़ी गोटुल को किसी बुरी जगह के रूप में नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति से जुडी एक ज़रूरी और अच्छी व्यवस्था के रूप में जानें |