छत्तीसगढ़ में लाख उत्पादन

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Published on: 08 August 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

लाख एक प्रकार का राल अथवा रेज़िन है जो कि एक विशेष कीड़े से प्राप्त होता है। लाख के कीड़े अपनी सुरक्षा हेतु अपने शरीर में उपस्थित सूक्ष्म ग्रंथियों द्वारा राल का स्राव किया जाता है जो हमें लाख के रूप में प्राप्त होता है। इसे वनोपज भी माना जा सकता है क्योंकि इसका उत्पादन जंगल में ही किया जाता है। भारत ही नहीं विश्व के अनेक वनवासी समुदाय इसका संग्रहण करके अर्थोपार्जन करते हैं। छत्तीसगढ़ और विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र में इसका उत्पादन और संग्रहण व्यवसायिक स्तर पर किया जाता है।

बस्तर के वनों से लाख एकत्रित करने का काम यहाँ के आदिवासी एवं अन्य ग्रामीण पहले से करते आ रहे हैं, परन्तु इस क्षेत्र में लाख प्रसंस्करण की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण यहाँ लाख संग्रहण में लगे लोगों को उचित मूल्य नहीं मिल रहा था। दूसरे, केवल प्राकृतिक रूप से स्वतः उपजी लाख बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध होती थी। इस कारण लाख के संग्रहण में लोगों की रूचि घटने लगी थी। परन्तु शासन और कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं के प्रयास से बस्तर के कांकेर और चारमा इलाकों में लाख की खेती की संभावनाओं को देखते हुए सन २००० के आस-पास लाख की उपज द्वारा यहाँ के ग्रामीणों को अतिरिक्त आय का एक विकल्प देने का प्रयास किया गया। जलवायु तथा उपलब्ध वृक्षों की प्रजातियों के आधार पर यह इलाका लाख की खेती की संभावनाओं के लिए उपुक्त पाया गया, अतः लाख उत्पादन के प्रयास यहाँ पुनः आरम्भ किये गए।  

बस्तर के कोंडागांव जिले में माकड़ी गांव में सन २००९ में लाख पालन एवं प्रसंस्करण परियोजना के अंतर्गत एक प्रशिक्षण केंद्र भी स्थापित किया गया है जो यहाँ लोगों को इस रोजगार के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। बस्तर में लाख उत्पादन के लिए कांकेर एवं उसके आस-पास का क्षेत्र सर्वोत्तम माना जाता है।

भारत में लाख का इतिहास लगभग चार हजार वर्ष पुराना है। महाभारत की कथा में कौरवों द्वारा पांडवों को षडयंत्र पूर्वक मारने हेतु लाक्षागृह के निर्माण कराये जाने का उल्लेख मिलता है। सोलहवीं सदी में अकबर के दरबारी अबुल फजल द्वारा लिखी गयी पुस्तक आईने अकबरी में लाख की खेती और उसके उपयोग के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त लाख से प्राप्त होने वाले लाल रंग का प्रयोग भारत में कपड़ा रंगने के लिए प्राचीन काल से ही होता रहा है। व्यापारियों द्वारा सत्रहवीं सदी में इसे यूरोप के बाजारों में ले जाया गया और शीघ्र ही लाख वहां प्रचलन में आ गया। 

सन १७८२ में जेम्स केर नामक वैज्ञानिक ने लाख उत्पादित करने वाले कीड़े की पहचान की जिससे लाख का विधिवत उत्पादन संभव हो सका। वर्तमान में समूचे विश्व में दो हजार से अधिक प्रकार के कीड़ों की पहचान की जा चुकी है जो लाख उत्पादन करते हैं। इनमे से केवल पांच प्रकार के कीड़े ही व्यावसायिक उत्पादन हेतु काम में लाये जा रहे हैं। भारत में लाख का उपयोग एवं इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, विश्व भर में उत्पादित होने वाले लाख का नव्बे प्रतिशत लाख भारत से आता है। भारत में लाख का उत्पादन मुख्यतः बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र राज्यों में होता है।  

छत्तीसगढ़ के बस्तर में लाख का उत्पादन कांकेर, सरोना और नरहरपुर की बांस पत्तर, बिहावापरा, भिरौद, शामतरा, मँडराडहा, घोटियावाही, देव डोंगर, धनेसरा, भैंस मुंडी, देवरी, बुदेली, अभनपुर, मानिकपुर और बाबू साल्हेटोला ग्राम पंचायतों में अधिक होता है। इन क्षेत्रों में पलाश, कुसुम, बेर, खैर, डुमर, बबूल आदि के वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं जो लाख के कीड़ों के पालन के लिए उपुक्त होते हैं। यहाँ लाख की खेती के लिए केरिया लैक्का नामक कीड़े का उपयोग किया जाता है, जिसकी यहाँ दो नस्लें लोकप्रिय हैं, कुसुमी और रंगीनी।

सामान्यतः लाख की दो फसलें लगाई जाती हैं ग्रीष्म कलीन फसल और वर्षाकालीन फसल। ग्रीष्मकालीन फसल अक्टूबर से जुलाई के मध्य तैयार होती है तथा वर्षकालीन फसल जून से नवम्बर के मध्य तैयार हो जाती है।

सन २०१३ में छत्तीसगढ़ शासन वन विभाग द्वारा माकड़ी गांव में लाख विस्तार एवं प्रशिक्षण केंद्र का नया भवन लोकार्पित किया गया। अब यहाँ लाख की खेती में रूचि रखने वाले कृषकों के स्वयं सहायता समूह बनवाकर उन्हें वैज्ञानिक पद्यति से प्रशिक्षण एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराइ जाती हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.