सरगुजिहा लोक गीतों में वर्षा, Songs of rain in Sarguja

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Published on: 13 November 2018

अजय कुमार चतुर्वेदी

अध्यापक, लेखक, कवि, गीतकार एवं शोधकर्ता

सरगुजिहा लोक गीतों में वर्षा

 

मानव जीवन में ऋतुओं का विशेष महत्व है। उनमें एक है वर्षा ऋतु। वर्षा ऋतु को पावस ऋतु, बरखा ऋतु, बरसात ऋतु व जीवन दायिनी ऋतु के नाम से भी जाना जाता है। इस ऋतु में सभी प्रांत के लोग अपनी-अपनी स्थानीय बोलियों में वर्षा लोकगीतों का गायन करते हैं। सरगुजा अंचल की सरगुजिहा लोकगीत में वर्षा का वर्णन मनमोहक ढंग से हुआ है। सरगुजा अंचल में करमा, सुआ, रोपा, बानबहुली और गाना लोकगीत में पावस प्रसंग सुनने को मिलते हैं।

            वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूंदे जब गर्मी के ताप से दग्ध धरती पर टपकती है, तो समूचा वातावरण आनन्दमय हो उठता है। जहाँ चारों ओर अभी तक मतवाली कोयलों की स्वर सुनाई दे रहा था। वह स्वर अब दादुर मोर और पपीहों की आवाज में परिवर्तित हो जाता है। पृथ्वी हरी साड़ी धारण किये हुए नवबधु की तरह दिखाई देने लगती है। किसान वर्षा ऋतु की आगमन से खुशी से नाच उठते हैं।

            हिन्दी साहित्य में ‘षष्ठ ऋतु वर्णन’ हो या सूफी कवियों का ‘बारह मासा वर्णन’ सभी में वर्षा को विशेष महत्व दिया गया है।

 

सरगुजिहा लोकगीतों में भी वर्षा की छटा देखते ही बनती है। सरगुजा के लगभग सभी लोक त्यौहार वर्षा ऋतु में मनाये जाते हैं। इन त्यौहारों में सरगुजा अंचलवासी लोकगीत गाकर वर्षा की खुशी मनाते हैं। इनके मुख्य त्यौहार तीजा, नवाखाई, हरियरी, जीविता और करमा है जो वर्षा ऋतु में मनाये जाते हैं। इन त्योहारों में वर्षा लोकगीत गाकर रात में मांदर और मृदंग की थापों के साथ नृत्य करते हैं।

वर्षा के पहले जब जोरों की गर्मी पड़ती है। मनुष्य, पशु, पक्षी सब गर्मी से व्याकुल हो उठते हैं। प्रकृति उजाड़ दिखाई देती है। नदी, नाले, तालाब सूख जाते हैं। पेड़ों से पत्ते झड़ने से लताओं की हरियाली नष्ट हो जाती है। इसका वर्णन सरगुजिहा गाना लोक गीत में इस प्रकार किया गया है।

 

रूखे कर पान पतई, भुइयां झरी जाये।

पानी बिगर पडकी, पियासे मरी जाये।।

 

अनुवाद

पेड़ों से पत्ते झड़ कर धरती पर गिर रहे हैं।

पानी के बिना पडकी नामक पक्षी प्यास से मर रही है।                                           

 

सावन मास में वर्षा न होने की स्थिति का उल्लेख गाना लोक गीत में इस प्रकार हुआ है।  

                 पानी बिना सावन, सावन बिना अना।

                 अन बिन मनवा, कलपे दसों दिना।।

अनुवाद

पानी के बिना सावन और सावन के बिना अनाज संभव नहीं है।

अनाज के बिना मानव दसों दिन तड़पता है।

 

सरगुजिहा रोपा लोक गीत में अकाल का वर्णन करती हुई स्त्रियां कहती हैं। चारों तरफ वर्षा हो रही है। हमारे क्षेत्र में अकाल पड़ा है-

                     चारों खूँटे बरसे, ये गंगा मइया। मेर देशे बजूरा अकाले।

                      कहाँ बटे घटके, कहाँ बटे घुमरे, कहाँ बटे बरसे पानी।

                       ये गंगा मइया मोर देशे बजूरा अकाले।।

अनुवाद

चारों कोने में गंगा मां बरस रही हैं। किन्तु मेरे देश में बजूरा अकाल पड़ा है।

कहाँ घड़क रहा है, कहाँ घुमड़ रहा है और कहाँ पानी बरस रहा है।

मेरे देश में बजूरा अकाल पड़ा है।

 

सरगुजा अंचल के ‘गाना’ लोक गीत बिहारी के दोहों की तरह है। जिस तरह बिहारी ने अपने दोहे में गागर में सागर भरा है, ठीक उसी तरह सरगुजिहा गाना लोक गीत है। पानी के अभाव को गुरू की महिमा के साथ जोड़कर इस प्रकार गाया जाता है-

                                   पानी बिगर जलाहल, जला बिगर मीना।

                                    गुरू के चरन बिगर पड़े हो अधीना।।

अनुवाद

पानी बिना हाहाकार मचा हुआ है।

मनुष्य कि स्थिति तड़पती हुई मछली जैसी हो गयी है।

और मैं ठीक उसी प्रकार गुरू के चरण बिना असहाय अनुभव कर कहा हूं।

 

चारों तरफ काले-काले बादल घिर जाते हैं। ऐसे समय में किसानों की बेचैनी और बढ़ जाती है और वे करमा गीत के माघ्यम से अपनी भावना को इस प्रकार व्यक्त करते हैं-

                                कोन खूंटे उंधे कारी बदरिया, बरीसु पानी हमर देशे।

कोन खूंटे बरीसे ला पानी बरीसु पानी हमर देशे।

पुरबे ले उंधे कारी बदरिया, बरीसु पानी हमर देशे।

पछिमे खूंटे बरीसे ला पानी बरीसु पानी हमर देशे।।

अनुवाद

किस कोने में काले-काले बादल घिर रहे हैं। पानी हमारे देश में बरसो।

किस कोने में पानी बरस रहा है। पानी हमारे देश में बरसो।

पूरब दिशा में काले-काले बादल घिर रहे हैं। पानी हमारे देश में बरसो।

पश्चिम दिशा में काले-काले बादल घिर रहे हैं। पानी हमारे देश में बरसो।

 

वर्षा ऋतु में पानी नहीं बरसता है, तो ग्रामवासी तरह-तरह के प्रयत्न और पूजा-अर्चना करते हैं। तुलसी की पूजा करते हुए गाना लोक गीत इस प्रकार गाते हैं-

                                तुलसी रे तुलसी, तुलसी महारानी।

तहुं ला चढ़ा हूँ, गंगा हो जल पानी।।

 

अनुवाद

वर्षा के लिए तुसली की पूजा करते हुए कहा जा रहा है-

तुलसी रे तुलसी, तुलसी महारानी।

अच्छी बारिश होगी तो तुम्हें गंगा जल चढ़ाऐंगे।

 

सरगुजा अंचल में एक मान्यता प्रचलित है कि भीषण गर्मी के बाद पानी नहीं बरसता है, तो दो मेंढकों की विधि-विधान से शादी कराने से अच्छी वर्षा होने लगती है। इसे ‘बेंग विवाह’ कहते हैं। नदी किनारे बेंग ब्याह (मेंढक का विवाह) का आयोजन बैगा की उपस्थिति में किया जाता हैं। पूजा-पाठ एवं रीति पूर्वक विवाह करवाने के बाद विवाह भोज एवं विवाह नृत्य का आयोजन किया जाता है। सरगुजिहा करमा लोक गीत में पानी के लिए किसान गुहार करते हुए  अपनी व्यथा को व्यक्त करता है। जो इस गीत में सुनने को मिलता है-

ये मुनदी तरी आहा रे, बेंग राजा पानी ला बुलावे।

ये नइहर कर जोड़ा सेंडिल छुटिस रे, अब दिला टूटे हायरे।

ये नइहर कर संग-साथी छुटिन रे अब दिला टुटे हायरे

ये मुनदी तरी आहा रे, बेंग राजा पानी ला बुलावे।

अनुवाद

 किसान पानी के लिए बेंग (मेंढक) से गुहार करता हुआ कह रहा है-

मेंढक समुन्द्र किनारे पानी है, उसे जल्दी बुलाओ।

बारिश नहीं होने से नइहर छूटने जैसा दर्द हो रहा है।

बेटी जब ससुराल जाती है, तो उसकी सहेलियां छूट जाती है,

जिससे लगता है कि दिल टूट गया।

मेंढक समुन्द्र किनारे पानी है, उसे जल्दी बुलाओ।

 

वर्षा के आते ही गाँवों का दृश्य बदल जाता है। प्रकृति की गोद पुनः हरी-भरी हो जाती है। किसान मल्हार राग गा उठते हैं। सरगुजा अंचल में लोक पर्वों की शुरूआत वर्षा ऋतु से होती है। यहाँ का लोक प्रसिद्ध पर्व करमा है। करमा, भादों मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को हर्षपूर्वक मनाया जाता है। करमा पर्व के दिन, रात भर मांदर की थापों के साथ लोक गीत गाकर करमा नृत्य किया जाता है। करमा आदिवासियों का महत्वपूर्ण त्यौहार है। इस त्यौहार में गांव के मुखिया के आँगन में कर्मदेवती वृक्ष की डाली (डार) गाड़कर गांव का बैगा पूजा करवाता है। लोगों की मान्यता है कि कर्मदेवती वृक्ष पर कर्मदेव निवास करते हैं। इसलिए इस वृक्ष की पूजा करते हैं।

एक सप्ताह पूर्व गांव की सभी स्त्रियाँ बांस की टोकरी,  डेलवां  में मक्का, धान, उड़द, इत्यादि का जाँई (पौधा) लगाती हैं। इस जाँई को अंधेरे में रखते हैं ताकि पौधा पीला हो जाये। करमा पर्व के दिन जाँई में हल्दी लगाकर इसके मध्य खीरा रख कर करम डार के नीचे रखा जाता है। स्त्रियां करमा उपवास भी रखती हैं। जाँई का पीलापन पूजा करने वाली स्त्रियों की कठोर तपस्या और खीरा पुत्र का प्रतीक होता है। ऐसी मान्यता है कि स्त्रियों ने कर्म को अक्षुण्ण बनाये रखने एवं संतान प्राप्ति के लिए इतनी कठोर तपस्या की थी कि उनका शरीर पीला पड़ गया। इसे ही जाँई के माध्यम से कर्मदेव को बताया जाता है। इस दिन विशेष खान-पान एवं करमा नाच गान भी होता है।

करमा गीतों में वर्षा की छटा स्पष्ट झलकती है। कर्म देवती वृक्ष की डाली को दुध से स्नान करा कर पूजा करने की बात करमा लोकगीत में इस प्रकार हुआ है-

अरे सब दिना करम राजा रने बने,

आज करम अंगना में ठाढ़।

हा रे हो अंगना में ठाढ़।

सब दिना करम राजा पानी के अहार,

आज करम दुध के अहार।

हा रे हो दुध के अहार।।

अनुवाद -

 ऐसा माना जाता है कि कर्मदेवती वृक्ष में ‘कर्म देव’ का निवास होता है। और करमा के दिन उसकी डाली को काट कर आँगन में गाड़ कर पूजा अर्चना की जाती है। उक्त गीत में कहा जा रहा है-  

करम राजा तू तो अन्य दिनों जंगल में रहता है

तथा आज तो आंगन में खड़ा है।

हे करम राजा तू तो प्रति दिन पानी का आहार करता है

किन्तु आज दुध का आहार कर रहा है।

 

वर्षा ऋतु में झमाझम पानी बरसता रहता है फिर भी करमा नृत्य किया जाता है, इसका उल्लेख सरगुजिहा गाना लोकगीत में इस प्रकार सुनने को मिलता है-

आज हवे एकादशी, करमा उपासेन।

झिरा-मिट पानी बरसे, छाता ओढ़े आयेन।।

 

अनुवाद

आज एकादशी का दिन है।

हम लोग करमा उपवास रखे हुए हैं।

भादों महीने में झिर-मिट, झिर-मिट बारिश होती रहती है

इसी बारिश में भी करमा नृत्य करने छाता ओढ़ कर आये हैं।

 

झिरमिट-झिरझिट पानी बरसता रहता है। ऐसे समय में साजन के बुलाने पर भी सजनी नहीं आती है। तो साजन कहता है-  

झिरमिट पानी बदरी बरसाये,

तोला तो बुलाये रहे सजनी काबर नई आये

चमके बिजुरिया, बदरी घडकाये।

तोला बुलायें रहे सजनी काबर नई आये

अनुवाद

चारों तरफ वर्षा को झड़ी लगी हुई है।

बादल झिर-मिट झिर-मिट पानी गिरा रहा है।

सजनी मैंने तुमको बुलाया था, तो क्यों नहीं आई।

चारों तरफ बिजली चमक रही है। तथा बादल घड़क रहे हैं।

ऐसे में मेरी बैचेनी और बढ़ती जाती है।

तुम बुलाने पर क्यों नहीं आई।

 

गर्मी में ‘झुरारी करमा’ और वर्षा ऋतु में ‘बरसाती करमा’ गीत गये जाते हैं। करमा गीत में वर्षा का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-

पुरबे तो सुरूज गरहन जोत।

सजनी गे पछिम खूंटे बदरी अल्होर।

मोर सजनीगे बरसल बूँद झकझोर।

पछिम खूंटे बदरी अल्होर।

 

अनुवाद

हे सजनी पूर्व दिशा में सूर्य का प्रकाश दिखाई दे रहा है।

किन्तु पश्चिम दिशा में काले-काले बादल घिरी हुई है।

तथा कुछ क्षण बाद झकाझोर बारिश होने लगती है।

 

करमा के दिन आधी रात बीतने पर मनचले युवकों द्वारा करमा गीत गाकर नृत्य किया जाता है। इनके गीतों में भी वर्षा का वर्णन सुनने को मिलता है। इस करमा लोक गीत में बताया गया है कि बादल किधर से और पानी किधर से आता है।

करम डार तरी, करमा खेलेब आबे छौड़ा।

पूरबे ले आये कारी बदरिया, पछिम ले बरसत हे पानी।

करम डार तरी, करमा खेलेब आबे छौड़ा।

उतरे ले आये कारी बदरिया, दखिने से बरसत हे पानी।

करम डार तरी, करमा खेलेब आबे छौड़ा।

 

अनुवाद

लड़की कहती है-

पूर्व दिशा से काले-काले बादल आ रहे हैं तथा पश्चिम दिशा में बारिश हो रही है।

ऐसे में तू करम डार (कर्म देवती वृक्ष की डाली) के नीचे करमा नृत्य करने जरूर आना।

उत्तर दिशा से काले काले बादल आ रहे है एवं दक्षिण दिशा में बारिश हो रही है।

फिर भी तू करम डार के नीचे करमा नृत्य करने जरूर आना।

 

सावन-भादों में रोपा लगाने के पूर्व गांव के बैगा द्वारा रोपा खेत में धान के नये पौधे का पूजा किया जाता है, ताकि रोपाई कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हो सके। यह पूजा गांव में सभी वर्ग के लोग करवाते हैं। इस पूजा में दारू (शराब) नारियल, अगरबत्ती की आवश्यकता होती है। कुछ लोग चिंआ (चूजा) भी चरवाते हैं। सावन-भांदो में गांव के सभी लोग अपने-अपने खेत में रोपा लगाने लगते हैं। इसका उल्लेख रोपा लोक गीत में सुनने को मिलता है-

असो कर बरिखा जोरे, सावन-भांदो रोपनी लगाये।

कोन हर बीड़ा मारे, कोन हर जगाये,

कोन हर बीड़ा लेके ठाढ़।

असो कर बरिखा जोरे, सावन-भांदो रोपनी लगाये।

दादा हर बीड़ा मारे, भउजी हर जगाये,

ननदी हर बीड़ा लेके ठाढ़।

असो कर बरिखा जोरे। सावन-भांदो रोपनी लगाये।

अनुवाद

इस वर्ष वर्षा तेज है। चारों तरफ सावन-भादो में रोपा लगा रहे हैं।

इसमें पूछा जा रहा है-

कौन बीड़ा छिटकता है, कौन लगाता है?

और कौन बीड़ा लेकर खड़ा है?

इसके उत्तर में गाया जाता है-

दादा (बड़ा भाई) बीड़ा छिटकता है, भउजी (भाभी) लगाती है

और ननद बीड़ा लेकर खड़ी रहती है।

इस वर्ष तेज बारिश है, सावन-भादों में चारों तरफ रोपा लगायी जा रही है।

 

रोपा खेत में कीचड़ अधिक होने का वर्णन करते हुए एक दुल्हन कहती है कि मैं गहने पहन कर रोप लगाने कैसे जाऊँ? इसका उल्लेख रोपा लोक गीत में सुनने को मिलता है-

गोडे़ कर बिछिया हर दिसे ललकारी भाई,

कइसे रोपों-कइसे रोपों कांदो भारी।

सेमई ले सुरीता ललकारी भाई,

कइसे रोपों-कइसे रोपों कांदो भारी।

गोडे़ कर पैरी हर दिसे ललकारी भाई,

कइसे रोपों-कइसे रोपों कांदो भारी।

सेमई ले सुरीता ललकारी भाई,

कइसे रोपों-कइसे रोपों कांदो भारी।

अनुवाद

 गांव की नई नवेली दुल्हन कह रही है-

पैर की बिछिया लुभावनी दिख रही है।

ऐसे में मैं कीचड़ में घुस कर कैसे रोपा लगाऊँ?

पैर की पैरी भी सुन्दर लुभावनी दिख रही है।

ऐसी स्थिति में मैं कीचड़ में घूस कर रोपा कैसे लगाऊँ?

खेतों में रोपा समाप्ति के बाद मुखिया के आंगन में ‘बानबहुली’ लोकगीत गाकर करमा नृत्य किया जाता है। और खुशियाँ मानाई जाती हैं, जो इस लोक गीत में सुनने को मिलता है।

कहां हवे नाधा पैना, कहां रे बइला।

टपसी के बानबहुली।

घरे हवे नाधा पैना, कोठा रे बइला।

टपसी के बानबहुली।

कहां हवे गिरहत किसान, कहां रे बइला।

टपसी के बानबहुली।

 

अनुवाद

कहाँ नांधा पैना है और बैल कहां है?

अब खेतों में धान लहलहा रहा है।

इसके उत्तर में कहा जाता है-

घर में नांधा पैना और कोठा (बैल रहने का घर) में बैल है।

पुनः पूछा जाता है-  

किसान कहाँ और बैल कहाँ है? चारों तरफ धान लहलहा रहा है।

 

वर्षा ऋतु में प्रकृति में बहार आ जाती है। धरती की प्यास बुझ जाती है। किसानों को जीवन मिलता है। ऐसे खुशी के मौके पर भगवान राम को आलम्बन बनाकर भक्ति लोकगीत गया जाता है। भक्ति लोकगीतों में भी वर्षा का उल्लेख मिलता है-

गदा-गदा गिरे, लोचन भरे नीरा।

कहाँ जगे भिजताहाँ, राम रधुबीरा।।

अनुवाद

आँखों से आँसू काफ़ी तेज गिर रहा है कि

भगवान राम बारिश में कहाँ भीग रहे होंगे।

 

सरगुजिहा  समकालीन लोक गीत  में भी वर्षा ऋतु की छटा सुनते ही बनती है। जो इस प्रकार है-

झिमिर-झिमिर पानी बरसे,

भर गइस डोली डबरा

चले नागर, डोले बैला,

जोते बैला कबरा।

उठ गये बादर कारी-कारी

धरले नागर धर तुतारी।

अनुवाद

वर्षा ऋतु में बारिश की झड़ी लगने से नदी-नाले, खेत गड्डे सभी मर गये है।

खेतों में हल चल रहे हैं, जिसमें कमजोर बैल हिल रहा है

और कबरा बैल मस्ती में जोत रहा है।

ऐसे समय में किसान के प्रेरणा देते हुए कहा जा रहा है-  

काले-काले बादल घिर गये हैं तुम नागर और पैना पकड़ लो।

सरगुजिहा प्रेरणा करमा लोकगीत में किसानों को वर्षा ऋतु में खेती करने की प्रेरणा इस प्रकार दी गई है-

सावन महिना झर झमके,

खेती करा हो किसान।

सिरपिट-सिरपिट पानी बरसे दिन रात,

खेती करा हो किसान।

डांड़, टिकुर सब भर गइस,

खेती करा हो किसान।

 

अनुवाद

सावन के महीने में तेज बारिश हो रही है,

किसान अब खेती में लग जायें

रात-दिन झिरमिट-झिरमिट पानी गिर रहा है।

किसान अब खेती में लग जायें।

बारिश होने से खेत-बाड़ी पानी से भर चुका है।

किसान अब खेती कार्य में लग जायें।

सरगुजिहा लोक गीतों से जहाँ एक ओर किसानों के मन में अपने कार्य के प्रति उत्साह और उल्लास जागृत होता है वहीं दूसरी ओर गाँव के मनचले युवकों के मन में प्रेम की भावना तीव्र हो जाती है। जिससे वे गा उठते हैं-

तांये तो भिंजे रे गोरिया, सावन भादों कर झरिया।

तांये तो भिंजेरे गोरिया........

काकर भिंजे लाली पगरिया, काकर भिंजे रसम डोरिया।

तांये तो भिंजेरे गोरिया.......

रसिया कर भिंजे लाली पगरिया, सावरों कर भिंजे रसम डोरिया।

तांये तो भिंजेरे गोरिया........

 

अनुवाद

नायक नायिका को कहता है-

तुम तो सावन भादों की बारिश में भीग रही हो।

किसकी लाल पगड़ी और किसका रेशम की डोरी (डोरिया) भिग रही है।

बताया जा रहा है-

रसिक की पगड़ी और सावली गोरी की रेशम डोरिया भीग रही है।

 

सावन-भांदो में लगातार तेज बारिश होने से नदी-नाले, तालाब जल से भर जाते हैं। इसी महीने में गाँव की युवतियाँ झाड़ू बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की घास लेने जाती हैं, और शाम को घर नहीं लौट पाती हैं। इसका मनोहारी चित्रण इस करमा गीत में हुआ है-

झिरामिट-झिरामिट पानी बरसे रे, सावरों बढनी लोरे गये रे,

जबे तो सावरों बढनी लोरे गये रे जमुना छेकल दुओ धार।

आज बर गोरी बेटी रह बस ले काल नकाबों नदी पार।

झिरामिट-झिरामिट पानी बरसे रे, सावरों बढनी लोरे गये रे।

अनुवाद

भादों मास में झिरमिट-झिरमिट बारिश हो रही है।

ऐसे समय में गाँव की लड़की झाड़ू बनाने वाला एक विशेष घास लेने जाती है।

उसी समय जमुना नदी में बाढ़ आने से फंस गई है।

(गांव वाले कहते हैं) गोरी बेटी आज के दिन हमारे गांव में रह लो कल नदी पार करा देंगे। झिरमिट-झिरमिट पानी गिर रहा है, ऐसे में गांव की लड़की झाड़ू बनाने वाला घास लेने जाती है।

 

बरसात में बेटा घर से बाहर रहता है तो माँ का दिल कचोटने लगता है, माँ पुत्र के घर न पहुंचने की व्यथा को गाकर कह उठती है-

ये गा पानी मारत झिक झोरे, बालक नई आइन घरे।

ऊॅघत कारी घटा, बिजली चमकत चटा,

पानी मारत सूपा-धारे, बालक नई आईन घरे।

 

अनुवाद

झकझोर बारिश हो रही है, ऐसे में मेरा पुत्र घर वापस नहीं आया।

चारों तरफ़ काले बादल घिर गये हैं। बिजली भी चमक रही है।

मेरे पुत्र के घर नहीं पहुँचने पर मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही है।

 

वर्षा ऋतु बिरहणियों के लिए विशेष कष्ट दायक मानी जाती है। सरगुजिहा करमा गीत में भी नायक-नायिका का विवाह न हो पाने की विरह व्यथा को चित्रित किया गया है-

भादों के पानी झिकूर मारे, तोर बिना रहें मय कुंवारे,

भादों के पानी झिकूर मारे।

कहां ला घटके-रे कारी बदरिया, भादों के पानी झिकूर मारे।

कहां ला बूँदीला चुवाये, भादों के पानी झिकूर मारे।

 

अनुवाद

नायक-नायिका को कहता है-

भादों मास में घुमड़ा-घुमड़ कर चारों तरफ बारिश हो रही है,

मैं तुम्हारे लिए आज तक कुवांरा हूँ।

कहां बादल गरज रहा है, कहाँ पानी गिर रहा है।

भादों मास में चारों तरफ घुमड़-घुमड़ कर बारिश हो रही है।

 

इस तरह, सरगुजिहा लोकगीतों में चाहे प्रेम की भावना हो, चाहे किसानों को प्रेरणा देने की बात हो, या फिर अपनी भक्ति भावना को प्रकट करना हो, सभी प्रसंगों में पावस वर्णन सुनने को मिलते हैं। सरगुजा अंचल में करमा, सुआ, रोपा, बानबहुली और गाना लोकगीतों में वर्षा का वर्णन  विविध रूपों में हुआ है।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.