मनुष्य और पशुओं का सम्बन्ध
मनुष्य ने मशीनों के आविष्कार से बहुत पहले से पशुओं को अपना साथी बना लिया था जो उनके श्रम में उनके भागीदार बनकर उनका साथ दे सकें। शिकारी जीवन के बाद कृषिहर समाज में मनुष्य और पशुओं की यह भागीदारी और प्रगाड़ हो गयी। छत्तीसगढ़ के आदिवासी और ग्रामीण गैर आदिवासी सभी मुख्यतः कृषि आधारित जीवन यापन करते हैं। कृषि आधारित जीवन पद्यति में प्रकृति, भूमि, पशु और मानवों का एक विशेष सम्बन्ध होता है जो एक दूसरे पर उनकी निर्भरता तो दर्शाता ही है, साथ ही एक दूसरे के प्रति आदार सद्भाव पर आधारित होता है। यहाँ की अधिकांश खेती प्राकृतिक वर्षा पर निर्भर करती है। कृषक भूमि, नदियों और अपने पशुओं को जीवन दायक और पूज्य मानते हैं। उनका जीवन और उसके उत्सव ऋतुचक्र अथवा फसल चक्र के अनुसार चलते हैं।
सदियों से खेती के काम में किसानों के पशुधन, बैलों ने उनका साथ दिया है। किसान और उनके बैलों की अपार मेहनत ने, केवल अपना ही नहीं, हजारों अन्य लोगों के लिए भोजन जुटाया है। छत्तीसगढ़ में किसानों के इसी पशुधन की देखभाल के लिए राउत अथवा अहीर चरवाहों का एक विशेष समुदाय है। राउत चरवाहे न केवल छत्तीसगढ़ की संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग हैं बल्कि वे ग्रामीण समाजिक संरचना का अभिन्न घटक हैं। अहीरों को छत्तीसगढ़ में राउत और ठेठवार भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ी वाचिक लोक कथाओं में राउतों के अनेकों उल्लेख मिलते हैं। अहीर लोक नायक लोरिक की प्रेम कथा यहाँ जन-जन में लोकप्रिय है।
गौठान
छत्तीसगढ़ के गांवों में कच्चे घरों का निर्माण इसी तरह किया जाता है जिसमें गाय-बैलों को बांधने का एक अलग स्थान और कमरा होता है। पशुओं का स्थान और कमरा यहाँ के ग्रामीण वास्तुशिल्प का अभिन्न अंग होता है। साथ ही सारे गांव के पशुओं के लिए भी एक स्थान सुनिश्चित होता है, इसे दैहान अथवा गऊ स्थान या गौठान कहते हैं। अधिकांश गांवों में इस स्थान पर सीमेंट, पत्थर अथवा मिट्टी से बैल की एक बड़ी प्रतिमा बना दी जाती है जो उस स्थान की पहचान को दर्शाती है। इस स्थान की व्यवस्था अहीर चरवाहे सम्हालते हैं। जब खेतों में फसल खड़ी होती है तब गांव के पशुओं से यह खतरा बना रहता है कि वे उसमें घुसकर उसे खा न डालें। उन दिनों किसान पशुओं को अपने घरों में नहीं रखते, वे उन्हें दैहान भेज देते हैं जहाँ अहीर चरवाहे उनकी देखभाल करते हैं। बदले में उन्हें सप्ताह में एक दिन पशुओं का दूध और गोबर मजदूरी स्वरूप लेने का अधिकार होता है।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ में कृषक उनके पशुधन और इस पशुधन की देखरेख करनेवाले अहीर चरवाहों के मध्य एक बहुत ही रोचक संबंध देखने को मिलता है और इन्ही सम्बन्धों का उत्सव है यहाँ का पोला त्यौहार जो भाद्रपद माह की अमावस्या के दिन मनाया जता है। इस दिन कृतज्ञ किसान अपने बैलों को कृषिकार्य में उनके अथक सहयोग के लिए धन्यवाद ज्ञापन करते हैं, उनके प्रति अपना आदर और प्रेम सामाजिक स्तर पर प्रकट करते हैं।
पोला उत्सव
छत्तीसगढ़ के रायपुर क्षेत्र में मढ़ियापार गांव का पोला उत्सव दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। हजारों की संख्या में आस-पास के ग्रामीण एकत्रित होते हैं, एक मेला भरता है, बैलों के सज्जा की प्रतियोगिता होती है और अंत में रोमांचक बैल दौड़ का आयोजन होता है। सुबह से ही किसान अपने बैलों को तालाब पर नहलाने-धुलाने ले जाते हैं। इसके बाद उन्हें सजाने का सिलसिला शुरू होता है। गांव की लगभग प्रत्येक गली में यही नजारा होता है। पिछले कुछ वर्षों में बैलों की सजवाट में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री में बहुत परिवर्तन आ गया है, अब मेहंदी अथवा महावर के रंग से बैलों पर सजावटी फूल-पत्तियां, सांतिया, बुँदकियाँ या चखरी जैसे अभिप्राय चित्रित करने के बजाय बहुरंगी नकली मोतियों की मालाओं, मोर पंख के गुच्छों, रंग-बिरंगे कपड़ों और चमकीले कगजों, थर्मोकोल आदि से सजाया जाता है।
पोला का त्यौहार यहाँ सभी जातियां मानती हैं परन्तु अहीर समुदाय इसमें अग्रणि रहता है। छत्तीसगढ़ के किसानों के लिये सावन और भादों के महीने बहुत विशेष होते हैं इस समय उनकी सबसे बड़ी चिंता उनके बैलों का स्वास्थ्य होती है। क्योंकि उनके बिना कृषि कार्य संभव नहीं हो सकता। छत्तीसगढ़ में किसान खेती का काम इस माह से आरम्भ करते हैं। इस माह की अमावस्या को हरेली अथवा हरियाली त्यौहार मनाया जाता है। इसे वर्ष का पहला त्यौहार भी माना जाता है। इस दिन किसान अपने हल-बैल और कृषि औजार पूजते हैं एवं कृषि कार्य आरम्भ करते हैं। प्रत्येक गांव के लोग अपने गांव के बैगा से विशेष पूजा करवाकर गांव को मंत्रबल से बंधवाते हैं ताकि कोई पशुओं सम्बन्धी बीमारी गांव में प्रवेश न कर सके और उनके बैल बीमार न हों।वे जंगल में सामूहिक रूप से जाते हैं और पारम्परिक जड़ी-बूटियां एकत्रित कर लाते हैं। इसका काढ़ा बनाकर पशुओं को पिलाया जाता है ताकि वे स्वस्थ रहें।
गांव के राउत गाय के गोबर से घरों की दीवारों पर रेखा खींचते हैं तथा बाहरी दरवाजे और दीवार पर पुतलियों एवं पशुओं के चित्र बनाते। इन्हें सोनाही चित्र कहा जाता है, मान्यता है कि इन्हे बनाने से बीमारियां घर-गांव में प्रवेश नहीं करतीं। अहीर गाय को लक्ष्मी का स्वरुप मानते हैं और उसके गोबर से चित्र बनाते हैं जिससे बुरी नजर, टोन-टोटके और बीमारी से बचा जा सके।
किसान और उनके बैलों की खेतों में दो माह के सम्मिलित कठोर परिश्रम के बाद धान की फसल लहलहा उठती है और धान की बालियों में दाना पड़ना आरम्भ होता है। मान्यता है कि पोला के दिन अन्नमाता गर्भ धारण करती है, धान की बालियों में दूध भरना आरम्भ होता है अतः इस ख़ुशी के अवसर पर सधौरी उत्सव अथवा पोला त्यौहार मनाया जाता है। क्योंकि यह ख़ुशी का अवसर बैलों द्वारा खेतों में किये गए अथक परिश्रम का परिणाम होता है इसलिए इस दिन बैलों को धन्यवाद ज्ञापन करने हेतु किसान उनके सम्मान में पोला के दिन उन्हें पूजते और सजाते हैं। कुछ अहीर कहते हैं इस दिन शिव के वाहन नंदी का विवाह सुइसा नमक गाय से हुआ था इस खुशी में पोला त्यौहार मानते हैं।
पोला का त्यौहार छत्तीसगढ़ के कुम्हारों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण होता है, बरसात के दौरान उनका काम-धंधा जो लगभग बंद रहता है, वह पोला उत्सव से पुनः आरम्भ हो जाता है। वे बड़ी मात्रा में, पैरों में पहिये लगे मिटटी के बैल तैयार करते हैं। पोला के बैल बनाने का काम, देव सोउनी के दिन से आरम्भ करते हैं। मान्यता है कि इस दिन से देव उठनी ग्यारस तक सभी देवी-देवता शयन करते हैं। समूचे छत्तीसगढ़ के कुम्हार पोला के बैल बनाते हैं और उन्हें अपनी-अपनी तरह से सजाते हैं। रायगढ़, सरगुजा और बस्तर के कुम्हार इन्हे आज भी पुरातन पारम्परिक ढंग से बनाते हैं परन्तु रायपुर, बिलासपुर और राजनांदगांव आदि क्षेत्रों में इन पर अनेक प्रकार के रंग और सुनहरी लगाकर सजाते हैं। यहाँ तो लकड़ी से बने बैल भी प्रचलन में हैं।
पोला का त्यौहार ग्रामीण किसान और नगरीय सामान्य जन सभी मानते हैं पर उनके मनाने के ढंग में अंतर होता है। किसान इस दिन बैल की मिट्टी की प्रतिमा अपने घर के देवस्थान अथवा धान रखने की कोठी के सामने रखकर पूजा करते हैं। घर में होने वाली पूजा में बैल प्रतिमाओं के साथ मिट्टी की बनी चक्की, चूल्हा अदि भी रखे जाते हैं। कुछ किसान इन्हे अपने खेत में लेजाकर वहां बूढ़ा-बूढ़ी देव की पूजा करते हैं। इस पूजा में आंटे और गुड़ से बने चीले, नारियल, धूप, अगरबत्ती आदि चढ़ाया जाता है। इस पूजा में स्त्रियां भाग नहीं ले सकतीं और वे इसका प्रसाद भी नहीं खा सकतीं।
पूजा के बाद यह बैल प्रतिमाएं बच्चों को देदी जाती हैं जिनसे वे खेलते हैं। शाम के समय इन प्रतिमाओं को एक निश्चित स्थान पर फोड़ दिया जाता है। इस प्रकार पोला का त्यौहार संपन्न होता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.