बस्तर के घढ़वा धातु शिल्प : रूप और सन्दर्भ/ Gadhwa metal craft: form and context

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Published on: 13 November 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

 

 

 

वर्तमान में इंटरनेट पर उपलब्ध विवरणों में बंगाल, उड़ीसा एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी-लोक धातु शिल्प को ढोकरा धातु शिल्प कह कर संबोधित किया गया है । कुछ पुस्तकों में भी ढोकरा धातु शिल्प का संबोधन मिलता है । इस शब्द का प्रचलन संभवतः 1970 के दशक में आरंभ हुआ और जल्द ही आम बोल-चाल में आ गया । लेखिका रूथ रीव्स ने अपनी पुस्तक ’फोक मेटल्स ऑफ इंडिया’ में संभवतः पहली बार ढोकरा शब्द का प्रयोग पश्चिम बंगाल के घुमक्कड़ धातु शिल्पी समुदाय के लिए किया था ।

 

बंगाल के आदिवासी-लोक धातु शिल्प को ढोकरा धातु शिल्प इसलिए कहा जाता है कि वहां धातु ढलाई का कार्य ढोकरा कमार आदिवासी समुदाय के लोग करते हैं। इस आधार पर बस्तर , छत्तीसगढ़ के धातु शिल्प के लिए ढोकरा धातु शिल्प का संबोधन औचित्यपूर्ण नही है । यहां के धातु-शिल्पी स्वयं को ढोकरा समुदाय का अंग नही मानते और वे अपने शिल्प को भी ढोकरा नाम से संबोधित नही करते । बस्तर के धातु शिल्पी स्वयं को   मूलतः घसिया जाति से उदभूत मानते हैं और अब अपने को घढ़वा कहते हैं । इस आधार पर बस्तर के धातु शिल्प को घढ़वा धातु शिल्प कहना अधिक सार्थक होगा ।

 

बस्तर के घढ़वा धातु शिल्पी द्वारा बनाया गया हाथी। मोम के तार द्वारा शरीर की  सज्जा किये जाने के कारण हाथी के शरीर पर धागे के सामान टेक्सचर दिखाई दे रहा है जो आदिवासी धातु ढलाई पद्यति की पहचान है। 

 

यद्यपि लॉस्ट-वैक्स पद्धति से धातु ढलाई द्वारा खोखली एवं ठोस मूर्तियां बनाने की कला एक प्राचाीन भारतीय कला है। ईसा पूर्व 2500 वर्ष पहले बनी सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहन जौदड़ो से प्राप्त नर्तकी की धातु प्रतिमा  इस कला का उपलब्ध सबसे प्राचीन नमूना है । इस प्रकार भारत में लॉस्ट-वैक्स पद्धति से धातु ढलाई की लगभग 4500 साल पुरानी एक अटूट परंपरा है । इस परंपरा का एक विशेष रूप पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी-लोक धातु शिल्प में आज भी देखा जा सकता है । इस पद्यति में मोम एवं साल वृक्ष के गौंद (धुअन) के तारों को मिटटी के आधार पर लपेटकर मूर्ति को आकार दिया जाता है । जिससे मूर्ति की सतह पर एक विशेष प्रकार का अलंकारिक टेक्चर उभर आता है जो इस धातु शिल्प की विशेषता है और इसे एक अलग पहचान देता है ।

 

बस्तर का घढ़वा धातु शिल्पी समुदाय

 

बस्तर के धातु-शिल्प का प्रमाणिक उल्लेख सन १९५० में प्रकाशित डा. वैरियर एल्विन की पुस्तक ट्राइबल आर्ट ऑफ़ मिडिल इंडिया में मिलता है । उन्होंने बस्तर में धसिया जाति के लोगों द्वारा पीतल के बर्तन, गहने और मूर्तियां बनाये जाने का उल्लेख किया था । रसल और हीरालाल ने अपनी पुस्तक में, सेन्ट्रल प्रविंस के गजेटियर 1871 के हवाले से लिखा है घसिया एक द्रविडियन मूल की जाति है जो बस्तर में पीतल के बर्तन सुधारने और बनाने का काम भी करती है ।

 

परंतु आज बस्तर के अनेक धातु शिल्पी अपने को घसिया जाति का नहीं मानतें वे अपने का स्वतन्त्र घढ़वा आदिवासी जाति का बताते हैं। बहुत से घढ़वा यह बात भी स्वीकारते हैं कि, घसिया जाति की वह शाखा जो धातु ढलाई का कार्य करने लगी, घढ़वा कहलाने लगी है । वे कहते हैं घढ़वा का शाब्दिक अर्थ घढ़ने वाला है अर्थात वह व्यक्ति जो मूर्तियां और गहने आदि गढता है, घढवा कहलाता है ।

 

कार्यरत घढ़वा धातु शिल्पी , बस्तर। 

 

इस सम्बन्ध में बस्तर में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं इनमें से एक प्रमुख कहानी जो थोडे़ बहुत परिवर्तन के साथ अधिकांशतः घढवा लोगों द्वारा मान्य की जाती है, यह है कि बस्तर रियासत  के समय में बस्तर के राज दरवार में किसी व्यक्ति ने पैर में पहनने का आभूषण पैरी महाराज को भेंट दिया था । महाराज ने गहने के कलात्मक सौन्दर्य से प्रभावित होकर कहा कि भाई तुम लोग तो गहने घढ़ते हो, इसलिए तुम घढ़वा हो, आज से तुम्हे घढ़वा कहा जायेगा । तब से बस्तर के धातु शिल्पी घढ़वा कहलाने लगे।

 

यू तो घढवा सारे बस्तर में फैले हुए हैं, किन्तु इनके बस्तर का मूल निवासी होने के बारे में यहां दो प्रकार की मान्यतायें प्रचलित हैं । कुछ लोग यह मानते हैं कि घढ़वा बस्तर के ही मूल निवासी हैं, क्योंकि इनका रहन-सहन, रीति-रिवाज, आचार व्यवहार, वेश भूषा, नृत्य-गीत, देवी-देवता वही हैं जो बस्तर में रहने वाले अन्य आदिवासियों के हैं, वे बोली भी स्थानीय ही बोलते हैं ।

 

घढ़वाओं में प्रचलित दूसरा मत यह है कि वे बस्तर के मूल निवासी नहीं हैं, अपितु उड़ीसा से यहां आकर बसे हैं । कहते हैं कि एक बार बस्तर महाराज ने अपना महल बनवाया तब उन्हे दंतेश्वरी देवी की धातु मूर्ति बनवाने की आवश्यकता हुई । इस समय सारे बस्तर में धातु मूर्ति ढाल सकने वाला कोई व्यक्ति नही मिला । तब उड़ीसा से पांच घढ़वा परिवारों को यहां बुलाया गया और उन्होंने दंतेश्वरी देवी की चांदी की मूर्ति ढालकर तैयार की । कालांतर में वे परिवार ही सारे बस्तर में फैल गये ।

उपरोक्त तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि आरंभ मे धातु-शिल्पी, बर्तन एवं गहने ही बनाते थे मूर्तियां बनाने का काम संभवतः बाद में आरंभ हुआ।

 

अनुष्ठानिक एवं दैनिक जीवन की वस्तुएं 

घढ़वा कहते हैं बस्तर में धातु ढलाई द्वारा बनाए जाने वाले पारम्परिक बर्तन और गहने निम्न प्रकार थे।

 

बर्तनः

कुंढरी               -          कुंडरी हल्बी बोली का शब्द है ,सामान्य कढ़ाई को बस्तर में कुंडरी कहा जाता है। यह सब्जी पकाने के काम आती है। इसे घढ़वा धातु शिल्पी , धातु ढलाई पद्यति से बनाते थे। इसका बनाना घढ़वा शिल्पी के कौशल की कसौटी मानी जाती थी।                                        वर्तमान में कोई भी घड़वा इसे बनाना नहीं चाहता। बाजार में लोहे की सस्ती और सुलभ कढ़ाइयाँ मिलने से घढ़वा शिल्पियों द्वारा इनका बनाया जाना समाप्त हो गया है।  

भण्डवा -                     यह चावल  पकाने की एक गोल बड़ी हांडी  है। प्रत्येक घर में इसका होना अनियनिवर्य होता है। इसमें पानी और लांदा अथवा पेज भी भर कर रखते हैं।   बाजार में एल्युमीनियम की सस्ती हांडियां  मिलने से घढ़वा शिल्पियों द्वारा इनका बनाया                                         जाना समाप्त हो गया है।  

पैला / मान -                  बस्तर ही नहीं अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों  में अनाज अथवा धान नापने के लिए एक प्रकार के बर्तन जिसे पैला कहते हैं , बनाये जाते हैं। अनाज ,दालें  और चावल की मात्रा नापने का यह एक प्रकार का आदिम पैमाना है। तराजू और बाँट से                                            तौलना यहाँ रोजमर्रा की जिंदगी में चलन में नहीं है। पैला में भरकर उन्हें बहुत जल्दी और सरलता से मापा जा सकता है। यह विश्वसनीय भी है , जितना भर कर लो उतना भर कर दो।   विभिन्न मात्रा के लिए अलग -अलग माप के पैला बनाये जाते                                    हैं। 

 

पैला / मान -केवल बस्तर ही नहीं समूचे छत्तीसगढ़ में अनाज अथवा धान नापने के लिए एक प्रकार के बर्तन जिसे पैला कहते हैं , बनाये जाते हैं।  विभिन्न माप के लिए अलग -अलग माप के पैला बनाये जाते हैं। यह एक प्रकार का आदिम पैमाना है 

 

थारी                  -           (प्लेट)

बटकी               -           (कटोरी)

कसला        -               (लोटा)

 

कसला / लोटा

 

बटका               -           (चावल का पेज पीने का कटोरा)

चाटू                  -           (करछुल)

ओरखी       -               (मंद निकालने का चम्मच)

चाढ़ी                 -           (मंद भरने की बोतल)

झारी                 -           (मंद रखने का टोटीदार बर्तन)

 

आभूषणः

 

बस्तर के आदिवासी पुरुषों द्वारा नृत्य के दौरान पैर में पहना जाने वाला आभूषण -पैरी 

 

गठई पैरी          -          पैर में पहनने का आभूषण। 

खोटला पैरी       -          पैर में पहनने का आभूषण। 

धारी पैरी           -          पैर में पहनने का आभूषण। 

सूंढ़िन पैरी         -           पैर में पहनने का आभूषण। 

बाजनी पैरी        -          पैर में पहनने का आभूषण। 

खाडू                 -           कलाई में  पहनने का आभूषण। 

पाटा                 -           कलाई में  पहनने का आभूषण। 

बांहटा               -           बांह में  पहनने का आभूषण। 

 

बांहटा, बांह में  पहनने का आभूषण। 

 

खिंलवा        -               कान में  पहनने का आभूषण। 

झोटया        -               पैर की उंगलियों में  पहनने का आभूषण। 

करली               -           पैर की उंगलियों में पहनने का आभूषण। 

सूता                  -           गले में पहने जाने वाले आभूषण

रूपया माला  -             गले में  पहनने का आभूषण। 

धान माला          -           गले में  पहनने का आभूषण। 

कुंदरू माला  -             गले में  पहनने का आभूषण। 

हंसापाई            -           गले में पहनते हैं

खोड़पी माला    -           गले में  पहनने का आभूषण। 

 

बस्तर के  सिरहा , देवी चढ़ने पर इसे कमर में बांधते हैं। कमर में बाँधा  जाने वाला आभूषण - कमर पट्टा।

 

   

बस्तर के  पुरुषों अदि द्वारा नृत्य के दौरान पैरों में बाँधा  जाने वाला आभूषण - घुंघरू। 

 

धातु ढलाई कला का आरंभ किस प्रकार हुआ इस संबंध में अधिकांश घढ़वा धातु शिल्पी कुछ बता नही पाते, वे कहते हैं यह काम उनके पूर्वजों से चला आ रहा है और इसकी उत्पति किस प्रकार हुई यह वे नही बता सकते । 

 

 

 घढ़वा धातु शिल्पियों द्वारा बनाई जाने वाली अनुष्ठानिक पारम्परिक वस्तुएं - 

 

 

आरती - इसका प्रयोग देवी -देवताओं की पूजा में धूप एवं ज्योति जलाने हेतु किया जाता है। 

 

 

कलश  - इन्हे देवगुड़ी , मंदिर  आदि के शीर्ष पर लगाया जाता है।  देवी की डोली , विमान तथा डांग पर भी इन्हे लगाया जाता है। लोग मनौती के पूरा होने पर इन्हे  देवी -देवताओं को चढ़ावे में चढ़ाते हैं।

 

 

छत्र  - छत्र बस्तर के गांव  एवं पारिवारिक देवस्थानों का अभिन्न अंग होते हैं। जात्रा , दशहरा अदि अवसरों पर विभिन्न देवी -देवताओं के प्रतिनिधि स्वरूप उनके छत्र निकाले जाते हैं। लोग मनौती के पूरा होने पर इन्हे  देवी -देवताओं को चढ़ावे में चढ़ाते हैं।

 

 

सर्प  -  बस्तर के अधिकांश गैर आदिवासी और वर्तमान में कुछ आदिवासी भी गांव के महादेव स्थान पर धातु के बने सर्प रखते हैं।  लोग मनौती के पूरा होने पर इन्हे  महादेव को चढ़ावे में चढ़ाते हैं।

 

 

घोड़ा - यह राव देव का वाहन माना जाता है। विश्वास किया जाता है कि वह घोड़े पर सवार होकर गांव की रक्षा करता है। वर्ष में एक बार जात्रा के समय राव देव को मिट्टी , लोहे अथवा पीतल के बने घोड़े चढ़ाये जाते हैं। 

 

 

बैल /नंदी - बैल को नंदी स्वरुप मन कर महादेव के स्थान पर रखा जाता है। इसे बैठा अथवा खड़ा बनाते हैं। मनौतियां पूर्ण होने पर इन्हे महादेव को अर्पित किया जाता है। इसे वृन्दावती चौरा (तुलसी चौरा ) पर भी चढ़ाते हैं। 

 

 

मेंढक - बस्तर के आदिवासियों में मान्यता है की जिस व्यक्ति को पैर फूलने की बीमारी फाइलेरिआ हो जाये तो उसे देवी को मेंढक चढ़ाना चाहिए, ऐसा करने से यह बीमारी दूर हो जाती है। 

 

 

शेर - इसे देवी दुर्गा का वाहन माना जाता है। इन्हे दुर्गा के स्थान में रखा जता है और मनौतियां पूर्ण होने पर अर्पित किया जाता है। 

 

 

मछली - इसे पानी सम्बन्धी परेशानी होने पर जलनी माता  को अर्पित किया जाता है। 

 

तोड़ी - यह मुरिआ एवं माड़िआ आदिवासी संस्कृति का प्राचीन वाद्य है। मूलतः यह गौर या जंगली भैंस के सींघ से बनाया जाता था ,कालांतर में इसे धातु से बनाया जाने लगा। इसे घोटुल में , आसपास के गांवों को सन्देश देने एवं देव पूजा -जात्रा के समय बजाया जाताहै। 

 

 

मौहरी - यह आदिवासी संस्कृति का प्राचीन वाद्य है। इसे माहरा एवं घसिया जाति  के वादक शहनाई के बाहरी सिरे पर लगाकर शहनाई बजाते हैं। इसे  विवाह एवं अन्य शुभ अवसरों तथा  देव पूजा -जात्रा के समय बजाया जाता है। 

 

 

घंटा - गहरी थाली के आकार का घंटा लगभग प्रत्येक देवस्थान का अभिन्न अंग होता है। इसे पूजा -जात्रा आदि के अवसर पर बजाया जाता है। 

 

 

सक्कू - बस्तर के आदिवासी विश्वास करते हैं कि जिसे गला फूलने की बीमारी हो वह व्यक्ति यदि सक्कू, देवी को चढ़ाये तो उसकी बीमारी दूर हो जाती है। 

 

 

गूबा - यह लाठी के दौनों सिरों पर लगाया जाने वाला धातु का बना कैप है, जिसे लाठी को सुन्दर बनाने के लिए लगाया जाता है। 

 

 

गूबा - यहाँ गूबा को मानव चेहरे का रूप दे दिया गया है , जिसे लाठी को सुन्दर बनाने के लिए लगाया गया  है। 

 

 

डोली गूबा - यह देवी की डोली में उसे उठाने के लिए लगाए गए लकड़ी के सिरों पर लगाए जाते हैं। इन्हे सुंदरता बढ़ाने  के लिए लगाया जाता है। 

 

बस्तर के धातु शिल्प केन्द्र

 

आरंभ में, घसिया धातु शिल्पी जो आज अपनें को घढ़वा धातु शिल्पी कहते हैं, एक घुमक्कड़ समुदाय थे जो गांव-गांव घूमकर धातु ढलाई पद्यति द्वारा बर्तन, आभूषण एवं देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते थे । बाद में इनके कुछ परिवार कुछ गांवों में स्थाई रूप से रहकर यह कार्य करने लगे । काम की मांग के अनुसार वे अपने निवास भी बदलते रहते थे उदाहरण के लिए जगदलपुर का घढ़वापारा जो 1990 तक धातु शिल्प का एक बडा केन्द्र था लेकिन आज यहां रहने वाले घढ़वा अपना पारंपरिक काम छोडकर दूसरे स्थानों पर चले गए हैं या उन्होंने अपना व्यवसाय बदल दिया है । आज बस्तर में जिन स्थानों पर घढ़वा धातु शिल्पी बसे हुए हैं वे निम्न प्रकार हैं ।

 

नारायणपुर क्षेत्र

 

बेनूर - बेनूर गांव धातु शिल्प का पुराना केन्द्र नही है यहां 10-12 वर्ष पहले एक घढ़वा कुटुंब आकर बसा है, जिसमें छः कारीगर हैं ।

जगदीश मंदिर पारा - में 20 घढ़वा परिवार काम करते हैं।

कांकर बेड़ा - यहां घढ़वा लोगों के लगभग 50 परिवार हैं इनमें से लगभग 10 परिवार मूर्तियां बनाते हैं ।

बाघझर -          यहां तीन घढ़वा परिवार हैं परन्तु अब उनमें से कोई भी यह काम नहीं करता ।

 

कौण्डागांव क्षेत्र  -

कोंडागांव का भेलवांपदर पारा ,घढ़वा धातुशिल्पियों मोहल्ला , सन १९९३। 

 

कौण्डागांव - कौण्डागांव आरंभ से ही धातु शिल्प का प्रमुख केन्द्र रहा है । आज भी यहां के भेलवापदर पारा में   लगभग 70-75 परिवार हैं जिनमें लगभग 150 से 175 शिल्पी हैं और लगभग सभी पारंपरिक काम करते हैं । यहां फूलसिंह बेसरा, रामसिंह, जयराम, संतोष, पिलाराम, पंचूराम सागर आदि अच्छे कारीगर हैं ।

बरकई - यहां लगभग 40-50 परिवार है पर अब केवल कुछ ही परिवार धातु ढलाई का काम करते हैं ।

टेमरा - यहां लगभग 20-25 परिवार हैं और सभी परिवार धातु ढलाई का काम करते हैं ।

भानपुरी - यहां लगभग 10-12 परिवार हैं और सभी धातु ढलाई का काम करते हैं ।

 

कार्यरत घढ़वा धातु शिल्पी , बस्तर।

 

कांकेर क्षेत्र

 

चनया गांव -      यहां लगभग 50 घढवा परिवार हैं सभी धातु ढलाई का काम करते हैं ।

 

ज्गदलपुर क्षेत्र

 

ज्गदलपुर -       जगदलपुर का घढवापारा जो 1990 तक धातु शिल्प का एक बडा केन्द्र था

आज लगभग समाप्त हो गया है ।

करनपुर -         यहां 40-50 घढ़वा परिवार रहते हैं सब यही काम करते हैं ।

सिरमुड़ -          यहां 20-25 घढ़वा परिवार रहते हैं सब यही काम करते हैं ।

ऐराकोट -         यहां 20-22 घढ़वा परिवार रहते है, सब यही काम करते है ।

अलवाही -         लगभग 5 घढ़वा परिवार रहते हैं ।

घासमर -          एक घढ़वा परिवार रहता है ।

घोटया   -          यहां 20-25 घढवा परिवार हैं।

 

Reference: 

Elwin, Verrier, Tribal Art of Middle India, OUP, Bombay, 1951.

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.