बस्तर का घढ़वा धातु शिल्प/ Gadhwa Metal Craft of Bastar

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Published on: 13 November 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

 

लॉस्ट-वैक्स पद्धति से धातु ढलाई द्वारा खोखली एवं ठोस मूर्तियां बनाने की कला एक प्राचाीन भारतीय कला है। 2500 वर्ष ईसा पूर्व बनी, सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहनजो दाढ़ो से प्राप्त नर्तकी की धातु प्रतिमा  इस कला का उपलब्ध सबसे प्राचीन नमूना है । इस प्रकार भारत में लॉस्ट-वैक्स पद्धति से धातु ढलाई की लगभग 4500 साल पुरानी एक अटूट परंपरा है । इस परंपरा का एक विशेष रूप पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी-लोक धातु शिल्प में आज भी देखा जा सकता है । इस पद्यति में मोम एवं साल वृक्ष के गौंद (धुअन) के तारों को मिटटी के आधार पर लपेटकर मूर्ति को आकार दिया जाता है । जिससे मूर्ति की सतह पर एक विशेष प्रकार का अलंकारिक टेक्चर उभर आता है जो इस धातु शिल्प की विशेषता है और इसे एक अलग पहचान देता है । 

बस्तर में धातु ढलाई का कार्य ढ़वा समुदाय के लोग करते हैं ।आज बस्तर के अनेक धातु शिल्पी अपने को घसिया जाति का नहीं मानतें वे अपने का स्वतन्त्र घढ़वा आदिवासी जाति का बताते हैं। बहुत से घढ़वा यह बात भी स्वीकारते हैं कि, घसिया जाति की वह शाखा जो धातु ढलाई का कार्य करने लगी, घढ़वा कहलाने लगी है । वे कहते हैं घढ़वा का शाब्दिक अर्थ घढ़ने वाला है अर्थात वह व्यक्ति जो मूर्तियां और गहने आदि  ता है,  ढ़वा कहलाता है ।  इस मोड्यूल  में बस्तर के घढ़वा धातु शिल्पी और उनके द्वारा बनाये जाने वाले पारम्परिक आभूषण ,बर्तन एवं प्रतिमाओं के साथ -साथ उनमें कालांतर में आये बदलावों को भी रेखांकित किया गया है।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh