‘जाति जुलाहा नाम कबीरा
बिन बिन फिरो उदासी।’
कबीरपंथियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिन्दूधर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द जी उसी समय गंगास्नान करने के लिए सीढियां उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिन्दू- मुसलमान का भेद मिटा कर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परविरश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
"कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।“
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे - `मसि कागद छू वो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'
उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा पतिध्वनित होती है। कबीर अपने समय में सत्ता के प्रतिपक्ष में थे जब मुस्लिम शाषक इस्लाम का प्रचार कर रहे थे तथा कर्मकांडी पंडितों और ब्राह्मणवादियों द्वारा आम जनता को धर्म के नाम पर ईश्वर का डर दिखाया जा रहा था। आम जनता के हृदय में यह बात घर कर गयी थी कि उनकी बुरी स्थितियों के लिए उनके पूर्वजन्मों के कर्म ज़िम्मेदार हैं जिसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। रुढियों और अन्धविश्वास के कारण हम भौतिक सभ्यता में उतने ही पिछड़ते गये जबकि हमारी आध्यात्मिक सभ्यता बहुत समृद्ध थी। अत: कबीर ने अपने काव्य में जो बाह्य आडम्बरों, मिथ्याचार, जातिवाद, संप्रदायवाद, सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों पर कुठाराघात किया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी हैं। कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं।
`हरि मोर पिऊ, मैं राम की बहुरिया', `हरि जननी मैं बालक तोरा’ कहने वाले कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे।
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। कबीर का अपनी यश और कीर्ति से जुड़ा एक बड़ा मजेदार किस्सा है. अनंत दास द्वारा 16 वीं शताब्दी में लिखी गयी कबीर की जीवनी में उद्धृत किस्से के अनुसार कबीर अपनी यश और कीर्ति से बहुत परेशान थे. दिनभर उनके आवास के बाहर लोगों का तांता लगा रहता था. इसका तोड़ निकालने के लिए उन्होंने एक दिन एक पात्र लिया जिसमें शराब रखी जाती थी और एक वेश्या के साथ दिनभर पूरे नगर में घूमते रहे । जब लोगों ने उन्हें इस रूप देखा फिर उन्हें गालियां दीं, उनके आवास पर आना बंद कर दिया तब जाकर कबीर ने थोड़ी राहत महसूस की ।
कबीर ने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दुखी थे:
"अबकहु राम कवन गित मोरी।
तजीले बनारस मित भई मोरी।।''
कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:
"जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''
कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाज-सुधार में सहायता मिल सकती है.परन्तु उन्हें समाज सुधारक समझ लेना भूल होगी. वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। वे मूलतः कवि थे जिसे प्रेम की तलाश थी; उनके काव्य में मौजूद राम, कृष्णा, हरि, करीम आदि उनके प्रेम को दिए अलग-अलग नाम हैं।
कबीर मठ वाराणसी के कबीर चौरा में स्थित है और लहरतारा, वाराणसी के पीछे के मार्ग में। नीरुटीला उनके माता-पिता नीरु और नीमा का घर था। अब ये घर विद्यार्थियों और अध्येताओं के ठहरने की जगह बन चुकी है जो कबीर की रचनाओं को पढ़ते है।
कबीर के अनुसार हर जीवन का दो धार्मिक सिद्धातों से रिश्ता होता है (जीवात्मा और परमात्मा)। मोक्ष के बारे में उनका विचार था कि ये इन दो दैवीय सिद्धांतों को एक करने की प्रक्रिया है। उनकी महान रचना बीजक में कविताओं की भरमार है जो कबीर की धार्मिकता पर सामान्य विचार को स्पष्ट करता है। कबीर की हिन्दी उनके दर्शन की तरह ही सरल और प्राकृत थी। वो ईश्वर में एकात्मकता का अनुसरण करते थे। वो हिन्दू धर्म की मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे, इस्लाम के कठमुल्लापन को अस्वीकृत करते थे. वे सूफ़ी विचारों में पूरा भरोसा दिखाते थे। अनपढ़ होने के बावजूद भी अपनी व्यवहारिकता के द्वारा वे अवधी, ब्रज, और भोजपुरी के साथ हिन्दी में अपनी कविता लिखते थे और ज्ञाता थे। कबीर और उनके अनुयायियों को उनके काव्यगत धार्मिक भजनों के अनुसार नाम दिया जाता है जैसे बनिस और बोली। विविध रुप में उनके कविताओं को साखी, श्लोक (शब्द) और दोहे (रमैनी) कहा जाता है। साखी का अर्थ है परम सत्य को दोहराते और याद करते रहना। इन अभिव्यक्तियों द्वारा आध्यात्मिक जागृति का एक रास्ता उनके अनुयायियों और कबीर के लिये बना हुआ है।
कबीर के लिए स्त्री
लेकिन जब भारतीय समाज कि होती है तो सब जानते हैं कि यह समाज पितृसत्तात्मक व्यवस्था से चलता है। अत: उसके चरित्र से लेकर भाषा, संस्कृति में उसका असर दिखाई देता है। तो ऐसे में कबीर भी कैसे अछूते छूटते? कबीर के काव्य में भी स्त्री विरोधी तत्त्व मिलते हैं।
‘नारी की झाईं पड़त, अँधा होत भुजंग
कबीरा तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग’
समाज में बड़े समाज सुधारक होने की मान्यता के बावजूद कबीर के काव्य में स्त्रियों से जुड़े विरोधी स्वर दिखाई पड़ते हैं। दरअसल, कबीर को समाज सुधारक मानकर उनकी कृतियों की विवेचना या विश्लेषण करना उनके साथ अन्याय होगा। वह एक भविष्यदृष्टा कवि थे जिनके भीतर भी तमाम कवियां थीं जिनसे वह लड़ रहे थे।
जातिवाद, हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य , धार्मिक पाखंड आदि पर विरोध कबीर के व्यक्तिगत अनुभव से उपजी खीझ की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति थी। चूंकि कबीर स्त्री नहीं थे, और न ही उन्होंने स्त्री के रूप में सामाजिक बुराइयों को भोगा था, तो स्पष्ट है कि स्त्री विरोधी सामाजिक विसंगतियों के प्रति उनमें खीझ नही थी। कबीर दास की वैचारिकता और दर्शन के उद्भव की बात करें तो नारी के प्रति उनकी सोच खुलकर सामने आती है।कबीर फक्कड़ स्वभाव के थे उदार मनुष्य भी थे पर अपने विचारों कट्टरता की पुट लिए हुए थे,अगर कहें कि उदार आचरण वाले साधनात्मक रूप से कट्टर व्यक्ति थे तो गलत नहीं होगा।
‘हरिभक्तिजाने बिना, बूढ़ि मुआ संसार’
जब मैं था तब हरि नहि, अब हरि है मैं नाहि
पंडित बाद बदंते झूठा, राम कह्याँ दुनिया गति पावै’
धर्मवादी इंसान अंत में जाकर स्त्री-विरोधी ही होता है चूँकि हर धर्म भी इस बात की पैरवी करते हैं तो उससे न्यूनतम स्तर पर भी जुड़ा कोई पुरुष स्त्री-विरोधी ही होगा।
वही कबीर आत्मा और परमात्मा की बात आने पर वो स्वयं को स्त्री और परमात्मा रूप में देखने लगते हैं -
‘दुलहिनि गावहुँ मंगलाचार, हम घरि आये हो राजा राम भरतार
कहैं कबीर मै कछु न कीन्हाँ, सखी सुहाग राम मोहि दीन्हाँ ’
हिन्दू सम्प्रदाय में माया का बार-बार उल्लेख आता है। ईश्वर की माया की महिमा का गान किया जा सकता है। हिंदी संप्रदाय के लोग माया स्त्री को संबोधित करके कहते हैं जिन्हें ज्ञान विरोधी व दिमाग से कमजोर,विवेक नष्ट करने वाला बताया जाता है, और जिसे व्यक्ति के समस्त सांसारिक दुखों को कारण बताया जाता है। कबीर भी धर्मान्धता का विरोध करते हैं, कर्मकांड का विरोध करते हैं पर स्त्री की बात आने पर उसे माया बताते हैं, उसे ठगिनी, मार्जारि,डायनि,आदि संबोधनों से नवाजते हैं। कबीर पर वेदांत दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है। इस दर्शन के प्रभाव के कारण ही कबीर की वैचारिकता में,जो कि बेहद प्रगतिशील दिखाई देती है, समय के आगे दिखाई पर होती स्त्री-विरोधी है -
‘नारी तो हम भी करी, जाना नही विचार
जब जाना तब परि हरि, नारी बड़ी विकार ’
अत: हम पाते हैं कि कबीर का स्त्री के प्रति संबोधन बेहद निराशाजनक है, और उनका पुरुष उन पर हावी है। कबीर चूँकि पुरुष हैं अत: वे स्त्री के गुण-अवगुणों का आकलन उसी आधार और सीमा में करते हैं स्त्री-विरोधी हो जाते हैं व पितृसत्तात्मक मानकों द्वारा खड़े किये गए मानकों पर ही टिके दिखाई देते हैं। जो मान्यताएं, अवधारणाएं, रीति नियम कबीर के समय समाज में थीं उनका संचालक भी पितृसत्ता ही थी। कबीर ने भी पितृसत्ता की राह पर चलते हुए अपने लिए स्त्री के लिए कुछ मानक स्थापित किये और उनके द्वारा स्थापित ढांचे के भीतर जो स्त्री स्वयं को रख पाई उसे उन्होंने अच्छी स्त्री की श्रेणी में रख दिया और जिन स्त्रियों ने उनके स्थापित ढाँचे में रहना स्वीकार नहीं उसे उन्होंने कुलटा, कामिनी, व्यभिचारिणी व तरह तरह के बुरे उपमान प्रदान कर कलंकित कर दिया।
यह बेहद निराशाजनक है कि कबीर मध्यकालीन बौध्दिक वर्ग की तरह स्त्री के लिए नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, उसकी छाया से सर्प भी अंधा हो जाता है तथा शहद की मक्खी के समान इत्यादि संबोधन इस्तेमाल करते हैं और ठगिनी बना देते हैं। यदि नारी संदर्भ को प्रतीकार्थ भी मान लिया जाए तो इसे अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त शब्दावली या भाव, शिल्प किसी और मानसिकता को नहीं अपितु स्त्री विरोधी मानसिकता को ही दिखाते हैं।