उत्तर भारतीय चेतना में निर्गुण का लोकशास्त्र

in Overview
Published on: 04 December 2018

Saumya Mani Tripathi

Saumya Mani Tripathi is a research scholar at School of Arts and Aesthetics, JNU. She is a theatre practitioner and currently teaches Theatre Arts at Maharshi Valmiki College of Education, Delhi University. She is deeply invested in the interdisciplinary study of all art forms and is an amateur painter. She has been working on her documentary film on Farmer suicides for past 3 years . Her research area focuses on politics and performance and the role of new media in contemporary art. She is an active cultural activist and loves to travel and document various cultural practices in India and abroad.

 

लोक संस्कृति ही किसी भी देश, समाज या व्यक्ति की आत्मा होती है.भारतीय समाज की बात करें तो यहाँ का लोकजीवन भी मौखिक एवं आडंबररहित साहित्यों की विरासत वाला है। यह वह लोक है जिसे किसी प्रकाशन की ज़रूरत नहीं पड़ी, जिसे सबकुछ संघर्ष से मिला, जो अपनी संस्कृति, सभ्यता को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को आगे बढ़ाता रहाै। लोक दरअसल अंतरात्मा की आवाज़ है जनता के लिए होती है, और जनता की भाषा में होती हैै। यह किसी भी प्रकार के व्याकरण, चिपके हुए अलंकरण से मुक्त होती हैै। इसी वजह से जब-जब जनता मुश्किल में होती है, जब सारे हथियार बेकार पड़ जाते हैं तब समाज के बीच लोकसंस्कृति का ही रूप क्रांति में ढलता है और सभी की नसों में दौड़ने लगता हैै। भारतीय इतिहास में निर्गुण की उत्पत्ति भी कुछ ऐसी ही हैै।

 

निर्गुण की अवधारणा पर बात करें तो हजारीप्रसाद द्विवेदी ‘कबीर’ में, पृष्ठ- 166 पर कहते हैं - ‘निर्गुण’ शब्द अपने पारिभाषिक रूप में सत्व आदि गुणों से रहित या उनसे परे समझी जाने वाली किसी ऐसी अनिर्वचनीय सत्ता का बोधक है, जिसे बहुधा परमतत्व, परमात्मा अथवा ब्रह्म जैसी संज्ञाओं से सम्बोधित किया जाता है। ‘निर्गुण’ शब्द ‘श्वेताश्वर उपनिषद्’ में उस अद्वितीय ‘देव’ (परमात्मा) का एक विशेषण बनकर आया है, जो सभी भूतों में अन्तर्निहित है, सर्वव्यापी है, सभी कर्मों का अधिष्ठाता है, सबको चेतना प्रदान करने वाला तथा साथ ही निरुपधि भी है। उसी की ओर संकेत करते हुए श्री कृष्ण, गीता (13 : 14) में कहते हैं— “उसमें (परमात्मा में) सब इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसके पास कोई इन्द्रिय नहीं है, वह सबसे असक्त रहकर, अर्थात अलग होकर भी सबका पालन करता है और निर्गुण होने पर भी गुणों का उपभोग किया करता है। इसी प्रकार श्री कृष्ण ने अन्यत्र (7:12,13) भी कहा है— “यह समझ लो की जो कुछ भी सात्त्विक, राजस या तामस भाव, अर्थात् पदार्थ हैं, वे सब मुझसे ही हुए हैं, किन्तु वे मुझमें हैं, मैं उनमें नहीं हूँ । इन तीनों गुणात्मक भावों से, पदार्थों से मोहित होकर सारा संसार इनसे परे के (अर्थात् निर्गुण) मुझ अव्यय को नहीं जनता।” इसलिए, जो कुछ पदार्थ त्रिगुणात्मक रूप मे दीख पड़ता है, वह मेरी ‘गुणमयी’ माया का अंश है, और जो परमात्म-तत्व है, उसे ‘मायातीत’ भी कह सकते हैं।

 

 हिन्दी साहित्य में निर्गुण काव्य-धारा के प्रवर्तक कबीरदास माने जाते हैं। इन्होंने एक ओर तो भारतीय ‘अद्वैतवाद’ से कुछ स्थूल बातें ग्रहण की तो दूसरी ओर कुछ सूफ़ी फ़कीरों के संस्कार भी प्राप्त कर लिए थे । उनका उद्देश्य यह था कि उन भिन्न-भिन्न बाह्य विधियों से ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में भेदभाव फैला हुआ है, शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार किया जाय।

 

कबीरदास भी ‘निर्गुण’ शब्द का एक अर्थ ‘गुणातीत’ मानते हैं, अर्थात् निर्गुण गुणों से परे है। गुणों की किसी भी परिधि में निर्गुण को समाहित नहीं किया जा सकता । कबीर निर्गुण को अन्यत्र ‘निर्गुण ब्रह्म’ या ‘निर्गुण राम’ की भी संज्ञा देते हैं और उसकी गति को अगम्य ठहराते हैं (क.ग्र., पद सं. 46) तथा उसे केवल ‘निरगुण’ कहकर भी, अकथनीय बतलाते हैं। परन्तु एक स्थल पर वे इसके विषय में इस प्रकार भी कहते हैं –        

          “तेरा जन एक आध है कोई ।

           काम-क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद, चीन्हें सोई ।।        

           राजस - तामस - सातिग तिन्यूं, ये सब तेरी माया ।

           चौथे पद को जे जन चिन्हैं, तिनहि परम पद पाया ।।”

 

बनारस कबीर के बहाने निर्गुण की जन्मभूमि भी है कर्मभूमि भी. बनारस में लहरतारा है, जहाँ कबीर पैदा हुए थेै। वहीँ उनका पालन-पोषण हुआ थाै। बनारस में कबीर चैरा है, जहाँ वे रहे. कबीर के जन्म दिन पर मेला लगता हैै। लाखों की भीड़ जुटती है, जो कबीर की बानी पढ़ती है और सुनती हैै। लहरतारा तालाब के निकट खुले मैदान में छोटे-छोटे समूह में लोग बैठते हैं। कोई बीजक बांचता हैै। अर्थ बताता  है और बाकी लोग सुनते हैं। कबीर की जिन उलटवासियों को अभिजात्य वर्ग नहीं समझ पाता वही बीजक जनता को आसानी से समझ आ जाती हैं.वे उसकी चर्चा में मगन हैं। अभिजात्य आलोचक रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कबीर की बानी कुछ अनपढ़ लोगों तक ही पहुँचती हैै। मेरा कहना है कि कबीर की कविता में या यूँ कहें निर्गुण में ऐसा क्या है कि वह अनपढ़ लोगों तक भी पहुँच जाता हैै। पहुँचता पढ़े-लिखों तक भी है पर उन्हें नहीं सुहाता।

 

आप उत्तर भारत के किसी भी इलाकों में जाइये, जहाँ-जहाँ आपको मजदूरों की टोली दिखे उनके पास जाइये, समय बिताइए. आप पायेंगे कि खाली वक़्त मिलते ही जब मजदूर साथ बैठते हैं तो निर्गुण गा रहे हैं. इन मजदूरों को आप हर जगह पाएंगे. वे ट्रेन में जा रहे होंगे और कबीर का भजन गा रहे होंगे. निर्गुण गाते-गाते उनका रास्ता कट जाता है. यह जीवन भी तो एक रास्ता ही है. कबीर का निम्नलिखित गीत उत्तर प्रदेश की जनता की पोर-पोर में मिलेगा आपको -

 

एक डाल दो पंछी बैठा, कौन गुरु कौन चेला

गुरु की करनी गुरु भरेगा, चेला की करनी चेला रे साधुभाई

उड़ जा हंस अकेला.

माटी चुन-चुन महल बनाया, लोग कहे घर मेरा

न घर तेरा न घर मेरा, चिड़िया रेन-बसेरा रे साधुभाई

उड़ ज हंस अकेला ।।

 

हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार कबीर, धर्मदास, रैदास, गुरुनानक, दादूदयाल आदि संत कवियों का निर्गुण तीनों ही गुणों— राजस, तामस और सातिग (सात्त्विक)— से परे है । ये तीनों गुण ही तो निर्गुण की माया हैं तथा निर्गुण तो इन तीनों से परे का ‘चौथा पद’ है । वह गुणातीत होने के कारण ‘निर्गुण’ कहलाता है, नहीं तो वह वस्तुतः निर्विषय नहीं ठहराया जा सकता तथा उसे समझ लेना धोखे की बात होगी । गुण में ही निर्गुण है और निर्गुण में गुण है, यह बात बहुत सीधी-सादी सी है और ऐसा न कहना सच्चे मार्ग को छोड़कर बहकते फिरना है । लोग उसे ‘अजर’ कहते हैं और ‘अमर’ भी बतलाते हैं, किन्तु सच्ची बात तो यह है कि वह ‘अलख’ होने के कारण, अनिर्वचनीय है । यह ठीक है कि उसका कोई रूप नहीं है और न उसका कोई वर्ण ही है, किन्तु इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि वह घट-घट में व्याप्त है । पिण्ड और ब्रह्माण्ड की भी बातें कही जाती हैं, परन्तु, चाहे पिण्ड हो, चाहे ब्रह्माण्ड हो, ये सभी देश और काल तक सीमित हैं, किन्तु उसका न तो आदि है और न अन्त ही है । कबीर का हरि इन सभी से विलक्षण है । फिर ‘वह जैसा है वैसा समझ लेने में ही आनंद है, उसे वस्तुतः न जानते हुए भी, उसका कथन करना ठीक नहीं’, इसी कारण, कबीर ने अपने को उसे ‘सरगुन’ की अपेक्षा ‘निरगुन’ रूप में ही जानने वाला कहा है । संक्षेप में निर्गुण की अवधारणा को निम्न प्रकार समझा जा सकता है -

 

1.   निर्गुण चराचर जगत में व्याप्त वह ब्रह्म है जो सामाजिकों के दुःख को जानता है और भावना से भावित है ।
यह निराकार, अलक्ष्य, द्वैत और अद्वैत दोनों से ही विलक्षण तथा सत्व, रजस और तमस तीनों गुणों से परे है, फिर भी घट-घट में समाया हुआ है ।
2.   यह निर्गुण ब्रह्म अनुभूति का विषय है और प्रेम से प्राप्य है ।

यही कारण है कि निर्गुण परम्परा तद्युगीन विषमताग्रस्त समाज को एक की अनुभूति कराने वाली सशक्त माध्यम बन गयी।

 

निर्गुण परम्परा ऐसी परंपरा है जिस तक पहुँचने के लिए हमें निहत्थे जाना होगा, अपनी कथित समझदारी को छोड़कर. अगर सच कहा जाए तो निहत्थे जाने का हमारा अभ्यास नहीं है. हमने जो बहुत सारे आलोचनात्मक हथियार इकट्ठा किये है उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता. निर्गुण काव्य के पास भी हम आनन्द के लिए नहीं जाते. नासेह बनकर जाते हैं. यही मुश्किल है. कविता को जाँचने परखने की जो विधियाँ हमने सीख रखी हैं, उन विधियों को परे रखकर जाना होगा. स्वयं कबीर ने भी इसका संकेत दिया है-       

 

“कबिरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं
सीस उतारे भुइं धरे तब पइसे घर माँहि”

 

भारतीय समाज में जब निर्गुण की उत्पत्ति हुई थी वह समय निरंकुश था, इसीलिए निर्गुण प्रेम का घर बन कर आया था. अब हम उसे केवल मनोरंजन तक ही सीमित रखना चाहते हैं.यह भी केवल एक वर्ग यानी ‘क्लास’ का मामला है. इसी अहंकार को हमें छोड़ना पड़ेगा. हमारी मुश्किल है कि समझते हैं कि हमें सबकुछ आता है. वेद वाली शाष्त्रीयता छोड़ते हैं तो लोक वाले पंडा को पकड़ लेते हैं. हमें उपदेशकों की ऐसी आदत लगी हुई है कि उनके बगैर काम ही नहीं चलता हमारा. सुनिए कबीर क्या कहते हैं इस पर -

 

 पाछे लागा जाइ था लोक वेद के साथ,

 पैड़े में सतगुरु मिला दीपक दीन्हा हाथ।

 

यानी लोक और वेद के पीछे भागने से काम नहीं चलेगा. अपने हाथ में दिया जलाना होगा. यहाँ कबीर न तो लोक की भत्र्सना कर रहे हैं, न ही वेद की पीछे लागने की आलोचना कर रहे हैं. निर्गुण का काम यही है, पिछलग्गूपन की आलोचना करना. हमारी शिक्षा ने, हमारे ज्ञान ने, हमारे अहंकार ने हमें पिछलग्गू बना दिया है. हमारी स्वतन्त्र और उन्मुक्त दृष्टि ही नहीं रह गयी है. कबीर की चिन्ता यही है. यह चिन्ता वैयक्तिक भी है और सामाजिक भी.

 

 ऐसा कोई ना मिला जासो रहिए लागि,

 सब जग जरता देखिया अपनी-अपनी आगि ।

 

सारा संसार अपनी-अपनी आग में जल रहा है. इसे कबीर देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं. पर जग नहीं देख पा रहा है. इन्हीं बंधनों से जग बँधा हुआ है.

 

सुखिया सब संसार है, खाये औ सोये,

दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे।

 

संसार इसलिए सुखी है कि उसे बोध ही नहीं है अपने बंधनों का, वह जहाँ जाता है वहीं छला जाता है. चारों तरफ छल बादल हैं-पानी की उम्मीद में जाते हैं तो आग बरसने लगती है -

 

ओनई आई बादरी बरसन लगा अंगार,

उट्ठि कबीरा धाह दे दाझत हैं संसार।

 

घर के लोग डरे हैं, परेशान हैं. कबीर की परेशानी, कबीर का डर इसी तरह का हैै। लोगों को समझ आ जाय कि पढ़ गुन कर जहाँ पहुँचे हुए हो, पाण्डित्य की गठरी लिए जहाँ खड़े हो, वहाँ तुम जल रह हो. आग लगी हुई है. इस आग से बचो।

 

हम देखते हैं निर्गुण आम जनता के लिए कितना बड़ा सहारा हैै । ऐसा समाज जिसका कोई रखवाला नहीं, जिसे सभी लूटते हैं, शोषण करते हैं उसके काम कौन आता है? उतर है कोई नहीं! अपने लिए लड़ता भी वही हैै। उसी के बीच से कोई कबीर, या रैदास भी पैदा होता है -

 

थावर जंगम कीट पतंगा,

पूरि रह्यो हरिराई (रैदास)

 

उत्तर भारत की निर्गुण परम्परा कालक्रम की भी गवाह है जिसमें इतिहास, संस्कृति से लेकर जगजीवन के सभी पहलुओं का समावेश है. जैतसारी, कीर्तन, पूर्वी, डोमकच, आल्हा, जाट-जटनी आदि के अतिरिक्त निर्गुण ही है जो समाज के भीतर लोक की आग को जिंदा रखता है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहाँ बालक के जन्म पर ‘सोहर(भोजपुरी लोकगीत)’ गाने का रिवाज़ है. पूरे उत्तर भारत में ‘पवरिया(लोकगीत)’ का घर-घर जाकर गाकर ख़ुशी बांटने में उपयोग किया जाता है. भले अब चलन में बहुत कम रह गया हो पर अब भी कहीं किसी कोने में नानी-दादी की कविता, कहानी, लोरियों के ताल पर एवं नाद पर बच्चों की नीद आती है.विवाहों में गीत गाये जाते हैं. भोजपुरी क्षेत्रों में बारिश होने पर कजरी, फागुन में फाग और गर्मी में चैता गाया जाता है. लोक संस्कृति में लोकगीतों, साहित्य आदि का महत्व इसी बात समझा जा सकता है कि यहाँ हर अवसर के लिए गीत हैं. या कह लें कि लोक की व्यापकता मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक है. ऐसे समाज में जब मनुष्यता संकट में थी तब निर्गुण की उत्पत्ति हुई है. इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि निर्गुण मुख्यधारा के शोषण का प्रतिपक्ष है. निर्गुण की परंपरा के अंतर्गत हो कुछ भी आता है यह सबकुछ समूचे लोक की संपत्ति है. यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हो जाने वाली परम्परा है अगर उसे सायास नहीं मारा जाए. लोक बच्चों में भी जिस चेतना का विकास कर देता है वह अद्भुत है. मृत्यु जीवन का कटु सत्य है जिसे लोक गीत में गाकर कैसे बच्चों को खेल-खेल में सिखाया जाता है -

 

अटकन चटकन दही चटाकन

लौह लाता बन के काटा||

चुहुर चुहुर पानी गिरे, सब्बो जाबो गंगाजी रे

पावका पावका बेल खाबो, बेल के डारा टूटा गे||

 

अर्थात मनुष्य मरते समय अमृत पान करना चाहता है, जिसे गांवों में दही में पंचमेवा और चीनी मिलकर बनाया जाता हैै। मृत्यु के बाद लौहा लाटा करते हैं यानी जल्दीबाजी करते हैं। जबकी चुहुर चुहुर यानि बूंद बूंद करके ही पानी तर्पण के समय गिरता हैै। यह निर्गुण की ताक़त हैै।

 

निर्गुण के संत कवियों को किसी पर भरोसा नहीं है. उन्हें किसी पर्वत पर भरोसा नहीं है. पूरी दुनिया देख घूम आये हैं कबीर. उन्हें वहाँ कोई बूटी नहीं मिली. वहाँ कोई उपाय नहीं मिला. कोई साधना, कोई सिद्ध नहीं मिला, जिसके पास उपाय हो. कोई बना बनाया पथ नहीं है. इस विकट समय में कबीर शब्द की सामर्थ्य पर भरोसा करते हैं. कबीर का एक पद है -

 

       तोहि मोहि लगन लगाये रे फकीरवा.

       सोवत ही मैं अपने मदिर में सबदन मारि जगाये रे फकीरवा..

       बूड़त ही भव के सागर में बहियां पकरि समझाय रे फकीरवा..

       एके वचन  वचन नहि दूजा तुम मोसे बन्द छुड़ाये रे फकीरवा..

       कहे कबीर सुनो भाई साधो, प्रानन प्रान लगाये रे फकीरवा..

 

ऐ फकीर ! तुमने मेरे भीतर लगन लगा दिया. मैं अपने घर में सोई हुई थी. तुमने शब्दों की मार से मुझे जगा दिया हैै। मैं तो भवसागर में डूब रही थी, तुमने बांह पकड़ कर मुझे बचा लिया। एक ही वचन से एक ही शब्द से तुमने मेरे बन्धन छुड़ा दिये. फकीर तुमने मेरे प्राणों को प्राणवान बना दिया।

 

इस पूरे पद की मुख्य बात है- मैं अपने घर में सो रही थी, भवसागर में डूब रही थी, तुमने शब्दों से मारकर जगा दिया ? मुक्ति का उपाय शब्द है. यथास्थिति के मोहपाश में बँधे हुए को मुक्त कराने के लिए और कोई हथियार काम नहीं करेगा. शब्द से ही माया मोह नाना जंजाल मिथ्याचार के बंधन को काटा जा सकता है. शब्द की इस सामथ्र्य पर कबीर को पूरा भरोसा है. शब्द की इस क्षमता पर निर्गुण संत कवियों को भरोसा है. वे इस बात को बार-बार कहते हैं -

 

       सत गुरु सांचा सूरिबा सबद जु बाहा एक.

       लागत ही भुईं मिलि गया, परा करेजे छेंक..

 

सतगुरू ने शब्द के बाण से मारा. लगते ही मैं धराशायी हो गया. और मेरा कलेजा बिंध गया. यहाँ पर ग़ालिब के इस शेर को भी याद किया जा सकता है -

 

       कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को

       ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता..

 

तीर कलेजे में आकर धँस गया है, फॅस गया है और टभक रहा है। बिल्कुल यही बात संत कवि करते है। ‘परा करेजे छेंक’(कबीर) कलेजे को भेदते हुए तीर पार कर जाता तो रात दिन की टभकन नहीं होती। यह निरन्तर टभक रहा है. यह अब सोने नहीं देगा। मुक्ति नहीं देगा।

 

निर्गुण परंपरा के अंतर्गत लोकसंस्कृति का यह सारा अनुभव व संवेदन एक तरह से व्यक्तित्वान्तरित करने वाला हैै। कुछ शब्द होते हैं, कुछ कृतियाँ होती हैं, कुछ लोग होते हैं जो मिलते हैं और आपको आमूल बदल कर रख देते है। जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता हैै। शब्द/ साहित्य ही वह पारस पत्थर है, जो लोहे को सोना बना सकता हैै। मनुष्य को मनुष्य बनाता हैै। मनुष्यता की जिस भूमि पर निर्गुण के लोक गीत हमें ले जाना चाहते हैं, वहाँ जाने का उपाय शब्द/साहित्य ही हैै। निर्गुण के संतों के लिए शब्द ही प्रज्ञा है और शब्द ही उपाय हैै। कवि की दुनिया शब्दों पर ही टिकी होती है. कवि का पहला और अन्तिम आसरा शब्द ही होता हैै। निर्गुण संत कवि न केवल शब्द पर भरोसा करते हैं बल्कि शोषण का शिकार जनता को भी शब्दों पर भरोसा करना सिखाते हैं।

 

निर्गुण परम्परा में साधना का उद्देश्य यही जीवन हैै। यही लोक है. कबीर की बेचैनी किसी बैकुण्ठ के लिए नहीं हैै। कबीर को बैकुण्ठ की असलियत मालूम हैै। रैदास को पता है कि उनके कमंडल में क्या हैै। सब लोग बैकुण्ठ जाने की बात करते हैं। लेकिन बैकुण्ठ कहाँ है यह नहीं जानते। अगले एक योजन की तो खबर ही नहीं हैं. बैकुण्ठ की बात करते हैं हाके जा रहे हैं - बैकुण्ठ ऐसा है वैसा हैै।   इसका जवाब कबीर देते हैं कि जिस बैकुण्ठ को मैं देख नहीं सकता, जिसमें उठ बैठ नहीं सकता उस पर विश्वास नहीं कर सकता। निर्गुणपंथी यहीं नहीं रुकते। वे आगे बढ़ कर यह भी बता देते हैं कि अगर कहीं बैकुण्ठ है तो वह सत्संगति में ही हैै। समान विचार के लोगों के बीच होना ही बैकुण्ठ हैै। ऐसा बैकुण्ठ है जिसे जीते जी अनुभव किया जा सकता है, पाया जा सकता हैै। इसलिए कबीर अपने साधो से जीवत ही आशा करने की बात करते हैं। मुक्ति का अर्थ इस जीवन में ही हैै।

 

       साधो भाई जीवत ही करो आसा.

       जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा.

       जीवत करम की फाँस न काटी मुए मुक्ति की आसा.

 

       विरहिन उठि उठि भुईं परै, दरसन कारन राम.

       मुए दरसन देहुगे, सो आवे कवने काम..

                   xx

       मुए पीछे मति मिलौ, कहै कबीरा राम.

       लोहा माटी मिलि गया, तब पारस कौने काम..

 

किस्सा है कि राम के दर्शन के लिए विरहिणी तड़प रही है. उसे जीते जी दर्शन चाहिए. लेकिन मरने के बाद दर्शन का क्या काम. भोजपुरी क्षेत्र के लोग जानते होंगे कि भोजपुरी इलाके में एक मुहाबिरा चलता है. मुअले प बैद अइलें, मुँह लेके घरे गइलैं. मरीज के जीते जी वैद्य आये तो कुछ कर सकता है. मरने के बाद वह आकर क्या करेगा. भले ही वह वैद्य स्वयं राम ही क्यों न हों. मरने के बाद मिलने का आश्वासन व्यर्थ है. लोहा जब तक लोहा है, तभी तक कोई पारस उसे सोना बना सकता है. मिट्टी में मिल जाने के बाद पारस किसी काम का नहीं है. जीते जी मिलें तभी राम का मतलब है. मरने के बाद राम भी किसी काम के नहीं रह जायेंगे. निर्गुण आपके मन में यही बोध भरती है. इसीलिए वह शोषित वर्ग की आवाज़ बनती है. यह उस मेयार की बात है कि जिसके अंतर्गत ग़ालिब कहते हैं ‘मुनहसिर मरने पे हो जिसकी उम्मीद/ना उम्मीदी उसकी देखा चाहिए.’ मरने के बाद की उम्मीद दिलाना नाउम्मीदी की इन्तहा है.

 

कैसा प्रियतम है और कैसे यार हैं कि जो इतना भी नहीं समझ पाते कि जीवन ही सबकुछ है. निर्गुण काव्य में तड़प और बेचैनी इसी जीवन के लिए है. इस जीवन की बेहतरी के लिए. निर्गुण संतों की कविता, निर्गुण संतों की साधना का उद्देश्य इसी जीवन को बेहतर बनाना है. निर्गुण परम्परा के तत्वों की बेहतरी का पैमाना आधुनिक तकनीकी विकास, या जी.एस. टी. की तरह का नहीं है. वे उन्नत मनुष्य की रचना करना चाहते हैं. ऐसे मनुष्य की रचना जिससे लग कर रहा जा सके, जो ईर्ष्या के, द्वेष के, अहंकार के, स्वार्थ के आग में न जल रहा हो- निर्गुण के कवि ऐसे मनुष्यकी तलाश में हैं. जीवन में निर्गुण पंथियों की आस्था का या ललक का स्रोत जीवन की नश्वरता के बोध में हैं,

 

पानी केरा बुदबुदा ‘अस मानुस की जाति/

देखत ही छिप जायेगा जस तारा परभाति.’ 

 

नश्वरता का बोध जनता में वैराग्य नहीं भरता. बल्कि जीवन के लिए गहरा राग भर देता है. यह ऐसा है जैसे कि यथार्थ की ऊँगली पकडे जीवन काटना. वे नश्वरता या क्षण भंगुरता का बयान इसलिए करते हैं कि जब तक यह जीवन है उसे अच्छी तरह जिया जाये. भरपूर जिया जाये. सार्थक ढंग से जिया जाये.

सोच समझ अभिमानी चादर भई है पुरानी
टुकड़े टुकड़े जोरि जतन सो, सीके अंग लिपटानी

कर डारी मैली पापन से , लोभ मोह में सानी.

ना यह लागी ज्ञान को साबुन ना धोई भल पानी.

सारी उमर ओढते बीती भली बुरी नहिं जानी

संका मानि जानि जिय अपने, यह है चीज बिरानी

कहत कबीर धरि राखु जतन से, फेर हाथ नहिं आनी.

 

जीवन की चादर मैली हो गयी है, पुरानी हो गयी है. लोभ और मोह से मैली हुई है. इसे ज्ञान के साबुन और शुद्ध पानी से धोया नहीं. सारी उम्र ओढते रहे हो पर असलियत नहीं जानते. अपने मन में शंका करो. यह जान लो कि यह दूसरे की चीज है. इसे जतन से रखो. यह चादर फिर हाथ नहीं आने वाली. यह पूरा पद इसी अन्तिम वाक्य के लिए उद्धृत किया गया है- ‘फेर हाथ नहीं आनी.’ जीवन इसलिए अमूल्य है कि दोबारा नहीं मिलने वाला.

 

निर्गुण पर बात करते हुए बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर सदानंद शाही उदाहरण में बात करते हुए कहते हैं कि निकोलाई चेर्नीसेवस्की का उपन्यास है - How the Steel was Tempered. अमृत राय ने इसका अनुवाद अग्नि दीक्षा नाम से किया है. उपन्यास का नायक पावेल कोर्चागिन कहता है- हमें जो सबसे बहुमूल्य और खूबसूरत चीज मिली हुई है वह है हमारा जीवन. एक छोटी सी दुर्घटना भी इस जीवन को छोटा या समाप्त कर सकती है. इसलिए जीवन ऐसा जियें की अन्तिम समय जब भी आये- हमें किसी बात का अफसोस न हो. कबीरदास यही जतन करने के लिए कहते हैं. जीवन नश्वर है, क्षण भंगुर है दोबारा नहीं मिलने वाला है इसलिए इसे भरपूर जिओ. सार्थक जियो. यह क्षण भंगुरता का बोध दुबारा हाथ न आ पाने का बोध हमारे जीवन राग को सघन करता है. जीवन में जो कुछ हो जाये उसी का अर्थ है. निर्गुणपंथी इसे समझते हैं. जीवन के बाद स्वर्ग मिलेगा कि बैकुण्ठ मिलेगा यह सब बेकार की बात है.

 

निर्गुणकवि कहते हैं कि शब्द ही तो है. शब्द पर भरोसा करने का मतलब है मनुष्य पर भरोसा करना. मनुष्यता पर भरोसा करना. मनुष्य के पास ही शब्द हैं. शब्द मनुष्य होने की पहचान है. कबीर, रैदास, दादूदयाल, गुरुनानक आदि की काव्य साधना मनुष्य की इसी पहचान को स्थापित करने की साधना है.

 

निर्गुण कवियों का इतना प्रभाव है कि बलिया निवासी समकालीन हिंदी कविता के बड़े कवि केदारनाथ सिंह उनसे प्रभावित हो उठते हैं. कबीरदास का एक प्रिय शब्द है बिगूचन. बिगूचन माया भी है, विभ्रम भी है. इसी बिगूचन की वजह से हम अपनी मनुष्यता को गवां बैठे हैं. सारी गड़बड़ी इस बिगूचन के कारण है. केदारनाथ सिंह की कविता है ‘बुनाई का गीत’-

 

उठो

झाड़न में/मोजों में/टाट में/दरियों में दबे हुए

धागों ! उठो !

उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है

उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा

फिर से बुनना होगा

उठो मेरे टूटे हुए धागों

उठो !

कि बुनने का समय हो रहा है.

 

कहीं कुछ गलत हो गया है दुनिया का समूचा कपड़ा फिर से बुनना होगा. केदारनाथ सिंह की इस कविता में कबीर की अनुगँज सुनायी पड़ती है. यह जो गड़बड़ हुआ वह बिगूचन की वजह से हुआ है, गलत समझ की वजह से हुआ है. कबीर की बेचैनी के मूल में यही बिगूचन है. कबीर की साधना इसी बिगूचन को दूर करने की साधना है. कबीर हमें यह भी बताते हैं कि इसे दूर करने कोई नायक नहीं आयेगा. हम नायकों का इन्तजार करते रहते हैं कि सपनों के देश से कोई नायक आयेगा और सब कुछ ठीक कर देगा. नायक तो हमारे भीतर ही सोया हुआ है. फकीर इस सोये हुए नायक को शब्दों से मारकर जगा रहा है. बुद्ध ने कहा अप्प दीपो भव. इस जागने का अर्थ ही दीपक होना है. निर्गुण की कविता और हमारे बीच यह बिगूचन आ खड़ा होता है.

 

इसके अतिरिक्त बस्ती, उत्तर प्रदेश के कवि अष्टभुजा शुक्ल भी निर्गुण रचते हैं. वह केवल निर्गुण लिखते ही नहीं हैं बल्कि निर्गुण पंथी भी हैं और हिंदी कविता में काफ़ी लोकप्रिय हैं-

 

भलहीं हमहन के पसेने नहाय के पड़े

बाकिर केहू के तेल न लगावे के पड़े

आधा खाए के पड़े आधा पहिरे के पड़े

आधा सूते के पड़े

बाकिर कवनो राजा के दाब में ना रहे के पड़े 

जूता सीए के पड़े पालिस मारे के पड़े

बाकिर कवनो साहेब के गोद में

जूता ना पहिरावे के पड़े

भलहीं सेब छुए के ना मिले

अंगूर चीखे के ना मिले

बाकिर इमली के आम ना कहे के पड़े

आँखि से बोले के पड़े

चमड़ी से सांस लेबे के पड़े

बाकिरतोहरा से प्यापर खातिर मुँह न खोले के पड़े.

 

निर्गुण की भाषा ही ऐसी है कि उत्तर भारत के अनपढ़ आम आदमी तक भी पहुँच जाती है और दूसरी ओर ज्ञानपीठ से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह जैसे संवेदनशील कवि को भी आकर्षित कर लेती है. भले अब निर्गुण पंथी बहुत बिखर गए हैं पर मेरा मानना है कि जब तक समाज के किसी कोने में ढेबरी की आग में चूल्हे पर रोटी सेक रही कबीर के पद गुनगुनाती औरत से लेकर पीठ पर बोझ ढोने वाले मजदूर तक जो निर्गुण गाये बिना खाना तक नहीं खाते, मिलेंगे तब तक निर्गुण पंथ रहेगा, जब तक दुनिया में शोषण है तब निर्गुण पंथ जिंदा रहेगा,

 

मैं अंत में दो निर्गुण कवितायेँ और गीत दे रही हूँ जो आज के समय में कालजयी हैं-

 

वह क्या था
जो नदी में था
समुद्र में नहीं था

वह क्या था
जो समुद्र में था
नदी में नहीं था

वह क्या था
जो नदी और समुद्र
दोनों में नहीं था

और वह क्या था
जो नदी और समुद्र
दोनों में था

(अष्टभुजा शुक्ल)

................................................

 

एकही बूंद, एकही मल-मूतर

एक चाम का गूदा

एक जोति से सब उत्पन्ना

कोन बामन कोन सूदा

(कबीर)