कुलिन : कुमाऊँ में रंगमंच का प्रारम्भ कब हुआ ?
ज़हूर : कुमाऊँ में रंगमंच का इतिहास बहुत ही पुराना है, पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में जब चन्द वंश का राज्य यहाँ स्थापित हुआ, उन्होंने ‘कुशा रागोदया’ और ‘ययाति चरित’ जैसे नाटकों की संस्कृत में रचना की | तमाम लोकगाथाओं पर लोक नाटक हुये हैं, तब से लेकर आज तक चल रहे हैं, ‘हिरण चित्तल’ हुआ, ‘लखिया भूत’ हुआ और इस प्रकार से नाटक के जो तत्व हैं, यहाँ की लोक संस्कृति में पाये जाते हैं| नाटकों की परंपरा कुमाऊँ के अन्दर कोई नयी नहीं है बल्कि बहुत प्राचीन काल में यहाँ नाटकों का प्रादुर्भाव हो गया था और धीरे-धीरे उसका विकास आज तक जारी है |
कुलिन : हिन्दी और कुमाऊँनी (बोली) भाषा के लिखित नाटक, इनका लेखन और मंचन कब प्रारम्भ हुआ ?
ज़हूर : असल में हिन्दी और कुमाऊँनी में तो बहुत कम नाटक लिखे गये हैं | हिन्दी में गोविन्द वल्लभ पन्त ने नाटक लिखे हैं और देशभर में उन नाटकों का मंचन हुआ है | कुमाऊँनी में भी कुछ छुट-पुट नाटक लिखे गये जैसे ‘पुन्थरी, ‘पाथर बौल’ या ‘हिंयुणा पौंण’ आदि | गढ़वाली में बहुत ज्यादा नाटक लिखे गए लेकिन कुमाऊँनी में कम नाटक लिखे गये |
कुलिन : जो लिखित नाटक हैं, इनके कोई दस्तावेजी प्रमाण, चित्र या फ़ोटोग्राफ़ मिल सकते हैं ?
ज़हूर : इसके लिये तो लाइब्रेरियों को ही छानना पड़ेगा या कुछ लोगों के पास स्क्रिप्ट हो सकती हैं और गोविन्द वल्लभ पन्त जी ने तो जितने भी नाटक लिखे, 16-17 नाटक, वो तो आपको लाईब्रेरी में उपलब्ध हो जायेंगे |
कुलिन : कुमाऊँ के रंगमंच के ऐतिहासिक स्वरुप को व्यक्त करती पुस्तकें लिखी गयी हैं ?
ज़हूर : असल में नाटकों पर तो कुमाऊँ में कोई पुस्तक लिखी नहीं गयी है, जिसकी बहुत ज़रुरत है, वह काम अभी होना है |
कुलिन : फोटोग्राफ मिलते हैं पुरानी प्रस्तुतियों के ?
ज़हूर : नैनीताल में जो नाटक हुये, उसके कुछ चित्र तो मिल सकते हैं, वो भी स्मारिकाओं में, जो बचे-खुचे लोग हैं उनके पास जो नाटक के चित्र हैं, वो उपलब्ध हो सकते हैं |
कुलिन : आपने पुरानी प्रस्तुतियों के चित्र देखे हैं ?
ज़हूर : मैंने स्मारिकाओं में देखे हैं कई चित्र, जो नाटक यहाँ किये गये और जो नाटक बाहर से भी आये, उनका ज़िक्र भी है और कुछ चित्र भी स्मारिकाओं में हैं |
कुलिन : ये स्मारिकायें कहाँ से प्रकाशित हुई हैं ?
ज़हूर : यहाँ रामसेवक सभा द्वारा ‘शरद नन्दा’ स्मारिका प्रकाशित की गयी है या ‘शारदा संघ’ एक संस्था है, उसने अपने सौ वर्ष पूरे होने पर एक स्मारिका निकाली थी, उसमें कुछ चित्र हैं, इसी तरह स्मारिकाओं में वो चित्र उपलब्ध हो सकते हैं | अल्मोड़ा में एक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है ‘हुक्का क्लब’, उनकी जो स्मारिका निकलती है ‘पुरवासी’, उसमें भी कुछ लेख और पुराने नाटकों के चित्र उपलब्ध हो सकते हैं |
कुलिन : आपकी जानकारी के अनुसार कुमाऊँ में कौन-कौन से रंगमंच समूह या संस्थायें सक्रिय रही हैं ?
ज़हूर : अल्मोड़ा में सबसे पहले नाटक प्रारम्भ हो गये थे और जो प्रमाण मिलते हैं वो मोहन उप्रेती के समय से और ‘लोक कलाकार संघ’ संस्था, जिसमें तारादत्त सती, लेनिन पन्त और तमाम लोग जुड़े थे, उन्होंने वहां पर लोक कलाकार संघ बनाया और उसके अंतर्गत नृत्य प्रस्तुत किये, गीत भी, उस समय उन्होंने चौराहों पर नुक्कड़ नाटक भी किये जागरूकता के लिए, और उसके बाद रंगमंच पर भी नाटक किये, तब से अल्मोड़ा में शुरुआत हो गयी थी, उसी समय या उससे थोड़ा और पहले, चालीस के दशक में हम देखते हैं, विश्व प्रसिद्ध नर्तक और कोरियोग्राफर उदयशंकर अल्मोड़ा आये, वे उस जगह एक केन्द्र बनाना चाहते थे | उन्होंने ‘कल्चरल सेंटर’ की स्थापना वहां पर की और उसके बाद तमाम मूर्धन्य कलाकार ज़ोहरा सहगल से लेकर रवि शंकर तक तथा तमाम गायक, वादक, नर्तक, बलराज साहनी जैसे अभिनेता वहां पर आये, बहुत सालों तक यह चला और उसका प्रभाव हमारे यहां के रंगमंच पर दिखायी देता है |
कुलिन : आपने अल्मोड़ा के रंगमंच के बारे में बताया, नैनीताल और पिथौरागढ़ के रंगमंच के बारे में भी बताइये ?
ज़हूर : नैनीताल में अंग्रेज अपने साथ रंगमंच लेकर आये और जो शेक्सपियर थियेटर था, कुछ लोग शेक्सपियराना भी कहते हैं, तो यहाँ पर उन्होंने शैले हाल बनाया, जिसे नगर के लोग ‘नाचघर’ कहते थे | वहां पर नृत्य भी होता था और नाटक भी होते थे, शेक्सपियर के नाटक वे लोग करते थे | बंगाली लोगों ने जब देखा कि अंग्रेज़ यहाँ पर थियेटर कर रहे हैं तो उन्होंने भी सोचा कि क्यों न हम भी यहाँ पर नाटक शुरू करें | इस प्रकार ‘बंगाली ड्रामेटिक क्लब’ बना और नैनीताल में बंगालियों के जरिये से थियेटर शुरू हुआ फिर उसके बाद यहाँ पर कई लोकल ग्रुप बने, उन्होंने ‘छनचर क्लब’, ‘इतवार क्लब’ बनाये, जिस दिन वो नाटक करते थे उस दिन के नाम पर क्लब बने फिर उन्नीस सौ अड़तीस में शारदा संघ की स्थापना हुई और शारदा संघ ने यहाँ के रंगमंच को आगे बढाने का बीड़ा उठाया | उसके बाद ‘नैनी लोक कलाकार संघ’ बना | डिग्री कालेज में, जो यहाँ पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय का कोंस्टयूएंट कालेज है, उसमें फिर बहुत नाटक हुआ करते थे, सारे स्कूलों में यहाँ नाटक होते थे, सी.आर.एस. इण्टर कालेज का तो पूरा एक सप्ताह तक आयोजन चलता था | बहुत सारे ग्रुप यहाँ बनते रहे और बहुत सारे कलाकार नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग करने बाहर भी जाते थे | ‘उन्नीस सौ छिहत्तर’ में मोहन उप्रेती, बी.एम साह, बृजेन्द्र लाल साह, गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’, डॉ. शेखर पाठक, ज़हूर आलम आदि अनेक बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक विचार विमर्श के उपरान्त स्थानीय, लोक व आधुनिक रंगमंच के समग्र स्वरुप के प्रस्तुतिकरण के लिए “युगमंच” की स्थापना हुई तथा युगमंच द्वारा लेनिन पन्त के निर्देशन में ‘अंधायुग’ मंचित हुआ | गिर्दा ने इस नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, फिर तो नाटकों के मंचन का एक सिलसिला है | नयी पीढ़ी का एन.एस.डी से वास्ता पड़ा | एन.एस.डी की बहुत सारी वर्कशाप हुई, बहुत सारी संस्थायें बनीं | सतहत्तर में युगमंच बनने के बाद ललित तिवारी एन.एस.डी गए और उसके बाद आज तक वह सिलसिला जारी है, अठारह लोग युगमंच से एन.एस.डी जा चुके हैं जो अपने आप में एक रिकार्ड है | यहाँ से आठ रंगकर्मी पूना फ़िल्म स्कूल गये हैं | लेकिन नैनीताल में कोई ऑडिटोरियम नहीं है, जो शैले हाल बना था, उसकी बहुत जर्जर अवस्था है, उसमें न लाईट है, न साउण्ड है, न विंग्स हैं, न परदे हैं, कुछ नहीं है | नैनीताल में ऑडिटोरियम तो क्या बनता, जो टूटा-फूटा सा एक है, उसका भी किराया इतना कर दिया गया है कि आम लोग या हम जैसी संस्थाओं के लोग तो उसमें नाटक नहीं कर सकते हैं |
कुलिन : अन्य संस्थाओं व रंगकर्म के बारे में बताईये ?
ज़हूर : पूरे कुमाऊँ में रंगमंच का एक दौर-दौरा रहा है और पिथौरागढ़ में भी सबसे पहले रामलीला से ही रंगमंच शुरू होता है | नेपाल से लगा हुआ इलाक़ा है तो वहां पर बहुत सारा लोक का रंगमंच भी मौजूद है और कुमाऊँ में यदि सबसे ज्यादा लोक रंगमंच मौजूद है तो वह पिथौरागढ में है | बहुत सारी संस्थायें वहां पर बनी और रंगमंच किया गया | महेन्द्र मटियानी और तमाम लोग, मृगेश पाण्डे और कई लोग बाहर भी गये, जैसे एहसान बख्श हैं, ललित पोखरिया हैं या कुलिन जोशी हैं | तमाम लोग एन.एस.डी., बी.एन.ए. और दुनिया के रंगमंच पर आज अपनी पहचान बना रहे हैं, फिल्मों में पहचान बना रहे हैं, नाटक में पहचान बना रहे हैं, तो इस तरह का रंगमंच पिथौरागढ़ में रहा है और आज भी ‘अनाम’ जैसी संस्था वहां पर मौजूद है और भी कई संस्थायें वहां काम कर रही हैं | इसके अलावा रुद्रपुर में, हल्द्वानी में, रानीखेत में इस तरह का रंगमंच थोड़ा-बहुत यहाँ कुमाऊँ में मौजूद है |
कुलिन : कुमाऊँ के प्रमुख रंगकर्मी कौन-कौन हैं और किन रंगकर्मियों के योगदान को आप सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं ?
ज़हूर : पुराने लोगों में हम देखें तो मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल साह, बृज मोहन साह ये नाम प्रमुख रूप से लिये जाते हैं, गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ हैं | बाद वालों में ललित तिवारी हैं, सुरेश गुररानी हैं, एहसान बख्श हैं, कुलिन जोशी हैं, ललित पोखरिया हैं, मैं भी उनमें से एक हूँ......
कुलिन : आप तो हैं ही, आपके बिना तो कुमाऊँ का रंगमंच अधूरा है |
ज़हूर : मैं भी चालीस-पैंतालीस साल से काम कर रहा हूँ | इदरीस हैं, नीरज साह हैं, गोपाल तिवारी हैं, सुमन वैद्य हैं, सुदर्शन जुयाल हैं, समीप सिंह हैं अल्मोड़ा से, जो एन.एस.डी. गये, वे भी काम कर रहे हैं | इसी तरह से बहुत सारे नाम हैं जो लगातार रंगमंच को आगे बढाने का काम कर रहे हैं | एक नाम मैं भूल रहा था निर्मल पाण्डे का, निर्मल पाण्डे ने भी यहाँ पर बहुत काम किया है, वे एन.एस. डी. गये हैं और उन्होंने बहुत सारे नाटक निर्देशित किये हैं और उसके अलावा वे मुंबई चले गये और फिल्मों में भी उन्होंने बहुत सारा काम किया |
कुलिन : कुमाऊँ में मंचित प्रमुख नाटक कौन-कौन हैं और आपने स्वयं किन-किन नाटकों का निर्देशन किया है ?
ज़हूर : असल में यहाँ पर बहुत सारे नाटक हुये हैं, जिनकी गिनती करना मुश्किल होगा | पिथौरागढ़ में नाटक हुये, अल्मोड़ा में नाटक हुये, रानीखेत में नाटक हुये, और नैनीताल में तो सबसे ज्यादा नाटक हुये हैं | मैंने गोविन्द वल्लभ पन्त का ज़िक्र किया था, उनके बहुत सारे नाटक मंचित हुये, कई और जो स्थानीय लेखक थे, उनके बहुत सारे नाटक मंचित हुये | अंधायुग, अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, नाटक जारी है, जिस लाहौर नहीं देख्यां, मतलब इतनी लम्बी लिस्ट है कि कहाँ तक उनका नाम लिया जाये |
कुलिन : कुमाऊँ के रंगमंच के विकास में यहाँ के रचनाकारों, नाटककारों एवं बुद्धिजीवियों के योगदान को आप किस रूप में देखते हैं ?
ज़हूर : उदयशंकर से लेकर के मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल साह, बी. एम. शाह, तारादत्त सती, गिर्दा तक हम देखते हैं या अलग-अलग शहरों में जो तमाम लोग रहे हैं | योगदान तो सबका महत्वपूर्ण रहा है और लेखन का जहाँ तक सवाल है तो सबसे महत्वपूर्ण नाटक लिखने वालों में तो गिर्दा का नाम है, गोविन्द वल्लभ पन्त का नाम है |
कुलिन : आप सरकारी अनुदान से नाटक करते हैं या फिर नाटक के लिए संसाधन कैसे जुटाते हैं ?
ज़हूर : असल में हम लोग चंदा करके नाटक करते रहे हैं और आज भी चन्दा करके ही नाटक करते हैं | सरकारी सहायता एक-आद बार मिली है, बहुत छुट-पुट | एक तरह से बिलकुल एमेच्योर तरीके से संघर्ष करके ही हम यहाँ नाटक करते हैं |
कुलिन : कुमाऊँ के रंगमंच के विकास में रंगमंचीय प्रशिक्षण को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं |
ज़हूर : असल में नाटक ‘करत’ की विद्या है, और शौक़, एक पैशन, मतलब एक तरह का पागलपन चाहिये इसके लिये | बाकी सीखते-सीखते तो कुछ भी सीखा जा सकता है लेकिन नाटक करने के लिये जो एक जील चाहिये, जो एक तमन्ना चाहिये, जो एक पैशन चाहिये, जो पागलपन चाहिये, वो तो आदमी के अन्दर होना चाहिये | बाकी ट्रेनिंग बहुत ज़रूरी है, एन.एस.डी है, बी.एन.ए. है या तमाम यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट खुले हैं | संस्थागत रूप से सीखना और तीन साल, दो साल या एक साल का पूरा कोर्स करना फुल टाइम, बहुत अच्छा है |
कुलिन : कुमाऊँनी रंगमंच अथवा रंगमंच में रोज़गार की क्या संभावनायें आपको नज़र आती हैं ?
ज़हूर : ये बात निश्चित है कि पहाड़ में रहकर के रोज़ी-रोटी और पेट जब जुड़ा हुआ है, घर-परिवार जुड़ा हुआ है साथ में, तो अभी यह स्थिति पहाड़ की तो नहीं है कि यहाँ रहकर के वह अपनी सारी ज़रूरतों को, अपना परिवार चलाने की सारी ज़रूरतों को और आज कल जिस तरह से खर्चे बढ़ गये हैं तमाम, उसको पूरा कर पायेगा | ऐसी स्थिति तो नहीं है, न इतना विकास हुआ है कि टिकट लगाकर के नाटक के शो हो जायेंगे या नाटक को बहुत सारी ग्रांट मिल जायेगी | लोगों में नाटक देखने का इतना पागलपन भी नहीं है | लेकिन उसके अन्दर अगर कुछ है तो निश्चित रूप से वह नाटक से अपनी साधारण ज़िंदगी तो गुजर-बसर कर सकता है |
कुलिन : सम्पूर्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र में नाटक देखना एक संस्कार के रूप में विकसित नहीं हो पाया जबकि देश के दोनों ही नाट्य प्रशिक्षण संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और भारतेन्दु नाट्य अकादमी इसी क्षेत्र में हैं और इन दोनों ही संस्थानों से आज तक हज़ारों छात्र प्रशिक्षित हो चुके हैं | इस बारे में आपका क्या विचार है ?
ज़हूर : बहुत सारे जो हमारे पुरखे रहे या हमारे नीति-निर्माता रहे यहाँ पर, कोई ऐसा विज़न नहीं था उनका कि एक संस्थागत रूप से, एक सोच के तहत रंगमंच को इस तरह से विकसित करें कि लोग नाटक देखने पर मजबूर हो जायें और नाटक उनकी एक ज़रुरत बन जाये | ऐसा विकास हम लोग नहीं कर सके हैं | जहाँ तक दिल्ली का सवाल है, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है वहां पर और एशिया का सबसे बड़ा इंस्टीटयूशन है वह, लेकिन वह भी ऐसी ट्रेनिंग नहीं दे सका कलाकारों को, ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं कर सका है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी कि जो बच्चा वहां से निकलता है वो किस तरीक़े से अपने क्षेत्र में जाकर के या नाटक के विकास में वह किस तरह से योगदान कर सकता है | ये तो बहुत बड़ी समस्या है यहाँ |
कुलिन : कुमाऊँ के रंगमंच के सन्दर्भ में क्या आप कुछ ऐसे कलाकारों के आप नाम बता सकते हैं जो मंच पार्श्व में बहुत सक्रिय रहे, जिनका बैक स्टेज में बड़ा योगदान है, विभिन्न प्रस्तुतियों के सन्दर्भ में ?
ज़हूर : हाँ, जैसे हम युगमंच की ही बात करते हैं, ,प्रमोद साह हैं, हमारे बहुत सीनियर हैं, पहले दिन से ही युगमंच से जुड़े रहे, वे हमेशा मंच के पीछे ही रहे, उन्होंने हमारा कोई नाटक आगे से बैठकर कभी नहीं देखा | वो मंच के पीछे सारी चीजें तैयार रखते हैं, जो भी नाटक से पहले मंच के पीछे होता है, कास्ट्यूम, प्रोपर्टी से लेकर के सारी चीजें, , मैंने भी बहुत दिनों से एक्टिंग नहीं की, मुद्दत हो गयी है एक्टिंग किये हुये, सारा बैक स्टेज का ही काम देखता हूँ |
कुलिन : मेरा आख़िरी प्रश्न, कुमाऊँ के रंगमंच के विकास के लिए क्या आप किसी प्रशिक्षण संस्थान की आवश्यकता महसूस करते हैं ?
ज़हूर : अगर यहाँ कोई संस्थान खुलेगा तो एक संस्कृति विकसित होगी, नाटक करने वालों को, देखने वालों को एक ज़रुरत महसूस होगी कि नाटक भी हमारी ज़िंदगी की उतनी ही बड़ी ज़रुरत है जितनी कि खाना या और चीजें | दूसरा उससे फायदा होगा कि ट्रेनिंग प्रोपर होगी, तीसरा, जो हमारे तमाम प्रशिक्षित लोग हैं, जो बहुत सारे बेरोज़गार हैं, उनको भी उसमें रोज़गार मिल सकता है | इस तरीके से वह मल्टी-फेसेड है | अगर प्रशिक्षण संस्थान खुलता है यहाँ, जिसकी बहुत सख्त ज़रुरत है, और इस पर अगर सरकार ध्यान दे तो उससे बहुत सारा गुणात्मक परिवर्तन आयेगा | ऐसा मुझे लगता है और यह बहुत ज़रूरी है |