कुमाऊँनी रंगमंच

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Published on: 26 December 2019

डॉ कुलिन कुमार जोशी (Dr Kulin Kumar Joshi)

डॉ कुलिन कुमार जोशी मूलतः रंगकर्मी हैं और अभिनय, निर्देशन, नाट्य लेखन एवं शोध में इनकी गहरी रूचि है | ये एक बेहतरीन कवि भी हैं | ‘कुमाऊँनी रंगमंच’ विषयक, इनके द्वारा किया गया यह शोध कार्य इस रूप में प्रारम्भिक शोध कार्य है कि किसी भी विद्वान द्वारा इस विषय विशेष पर पूर्व में शोध कार्य नहीं किया गया है | लिहाजा मुद्रित सामग्री का नितान्त अभाव है | डॉ. कुलिन ने पूर्व में बतौर शोधार्थी ‘कुमाऊँ की लोकगाथाओं में रंगमंचीयता’ विषयक शोध किया है, जो प्रकाशित भी हो चुका है | ये सत्र 2001-2003 बैच के भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ, से रंगमंच में स्नातक हैं और हिन्दी साहित्य तथा रंगमंच विषय में एम.ए. सहित रंगमंच विषय में ‘नेट’ परीक्षा उत्तीर्ण की है | वर्तमान में हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फ़ॉर फोक परफार्मिंग आर्ट्स एण्ड कल्चर’ में ‘अभिनय एवं नाट्य-साहित्य’ की फैकल्टी के बतौर कार्यरत हैं |

हिन्दी रंगमंच अपने उद्भव से आज तक, कुछ ही शहरों में सिमटा रहा है | यह मूलतः अभिजात्य रंगमंच है और इसका आधार पश्चिमी नाट्य-सिद्धांत हैं न कि भरतमुनि प्रणीत नाट्यशास्त्र | आज भी दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, भोपाल और नैनीताल हिन्दी रंगमंच के गढ़ कहे जा सकते हैं | दिल्ली का मंडी हाउस इलाक़ा यदि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नाम से विख्यात है तो लखनऊ के गोमती नगर इलाक़े की भी ख़ास पहचान वहां स्थापित भारतेन्दु नाट्य अकादमी के कारण है | कुमाऊँ के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात रंगकर्मियों मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल साह तथा इनके द्वारा स्थापित संस्थानों, लोक कलाकार संघ एवं पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा कुमाऊँ के लोक रंगमंच पर आधारित प्रस्तुतियों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलतापूर्वक मंचित-प्रदर्शित करने जैसी उपलब्धियों से तो सभी परिचित हैं लेकिन कुमाऊँ में रंगमंच का प्रादुर्भाव कब हुआ और किस-किस रंगकर्मी द्वारा, किस-किस कालखंड मेंकिन महत्वपूर्ण नाटकों के मंचन से हुआ, यह आज भी अल्पज्ञात ही है, प्रस्तुत लेख इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है |

      पिथौरागढ़ जनपद के रंगमंच को समझने के लिये हम यहाँ के समग्र रंगकर्म को दो पीढ़ियों के रंगकर्म के रूप में देख सकते हैं | पहली पीढ़ी (1980 से पहले) के रंगकर्मियों में शामिल हैं रमेश चंद्र जोशी हिमानी’, प्राणनाथ अरोरा, जगदीश चंद्र पुनेड़ा, महेन्द्र मटियानी, पदमादत्त पंत, डॉ. आर.सी.पाण्डेय, डॉ. मृगेश पांडे, शमशेर सिंह महर, महू भाई और उनके तमाम साथी | अस्सी के दशक के उत्तरार्ध और विशेष रूप से नब्बे के दशक से अपनी रंगमंचीय यात्रा प्रारम्भ करने वाले दूसरी पीढ़ी के प्रमुख रंगकर्मियों में शामिल हैं डॉ.एहसान बख़्शनिर्मल सा, सतीश जोशी सत्दा’, मोहन खर्कवाल, राजेश मेहता, हेमराज बिष्ट, ललितअधिकारीदीपक गुप्ता, राजेश चंद, राजू तिवारी, भूपेश जोशी, बृजेश पन्त, डॉ. कुलि कुमार जोशी, यशवन्त महर, डॉ. पंकज प्रियदर्शी, हर्षवर्धन पाण्डे, हरीश ग्वाल, रोहित पुनेड़ा, महेन्द्र सिंह महर ‘महुआ’, और राजीव पांडे | पिथौरागढ़ में नाटक का सबसे पहले मंचन प्रहलाद दास गुप्ता द्वारा 1940 में किये जाने संबंधी जानकारी मिलती है | कहा जाता है कि उन्होंने हिटलर के सेक्रेटरी एडमिन गोरिंग पर ‘गोरिंग’ शीर्षक से एक नाटक मंचित कराया था, बाद में आर्किटेक्चर बेकर साहब ने 1955 के आस-पास  पहले गौरंगचौड़ स्कूल में और बाद में मिशन स्कूल में सेट लगाकर ‘सावित्री सत्यवान’ नाटक मंचित किया | उन्होंने ‘हरिश्चंद्र तारामती’ नाटक भी निर्देशित किया, यह नाटक किस वर्ष मंचित किया गया, इस बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती है | सभी नाटक यहाँ के टाउन हॉल में होते थे | इस तरह से पिथौरागढ़ में नाट्य-मंचन प्रारंभ हुआ | मिशन स्कूल के लोग नाटक व सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत सक्रिय रहते थे| पिथौरागढ़ में हर दो महीने में नाटक होते रहते थे और यहाँ 1960 में ‘यंग मैन वेलफेयर एसोसिएशन’ बनी | ‘यंग मैन वेलफेयर एसोसिएशन’ पिथौरागढ़ में रंगकर्म हेतु स्थापित पहली संस्था थी | प्राणनाथ अरोरा, बी.डी.ओ. रमेश चंद्र जोशी (जिन्होंने गांधी विद्यापीठ स्कूल स्थापित किया) और श्री रमेश चंद्र जोशी ‘हिमानी’ इस संस्था के सदस्य थे तथा इस संस्था में बैंक के कर्मचारी तथा किशन चंद्र पंत, कैलाश त्रिपाठी, रघुवर दास, आर.डी.भट्ट आदि लोग भी शामिल हुये | इस संस्था द्वारा सामाजिक तथा कॉमेडी नाटक मंचित किये गये | उस कालखण्ड में रमेश चन्द्र जोशी ‘हिमानी’ स्थानीय रंगमंच पर बहुत सक्रिय थे | वह नाटककार भी थे और रात-रात भर बैठ कर नाटक लिखते थे | जगदीश चन्द्र पुनेड़ा, भगवान सिंह महर, नसीम खान, तस्लीम खान इस कार्य में श्री जोशी की मदद करते थे, देवसिंह फील्ड में टॉर्च की रोशनी में नाटक लिखे जाते थे | रमेश चंद्र जोशी ‘हिमानी’ ने ही 1964 में ‘अरुणोदय कला केंद्र’ स्थापित किया | उन दिनों भी लोग टिकट खरीदकर नाटक देखते थे | बाद में उन्होंने 1967 में ‘उदयन कला केंद्र’ स्थापित किया | तथा उदयन कला केंद्र की स्थापना के कुछ समय बाद रमेश चंद्र जोशी ‘हिमानी’ पिथौरागढ़ से अल्मोड़ा चले गए और उन्होंने वहां अपना नया प्रतिष्ठान खोला, उनके जाने से ‘उदयन कला केन्द्र’ भी कमजोर पड़ गया | शेर सिंह रावत, पद्मानंद पन्त, प्राण साहब, महू भाई और जगदीश चन्द्र पुनेड़ा आदि ने मिलकर अल्मोड़ा में मोहन उप्रेती जी द्वारा 1951 में स्थापित ‘लोक कलाकार संघ’ की ही तर्ज पर पिथौरागढ़ में ‘सोर घाटी कलाकार संघ’ खोला | इस संस्था ने कुमाऊँनी[1] बोली-भाषा में ‘अभागी बटुआ’ नाम से एक प्रसिद्ध नाटक मंचित किया | यह नाटक फौज की पृष्ठभूमि पर आधारित था | “शेर सिंह बिष्ट ‘शेरदा’, इस नाटक में नायक की भूमिका में थे | अभागी बटुआ नाटक का मंचन देवसिंह फील्ड में भी हुआ और नगर पालिका में भी | इस नाटक में 14 -15 गाने थे, बड़े ही मेलोडियस, बहुत ही अच्छी धुन थी | इस नाटक का एक बहुत प्रसिद्ध गीत था ‘स्वर्ग तारा ज्युन्यैली रात’ | “सोर घाटी कला केंद्र कुछ समय सक्रिय रहा और तदन्तर अक्टूबर 1979 को प्राणनाथ अरोड़ा, डॉ. आर.सी.पांडे, भगवान दा और हम लोगों ने मिलकर ‘जागृति कला केंद्र’ की स्थापना की | जागृति कला केंद्र के अंतर्गत ‘सोने की जंजीर’, ‘उलझन’, ‘बड़े आदमी’, ‘किसका हाथ’ आदि नाटकों का मंचन हुआ | फुल लेंथ नाटक हम लोग उस जमाने में शरदोत्सव  में भी करते थे और घंटे के नाटक के लिए लोग इंतजार करते थे |” जागृति कला केन्द्र द्वारा भव्य सेट लगाकर की जाने वाली बेहतरीन नाट्य प्रस्तुतियां के बाद के वर्षों में एहसान बख्श के निर्देशन एवं मार्गदर्शन में पिथौरागढ़ की रंग-यात्रा आगे बढ़ी और पिथौरागढ़ के रंगकर्मियों के साथ मिलकर एहसान बख्श ने केलीगुला, आवारा मसीहा जैसी सशक्त नाट्य-प्रस्तुतियां मंचित की और आज भी उनके द्वारा स्थापित संस्था अभिनय नाट्य मंच सक्रिय है | 

      अल्मोड़ा जनपद में 1950 से लेकर 1980 तक के दौर में रंगमंच बहुत संपन्न था और तब यहाँ अनेकों संगठन सक्रिय थे | आज भी इस जनपद के रंगकर्मियों की गिनती की जाय तो यह सूची बहुत लम्बी होगी और निश्चय ही इस सूची में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित अनेकों रंगकर्मी शामिल होंगे | अल्मोड़ा जनपदके रंगकर्मियों की पहली पीढ़ी (1980 से पूर्व) में शुमार हैं प्रख्यात नृत्य-सम्राट उदय शंकर, मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल साह, नईमा खान, तारा दत्त सती, लेनिन पंत,राधे वल्लभ तिवारी, जगन्नाथ सनवाल, जगदंबा प्रसाद जोशी, शंकर लाल साह, बृजमोहन शाह, प्रेम मटियानी, माधो सिंह, सुरेंद्र मेहता, प्रताप सिंहबैरी,चिरंजीलाल साह, बांके लाल साह, मनोहर जोशी, इलाचंद्र जोशी, भैरव तिवारी, चंद्र सिंह नयाल, नंदन जोशी, भुवन जोशी, शमशेर जंग राणा, नवीन वर्माबंजारा’ और रंग कर्मियों की नई पीढ़ी (1980 के बाद) में शामिल हैं मुकुल उपाध्याय, नरेश बिष्ट, आलोक वर्मा, पीयूष पंत, मनमोहन चौधरी और इनके तमाम रंगकर्मी साथी | “अल्मोड़ा उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी के रूप में प्रख्यात रहा है सन 1938 में उदय शंकर ने इंडिया कल्चरल सेंटर’ की स्थापना की और1938 से लेकर 1943 तक नगर में देश-विदेश की रंगमंच की महान विभूतियों का आगमन होता रहा |”

         उदयशंकर का प्रभाव तत्कालीन नवयुवकों पर भी पड़ा और एक के बाद एक सांस्कृतिक संगठन और नाटक की प्रस्तुतियां करने वाले समूह अल्मोड़ा मेंअस्तित्व में आये | 1920 में भवानी दत्त थपलियाल द्वारा प्रह्लाद’ नाटक लिखा गया सुमित्रानंदन पंत जी के बड़े भाई देवी दत्त पन्त ‘हुडकी’ द्वारा 1938 मेंअनमोल मोती’ नाटक लिखा गया और इनके ही पुत्र थे नाटककार लेनिन पन्त 1940 में सुमित्रानन्दन पन्त ने भी कुछ नाटक स्थानीय रंगकर्मियों द्वारा प्रदर्शित किये जाने हेतु लिखे तथा इसी वर्ष हरीश चंद्र जोशी ने नीच’ नाटक लिखा और इस नाटक  में मोहन उप्रेती ने साधु का अभिनय किया बांके लाल साह द्वारा1942 में यूनियन क्लब’ और फिर ‘हैप्पी यूनियन क्लब’ की स्थापना की गई आजादी के बाद जो महत्वपूर्ण कार्य रंगमंच के संदर्भ में किया गया उनमें सबसेमहत्वपूर्ण है 1947 में बृजेन्द्र लाल साह द्वारा बलिदान’ एवं चौराहे की आत्मा’ नाटक लिखा जाना | 1955 में लोक कलाकार संघ’ अस्तित्व में आया जिसनेनृत्य एवं नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुतियां की फिर 1957 में यूनाइटेड आर्टिस्ट संस्था बनी लेनिन पन्त ने शेक्सपियर के नाटक ‘औथेलो’ का मंचन अल्मोड़ा के इंटरकॉलेज में किया जन कला केंद्र एवं नुपूर नाट्य मंच द्वारा नाटकों तथा श्री लक्ष्मी भंडार हुक्का क्लब ने रामलीला का मंचन किया यद्यपि यह प्रस्तुतियां किस वर्ष की गयी, यह पता नहीं चलता है 1982 से 1992 तक अल्मोड़ा में जन नाट्य मंच द्वारा नाटकों का मंचन किया गया | अल्मोड़ा जनपद में वर्ष 1992 से अब तक ‘दिशा’ संस्था द्वारा प्रतिवर्ष नाटकों का मंचन किया जाता रहा है | “कुछ महत्वपूर्ण नाट्य कार्यशालायें निर्मल पांडे एवं योगेश पंत द्वारा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय केसहयोग से यहाँ संचालित हुई हैं तथा सुशील कुमार सिंहपी.सी तिवारीजुगल किशोर तिवारी, मनमोहन चौधरी एवं चंदन बिष्ट द्वारा विभिन्न नाट्य कार्यशालायेंअल्मोड़ा जनपद में समय-समय पर संचालित होती रही हैं|” त्रिभुवन गिरी महाराज आज कुमाऊँ के लोक रंगमंच के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण रचनाकार हैं और उन्होंने कुमाऊँ की अनेकों लोकगाथाओं को नाटक के स्वरुप में लिखा है | 

            नैनीताल में रंगमंच की एक विस्तृत विकास यात्रा रही है | अंग्रेज ही अपने साथ यहाँ रंगमंच भी लेकर आये और शेक्सपियर द्वारा लिखे गये व अन्य नाटकों का मंचन यहाँ उनके ही बनाये शैले हालरिंक हाल में होता था | जिसे स्थानीय लोग नाचघर’ कहते थे वहां पर नृत्य भी होता था और नाटक भीशेक्सपियर के नाटक तो ये लोग करते ही थे बंगाली लोगों ने बंगाली ड्रामेटिक क्लब’ बनाया | इस तरह से नैनीताल में बंगालियों के जरिये से थियेटर शुरू हुआ फिर यहाँ पर कई लोकल ग्रुप बने | रंगकर्मियों ने जिस दिन वो नाटक करते थे उस दिन के नाम पर छनचर क्लब’ ‘इतवार क्लब’ बनाये, यह 1938 से पहले की बात है उन्नीस सौ अड़तीस में शारदा संघ की स्थापना हुई और शारदा संघ ने कुमाऊँनी[2] होली और यहाँ के रंगमंच को आगे बढ़ाया | 1962 के बाद मोहन उप्रेती ने नैनीताल में नैनी लोक कलाकार संघ’ बनाया और इस संस्था ने भी बहुत दिनों तक नाट्य प्रतियोगितायें आयोजित की | फिर यहाँ के डिग्री कालेज में,बहुत सारे नाटक हुआ करते थेस्कूलों में यहाँ नाटक होते थे | बहुत सारे ग्रुप यहाँ बनते रहे और बहुत सारे लोग बाहर भी जाते थे, नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता करने | उन्नीस सौ छिहत्तर में युगमंच” की स्थापना हुईऔर युगमंच ने पहला नाटक ‘अंधायुग मंचित किया | उसके बाद अंधेर नगरी’ मंचित हुआ और फिर एक सिलसिला चल पड़ा | यहाँ की नयी पीढ़ी का (युगमंच की स्थापना के आस—पास के वर्षों से) एन.एस.डी से वास्ता पड़ा 

            वास्तव में कुमाऊँ में रंगकर्म सबसे पहले नैनीताल में ही प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे अन्य जनपदों में भी रंगमंचीय गतिविधियां प्रारंभ हुई और नैनीताल में जब युगमंच ने काम करना शुरू किया, तो उन्होंने हिन्दी रंगमंच के स्क्रिप्टेड नाटकों को मंचित किया और कुछ नाटक लिखे भी, जिसमें से गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ द्वारा लिखा गया ‘नगाड़े खामोश हैं’ एक महत्वपूर्ण नाटक है | 

       इस अंचल के तीनों ही प्रमुख जनपदों अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ में रामलीला कब प्रारंभ हुई, इस संबंध में कोई स्पष्ट दस्तावेज तो प्राप्त नहीं होते हैं | यह बात अलग है कि इन तीनों ही जनपदों की रामलीला से जुड़े लोग सर्वप्रथम उनके ही जनपद में रामलीला का मंचन होने का दावा अवश्य करते हैं | एहसान बख्श का मानना है “यदि रंगमंच का अभिप्राय आधुनिक नाटकों से है तो मुझे लगता है कि उसकी शुरुआत मोहन उप्रेती जी के समय से हुई थी या उससे पहले हम कहें तो उदय शंकर जी ने जो अपनी अकादमी शुरू की, तो वहां से भी हम नाटकों की शुरुआत मान सकते हैं क्योंकि उन्होंने पुतुल नाटक करने शुरू कर दिए थे | उससे पहले का भी जो जिक्र हमें मिलता है कि अल्मोड़ा में जो स्टूडेंट हुआ करते थे वह स्कूल में नाटक करते थे | यह शायद 1920-30 के आसपास की बात होगी अगर मॉडर्न रंगमंच की बात करते हैं तो वहां से शुरू हुआ होगा और अगर हम लोक रंगमंच की बात करें तो वह तो एक परंपरा है वह बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में शुरू हुई होगी |” उमेश तिवारी भी पंडित उदयशंकर को ही कुमाऊँ के प्रथम रंगकर्मी के बतौर स्वीकारते हैं | “अल्मोड़ा, जहाँ पर प्रख्यात कलाकार उदयशंकर ने अपनी नृत्य-नाटिका ‘बैलेट’ को तैयार व प्रस्तुत किया | यहीं से कुमाऊँ अंचल में नाटकों का प्रारम्भ हुआ |” मोहन उप्रेती अपनी रचनात्मक यात्रा के बारे में लिखतेहैं 1955 में ग्रामों के भ्रमण के समय मेरी भेंट श्री मोहन सिंह (रीठागाढ़से हुयीजो अल्मोड़ा के सर्वश्रेष्ठ लोक गायक थे | उनकी गायन शैली का इतना अधिकप्रभाव मेरे ऊपर पड़ा कि मैंने लोक संस्कृति को अपने जीवन का मुख्य ध्येय ही बना लिया |” कुमाऊँनी रंगमंच के संदर्भ में लिखित सामग्री का भाव आज भी एकचुनौती बना हुआ है |

            कुमाऊँ में सक्रिय रंगकर्म के सन्दर्भ में उदय शंकर आर्ट सेंटर, पर्वतीय कला केन्द्र, यूनाइटेड आर्टिस्ट एसोसिएशन, श्री लक्ष्मी भण्डार ‘हुक्का क्लब’, जननाट्य मंच, अनाम, थात, युगमंच’, ‘जन संस्कृति मंच, ‘मंच’, दिशा’  आदि संस्थाओं का योगदान दिखायी देता है | कम समय के लिए अस्तित्व में रही लेकिनमहत्वपूर्ण नाटकों का मंचन करने वाली संस्थायें हैं पिथौरागढ़ में उदयन कला केंद्र, अरुणोदय कला केंद्र और जागृति कला केंद्र, अल्मोड़ा में उदय शंकर द्वारास्थापित उदय शंकर आर्ट सेंटर, पर्वतीय कला केन्द्र, लोक कलाकार संघ व हुक्का क्लब आदि | 1970 के दशक में कुमाऊं के रंगमंच के क्षेत्र में और विशेष रूप सेलोक रंगमंच के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल शाह और बृजमोहन शाह की तिकड़ी द्वारा किया गया और यह तीनों ही शख्सियत कुमाऊँनी रंगमंच के वह महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं जिन्होंने इस अंचल के रंगमंच का  केवल मार्ग प्रशस्त किया बल्कि जीवन भर अपनी कला साधना के द्वारा कुमाऊँके रंगमंच को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंचित और प्रदर्शित करते रहे | यदि यह कहा जाए कि इनके द्वारा ही कुमाऊँनी रंगमंच के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्णप्रारम्भिक कार्य किया गया तो संभवतः अतिशयोक्ति  होगी ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’, भारतेंदु नाट्य अकादमी’, ‘भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान’, ‘हिमाचल सांस्कृतिक शोध संस्थान एवं नाट्य अकादमी’ आदि संस्थानों से भी अनेकों कुमाऊँनी कलाकारों/रंगकर्मियों ने रंगमंच और फिल्म-माध्यम का प्रशिक्षणप्राप्त किया है इनकी संख्या लगभग पचास होगी जिसमें से लगभग तीस से अधिक प्रशिक्षित रंगकर्मी/कलाकार तो नैनीताल जनपद के ही होंगे | अल्मोड़ाजनपद से भी अनेकों रंग कर्मियों ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और भारतेंदु नाट्य अकादमी से प्रशिक्षण प्राप्त किया है | पिथौरागढ़ जनपद से एहसान बख्श राष्ट्रीयनाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित एकमात्र रंगकर्मी हैं इसके अतिरिक्त इस जनपद से भारतेंदु नाट्य अकादमी से प्रशिक्षित रंग कर्मियों की एक लंबी श्रृंखला है जिनमेंशामिल है भूपेश जोशी, कमलेश मेहता, मनोज कुमार, बृजेश पंत, डॉ.कुलिन कुमार जोशी,राजीव पांडे आदि पिथौरागढ़ जनपद में अनाम’, अल्मोड़ा में ‘दिशा’ और नैनीताल में ‘युगमंच’ आज के दौर में कुमाऊँ अंचल की सर्वाधिक सक्रिय और प्रतिष्ठित रंग-संस्थायें हैं तथा रंगकर्मियों की पीढ़ियां तैयार करने का अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य इन संस्थाओं ने किया है और इन्हीं संस्थाओं से प्रारम्भिक प्रशिक्षण प्राप्त कर आज अनेकों रंगकर्मी विभिन्न कला-विधाओं में, विभिन्न शहरों/स्थानों में अनवरत सक्रिय बने हुये हैं |

 

[1] की वर्ड्स :- 1.कुमाऊँनी -  स्क्रिप्ट्स (लिखित नाटक) जिनका मंचन कुमाऊँ अंचल में हुआ 

                     2.रंगमंच – नाट्य प्रस्तुतियांजो विशुद्ध नाटक हैंलोक-नाट्य या नृत्य-नाटिका

[2] मैंने ‘कुमाऊँनी रंगमंच’ शीर्षक से यह शोध आलेख लिखा है जिससे कि कुमाऊँ के रंगमंच की विकास यात्रा स्पष्ट हो सके क्योंकि कुमाऊँ के रंगमंच पर लिखित सामग्री का नितान्त अभाव है लिहाजा कुमाऊँ के प्रख्यात रंगकर्मियों द्वारा प्रदान की गयी ऐतिहासिक जानकारियाँ ही इस शोध आलेख का आधार बनी हैंडॉ.एहसान बख्शज़हूर आलमजगदीश चन्द्र पुनेड़ाप्रो.आर.सी.पाण्डेशिव चरण पाण्डेत्रिभुवन गिरी महाराजमनमोहन चौधरी सहित जिन रंगकर्मियों/विद्वानों का सहयोग इस हेतु प्राप्त हुआ हैमैं सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ |