पंडवानी के स्रोत/Sources of Pandvani

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Published on: 08 July 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

छत्तीसगढ़ी पंडवानी कथा गायन का जो रूप आज हम देखते हैं वह अपने मूल रूप से बहुत अलग है। देहाती आंगनों, चौपालों से निकलकर नगरीय मंचों तक पहुंचने की पंडवानी गायन की इस यात्रा का स्वरुप क्या है यह जानना भी रुचिकर है। यद्यपि नगण्य मात्रा में ही सही पर अपने मूल रूप में यह परम्परा कुछ गांवों में आज भी जारी है। सन  १९४५ के पहले के कालखंड में इसमें क्या क्या परिवर्तन हुए उनका बहुत लेखा-जोखा आज हमें नहीं मिलता परन्तु इसके बाद के समय में क्या घटित हुआ उसके ब्यौरे उपलब्ध हैं। मुख्यधारा के हिन्दू समाज से बढ़ती निकटता और व्यवसायीकरण के प्रति बढ़ते झुकाव ने पंडवानी गायन की परम्परा को वर्तमान रूप तक पहुंचाने में बहुत बड़ी भूमिका निबाही। सन  १९४५ में पंडवानी के पितामह कहलाने वाले श्री झाडूराम देवांगन का उदय हो रहा था उनके उदय के साथ ही पंडवानी की प्रस्तुति और स्वरुप में व्यापक परिवर्तन हुए हैं

Jhaduram Devangan

Pandvani Performer, Jhaduram Devangan, Chhattisgarh

 

यदि हम अतीत की ओर देखें तो पते हैं कि समूचे गोंडवाना क्षेत्र में गोंड जनजाति समृद्ध किसान और सामाजिक रूप से प्रभावशाली थी। इनके यहाँ कथागीतों के आयोजनों की परिपाटी भी थी। मान्यता है कि यह कथागीत आरम्भ में किसी गोंड द्वारा ही गए जाते थे, उन्ही कथागायकों के परिवार समूहों ने कालांतर में एक कथा वाचक जाति का रूप ले लिया। परधान, देवार और भिम्मा एसी ही जनजातियां हैं। इन समुदायों के सामान्य लोग एवं जनजातियों के शोधकर्ता सभी इस बात पर सहमत हैं कि परधान, देवार और भिम्मा समुदाय गोंड जनजाति की ही उपशाखाएँ हैं। यह लोग मानते हैं कि इनके पूर्वज गोंड ही थे। यह तीनों ही समुदाय घुमक्कड़ कथावाचक-गायक हैं और इनके मुख्य परम्परागत जजमान गोंड कृषक रहे हैं। वर्ष में कम से कम एक बार ये अपने जजमानों के घर अवश्य जाते हैं और कथागायन कर दान में धन-धन्य प्राप्त करते हैं। परधान लोग बाना नामक वाद्य बजाकर, देवार लोग सरांगी/सारंगी बजाकर तथा भिम्मा लोग तूमा बाजा बजाकर नृत्यगान करते हैं।

 

परधान कथावाचक सदियों से गोंडवानी, पंडवानी और रामायनी जैसे वाचिक आख्यानों का गायन करते रहे हैं। डॉक्टर सोनऊराम निर्मलकर जिन्होंने देवार समुदाय पर गहन शोध किया है के अनुसार देवार समुदाय के कथागायक भिक्षाटन के दौरान अनेक अन्य कथानकों के साथ महाभारत की छोटी-छोटी कथाएं (पंडवानी) भी गाते थे। प्रसिद्ध विद्वान् शेख गुलाब ने भिम्मा समुदाय पर लिखी अपनी पुस्तक में लिखा है कि भिम्मा समुदाय के कथागायक साल में एकबार अपने गोंड जजमानों के यहाँ वर्षा के देवता भीमसेन के कथागीत गाते हैं जिससे प्रसन्न होकर भीमसेन पानी बरसाते हैं।

 

उपरोक्त तथ्यों से यह ज्ञात होता है कि पंडवानी अथवा महाभारत कथा के चरित्रों से सम्बंधित कथानकों का गायन वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र में सदियों से होता आ रहा है। यह पारम्परिक कथा गायन अनपढ़ और नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों द्वारा किया जाता था जो पूर्णतः स्थानिय जनश्रुतियों, विश्वासों और मान्यताओं पर आधारित था। यह लोग न तो शिक्षित थे और न ही इनकी पहुँच शास्त्रों तक थी। पीढ़ियों से अपने पूर्वजों द्वारा अगली पीढ़ी को हस्तांतरित की गयी दंतकथाओं को अपनी स्मृतियों में संजोये इन कथगायकों ने इस सांस्कृतिक विरासत को जीवित बनाए रखा। क्योंकि यह कथाएं श्रुति और स्मृति पर आधारित थीं अतः इनमे एकरूपता न होकर विविधता मुखर थी। गायकों की व्यक्तिगत कल्पनाशीलता और तात्कालिकता का प्रस्तुति में बहुत प्रभाव रहता था। 

 

पंडवानी के पितामह झाडूराम देवांगन के वरिष्ठ शिष्य चेतन देवांगन बताते हैं उन्होंने सुना है कि बहुत पहले शिवरीनारायण क्षेत्र के सतनामी समुदाय लोग अपनी चौपालों में उनकी वाचिक परम्पराओं प्रचलित घटोत्कचव ब्याह नकुल ब्याह एवं सहदेव ब्याह जैसे महाभारत कथा प्रसंग गाते थे। बाद में झाडूराम देवांगन से पहले अंग्रेजी शासनकाल में यहाँ रावण-झीपन गांव के नारायण लाल वर्मा संभवतः पहले ज्ञात पंडवानी गायक हुए हैं। प्रतीत यह होता है कि पंडवानी के वर्तमान रूप का प्रचलन संभवतः नारायण लाल वर्मा द्वारा किया गया। 

मैंने स्वयं सन २०१७ में मंडला जिले के पाटनगढ़ गांव के गोंड आदिवासी समाज में प्रचलित गोंडवानी, पंडवानी और रामायनी कथागीतों का अध्ययन किया है। इस गांव ने अपनी प्राचीन जातिगत स्मृतियों और परम्पराओं को बखूबी सहेज रखा है। यह गांव मुख्यतः परधान गोंड आदिवासियों का ही है। इनके पूर्वज बाना नामक पारम्परिक वाद्य बजाकर अपने गोंड जमीदारों को उनकी मिथ कथाएं और वंशावली गाकर सुनाया करते थे। साजा नामक वृक्ष की लकड़ी से बनाए गए इस वाद्य में गोंडो के सर्वाधिक शक्तिशाली और पूज्य बड़ा देव का वास मन जाता है। वर्तमान में बहुत ही काम ऐसे परधान बचे हैं जिन्हें पुरातन पारम्परिक किंवदंतिया याद हैं और जो उन्हें गाकर सुना सकते हैं। पाटनगढ़ गांव में ऐसे दो या तीन लोग बचे हैं, लगभग साठ वर्षीय, बाला राम व्याम उन्हीं में से एक हैं। वे तीन प्रकार के कथानकों  का गायन करते हैं- गोंडवानी, रामायनी और पंडवानी। गोंडवानी सर्वाधिक लोकप्रिय है और प्रचलन में है। इसमें गोंड देवलोक एवं जनश्रुतियों से सम्बंधित कथागीत प्रस्तुत किये जाते हैं। परन्तु इनमें महाभारत कथा के अनेक पात्र एवं घटनाएं  इस प्रकार घुलमिल गए हैं कि यह भ्रम होता है कि हम गोंडवानी सुन रहे हैं या पंडवानी? मुझे उन्होने गोंड राजा द्वारा दिल्ली के बादशाह अकबर के दरबार में तलवार के एक ही वार में सेमल वृक्ष के तने को काट डालने का वृतांत सुनाते-सुनाते कब उसमे गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अपने पांडव शिष्यों को भीषण अकाल से बचाने का उपक्रम शुरूकर दिया, पता ही नहीं चला।

 

प्रसिद्ध विद्वान् शेख गुलाब ने सन १९५० से सन १९६० के मध्य गोंडवाना क्षेत्र में गाए जाने वाले गोंडवानी, पंडवानी और रामायनी कथागीतों का संकलन किया जिसे आदिम जाति कल्याण विभाग, मध्यप्रदेश एवं नई दिल्ली स्थित इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय कला केंद्र ने प्रकाशित किया है। गोंड जनजाति में प्रचलित रामायनी और पंडवानी का यह संस्करण अपने आप में अनूठा है जो रामायण एवं महाभारत की स्थापित कथाओं से अनेक स्तरों पर भिन्न है। गोंड पंडवानी में राम, लक्षमण तथा कौरव-पांडव सभी एक ही समय में हुए हैं,  इतना ही नहीं वे समय-समय पर एक दूसरे की सहायता से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हैं। जब लक्ष्मण को इंदर कामिनी इंद्रलोक लेजाकर बकरा बना देती है तब भीमसेन ही उन्हें बचाकर लाते हैं।एक अन्य प्रकरण में जब राम और सीता को यह संदेह होता है कि लक्ष्मण अपना सत गवां चुके हैं तब सच्चाई का पता लगाने के लिए वे पांडवों की सहायता लेते हैं।

पांडवों और विशेषतौर पर भीमसेन से गोंड आदिवासी विश्वासों का गहरा नाता है। गोंड उन्हें वर्षा लाने वाला देवता मानते हैं। विद्वान् शेख गुलाब ने लिखा है, गोंड विश्वास के अनुसार किसी समय भीषण सूखा पड़ा। पानी नहीं बरसा, फसल नष्ट हो गयी। पशु-पक्षी सब भूखे मरने लगे। गोंड ठाकुर खेती के लिए पानी को तरसने लगे। पानी नहीं बरसेगा, खेती नहीं होगी तो लोग क्या खाएंगे। पानी के लिए सब सोच में पड़ गए, गुनिया और ओझाओं ने टोने-टोटके किये। देवताओं को प्रसाद चढ़ाया गया, बलि दी गई पर कुछ नहीं हुआ। गोंड ठाकुर जानते थे कि पानी बरसाने वाला भीम है, उन्ही की कृपा से पानी बरसता है। वे बादलों में पानी भरकर लाते हैं तब जाकर पानी की वर्षा होती है। इस बार भीम सेन नाराज हो गए हैं उनके प्रसन्न होने पर ही पानी बरसेगा। वे भीमसेन को खुश करने के उपाय सोचने लगे। भीमसेन एकबार खुश होकर बजा बजाकर नाचे थे तब पानी बरसा था। यह सोच कर उन्होंने भीमसेन को खुश करने के लिए भीम नाचा की तैयारी शुरू करदी। गांव में भीम पूजा की तैयारी होने लगी। एक गोंड बालक जिसका नाम मूमा था और जो बड़ा ही संगीत प्रिय था वह तूमा बजा लेकर गीत गाने लगा। उसकी स्त्री उसके बाजे की धुन पर नाचने लगी। उनकी देखा देखी गांव के अन्य युवक-युवतियां भी तूमा बजा लेकर गाने-नाचने लगे। फिर तो आकाश में बदल घुमड़-घुमड़कर आने लगे। तेज घनघोर बरसात होने लगी और इस प्रकार भीमसेन पूजा का कार्यक्रम संपन्न हुआ।

शेख गुलाब द्वारा वर्णित एक अन्य किंवदंती के अनुसार तूमा भीम का बाजा है, इसमें केवल एक पहरा होता है। वे जब भी उमंग में होते तूमा बाजा बजाने लगते और द्रोपदी इसे सुनकर ख़ुशी से नाचने लगती थी। जब पांडवों पर संकट आया तब वे बैराट में नौकरी करने लगे। भीम को नौकरी नहीं मिली तो वे तूमा लेकर बजाने-नाचने लगे और इसीसे अपना पेट पालने लगे। उसी नगर के तीन युवकों लमसेना को उनका तूमा बाजा बहुत पसंद था वे छिपकर तूमा बजाने का अभ्यास करते थे। कुछ समय बाद पांडव अपनी राजधानी वापस चले गए। बैराट के लोग बहुत दुखी हो गए कि अब उन्हें भीम का गीत और तूमा बाजा सुनने को नहीं मिलेगा। उस समय वे तीनों लड़के भीम के पास आये और हाथ जोड़कर भीम से प्रार्थना की कि वे अपनी निशानी के रूप में वह बाजा उन्हें दे जाएं। भीम बोले बाजा तो में दे दूंगा पर बजायेगा कौन? लमसेना लड़कों ने तूमा बाजा उठाया और उसी धुन में बजाने लगे, लमसेनिन नाचने लगीं। भीमसेन खुश हो गए। उन्होंने तूमा बाजा लमसेना को दे दिया, वे उसे बजाने लगे। लोग उन्हें भीम का प्रतिरूप मानकर उनका आदर से गीत सुनने लगे, उन्हें भीमा कहने लगे और इस प्रकार एक अलग जाति बन गयी जो भिम्मा कहलाई। गोंड ठाकुर साल भर में इन्हें एकबार अवश्य बुलाते। ये गीत गाते, नाचते और गोंड इन्हें दान देते। गोंड मानते थे कि ये पांडव हैं जो उनके घर नाचने आये हैं। उनका यह अटल विश्वास होगया कि यदि भिम्मा एक बार उनके गांव में नाच जाये तो अकाल नहीं पड़ेगा, बरसात अवश्य होगी।

आज भी समूचे छत्तीसगढ़ के गावों में भीमा देव के देवस्थान होते हैं, लकड़ी का एक मोटा गोल-मटोल खम्बा अथवा प्रतिमा भीमा देव का प्रतिनिधित्व करती है। बस्तर क्षेत्र में भीमा वर्षा के देव के रूप में पूजे जाते हैं।  प्रति वर्ष उनकी भीमा जात्रा भादों माह के शुक्रवार को गांव भर के लोग मिलकर मानते हैं। यदि वर्षा अच्छी तरह हो गयी तो नारियल, धूप बत्ती से सामान्य पूजा करते हैं परन्तु वर्षा न होने की दशा में भीमा जात्रा सारा गांव मिलकर बड़े स्तर पर आयोजित करता है । गोंड आदिवासी युवक-युवतियां इसमें बढ़-चढ़ कर नृत्य-गान करते हैं। भीमा देव का सिरहा बुलाया जाता है उस पर चढ़कर भीमा देव खेलता है। उसे मेंढा या भैंसा की बलि दी जाति है। वह प्रसन्न होकर अच्छी वर्षा का आश्वासन देता है। 

Chhattisgarh. Barkai, Bhima Devasthana
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Chhattisgarh. Barkai, Bhima Devasthana.

 

Nagarnaar, Bhima Devasthana

Chhattisgarh. Nagarnaar, Bhima Devasthana.

 

 संभवतः यह गायन-नर्तन पंडवानी कथा गायन के आदिरूप हैं। जिसका सम्बन्ध धीरे-धीरे जीवकोपार्जन से जुड़ गया। सदियों से गोंड कृषकों से जुड़ी इस प्रथा को इस क्षेत्र के अन्य कृषकों का भी संरक्षण मिलना आरम्भ हो गया जिससे पंडवानी कथा गायन का स्वरुप समुदायगत न रहकर क्षेत्रीय हो गया और पंडवानी जन-जन में लोकप्रिय हो गई। बीसवीं सदी तक आते-आते पंडवानी एक विशिष्ट कालरूप के रूप में जानी जाने लगी थी और उसके गायक अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाने लगे थे। इनमें सबसे प्रमुख नाम चीतल राम देवांगन, पूनाराम निषाद और झाडूराम देवांगन के हैं। 

नवीन सागर को १९८७ में दिए एक साक्षात्कार (चौमासा में प्रकाशित) में प्रसिद्ध पंडवानी गायक श्री झाडूराम देवांगन ने कहा था कि देश की स्वतंत्रता प्राप्ति तक तक छत्तीसगढ़ में पंडवानी का स्वरुप पूर्णतः पारम्परिक ही था जिसका शास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं था। दंतकथा के रूप में महाभारत को जैसा सुना-समझा वैसा ही सुना देते थे। इस पारम्परिक शैली को कापालिक शैली भी कहा गया है। उसमें अभिनय पक्ष नहीं था। पंडवानी गायक पहले कुछ देर गाते फिर उसके बारे में कुछ बतादेते थे। उनकी गाने की धुन भी अलग थी। रागी होता था पर केवल हूँका देता था आज जैसी उसकी एहमियत नहीं थी। खंजरी और तम्बूरा केवल दो वाद्य बजाते थे। उस समय तक पंडवानी गायी जाती थी महाभारत नहीं, पंडवानी दन्त कथा है और महाभारत शास्त्रमति।

वे कहते हैं, आरम्भ में तो परधान लोग ही गाते थे बाद में अन्य क्षेत्रों में अन्य समुदायों के लोग भी पंडवानी सुन-सुनकर गाने लगे होंगे। हमने भी तो स्वप्रेरणा से गाना शुरू किया था। हमारे दुर्ग जिला में दंतकथा वाली पंडवानी की कोई परंपरा नहीं थी, हमने तो सबल सिंह चौहान द्वारा लिखित महाभारत की पुस्तक का अध्ययन करके कथा याद की उसका भावार्थ समझा तब गाना शुरू किया। हमने सोचा हम इस शस्त्रबद्ध कथा को पारम्परिक पंडवानी शैली में नहीं गायेंगे वार्ना लोग इसे भी पुरानी दंतकथा  ही समझेंगे। इसलिए हमने शास्त्रीय संगीत पर आधारित धुन बनाई। आरम्भ में केवल कथा गायन और भावार्थ करते थे पर धीरे-धीरे जैसे-जैसे इसमें उतरते गए तो कथा के चरित्र और उनकी गतिविधियां कल्पना में उभरने लगीं। जैसी घटना का वर्णन करते वैसी ही हमारी  शारीरिक चेष्टाएँ होने लगीं और इस प्रकार पहली बार पंडवानी गायन में शास्त्र सम्मत कथा (वेदमति)और अभिनय पक्ष का प्रवेश हुआ, यह सन १९५० के आस-पास की बात है। झाडूराम देवांगन कहते हैं फिर हमारे मन में आया कि यह महाभारत की कथा है क्यों न हम इसे पेटी (हारमोनियम) के साथ गाएं, बस पेटी साथ बजवाने लगे। यह गायन बैठकर किया जाता था।

यद्यपि उस समय भी चीतल राम देवांगन और पूनाराम निषाद प्रसिद्ध पारम्परिक पंडवानी गायक थे। परन्तु तत्कालीन छत्तीसगढ़ में झाडूराम देवांगन की वेदमति महाभारत पंडवानी का ऐसा व्यापक प्रभाव पड़ा कि लोकश्रुति आधारित पंडवानी गायन लगभग खत्म हो गया और शास्त्रसम्मत पंडवानी अपनी नयी गायन शैली के साथ लोकप्रिय हो गयी।

सन १९७० का दशक तक आते-आते पंडवानी गायन की स्थिति और भी बदल गयी थी। पारधी या बहेलिया जाति की तीजन बाई द्वारा पंडवानी गायन आरम्भ करने के साथ छत्तीसगढ़ी पंडवानी गायन की दुनियां में एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ।

Teejan Bai

Pandvani Performer, Teejan Bai, Chhattisgarh

 

सन १९८० के दशक में देश-विदेश में आयोजित हो रहे भारत महोत्सवों ने देशज भारतीय कलाओं, विशेष रूप से प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए अपार संभावनाओं के द्वार खोल दिए थे। जिसके चलते अनेक प्रतिभशाली युवक-युवतियां पारम्परिक कलाओं में अपना भविष्य तलाशने हेतु प्रत्नशील थे। इस दशक के मध्य तक तक आते-आते अनेक पुरुष और महिला पंडवानी गायक अपनी पहचान बना चुके थे। इनमें प्रभा यादव, खूबलाल यादव, रामाधार सिन्हा, लक्ष्मी बाई सतनामी, जौना बाई, हीरा बाई सतनामी, पुनिआ बाई और फूल सिंह साहू उल्लेखनीय हैं। क्योंकि यह नए गायक इस विधा को एक व्यवसाय के रूप में अपना रहे थे और उनकी पंडवानी गायन की पारम्परिक पृष्ठभूमि नहीं थी अतः उन्हें अलग किस्म की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था।

 

सन १९८५ में श्री निरंजन महावर को दिए एक साक्षात्कार (चौमासा में प्रकाशित ) में तीजनबाई ने कहा था, बचपन से मेरी आवाज़ अच्छी थी। मैं ऊँचे स्वर में ददरिया, करमा और सुवा गीत गया करती थी। एकबार पास के गांव की एक डोकरी हमारे घर आई और उसने मुझे तम्बूरा दिखाकर कहा कि तू इसपर काम कर। मैंने तम्बूरा बजाना शुरू कर दिया। मेरे नाना बिरिजलाल पंडवानी जानते थे, हमारे गांव में भी एक-दो बार पंडवानी गाने वाले आए थे, में उन्हें सुन-सुनकर पंडवानी याद करने लगी। जब कुछ याद होगया तब एक बार तम्बूरा और खंजड़ी लेकर गांव वालों के सामने एक कार्यक्रम किया। पर मेरे पति को मेरा यह काम पसंद नहीं आया, उसने मंच पर ही मेरी पिटाई करदी। मैं पढ़ी-लिखी नहीं थी, मुझे आधी-अधूरी कथा आती थी। तब मैंने उस समय के एक अनुभवी रागी उम्मेदसिंह से पंडवानी कथा सीखना आरंभ किया। उन्ही से मैंने विभिन्न पात्रों के अभिनय का अभ्यास किया। और अंततः पंडवानी गायन में अपना स्थान बनाया। क्योंकि मैं पढ़ी-लिखी नहीं थी इसलिए मैंने सब कुछ शास्त्र पढ़कर नहीं लोगों से कथा सुनकर याद किया और गाया जो कापालिक शैली में रखा जाता है। में झाडूराम देवांगन और पूनाराम जी  की तरह बैठकर नहीं, खड़े होकर व् नाच-नाच कर पंडवानी गाती हूँ। मेरी मण्डली में रागी, तबला वादक, पेटी मास्टर और ढोलकहा रहता है।

इस प्रकार हम देखते हैं पंडवानी का वर्तमान लोकप्रिय रूप अपने पारम्परिक मूल रूप से बहुत दूर तक की यात्रा तय कर चुका है। छत्तीसगढ़ की पंडवानी का वर्तमान नगरीय रूप अपनी अनुष्ठानिक एवं सामाजिक ऊर्जा व महत्ता खोकर लोकरंजन का एक माध्यम बन गया है। बदले हुए परिवेश में संभवतः इस कालरूप के जीवित बने रहने का यही एक रास्ता बचा हो।

 

 

सन्दर्भ ग्रन्थ -

  • रामायनी, शेख़ गुलाब, आदिमजाति कल्याण विभाग, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश, १९६४
  • देवार की लोक गाथाएं, डॉ सोनउ राम निर्मलकर, बिलासा कला मंच, बिलासपुर (छत्तीसगढ़), २००३
  • चौमासा, वर्ष ३, अंक ८, मार्च-जुलाई  १९८५, आदिवासी लोक काला परिषद, भोपाल, मध्यप्रदेश
  • चौमासा, वर्ष ४, अंक १२, फरवरी १९८७, आदिवासी लोक काला परिषद, भोपाल, मध्यप्रदेश

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.