बस्तर अंचल में रथयात्रा उत्सव का आरम्भ महाराजा पुरूषोत्तम देव की जगन्नाथपुरी यात्रा के पश्चात् हुआ। इस पर्व के नामकरण के बारे में मान्यता है कि ओड़िसा में सर्वप्रथम राजा इन्द्रद्युम्न ने रथयात्रा प्रारंभ की थी, उनकी पत्नी का नाम ‘गुण्डिचा’ था। ओड़िसा में गुण्डिचा कहा जाने वाला यह पर्व कालान्तर में बस्तर में ‘गोंचा’ कहलाया। लगभग 605 वर्ष पूर्व प्रारंभ की गई रथयात्रा की यह परंपरा आज भी निर्बाध रूप से इस अंचल में कायम है।
आदिवासी बहुल बस्तर अंचल के जगदलपुर नगर में मनाए जाने वाले रथयात्रा पर्व में, एक अलग ही परंपरा, एक विशेषता एवं छटा देखने को मिलती है। सामान्यतः विशालकाय रथों को परंपरागत तरीकों से फूलों तथा कपड़ों से सजाया जाता है और विग्रहों को आरूढ़ कर रथयात्रा मनायी जाती है।

कपड़े और फूलों से सुसज्जित रथ. Photo Credit: Anzaar Nabi
दूसरा मुख्य आकर्षण यह कि यहाँ जगन्नाथ का स्वागत ‘‘तुपकी’’ चलाकर (गार्ड ऑफ़ ऑनर) किया जाता है। यही नहीं, जगदलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर के छः खंडों में सात जोड़े विग्रह (जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रादेवी ) के अलावा एक मूर्ति केवल जगन्नाथ की सहित कुल 22 प्रतिमाओं का एक साथ एक ही मंदिर में स्थापित होना, पूजित होना भी महत्वपूर्ण है। 22 प्रतिमाओं की एक साथ रथयात्रा भी भारत के किसी भी क्षेत्र में नही होती, जैसा कि जगदलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर में होता है।

जगन्नाथ सहित २२ प्रतिमाएं. Photo Credit: Anzaar Nabi
पौराणिक मान्यता
यद्यपि स्थानीय आरण्यक ब्राह्मणों के द्वारा पुरी एवं बस्तर में आयोजित गुण्डिचा पर्व में एक रूपता लाने का प्रयास किया है परन्तु बस्तर का गोंचा पर्व जगन्नाथपुरी के गुण्डिचा पर्व से अनुप्रेरित होने के बावजूद यहां मनाए जाने वाले पर्व में, आशिंक रूप से भिन्नता अवश्य है। जगन्नाथपुरी की तरह ही यहां भी गोंचा पर्व, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से देव स्नान पूर्णिमा अर्थात चंदन यात्रा से प्रारंभ हो जाता है तथा शास्त्र सम्मत विधि विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। चंदन यात्रा के पश्चात् आषाढ़ कृष्ण पक्ष प्रथमा तिथि से जगन्नाथ 15 दिनों तक अस्वस्थ हो जाते हैं, इस विधान को ‘अनसर’ कहा जाता है। इन 15 दिनों में जगन्नाथ के दर्शन नही हो पाते। 15 दिनों के पश्चात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस में ‘नेत्रोत्सव’ मनाया जाता है। अस्वस्थता के बाद नेत्रोत्सव के दिन जगन्नाथ स्वस्थ होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते हैं।
आषाढ़ शुक्लपक्ष द्वितीया से जगन्नाथ की रथयात्रा प्रारंभ हो जाती है, जिसे यहां श्रीगोंचा कहा जाता है। जगन्नाथ के विग्रहों की पूजा-अर्चना कर, तीन रथों में सुसज्जित करके स्थानीय जगन्नाथ मंदिर से गोल बाजार की परिक्रमा करते हुए तीनों रथों को सीरासार लाया जाता है, जहां जगन्नाथ को 9 दिनों तक अस्थाई रूप से विराजित किया जाता है।

जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम अपने रथ में गोल बाजार की परिक्रमा करते हुए. Photo Credit: Anzaar Nabi
मान्यता के अनुसार जगन्नाथ जगत भ्रमण करते हुए अपने मौसी के यहां जनकपुरी पहुँचते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्धितीया से लेकर आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसमी तक प्रतिदिन सीरासार में जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा देवी के समक्ष श्रद्धालुओं के द्वारा भजन-कीर्तन, रामायण पाठ, सत्य नारायण की कथा, प्रसाद वितरण व अन्य सांस्कारिक कार्य अनवरत् चलता रहता है। अंचल के आरण्यक ब्राह्मणों के अलावा सभी धर्म संप्रदाय के लोग जगन्नाथ के दर्शन व पूजा-पाठ हेतु यहां पहुँचते हैं।
हेरा पंचमी
आषाढ़ शुक्ल पंचमी को ‘हेरा पंचमी’ उत्सव मनाया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु, लक्ष्मी को बिना बताए अपने भाई व बहन के साथ जगत भ्रमण के लिए निकल पड़ते हैं। लक्ष्मी चार दिनों तक विष्णु के न लौटने के कारण उन्हें ढूंढने निकलती हैं। ढूंढते-ढूंढते जनकपुरी में विष्णु को पाकर उनसे वाद-विवाद करती हैं।
इस विधान में आरण्यक ब्राह्मणों के द्वारा लक्ष्मी की डोली लेकर विष्णु को ढूंढने का उपक्रम करते हुए सीरासार पहुंचते हैं, सीरासार परिसर में स्थापित जगन्नाथ के विग्रहों के समक्ष डोली रखी जाती है तथा वाद-विवाद के रस्म को निभाने के लिए जगन्नाथ की ओर से उनका पुजारी एवं लक्ष्मी की ओर से आरण्यक ब्राह्मणों के द्वारा प्रतिनिधित्व करते हुए ‘लक्ष्मी नारायण संवाद’ को लयबद्ध गाकर व्यक्त किया जाता है। लक्ष्मी उक्त विवाद में यह जानना चाहती हैं कि उन्हें मंदिर में अकेले छोड़कर तीनों भाई-बहन क्यों भ्रमण कर रहे हैं और जगन्नाथ इस भ्रमण पर विस्तार से उन्हें समझाते हैं। समझाने के बावजूद नाराज लक्ष्मी वापस लौट जाती हैं और लौटते हुए गुस्से में उनके रथ को नुकसान पहुंचा जाती हैं। इस प्रसंग को सुनने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ से सीरासार भवन खचाखच भरा रहता है। रियासत काल में राजपरिवार से स्वंय राजा अपने सामंतों के साथ उपस्थित होते थे।
बाहुड़ा गोंचा
आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसमी को पुनः जगन्नाथ के विग्रहों को रथारूढ़ कर तीनों रथों को परिक्रमा करते हुए श्रीमंदिर अर्थात जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है, इसे बाहुड़ा गोंचा अथवा बाहड़ा गोंचा कहते हैं। श्री मंदिर पहुंचने के बाद ‘कपाट फेड़ा’ विधान पूर्ण किया जाता है। इस विधान में पंचमी को रूठी हुयी लक्ष्मी विष्णु को श्रीमंदिर में प्रवेश करने नही देती। श्रीमंदिर का दरवाजा बंद कर देती हैं। काफी मान मनौवल और भेंट देने के बाद लक्ष्मी दरवाजा खोलती हैं, इस विधान को ‘‘कपाट फेड़ा’’ कहा जाता है। बाहड़ा गोंचा के दूसरे दिन अर्थात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को विष्णु की देवशयनी के पश्चात् चार्तुमास तक देव विग्रहों को जागृत नही किया जाता। आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को देवशयनी के बाद हिन्दू रीति के अनुसार भगवान के शयनकक्ष में चले जाने के कारण कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक किसी भी प्रकार का शुभ कार्य नही किया जाता। कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को हरि उत्थान एकादशी मनायी जाती है इसी दिन भगवान जागृत अवस्था में भक्तों को दर्शन देते हैं।
तुपकी चलाने की परम्परा
बस्तर में बंदूक को ‘तुपक’ कहा जाता है। ‘तुपक’ शब्द से ही ‘तुपकी’ शब्द बना है। यहां रथयात्रा गोंचा पर्व के दौरान बच्चे, युवक-युवतियाँ, रंग-बिरंगी तुपकी लेकर अपने-अपने निशाने की फिराक में रथ के चारों ओर मंडराते रहते हैं। पूरे नगर में हजारों की संख्या में अंचल के आदिवासी तथा गैर आदिवासी, श्रद्धालु जुटते हैं, जिससे नगर में मेले सा माहौल बना रहता है। बस्तर का गोंचा पर्व किसी एक समुदाय का नही वरन् बस्तर में निवास कर रहे विभिन्न धर्म एवं जातियों के लोगों का पर्व है।

Photo Credit: Anzaar Nabi
जगदलपुर में ‘गोंचा पर्व’ में तुपकी चलाने की एक अलग ही परंपरा दृष्टिगोचर होती है, जो कि गोंचा का मुख्य आकर्षण है। तुपकी चलाने की परंपरा, बस्तर को छोड़कर पूरे भारत में अन्यत्र कहीं भी नही होती। दीवाली के पटाके की तरह तुपकी की गोलियों से सारा शहर गूँज उठता है। यह बंदूक रूपी तुपकी पोले बांस की नली से बनायी जाती है, जिसे ग्रामीण अंचल के आदिवासी तैयार करते हैं। इस तुपकी को तैयार करने के लिए, ग्रामीण गोंचा पर्व के पहले ही जुट जाते हैं तथा तरह-तरह की तुपकियों का निर्माण अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर करते हैं। इन तुपकियों में आधुनिकता भी समाहित होती है। ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्ची, छिंद के पत्ते, कागज, रंग-बिरंगी पन्नियों के साथ तुपकियों में लकड़ी का इस्तेमाल करते हुए उसे बंदूक का रूप देते हैं। आदिवासी अपने साथ लायी तुपकियों में से एक अपने लिए रखकर शेष शहरी लोगों को बेच देते हैं, इससे उन्हें कुछ आर्थिक लाभ भी हो जाता है। इस अवसर पर आदिवासी महिलाएं तुपकी के लिए पेंग के गुच्छे बेचती नजर आती हैं।
पेंग या पेंगु, एक जंगली लता का फल जो मटर के दाने के समान ठोस छर्रानुमा होता है, की गोलियां नली के पीछे से बांस की बनी छड़ से दबाई जाती है। तुपकी के गोली का रेंज 15 से 20 फीट तक होता है। इसकी भरपूर मार इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार सही निशाने पर लग जाए तो मीठा-मीठा दर्द का आनंद ही कुछ और होता है, करीब से खाई हुयी मार किसी भी व्यक्ति को तिलमिला देने को काफी होता है। एक मान्यता के अनुसार रियासत कालीन गोंचा पर्व में विग्रहों को सलामी देने की एक प्रथा थी जिसके स्थान पर बस्तर अंचल के ग्रामीणों ने इस तुपकी का अविष्कार कर उस प्रथा को आज भी कायम रखा है। बस्तरिया लोकमान्यता के अनुसार गोंचा स्थल में तुपकी की मार, शरीर पर अवश्य पड़नी चाहिए जिससे शारीरिक व्याधि स्वयमेव समाप्त हो जाय।

Photo Credit: Anzaar Nabi
औषधियों में पेंग का महत्व
तुपकी में प्रयुक्त किए जाने वाले गोली जिसे स्थानीय बोली में ‘पेंग’ अथवा ‘पेंगु’ कहा जाता है जो एक जंगली लता का फल है। इसका हिन्दी नाम ‘मालकांगिनी’ है जो आषाढ़ महीने में विभिन्न पेड़ों पर आश्रित बेलों पर फूलते-फलते हैं। गोंचा पर्व में इसके कच्चे और हरे फलों को तोड़कर तुपकी चलाने के उद्धेश्य से इसे बाजारों में, शहर की गलियों में ग्रामीणों के द्वारा तुपकी के साथ विक्रय किया जाता है तथा शेष दिनों में इसके पके हुए बीज को बाजारों में बेच दिया जाता है जिससे इसके बीज से तेल निकाला जाता है, जो शरीर के जोड़ों का दर्द, गठिया तथा वात रोगों के लिए अचूक दवा है। इसके तेल से शरीर की मालिश की जाती है।
गोंचा में तुपकी का निशाना बनती हैं, गांव से आयी हुई ग्रामीण युवतियां जों पेंग की मार से तिलमिला कर प्रतिक्रिया स्वरूप, तत्काल आक्रमणकारी की ओर झुंड के झुंड पेंग की मार की झड़ी लगा देती हैं, और मारखाने वाला व्यक्ति के भाग खड़े होने पर खिलखिला कर हंस पड़तीं हैं और दूसरा हमला करने के लिए पुनः अपनी तुपकी में पेंग भरकर तैयार हो जाती हैं.....अगले शिकार के लिए। कभी-कभी तुपकी चलाने वाले युवक-युवतियों के मध्य विवाद भी उठ खड़ा हो जाता है। युवतियाँ युवकों की तुपकियाँ छीनकर तोड़ देती हैं। ये सब कुछ एक छोटे रूप में पर्व की महत्ता को समझते हुए ऐसा करते हैं, कोई गंभीर विवाद नही होता हालाकिं पुलिस प्रशासन इस बीच गोंचा स्थल पर मौजूद होता है। पर्व की परंपरा और हंसी-ठिठोली के बीच सब कुछ नजर अंदाज कर दिया जाता है।
लोक परंपरा में ‘गजामूंग’
गोंचा पर्व के दौरान अंकुरित मूंग के दाने तथा कटहल के पके फल जगन्नाथ को अर्पित किए जाते हैं। गजामूंग अर्थात अंकुरित मूंग के साथ गुड़ मिश्रित प्रसाद काफी स्वादिस्ट व पौष्टिक होता है जो पाचन के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.