गोंचा और बस्तर की आदिवासी संस्कृति / The role of Adivasis in the festival of Goncha, Bastar

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Published on: 15 October 2019

रूद्र नारायण पाणिग्रही

सहायक पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी, जगदलपुर, छत्तीसगढ़ शासन
लेखक, रंगकर्मी एवं कवि।

गोंचा पर्व के दौरान अंकुरित मूंग के दाने तथा कटहल के पके फल जगन्नाथ को अर्पित किए जाते हैं। गजामूंग अर्थात अंकुरित मूंग के साथ गुड़ मिश्रित प्रसाद काफी स्वादिस्ट व पौष्टिक होता है जो पाचन के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। बस्तर के लोक परंपरा में अंकुरित मूंग के दाने का काफी महत्व है, जिसे ग्रामीण अंचल के ग्रामवासी गजामूंग को साक्षी मानकर मैत्री भाव का संकल्प लेते हैं। गोंचा पर्व में ग्रामीणों का किस तरह मैत्री संकल्प परवान चढ़ता है, यह बस्तर के गोंचा पर्व में परिलक्षित होता है। वर्तमान में भले ही मैत्री संकल्प की इस लोक परंपरा में कमी जरूर आई है, किन्तु ग्रामीण परिवेश के जनजीवन में मैत्री भाव सुरक्षित है।

Moong sprout for prasad

अंकुरित मूंग के दाने तथा कटहल के पके फल जगन्नाथ को अर्पित किए जाते हैं. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

बस्तर की लोक परंपरा के अलावा छत्तीसगढ़ में भी मैत्री भाव की परंपरा बहुतायत में पाया जाता है । मैत्री भाव शब्द, लोक परंपरा में प्रचलित दो मैत्री परिचायक संबोधन है। यह लोक परंपरा विशेष उत्सवों तथा अवसरों पर संपन्न होती है जैसे-तीर्थयात्रा के दौरान तथा तीर्थयात्रा से लौटने पर, जगार के अवसर पर, मंदिर में होने वाले वार्षिक आयोजनों में तथा किसी का निवास स्थान निश्चित किया जाता है जहां आमंत्रित व्यक्तियों के बीच संकल्पित मैत्री प्रतीक का आदान-प्रदान करते हुए मैत्री संबंध स्थापित किए जाते हैं। इसी तरह जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ के भोग प्रसाद जिसे ‘महाप्रसाद’ कहा जाता है, चावल के सूखे दानों को भी मैत्री संबंध स्थापित करने के लिए आदान-प्रदान करते हुए ‘महापरसाद’ संबोधन से उच्चारण किया जाता है। इसी तरह बस्तर में आयोजित होने वाले गोंचा पर्व में जगन्नथ भगवान को साक्षी मानकर ‘गजामूंग’ बदने का भी प्रचलन है। लोक जीवन में इस प्रकार के संबोधन की एक लंबी श्रृंखला बन जाती है और यही नही इस संबोधन का महत्व इतना प्रगाढ़ होता है कि ग्रामीण परिवेश के लोकगीतों में भी इसका चित्रण सुनने को मिलता है। यह परंपरा आरण्यक ब्राह्मण समाज के लागों में भी विद्यमान है।

 

लोक जीवन के इस परंपरा में गजामूंग, बालीफूल, भोजली, केवंरा, कनेर, तुलसी दल, गंगाजल, महापरसाद, मोंगरा, चंपा, गोंदा, दौनाफूल, जोगी लट, सातधार, मीत-मितान, सखी, जंवारा आदि संबोधन और उच्चारण की परंपपरा देखने सुनने को मिल जाता है। इन मैत्री संबंधों को स्थापित करने में लोक जीवन के परिवेश में उपलब्ध प्राकृतिक व भौतिक वस्तुओं का समावेश अधिक होता है, इन संबंधों में फूलों को अधिक तरजीह दी गयी है। कभी-कभी इस मैत्री संबंधों को स्थापित करने के लिए शुभ मुहुर्त की प्रतीक्षा भी की जाती है।

 

आदिवासी संस्कृति की झलक 

बस्तर में मनाये जाने वाले गोंचा पर्व का वास्तविक आनंद तो इस अंचल में बसने वाले गाँव के लोग लेते हैं। गोंचा भाटा (गोंचा स्थल) उनके परस्पर मिलने सौहार्द्र प्रकट करने या किसी नाजुक वादे को निभाने का केंद्र होता है। मीत बनाने का, गजामूंग, गंगाजल, महाप्रसाद, सखी बनाने आदि का भी केंद्र होता है, जिसे निभाने के लिए भी इन उत्सवों में लोग पहुँचते हैं। गोंचा पर्व बस्तर में आयोजित होने वाले किसी मेले से कम नहीं होता। दूरस्थ अंचलों में बसने वाले ग्रामीण वर्ष में एक बार आयोजित होने वाले इस उत्सव में अपने सगे संबंधियों से हाल-चाल, सुख-दुख जानने उत्सुक होते हैं। किसी की मृत्यु का समाचार सुनकर रोते हैं। शादी का समाचार सिर में हल्दी डालकर दिया जाता है। इस मेले में आये ग्रामीणों का उत्साह और उमंग शहरी कौतुहल का शिकार बनकर भी इस पर्व में जिस आनंद अनुभूति को प्राप्त करते हैं, वह केवल स्वाभाविक जीवन जीने वालों के ही नसीब में है। बस्तर के पर्व-समारोहों में आदिवासियों के संस्कृति की झलक देखने को मिलता है।

A woman selling tubki at the Goncha fair

गोंचा मेले में तुबकि बेचती एक महिला. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

ऐसे अवसरों के लिए साल भर मेहनत-मजदूरी करके कुछ रूपये इकठ्ठा किये जाते हैं ताकि मेले का आनंद लिया जा सके। गोंचा के अवसर पर ग्रामीण युवतियाँ अपने श्रंगार के प्रति भी सजग दिखाई देती हैं। सिर के बालों को पारंपरिक तरीकों से सजाती हैं, जिसे बाकटा खोसा, टेड़गा खोसा, ढालेया खोसा अथवा लदेया खोसा कहा जाता है। इसी तरह कांटा, किलिप, फूलों से अपने बालों को संवारती सजाती हैं। कानों में तड़की, करनफूल, नाक में फूली, गले में नाहनु, चापसरी, खिपरी माला, धान खेड़ माला, मूंगा माला, हाथों और बांह में खाड़ू, अंयठी, ककनी, बांहटा, पांव में पंयड़ी, ढलवें पैसे और चांदी की पट्टी तथा हाथ की अंगुलियों में मुंदी की शोभा देखते ही बनती है। उत्सवों में सामान्यतया रंग-बिरंगी साड़ियां पहनती हैं, किन्तु सौभाग्यशालिनी व सम्पन्न युवतियाँ बस्तर की सबसे बहुमूल्य साड़ी ठेकरा पाटा पहनती हैं, कंधों पर खूबसूरत तुवाल रखती हैं। ग्रामीण युवक भी युवतियों के होड़ में पीछे नही रहते। वे भी कानों में बालियाँ, गले में खिपरी मालाएं, कंठी मालाएं, हाथों में खाड़ू और अंगुलियों में विभिन्न तरह की मुंदियों के साथ कंधों पर तरह-तरह के तुवाल लटकाए रहते हैं।

 

गोंचा समाप्ति के तुरंत बाद ग्रामीण युवक-युवतियों का समूह बाजार में सिमटता चला जाता है, जहाँ अपने परिजनों के लिए कुछ न कुछ खाजा-चरबन लेना होता है। इस खरीददारी में लाई-चना, केला, फनस कोसा, गुड़िया खाजा, सरसतिया बोबो तथा सस्ती मिठाईयां प्रमुख होती हैं। युवक वर्ग अपने मित्रों के लिए तथा युवतियां अपनी सखियों के लिए कुछ न कुछ स्मृति स्वरूप खरीद लेती हैं। गोंचा की शाम अपने-अपने घर लौटते हुए युवक-युवतियों का समूह जब मारीरोसोना, लेजा, खेलगीत गाता हुआ गाँवों की ओर चल पड़ता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वातावरण संगीतमय हो उठा हो।

A man playing todi in the Goncha fair

गोंचा मेले में तोड़ी बजाता एक आदमी. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

A man playing mohri baja at the Goncha fair

गोंचा मेले में मोहरी बाजा बजाता एक आदमी. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.