गोंचा: जगन्नाथ के बस्तर आगमन का उत्सव / The cult of Jagannath in Bastar

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Published on: 15 October 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

बस्तर का गोंचा पर्व मूलतः ओडिशा के गुण्डिचा पर्व का ही स्थानिय रूप है। जिस प्रकार ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ की रथयात्रा आयोजित की जाती है, इस अवसर पर उसी के अनुकरण में बस्तर क्षेत्र के जगदलपुर में भी रथयात्रा का आयोजन बहुत धूमधाम से होता है। आदिवासी बहुल बस्तर में जगन्नाथ उपासना का अपना इतिहास है। बस्तर में मनाया जाने वाला दशहरा एवं गोंचा पर्व दौनों ही राजपरिवार के उत्सव हैं। क्योंकि इनमें राजा की सक्रीय भागीदारी रहती है इसलिए प्रजा भी इन उत्सवों को पूरे हर्षोउल्हास के साथ मनाती रही है। इन दौनों ही पर्वों पर रथयात्रा का आयोजन होता है तथा दौनों ही पर्व केवल एक दिन के नहीं बल्कि लम्बे कालखंड में मनाए जाते हैं। 

Jagannath, Balram and Subhadra

जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा. Photo Credit: Rohit Rajak

 

गोंचा पर्व प्रतिवर्ष जुलाई माह में मनाया जाता है तथा इसके समस्त छः महत्वपूर्ण अनुष्ठान ग्यारह दिन में संपन्न होते हैं। इसका आरम्भ नेत्रोत्सव के साथ होता है तदुपरांत अगले दिन श्री गोंचा रथयात्रा पूरी श्रद्धा के साथ निकाली जाती है। इसके चौथे दिन हेरा पंचमी का अनुष्ठान होता है। जिसके अगले दिन भोग अर्पण का अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है। भोग अर्पण के तीसरे दिन बाहुड़ा गोंचा मनाया जाता है। इस पर्व का समापन देवशयनी एकादशी के रूप में होता है। 

Jagdalpur Raj Mahal

जगदलपुर राज महल. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

Rath yatra

रथयात्रा जगदलपुर. Photo Credit: Rohit Rajak

 

बस्तर के सांस्कृतिक इतिहास में दो घटनाएं अत्यंत महात्वपूर्ण हुई हैं। पहली घटना सन १३२४ की है जब वारंगल (आंध्रप्रदेश) से आये राजा अन्नम देव द्वारा बस्तर क्षेत्र में अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी की प्रतिष्ठापना कराई गयी। दूसरी घटना सन १४०८ की ही जब राजा पुरुषोत्तम देव ने पुरी, ओडिशा से लाकर बस्तर में जगन्नाथ पंथ की आधारशिला रखी। इन दौनों ही घटनाओं ने बस्तर की संस्कृति पर गहरा और दूरगामी प्रभाव डाला।  

बस्तर की आदिवासी प्रजा ने दंतेश्वरी को राजा घर की देवी के रूप में सम्मान दिया। दंतेश्वरी को आदिवासी देवकुल में सर्वोपरि स्थान मिला वे सभी स्थानिय देवियों की सबसे बड़ी बहन के रूप में स्वीकृत हुईं। बत्तीस बहना देवियों में वे ज्येष्ठ हैं। बस्तर के राजपरिवार से लेकर सामान्य आदिवासी एवं गैर आदिवासी सभी की वे अधिष्ठात्री हैं। बस्तर के दशहरा पर्व पर आयोजित रथयात्रा में उनके प्रतिनिधित्व स्वरुप छत्र को आरूढ़ किया जाता है। बस्तर का दशहरा राम-रावण प्रकरण से सम्बद्ध नहीं है, वह तो दंतेश्वरी की रथ यात्रा है। 

यह एक विचित्र तथ्य है कि राजा अन्नम देव द्वारा प्रतिष्ठापित दंतेश्वरी को जो स्वीकार बस्तर के आदिवासियों में मिला वह राजा पुरुषोत्तम देव द्वारा ओडिशा से लाये गए जगन्नाथ को आदिवासी समाज में नहीं मिल सका। आरम्भ से वर्तमान तक जगन्नाथ, बस्तर राजपरिवार और यहां के गैर आदिवासियों के आराध्य है पर आदिवासी देवकुल में उनकी कोई जगह नहीं है।तुबकि

King of Bastar

बस्तर के राजा. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

The king inaugurates the rath yatra by brooming the street, making way for the rath

रथ के आगे झाड़ू लगाकर, रथयात्रा का उदघाटन करते बस्तर के राजा. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

Locals dancing before the rath

नाच गाने से रथ का स्वागत करते स्थानीय लोग. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

people pulling the rath

रथ यात्रा में रथ खींचते लोग. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

बस्तर की प्रसिद्द दशहरा रथयात्रा का आरम्भ जगन्नाथ पुरी से बस्तर नरेश को रथपति की उपाधि और रथयात्रा आयोजन की अनुमति मिलने के बाद ही हुआ। अर्थात बस्तर में रथयात्रा के आरम्भ मूल कारण गोंचा पर्व पर जगन्नाथ की रथयात्रा ही है।   

सन १४०८ में बस्तर के तत्कालीन राजा पुरुषोत्तम देव ने ओडिशा में पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर की यात्रा की। उनकी भक्तिभावना और मंदिर को चढ़ाये गए अमूल्य उपहारों से प्रसन्न होकर, राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि मिली। पुरी से  उन्हें जगन्नाथ रथयात्रा की अनुमति, १६ पहियों वाला रथ और साथ में ३६० आरण्यक ब्राह्मण परिवार भेंट प्रदान किये गए जो जगन्नाथ की सेवा हेतु निमित्त थे। राजा पुरुषोत्तम देव ने ओडिशा से साथ लाये इन आरण्यक ब्राह्मणों को बस्तर के विभिन्न गावों में बसाया, खेती हेतु जगह दी। वर्तमान में यह आरण्यक ब्राह्मण बस्तर के १०४ गांवों में रहते हैं एवं प्रतिवर्ष जगन्नाथ रथयात्रा के आयोजन की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। लगभग ६०० वर्ष पूर्व ओडिशा से बस्तर आये आरण्यक ब्राह्मण आज पूर्णतः स्थानिय हो चुके हैं। ओडिशा से उनके सम्बन्ध नगण्य हैं, ओडिशा के अन्य ब्राह्मणों से उनके रोटी-बेटी के सम्बन्ध नहीं होते। ओड़िया ब्राह्मण उन्हें अपने से भिन्न मानते हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस पृथकता में शिथिलता आई है और आरण्यक तथा अन्य ओड़िया ब्राह्मणों के मध्य विवाह सम्बन्ध होने लगे है।

स्थानिय मान्यता एवं इतिहास के अनुसार बस्तर में गोंचा रथयात्रा विगत ६१० वर्ष से सतत जारी है अर्थात इसका आरम्भ सन १४१० के आसपास हो चुका था। क्योंकि राजा पुरुषोत्तम देव को पुरी से सोलह पहिये वाला रथ मिला था अतः बस्तर  रियासत में सोलह पहिये वाले रथ से ही जगन्नाथ रथयात्रा आरम्भ हुई। तत्कालीन कारणों से बस्तर रियासत की राजधानी समय समय पर बदलती रही। फलस्वरूप रथयात्रा का  स्थल भी बदलता रहा। जगदलपुर से पहले यह मधोता और बस्तर गांव में आयोजित होती रही है। सन 1775 में जगदलपुर को राजधानी बनाया गया और तब से ही यहाँ रथयात्रा का आयोजन शुरू हुआ।

समय के साथ केवल रथयात्रा के स्थानों में ही परिवर्तन नहीं हुआ वरन रथ के पहियों की संख्या में भी बदलाव हुए। भरी भरकम 16 पहियों वाले रथ को चलाना एक कठिन और परेशानी भरा काम था। पहले चार पहिये पुनः जगन्नाथ को समर्पित कर दिये गए। सन 1810 में बस्तर दशहरा के 12 पहियों वाले रथ को आठ व चार पहियों का कर दिया गया था। तब से चार पहियों वाला रथ, फूलरथ और आठ पहियों वाला रथ, विजय रथ के रूप में संचालित किया जाता है।

स्थानिय आरण्यक ब्राह्मणों के अनुसार, रियासतकाल में गोंचा रथयात्रा के समय सात रथों का संचलन किया जाता था। छह रथों पर जगन्नाथ मंदिर में स्थित छह मंदिरों में विराजमान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रहों को आसीन किया जाता था। सातवें रथ में राम, सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाएं रखी जाती थीं। जगदलपुर में जगन्नाथ के छः मंदिर हैं जो क्रमशः बड़ेगुढ़ी, मरेठिया, मलकानाथ, कालियानाथ, अमात्य, भरतदेव गुढ़ी कहलाते  हैं। इनमें स्थापित 22 विग्रह ही छह रथों में आसीन किए जाते थे। बाद में सात के स्थान पर तीन रथ निकाले जाने लगे।  

वर्तमान में, पुरी में, रथयात्रा के अवसर पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभ्रदा के लिए तीन अलग-अलग रथों का संचलन होता है। छत्तीसगढ़ के  बस्तर में भी उसी प्रकार रथयात्रा के अवसर पर तीन रथों का संचलन होता है। प्रतिवर्ष एक नए रथ का निर्माण मंदिर समिति द्वारा कराया जाता है। पुराने रथों को रखने के लिए भी विशेष व्यवस्था की जाती है।

कहते हैं जब बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव एक वर्ष बाद जगन्नाथ पुरी, ओडिशा से दल-बल सहित जगन्नाथ प्रतिमाओं को लेकर वापस आये तब आदिवासी प्रजा ने उनका स्वागत सम्मान तुपकियां चलाकर किया था। स्थानिय बोली में तुपक का अर्थ बन्दूक अथवा तोप से लिया जाता है। जिस प्रकार विशिष्ट व्यक्ति का सम्मान बन्दूक अथवा तोप चलाकर या सलामी देकर किया जाता है, यह उसी का प्रतिरूप था। उसी समय से यह प्रथा प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली गोंचा रथयात्रा के साथ जुड़ गई और वर्तमान में भी जारी है।

A vendor selling tubki

तुपकी  बेचता हुआ विक्रेता. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

Man shooting a tubki

तुपकी चलता हुआ व्यक्ति. Photo Credit: Anzaar Nabi

 

बड़ी संख्या में आदिवासी युवक-युवतियां गोंचा पर्व मानाने जगदलपुर आते हैं एवं तुपकियाँ चलाकर राजा और जगन्नाथ के प्रति श्रद्धा तथा एकजुटता प्रदर्शित करते हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.