A Conversation with Nacha artist Ramadhar Sahu on Lorik Chanda in Chhattisgarh
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A Conversation with Nacha artist Ramadhar Sahu on Lorik Chanda in Chhattisgarh

in Interview
Published on: 17 August 2018

Mushtak Khan

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

Purkhauti Muktangan, Raipur, March 2018

चंदैनी का सारांश एवं चंदैनी गायक/कलाकार – रामाधार साहू का साक्षात्कार

चंदैनी का सारांश :-

 

रामाधार साहू (रा.सा.): लोरिक एक गाय चराने वाला ग्वाला है। वह बहुत ही सुंदर और बलवान, राउत समाज का गौरव है। राजकुमारी चंदा जो बहुत ही सुंदर है, वह लोरिक के बांसुरी वादन से मोहित होकर उससे मन ही मन प्रेम करने लगती है। एक दिन लोरिक सामान लेने शहर के बाज़ार गया हुआ था, राजकुमारी चंदा मन मे सोचती है कि उसे किस प्रकार अपने पास बलाऊँ? और इधर बाज़ार की सारी लड़कियाँ लोरिक पर मोहित होकर उसे घेरे हुए खड़ी थी। इधर चंदा ने मालिन बुढ़िया का सहारा लेकर उसे पैसे का लालच देकर लोरिक को बुलाने शहर के बाज़ार भेज दिया, बुढ़िया लोरिक को बुलाने बाज़ार जाती है और गाय बछड़े के बारे में कहती है कि तुम्हारे दादा जी दूसरी गाय और दूसरा बछड़ा ले आए हैं तो मैं इससे बहुत परेशान हूँ तो तुम चल कर देख लोगे तो बड़ा अच्छा होगा ऐसा झूठ कह कर वह लोरिक को बुला लेती है। लोरिक और चंदा मिलते हैं और दोनो पासे का खेल खेलते हैं। लोरिक कहता है कि मुझे पासे का खेल नहीं आता फिर चंदा उसको समझाती है कि जैसे कौरवों और पांडवों ने पासा खेला था यह वही पासा है, इसमें बहुत ही मज़ा आता है और चंदा एक दांव लगाती है कि जीतने वाला हारने वाले को भगाकर ले जाएगा। लोरिक उसकी बातों में आ जाता है। अपने छत्तीसगढ़ अंचल मे झांपी का चलन है घर में जैसे शादी होती है तो लड़की का जोड़ा रखने के लिए एक बैग नुमा पेटी जो बांस से बनती है जिसमें लड़की के गौने (विदाई) के समय कपड़े-लत्ते, गहने-जेवर और ज़रूरत के सामान रखते हैं। राजकुमारी चंदा ने भी ऐसी हे झांपी बनवाई थी, एक बार दौनामांझर से हाथापाई होने के बाद चंदा ने कसम खाई थी कि लोरिक को बारह साल के लिए अपने साथ ले जायेगी और उसे ले भी जाते है। यही है लोरिक-चन्दा की अमर प्रेम कहानी जो छत्तीसगढ़ अंचल में बहुत प्रचलित है।

 

साक्षात्कारकर्ता- मुश्ताक़ ख़ान (मु. ख़ा.): तो आपका भी कोई रोल मॉडल होगा जिससे आपने प्रेरणा ली है, फिर सिनेमा भी बहुत पॉपुलर हो गया तो सिनेमा का भी क्या कुछ असर दिखता है? यह सब चीजें देखे दिमाग में काम करती हैं हर एक आदमी यह सब चीजे नहीं बता सकता। आपका लेवल उन लोगों से बहुत ऊपर है तो आप इन सब चीजों के बारे मे सोचते होंगे तो बोल सकते हैं, आपकी जो बोलने की क्षमता आपको खुदा ने दी है तो यह सारी चीजें बताएँ ताकि इसके इतिहास का पता लग सके? तो रामाधार जी आप बताएँ थोड़ा अपनी कला के बारे में।

 

रा.सा.: मेरा नाम रामाधार साहू है। मैं ग्राम कचांदुर, गुंडरदेही, जिला बालोद का रहने वाला हूँ। वैसे मेरा बचपन तो बहुत ही गरीबी से गुजरा है, बहुत गरीबी से आगे बढ़े हैं। मेरे माँ-बाप मुझे उतना पढ़ा नहीं पाए जितना मैं पढ़ने का इच्छुक था, मात्र आठवीं पास हूँ। बचपन से संगीत में मेरा रुझान था। गाँव में कहीं भी रामायण होता था तो तबला ढोलक वगैरा लेकर सब बैठते थे मैं भी वहां बैठता था। कभी-कभी कोई कहता था कि साहू जी आप गाएंगे क्या? इसके बाद अभी मेरी जो बीवी मालिन का रोल करती है वह पहले पंडवानी प्रसंग गाती थी तो मैं रागी हुआ करता था। हम लोग गांव में कुछ टूटी-फूटी भाषा में गाते थे उस दौरान मेरे गांव में बाहर से, धमतरी क्षेत्र के अमरदी गांव के बिशाल दास पटेल पार्टी लेकर आए थे। उस समय पैसे वाली काई बात नहीं थी, नारियल दे दिए भेंट कर दिए तो काम चल जाता था फिर हम लोग एक-दो घंटे बैठे उनके साथ उस समय हमको मालूम ही नहीं था कि क्या चंदैनी और क्या कथा होती है उसके बारे में। चंदैनी को पहली बार देखा उसके शब्द ही ऊटपटांग लगते थे। छत्तीसगढ़ी की पंडवानी को जानते हैं सब जानते हैं पर चंदैनी में वह जो है डूमर के दीदी परेतिन ओ, बोईर के बहिनी चुरैलिन ओ, यह सब कुछ हमको अटपटा लगा, क्या है यह सब, उसके बाद अपने यहां उनका तीन दिन का कार्यक्रम हुआ। गांव में कोई बुला लेता कि जी आपका पंडवानी है क्या फिर हम लोग बहुत खुशी से जाते थे। पंडवानी के बीच इंटर होता था इस बीच जब मैं स्टेज में एंट्री लेता था लुंगी से साड़ी पहनकर टूटी-फूटी चंदैनी किया करता था। कभी मालिन बनकर, कभी लोरिक, बनकर कभी चंदा बनकर पात्र किया करता था तो लोगों की बहुत प्रशंसा मिली और तालियों की गूंज के साथ-साथ उस समय चवन्नी-अठन्नी चलती थी और पांच पैसे का चलन था वह भी खूब कमाए। जब हमारे भजन गाने वाले महोदय चाय पीकर आते थे जिसे गांव में गांव वाले भजनहा कहते थे तब गांव वाले कहते थे नहीं भजन नहीं चाहिए आप का लोरिक चंदा चाहिए। एक बार दूसरे गांव में गए जो राजनाद गांव के पास बोहड़ है वहां गए मुझे तीन दिन की कहानी मालूम थी फिर उसमें इधर-उधर तोड़-मरोड़ कर कुछ गीत डालकर मैंने उसकी प्रस्तुति दी।आखिरी दिन चढ़ौती यानि दक्षिणा देना था तो सब गांव वाले सब मिलकर वहां के दाऊ और सरपंच लीडर जो थे वह रोक दिए, बोले आप जब तक चार रोज का कार्यक्रम नहीं देंगे आपको कोई दक्षिणा नहीं देगा मैं तो सोच में पड़ गया में क्या करूँ मेरे पास तो कुछ है ही नहीं जो था उसको तो परोस दिया हूँ आप लोगों को, तो उसी गांव में एक निषाद नाम का कोई आदमी था बोले बेटा चिंता मत करो ये सन बियासी तिरासी की बात है तो कैसे करें भाई इसके आगे तो मुझे आता नहीं तीन दिन का कार्यक्रम तो दे चुका हूं आप लोग दक्षिणा वगैरह कुछ दे नहीं रहे हैं मैं भी बोल दिए हैं चलो घोषणा कर दो मंच पर कल और होगा कार्यक्रम। भाई कल और होगा कार्यक्रम घोषणा कर दी, निषाद जी अपने साथ ही नदी किनारे ले जाते थे फिर आगे की कथा बताते थे कि राजा का ये हुआ फिर वो हुआ वह थोड़ा बताते थे मैं उसे लंबा कर देता था फिर तीसरे दिन बताया चौथे दिन बताया पांचवे दिन बताया ऐसा कर करके कार्यक्रम दिया। गांव वालों को मनोरंजन चाहिए तो उस समय जब हम कार्यक्रम देते थे तब लोग चार कोस, तीस किलोमीटर पच्चीस, किलोमीटर से बैलगाड़ी, साइकिल से आते थे, पूरा मेला लग जाता था कार्यक्रम देखने के लिए। उस समय छत्तीसगढ़ के हीरो-हीरोइन थे हमारे लोरिक चंदा के कलाकार। धीरे-धीरे दिन निकलता गया और कार्यक्रम की मांग बढती गई और हम लोगों का बिजनेस बन गया। कार्यक्रम देने दूरदराज भी जाते हैं, यह अपने सर जी मिल गए इनके विभाग की तरफ से इनके साथ बहुत से कार्यक्रम दिए हैं दिल्ली, कोलकाता, मुंबई में भी कार्यक्रम दिया। फिर अपने विमल कुमार पाठक जी मिले उन के माध्यम से भी कार्यक्रम मिला। ममता दीदी के माध्यम से आकाशवाणी में भी कई कार्यक्रम दिए। इसक तरह मेरा रुझान कला के प्रति संगीत के प्रति बहुत है, तो शुरुआती दौर में के पार्टी में संगीत का उतना महत्व नहीं था बेचारा एक ढोलक, हारमोनियम और एक मंजीरा था। हमारे पास ज्यादा सदस्य भी नहीं थे कुल मिलाकर पांच लोग थे, हम एक हारमोनियम वाला, तबला वाला, घुंघरू वाला और दो हम लोग एक एक रागी और एक गायक। उस समय को जब याद करते हैं और अब देखते हैं बहुत ही कष्टदायक था किसी गांव में जाओ तो कोई खाने को देता था कोई नहीं देता था लोग कहते थे कि हमने गणेश बैठाया है ऐसे ही फ्री में कार्यक्रम कर दोगे क्या? तो हम सोचते थे चलो यह भी बहुत बड़ी बात है शहर में आए हैं तो कार्यक्रम कर देते हैं, शाम भी हो गई है और हमें रुकने की जगह भी मिल जाएगी, कार्यक्रम का कार्यक्रम हो जाएगा वही बहुत बड़ी बात है, ऐसे भी कार्यक्रम दिया है। उसके बाद वह वीडियो और फिल्मी गीतों का जमाना आया। जब लोरिक चंदा नाम छोटा लगता था तो इसको मैंने सोनसागर चंदैनी कर दिया सोनसागर नाम इसलिए पड़ा कि शुरुआती दौर में राजा महर का सोनसागर नाम का भैंस रहता है सोनसागर नाम इसलिए राजा का एक शर्त रहता है कि कोई भी राउत इस भैंस का बच्चा दिखाते जिसका रंग सोने जैसा था हमारे छत्तीसगढ़ में गाय, भैंस का जो पहला दूध होता है जिसे पेउंस कहते हैं उसे साहड़ा देव (गांव का सहारा करने वाला देव) को चढ़ाते हैं फिर उसका सेवन करते हैं। हमारे देहात में ऐसा प्रचलन है उसी दूध को बांटने के बाद लोरिक और चंदा की कथा प्रारंभ हुई। लोग तीन-चार दिन के लिए कार्यक्रम मांग रहे हैं अब क्या करें? कार्यक्रम का स्तर बढ़ता जा रहा था फिर मैंने सोचा कि इसे ड्रामा के रूप में तैयार किया जाए आर्टिस्ट और बढ़ाने चाहिए संगीत को बढ़ाना जरूरी है। मैंने सोचा तबला और ढोलक ही मजा नहीं आएगा हारमोनियम में भी मजा नहीं आएगा तो बेंजो बुलाया जाए फिर बेंजो वाले को बोला चलो कुछ रियाज़ वगैरह करते हैं मैं अकेले तीन-चार घंटे कार्यक्रम करता हूँ तो हम चार पांच लोग मिलकर पांच घंटे तक कार्यक्रम देंगे अब तो भजन गाता था उससे कहा कि तेरा भजन-वजन बंद कर और चल मालिन बुढ़िया बन जा उसने कहा जी ठीक है गांव-गांव में गायक कलाकार भी बहुत थे गली-गली में पंडवानी गाने वाली में सभी लड़कियां थीं और पंडवानी गाने वाले पुरुषों को कोई बुलाता भी नहीं था। मैंने अपनी पार्टी तैयार की और लोरिक चंदा के लिए पात्रों को चुना डांस करने वाली जो झमाझम दिखे जैसी लड़की, ऐसे किसी मूँछ वाले को लड़की बना दे तो वह अच्छा नहीं दिखेगा उसका चाल-चलन सब लड़कियों की तरह होना चाहिए। लड़कियां लेने से सर पार्टी नहीं चल पाती। कितने साल से मैं कार्यक्रम देता आ रहा हूँ क्योंकि लड़कियां पराया धन होती है शादी हो कर के चली जाती हैं फिर किसी नई लड़की को तैयार करना, समय भी ज्यादा लगता है और ज्यादा सीखा भी नहीं पाऊंगा। दूसरी बात लड़कियों के रहने से संचालक की बहुत सारी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं उनको हर समय देखना पड़ता है कहीं कोई ऊंच-नीच वाली बात ना हो जाए बाहर जाओ तो तरह-तरह के लोग होते हैं तरह-तरह की बातें करते हैं कुछ हो गया तो सर-कलम हो जाएगा, तो मैंने सोचा कि लड़की नहीं रखूंगा किसी लड़के को ही लड़की का किरदार करने को कहूंगा उसके लिए एक लड़के का चयन किया मैंने अभी जो लड़का चंदा का किरदार कर रहा है मैं विमल कुमार पाठक जी के कार्यक्रम में गया था यहां के लखपति केडिया की लड़की की सगाई में गया था वहां यह लड़का राउत नाचा में आया था मैंने भी इसे देखा तो सोच में पड़ गया कि यह लड़की है या लड़का मैंने बगल वाले से पूछा कि भैया यह लड़की है या लड़का तो उसने कहा कि यह तो लड़का है फिर मैंने सोचा मुझे तो जरूरत है एक ऐसे ही बंदे की तो मैंने उससे पूछा क्या तुम चंदा का किरदार निभाओगे उसने कहा हां। एक ही बार में यह तैयार हो गया फिर इसको सेट किया फिर सोचा दोनामांझर के लिए किसे सेट करूं? तो मेरे गांव में ही घर के पास का ही एक लड़का है क्योंकि इसका भी चाल-चलन ऐसे ही लड़कियों जैसा पैर में महावर लगाना हाथों में नेल पॉलिश लगाना तो ऐसे ही सब के साथ चलाते-चलाते पार्टी चला रहा हूँ।

 

मु.खा.: तो जो कहानी है आपकी तो एकदम ठीक है, लेकिन जो इसका वास्तविक संवाद करते हैं वह किसने तैयार किया है, आप ही लेाग तैयार करते हैं?

 

रा.सा.: संवाद तो मुझे ही तैयार करना पड़ता है, मुझे ही बताना पड़ता है। कभी-कभी जो बोलते हैं फिर कभी-कभी अपने मन से भी यह सब बोलते हैं सबको मालूम है आर्टिस्ट है जैसे बच्चे अपने पिताजी से कहते हैं खाना, खाना है खाओ बेटा आदत पड़ी हुई है, बच्चे कहेंगे मछली खाना है तो पिताजी कॉमेडी के लिए कहेंगे बेटा मछली खाने से कांटा गड़ (चुभ) जाएगा फिर बच्चे कहेंगे पिताजी चप्पल पहन के खाएगें संवाद में चप्पल पहन के खाने से कांटा नहीं गड़ेगा यह कहना कॉमेडी बन जाता है ऐसे ही टॉपिक पर आप पब्लिक को पूरी रात जगाना है उनको बिठाकर रखना है तो मात्र चार-पांच कलाकार हैं। यह सारे लोग बीच-बीच में कॉमेडी और बीच-बीच में होने वाले संगीत के माध्यम से और ड्रामा के माध्यम से लोगों को रात ग्यारह बजे से लेकर सुबह छह बजे तक जोड़ कर रखते हैं बिठा कर रखते हैं।

 

मु.खा.: अच्छा पंडवानी शैली और चंदैनी की जो गायन शैली है वह एक ही है?

 

रा.सा.: अलग-अलग है सर।

 

मु.खा.: इनके बारे में थोड़ा बताइए?

 

रा.सा.: पंडवानी में तो क्या है वंदना के समय पर-

मोर सना न न न न...मोहन...मोर सना न न न न न न न जी मोर भाई ...

फिर रागी कहते है दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो...

भैया दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो... दउड़ो...भैया जी

बोलो बिन्दावन बिहारी लाल की, जय!

इसमें भगवान का नाम लेते हैं और एक अपना वंदना है-

मोर डूमर के दीदी परेति तोर...

बोईर के बहिनी चूरैलिन तोर...

मोर संबल पुर समलाई तोर...

अउ जा दिन दिन बोले मोर चंदैनी मोर वरिनय ओ...

होली के जाद, पुनी के चंदा, दगर गदर चोला बरत हवय

का संसो म डारय सोनार... चंदा के रूपय हावय...

ये चंदैनी है!

 

मु.खा.: इसका दोनों का राग अलग-अलग होता है?

 

रा.सा.: अलग-अलग है।

 

मु.खा.: जो पात्र आपने चुना है तो पहले तो यह सब नहीं गाते होंगे?

 

रा.सा.: हां पहले के लोग तंबूरा लेकर गाते थे, जैसे पंडवानी के लोग गाते हैं। हम लोग तो देखें नहीं है लोगों ने एैसा ही बताया है। मेरे गुरुदेव ने भी कहा हम अपने जमाने में तंबूरा लेके इसी तरह अकेले ही गाया है जैसे-

गावत हे चंदा... चंदा रे तोर

मोर काहत है लोरिक... लोरिक ए तोर...

तंबूरा लेकर वे गाते थे और लोग खूब सुनते थे।

दूसरे साक्षात्कारकर्ता- राकेश तिवारी (रा.ति.): लोरिक चंदा की जो स्टोरी है वह कहां की है, रीवा, आरंग, छत्तीसगढ़ के पास की है, कुछ लोग बोलते हैं कि बारह की है आप क्या मानते हो, यह कहां की कहानी है?

 

रा.सा.: यहीं की है, आरंग रीवा खौली के पास ही कुछ वहां प्रमाण भी है जहां पर लोरिक बैठकर बांसुरी बजाया करता था वह टीला आज भी है मेरे ख्याल से कुछ मीडिया के लोग आए थे उस टीले में रेलवे वाले खुदाई कर रहे थे। रीवा यहीं पर है और गौरा शहर दोनों को ही वैसे ही बोलते हैं जो अभी है आरंग है उसका नाम पहले गौरा था आरंग का नाम राजा ने अपने बेटे की बलि दी थी इसलिए उसका नाम आरंग पड़ा, उसके पहले उसका नाम था गौरा था। हां इसको भोजपुरी में भी गाते हैं लेकिन वहां पर इसको लोरकायन या लोरकी नाम से जानते हैं। चंदैनी गाथा को वे लोग विरह गीत के रूप में गाते हैं चार-पांच लोग मिलके बिना मेकअप और डांस खाली ढोलक में वीर रस जैसे आल्हा-उदल की तरह- ए मेरे लोरिक भैया रे... इस तरह गाते हैं। राउत जाति के लोग साढ़े बारह जाति बालेते हैं, अहीर, ब्रजवासी, परगाही, परगाह, राउत, ठेठवार, यादव, जाधव, गोप, ग्वाला, महाकुल, और दिगायन तो यहां पर दो ही जाति झेरिया और कोसरिया से। राउत लोग अपने इष्ट कृष्ण भगवान को मानते हैं तो पहले के लोग बोलते थे यह जो चंदैनी गाथा है इसको हरिजन समाज के लोग ही गाते थे। हरिजन यानि सतनामी समाज जो बाबा घासीदास को मानते हैं उसके बताए मार्ग पर चलते हैं।

 

रा.ति.: चंदैनी के कुछ गायक अभी हैं क्या हरजिन समाज में?

 

रा.सा.: नहीं, अब खत्म हो गए बहुत लोग थे। मेरे गांव के कुछ वादक थे, मचान्दरे कान्दुल के जो बताए थे कि तुम चंदैनी मत गाओ उनका समाज दण्ड ले लेगा। तो मैंने कहा गाने में क्या है दंड लगेगा ये तो अपना-अपना शौक है, कदम बढ़ाते रहा, बढ़ाते रहा मेरे बड़े भाई है वो बोलते थे पैसा-वैसा देते नहीं हो कहां से देंगे। तीन दिन में दो रूपए मिलता था नाच के आए तो।

 

रा.ति.: कौन से सन् में शुरू किया आपने?

 

रा.सा.: 1982 में।

 

मु.खा.: बयासी में शादी हो गई थी आपकी? कितने साल हुए?

 

रा.सा.: नहीं हुई थी उस समय।

 

मु.खा.: गाते-गाते शादी कैसे हुई? पसंद हो गया था क्या?

 

रा.सा.: नहीं-नहीं पसंद वाला नहीं है।

 

मु.खा.: फिर कैसे मिल गई? लड़की मिल गई?

 

रा.सा.: हां, घर के बुजुर्ग लोग अपनी पसंद से देखकर कर दिए।

 

मु.खा.:  किसी ने कहा कहीं नाचने-गाने वाला लड़का है?

 

रा.सा.: पहली पत्नी की मृत्यु होने के बाद जो लाया हूं वह नाचने-गाने वाली लाया हूं। पहले बुजुर्ग लोग अपने मन से देखकर कर दिया करते थे कि बेटा शादी करना है, तेरे लिए देख लिया हूं।

 

मु.खा.: कितने बच्चे हैं आपके?

 

रा.सा.: मेरे चार बच्चे हैं।

 

मु.खा.: क्या-क्या करते हैं बच्चे?

 

रा.सा.: तीनों बेटियों की शादी भी हो गई, एक तो एम.एस.सी. की है और लड़का मेकेनिकल इंजीनियर होकर निकला है और उसकी पोस्टिंग हो चुकी है। उसने कहा प्राइवेट जॉब नहीं करूंगा घर पर कंप्यूटर रखें है और बच्चों को प्रशिक्षण देते हैं और वह सरकारी नौकरी की तैयारी में है।

 

मु.खा.: आप अपने बच्चों को, अपने परिवार के लोगों को यह सब कुछ सिखा रहे हैं या नहीं?

 

रा.सा.: नहीं-नहीं, घर के लोग इससे दूर हैं। मेरे घर में संगीत बजता भी नहीं है। अभी तक मेरे घर में एक बांसुरी भी नहीं बजी पैंतीस साल से, सब लोग दूर हैं इससे।

 

मु.खा.: अच्छा तो परिवार की बात छोड़ो है, गांव का कोई बच्चा आता है आपके पास जब आप रिहर्सल करते हैं कोई उत्सुक होकर लोग बैठते हैं क्या?

 

रा.सा.: नहीं रिहर्सल वगैरह तो कभी करते नहीं।

 

मु.खा.: किसी ने कहा है क्या आप से सीखने के लिए कि चंदैनी सिखाओ करके?

 

रा.सा.: मुझे नागपुर जोन से पत्र आया था तो मैं किस को बुलाऊं सिखाने के लिए? यहां तो ले-देके मां-बाप बच्चों को पढ़ाई के लिए बड़ी मुश्किल से बोल पाते हैं, देहात में बहुत मुश्किल है।

 

मु.खा.: नहीं तो आप क्या सोचते हो? आपके जाने के बाद कौन रह जाएगा चंदैनी गाने वाला? रामाधार साहू का बीड़ा कौन उठाएगा यह कभी सोचा है आपने?

 

रा.सा.: जैसे अगर कोई आए मेरे सामने मैं तो सिखाने को तैयार हूं, मगर कोई तो आए।

 

मु.खा.: यह जो अभी आपने बताया कि जो भोजपुरी में भी लोरिक को गाते हैं, उसके बारे में बताएं कि भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी लोरिक में क्या फ़र्क है?

 

रा.सा.: नाम तो चेंज नहीं है सर, सारे पात्रों के नाम लोरिक चंदा और महाराजा के नाम सारे वैसे ही हैं फर्क इतना ही है कि हम इसे ड्रामा करके पेश करते हैं और वे लोग इसे वीर रस में खाली गाकर बोलते हैं।

 

मु.खा.: तो वहां पर अन्य जाति के लोग भी करते हैं या सिर्फ अहीर लोग ही कर रहे हैं?

 

रा.सा.: अब उसके बारे में मुझे इतना तो मालूम नहीं है सर एक बार बनारस के सेमिनार में डॉक्टर मन्नू लाल यदु जी वहां हम लोगों को लेकर गए थे वहां पूछा गया था कि छत्तीसगढ़ में चंदैनी कैसा होता है इधर तो भैया भोजपुरी में ऐसे गाते हैं। तो हमने कहा चंदैनी को हम लोग ड्रामा के रूप में पेश करते हैं और हमारी यही क्षमता है कि यदि एक कलाकार ना आए तो हमारा ड्रामा रुकता नहीं कार्यक्रम रुकता नहीं उस कलाकार का भी हम रोल कर लेते हैं। यदि कोई बजाने वाला जैसे हारमोनियम वादक भी नहीं आए तो कार्यक्रम कैंसिल नहीं होता हम लोग कार्यक्रम कर लेते हैं। कार्यक्रम रुकना नहीं चाहिए एक पात्र के ना आने से भी कार्यक्रम में कोई फर्क नहीं पड़ता।

 

मु.खा.: तो शुरू में सारे पात्रों का रोल आप ही करते थे?

 

रा.सा.: जी, सारे पात्रों का अभिनय मैं ही करता था। फिर बाद में जब इसे ड्रामा के रूप में पेश किया तो अब चार-पांच लोगों की एक बढ़िया टीम बन गई है।

 

मु.खा.: चलिए, बहुत ही खूबसूरती से आपने इसको निभाया है इसके लिए आपकी जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है!

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.