प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन

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Published on: 15 October 2018

Dr Rekha Avasthi

Dr Rekha Avasthi is Associate Professor in Dayal Singh College, University of Delhi. She is also the national secretary of Janvadi Lekhak Sangh and one of the editors of 'Naya Path'.

 

प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन का इतिहास प्रगतिशील लेखक संघ के संगठन संबंधी पहलुओं की उपेक्षा करके नहीं लिखा जा सकता| प्रगतिशील आंदोलन पर प्रकाशित चाहे स्वतंत्र समीक्षा कृतियाँ हों अथवा अनुसंधानपरक ग्रंथ हों, सभी इस दुर्बलता के कारण वैज्ञानिक विवेचन की वस्तुगत दृष्टि से रहित हैं| पहली बार यह प्रयत्न किया जा रहा है कि प्रगतिशील आंदोलन को सही एतिहासिक सन्दर्भ में और प्रगतिशील लेखक संघ के संगठन की संचालक भूमिका के सुसंबद्ध पार्श्वपट में रखकर देखा जाए|

 

विदेशी दासता और सामंती जूए के नीच छटपटाती भारत की उत्पीड़ित जनता सन 1930 के बाद संघर्ष के जिस दौर से गुज़र रही थी, उसमे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का संगठित होना स्वाभाविक था | लेखकों को संगठित करने का प्रयास हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से भी हो रहा था | प्रगतिशील लेखक संघ और हिंदी साहित्य सम्मेलन के अतिरिक्त आगे चलकर ‘परिमल’ नामक एक साहित्यिक संगोष्ठी के मंच पर भी लेखकों को संगठित किया गया | छायावादोत्तर युग में इन तीनों लेखकीय संगठनों के परस्पर संघर्ष की पृष्ठभूमि में तत्कालीन सृजन्तात्मक साहित्य के भीतर मौजूद प्रगतिशील और प्रतिगामी विचारधारात्मक रुझानो में मदद मिलती है |

 

स्वाधीनता और सामाजिक क्रांति की जिन मांगो के दबाव में सन 1936 से पहले ही अनेक प्रकार के संगठनों की स्थापना का सिलसिला चल रहा था | सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर पर लगभग उन्हीं मांगों के ऐतिहासिक कार्यभार की पूर्ति के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गयी थी | प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले के सृजनात्मक साहित्य को यदि ध्यान से देखें तो पता चलता है कि सन 1930 के आसपास किसान समस्या, सामाजिक उत्पीड़न, स्त्री पराधीनता की समस्या और स्वाधीनता का प्रश्न रचनाशीलता के केंद्र में उपस्थित हो गया था जिसे उस दौर के सभी महत्वपूर्ण सृजनकर्मी यथार्थ के सम्पूर्ण द्वंद्व के संदर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे थे | हिंदी के मध्यवर्गीय सहसा किसानों के प्रति इतना गहरा लगाव क्यों अनुभव करने लगे? किसानो के प्रति ‘बौद्धिक सहानुभूति’ अथवा ‘क्रांतिकारी एकात्मता’ का यह भाव अचानक सुसंगत रूप में क्यों व्यक्त होने लगा? जिस तरह इन प्रवृतियों के मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियों में निहत हैं, उसी तरह प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की भावना भी उन्हीं परिस्तिथियों से पैदा हुई थी |

 

कुछ लोग यह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ और प्रगतिवाद का आंदोलन – यह सब विदेश से उधार लिया गया साहित्यिक फसाद था; रूस की प्रेरणा से गठित कम्युनिस्ट पार्टी से संचालित था और तत्कालीन भारत के यथार्थ के द्वंद्वों, राष्ट्रीय जीवन की अनिवार्यताओं तथा हिंदी-उर्दू की जातीय आवश्यकताओं की तार्किक परिणिति न था | इस तरह के आक्षेप करने वाले समीक्षक, स्वाभाविक है कि अपने ढंग के निष्कर्ष भी निकालते हैं | वह यह कि चूँकि प्रगतिशील आंदोलन बाहर से लाई गयी चीज़ थी, अत: हिंदी में उसका विकास जातीय भावभूमि से प्रतिकूल दिशा में हुआ और इसी कारण से यह अल्प अवधी में ही बिखर गया |

 

अभी इन आरोपों, प्रत्यारोपों, आक्षेपों और समाधानों के इतिवृत में न आकर यह देखना अधिक प्रासंगिक है कि क्या संगठन बनाने की कोशिश सन 1936 से पहले नहीं हो रही थी? क्या हिंदी साहित्य सम्मेलन साम्प्रदायिकता और पुनरुथानवादी प्रवृतियों के प्रचार-प्रसार का केंद्र नहीं था? क्या समसामयिक साहित्य की नवीन उदभावनाओं और रचनात्मक नवोन्मेष का सशक्त विरोध हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से नहीं हो रहा था?

 

हिंदी साहित्य सम्मेलन के पदाधिकारियों तथा पुरानी पीढ़ी के दिग्गज साहित्यकारों द्वारा छायावाद का विरोध किया जा रहा था | ‘पल्लव’ को पुरुस्कार की दृष्टि से हेय रचना मानना और ‘विरासतसई’ को पुरुस्कार देना - इसी विरोध की चरम अभिव्यक्ति था | नयी पीढ़ी के साहित्यकार और साहित्यरसिक साहित्य सम्मेलन के इस पुरातनपंथी रवैये से क्षुब्ध थे | उस समय के साहित्यिक परिवेश में निहित अन्तर्विरोध को रेखांकित करते हुए ‘दिनकर’ ने ठीक ही कहा है कि पुराने और नए स्कूल के प्रतिनिधियों के बीच का संघर्ष 1928 में मुखर रूप ले चूका था |[1]

 

1929 में एकाएक साहित्य सम्मेलन के पदाधिकारियो के चुनाव में नई पीढ़ी के प्रतिनिधियों की विजय होती है | गणेश शंकर विधार्थी अध्यक्ष और रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी प्रचार मंत्री चुने जाते हैं | इसी वर्ष कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु का चुनाव होता है | साहित्य और राजनीति – दोनों पर पुरातनपंथी लोग हटाए जाते हैं | निराला इस परिवर्तन का पूरे उत्साह से स्वागत करते हैं: ‘युवकों की ऐसी विजय प्राचीनताभक्त भारत में इधर शताब्दियों से देखने को नहीं मिली |’

 

पर साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद पर गणेश शंकर विधार्थी ज्यादा दिन नहीं रह पाए | कानपुर के एक सांप्रदायिक दंगे में उनकी हत्या कर दी गई |

 

अत: परिस्थिति ने पलटा खाया और साहित्य सम्मेलन के विभिन्न पदों पर पुन: ‘प्राचीनताभक्त’ ही स्थापित कर दिय गए | इन्ही प्राचीनताभक्तों ने समस्यापूर्ति की साहित्यिक प्रणाली की रक्षा की अनथक कोशिश की, मुक्तछंद का विरोध किया, उग्र के ‘चाकलेट’ के यथार्थवाद का विरोध करने के लिए ‘घासलेटी साहित्य’ का आंदोलन चलाया और प्रेमचंद को विदेशी कथाकारों की रचनाओं का अपहरणकर्ता कहकर कलंकित करने की कोशिश की | ‘दिनकर’ ने 1930 के आसपास के इस ‘कोलाहल’ मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की है: ‘हमारी उपेक्षा और अनादर के प्रधान कारण ये सिंहासनस्थ वृद्ध साहित्यिक है |’

 

अतएव अपनी रचनाओं में नए साहित्यिक हृदय का सारा विष इन वयोवृद्ध साहित्यिकों पर ही उड़ेलते थे | कलकत्ते के ‘नारायण’ में गुलाब रत्न वाजवेपी ‘गुलाब’ ने लिखा था:

 

सो जाओ हे वृद्ध विकल

इस प्रचंड अंधड़ के सम्मुख,

ग्रीष्मकाल की वायु विफल |

 

नयी पीढ़ी की जीवंत रचनात्मक ‘प्रचंड अंधड़’ है और उसे वृद्ध लोग रोकने की व्यर्थ चेष्टा कर रहे हैं | और ये वृद्ध लोग हैं कौन? ‘सिंहासनस्थ वृद्ध साहित्यिक' |

 

विचारधारा और दृष्टिकोण के स्तर पर न केवल साहित्य सम्मेलन के द्वारा बल्कि पुरानी पीढ़ी के संपादकों के द्वारा भी पुरातनप्रियता, पुनरुत्थानवाद, हिन्दू रूढ़ीवाद आदि को प्रश्रय और सरंक्षण मिल रहा था | पं. जवाहरलाल नेहरु ने 1933 के साहित्यिक परिवेश का ‘मेरी कहानी’ में उल्लेख किया है | उससे भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है |

 

बनारस के रत्नाकर रसिक मंडल की ओर से पं. नेहरु को अभिनंदन पत्र दिया गया | इस घटना की रिपोर्ट 20 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में प्रेमचंद ने प्रकाशित की| इस अवसर पर दिए गए अपने भाषण का उल्लेख करते हुए पं. नेहरु ने लिखा:

 

आजकल हिंदी में जो क्लिष्ट और अलंकारिक भाषा इस्तेमाल की जाती है, उसकी मैंने कड़ी आलोचना की | उसमे कठिन, बनावटी और पुरानी शैली के संस्कृत शब्दों की भरमार रहती है | मैंने यह कहने का भी साहस किया कि यह थोड़े से लोगों के काम में आने वाली दरबारी शैली अब छोड़ देनी चाहिए और हिंदी लेखकों को यह कोशिश करनी चाहिए कि वे हिंदुस्तान की आम जनता के लिए लिखें और ऐसी भाषा में लिखें जिसे लोग समझ सकें | आम जनता के संसर्ग से भाषा में नया जीवन और असली सच्चापन आ जाएगा |[2]

 

रत्नाकर रसिक मंडल की उस छोटी सी सभा में पं. नेहरु ने यह भी कहा कि अन्य प्रादेशिक भाषाओ के समसामयिक साहित्य की तुलना में हिंदी में दरबारी शैली की प्रबलता है | दैनिक ‘आज’ तथा ‘भारत’ में इस भाषण की खबरें छपी | हिंदी पुरातनपंथी साहित्यकारों ने पं. नेहरु के उक्त भाषण के विरोध में एक ज़बरदस्त विवाद खड़ा कर दिया | ‘निराला’ को क्षोभ हुआ था, पर उनके क्षोभ का कारण भिन्न था; उनका कहना था कि हिंदी में जो नया साहित्य अपनी नयी विचारधारा, देशभक्ति, जनभावना आदि के साथ लिखा जा रहा है उसे न पढ़ने और प्राचीनताभक्तों को तूल देना ठीक नहीं है | इस पूरे विवाद पर पं. नेहरु की नज़र थी | उन्होंने विवाद के खत्म होने के बाद लिखा :

 

‘यहाँ का सारा दृष्टिकोण बहुत संकुचित ओर दरबारी-सा है और ऐसा मालूम होता है मानो हिंदी का लेखक और पत्रकार एक दूसरे के लिए और एक बहुत ही छोटे दायरे के लिए लिखते हों | उन्हें आम जनता और उसके हितों से मानो कोई सरोकार ही नहीं है |’

 

हिंदी के जिस साहित्यिक परिवेश में ‘संकुचित दृष्टिकोण’ और ‘दरबारीपन’ का बोलबाला हो, जिसे संचालित करने के पीछे हिंदू रूढ़ीवाद और सामंती सांस्कृतिक दुराग्रह सक्रीय हों, उनका विरोध होना चाहिए और पं. जवाहरलाल नेहरु ने ‘मेरी कहानी’ में उनका सही विरोध किया था | उस समय पं. नेहरु ने ‘भारतमाता’ की कविकल्पना के संबंध में जो प्रश्न उठाए थे वे बड़े ही प्रासंगिक थे; चूँकि अब ‘नीलाम्बर परिधान’ वाली भारतमाता से उत्पीड़ित जनसमूह को प्रेरित अथवा उद्वेलित नहीं किया जा सकता था:

 

यह एक अजीब बात है कि देश को मानव रूप में मानने के प्रवत्ति को कोई रोक नहीं सकता | हमारी आदत ही ऐसी पड़ गई है और पहले के संस्कार भी ऐसे ही हैं | भारत ‘भारतमाता’ बन जाती है - एक सुंदर स्त्री, बहुत ही वृद्ध होते हुए भी देखने में युवती, जिसकी आँखों में दुःख और शून्यता भरी हुई, विदेशी और बाहरी लोगो के द्वारा अपमानित और प्रताड़ित, और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपनी रक्षा के लिए आर्त्त स्वर से पुकारती हुई | इस तरह का कोई चित्र हजारों लोगों की भावनाओ को उभर देता है और उनको कुछ करने और कुर्बान हो जाने के लिए प्रेरित करता है | लेकिन हिंदुस्तान तो मुख्यतः उन किसानों और मजदूरों का देश है, जिनका चेहरा खूबसूरत नहीं, क्यूंकि गरीबी खूबसूरत नहीं होती | क्या वह सुंदर स्त्री, जिसका हमने काल्पनिक चित्र खड़ा किया है, नंगे बदन और झुकी कमर वाले, खेतो और कारखानों में काम करने वाले किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करती है? या वह उन थोड़े से लोगो के समूह का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने युगों से जनता को कुचला और चूसा है, उस पर कठोर से कठोर रिवाज लाद दिए गए हैं और उसमे से बहुतों को अछूत तक करार कर दिया गया है? हम अपनी काल्पनिक सृष्टि से सत्य को ढकने की कोशिश करते हैं और असलियत से अपने को बचाकर सपनों की दुनिया में विचरने का यत्न करते हैं|

 

राष्ट्रीयता की इस कल्पना को अगर हम तत्कालीन साहित्य की राष्ट्रिय कल्पना से मिला कर देखें तो पता चलता है कि संकुचित दृष्टिकोण साहित्य पर हावी था, राष्ट्रीयता की कल्पना में जनवादी चेतना हावी नहीं थी बल्कि हिंदू अभिजात्य का संकीर्ण वर्गस्वार्थ हावी था | पं. जवाहरलाल नेहरु की कल्पना से मेल खाने वाली भारतमाता की मूर्तियाँ बाद में 1939-40 के आसपास पंत और निराला ने तैयार की - ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ तथा ‘देवी सरस्वती’ में |

 

पं. नेहरु के माध्यम से तत्कालीन प्रबुद्ध नेताओं और बुद्धिजीवियों का यह आह्वान आकस्मिक नहीं था | सन 1930 के आसपास तरुण साहित्यकारों पर यह जिम्मेवारी आ गई थी कि वे राष्ट्रीयता के वर्गस्वरूप की पहचान करें, ‘जनवादी राष्ट्रीयता’ और ‘हिंदू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रीयता’ में फ़र्क समझें और समझाएं | इस जिम्मेवारी के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हिंदी साहित्य सम्मेलन उपस्थित करता था और उस ‘सम्मेलन के प्राण’ राजश्री पुरुषोत्तम दास टंडन थे | न केवल साहित्य और शिक्षा के विभिन्न संगठनों पर वे छाए हुए थे बल्कि कांग्रेस के भीतर भी उन्हें नेतृत्व मिल गया था |

 

प्रकाशन मंचों और साहित्यिक संगठनों पर छाए हुए ‘प्रचीनताभक्त’ रूढ़ीवादी, दरबारी, हिंदू पुनरुत्थानवादी आदि तत्वों की वजह से साहित्यिक अपना अलग संगठन बनाने की बात सोचें, अपनी विचारधारा और नई साहित्यिक अभिरुचि के प्रकाशन के लिए नई पत्रिकाओं के प्रकाशन का प्रयत्न करें– सन 1930 के जमाने में यह एक स्वाभाविक बात थी |

 

ब्रिटिश हुकूमत चुन-चुन कर उन पत्र-पत्रिकाओं का ही दमन कर रही थी जो समाजवाद, जनवाद, साम्यवाद, जनजागरण, किसानों की मुक्ति, स्वाधीनता आदि की बात करती थी | ‘जागरण’, ‘हंस’, आदि से 1932 में ज़मानत मांगी गई | ‘आज’ को बंद कर दिया गया | परिस्थिति कितनी नाज़ुक हो गई थी इसका अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि राजद्रोह कानून के अंतर्गत 3-4 वर्षों (1930-1934) के अंदर ही 348 समाचारपत्रों के प्रकाशन बंद कर दिए गए | इतना ही नहीं, गोर्की, मोरिस थोरो, मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की पुस्तकों का वितरण गैर-कानूनी कर दिया गया और बाज़ार में उपलब्ध पुस्तकें ज़ब्त कर ली गई | रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित ‘रूस से चिट्ठी’ पर पाबंदी लगा दी गई | ‘प्रेमचंद: इतना कह देना हम कर्त्तव्य समझते हैं कि ऐसे वातावरण में जबकि हर एक संपादक के सर पर तलवार लटक रही हो, राष्ट्र का सच्चा राजनीतिक विकास नहीं हो सकता है|’

 

बोलने और लिखने की आज़ादी की हिमायत के लिए लेखक आपस में एकजुट हों, यह भावना आकस्मिक और अकारण नहीं थी|

 

उस दमघोंटू माहौल में प्रेमचंद लेखकों के जनवादी स्वत्व की रक्षा के लिए लेखक संघ का गठन दो उद्देश्यों से करना चाहते थे: (1) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, और (2) सहकारी प्रकाशन संस्था खोलने के लिए |

 

1934 में प्रेमचंद और रामचंद्र टंडन के बीच लेखक संघ बनाने के सवाल पर विवाद उठ खड़ा हुआ था | रामचंद्र टंडन लेखकों के स्वत्व तथा प्रकाशकों के शोषण से लेखक की रक्षा के लिए लेखकों का संगठन बनाने की बात कर रहे है | प्रेमचंद्र प्रकाशकों के विरुद्ध ट्रेड यूनियन आधार पर लेखक संगठन खड़ा करने की बात से मतभेद रखते थे | उनका कहना था कि बुनियादी सवाल स्वत्व की रक्षा और विशाल सहकारी प्रकाशन संस्था खोलने का है | इस बात को लेकर इतना बतंगड़ बना कि अंत में लेखक संघ की योजना धरी रह गई |

 

इस लेखक संघ के लिए रामनरेश त्रिपाठी, किशोरीदास वाजपेयी और प्रेमचंद तीन संयोजक मनोनीत किये गए थे | इन तीनों संयोजकों को अकेले रामचंद्र टंडन ने अपने विरोधी विचारों से निष्क्रिय कर दिया | इन सारी बातों के मूल प्रश्न का विश्लेषण करते हुए मुंशी प्रेमचंद ने दिसम्बर 1934 के ‘हंस’ में संपादकीय लिखकर प्रकाशकों की दुर्व्यवस्था पर प्रकाश डाला और लेखक संघ के गठन की बुनियादी ज़रूरतों पर जोर दिया | रामचंद्र टंडन इस संपादकीय से भड़क उठे और उन्होंने 31 दिसम्बर 1934 के अपने पत्र में प्रेमचंद्र को मगरमच्छ प्रकाशकों का वकील बनने से मना किया |[3]

 

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वाधीनता संघर्ष, लेखकों के जनवादी अधिकारों का दमन और अभिव्यक्ति की आज़ादी की समस्या, हिंदू पुनरुत्थानवाद के बजाय जनवादी राष्ट्रीयता, हिंदी वर्चस्ववाद की आकांक्षा के विरुद्ध सभी भारतीय भाषाओँ और बोलियों की आज़ादी, हिंदी लेखकों के संगठन के बजाय अखिल भारतीय स्तर पर सभी भारतीय भाषाओँ की पारस्परिकता का संबंध और अखिल भारतीय सर्वभाषा लेखक संगठन - ये सब ऐसे प्रश्न थे जिनसे न केवल प्रेमचंद बल्कि उस अवधी के तमाम प्रबुद्ध नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और लेखक जूझ रहे थे | अत: रामचंद्र टंडन ने लेखक संघ के सवाल को जिस संकुचित दायरे में खींच कर सारे प्रयास को निष्फल कर दिया था, उससे मुक्त होने के बाद प्रेमचंद असली सवालों से जूझते हुए भारतीय साहित्य परिषद् की स्थापना की तरफ ध्यान देने लगे | अमृतराय ने संकेत दिया है कि 1935 में प्रेमचंद का दिमाग किस दिशा में कम कर रहा था |

 

उसी हवाले से यह पता चलता है कि हिंदुस्तान की सभी भाषाओँ के साहित्य की एकता के सवाल को केंद्रीय सवाल बनकर 1935 के अप्रैल महीने में साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन इंदौर में होने जा रहा था | मुंशी प्रेमचंद वहाँ चाहकर भी नहीं पहुँच पाए | कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी ने उस अधिवेशन के फैसले की सूचना देते हुए प्रेमचंद को यह लिखा कि जैनेंद्रकुमार के प्रयास से तथा गाँधी जी के सहयोग से अंतरप्रांतीय परिषद् बुलाने का निर्णय हुआ है | ‘हंस’ को लोग उसका मुखपत्र बनाना चाहते थे | उस ख़त का प्रेमचंद्र ने स्वागत किया | एकता के इस नए यज्ञ में ‘हंस’ को इस नए दायित्व के लिए प्रेमचंद ने सौंप दिया | अक्टूबर 1935 में ‘हंस’ भारतीय साहित्य परिषद् मुखपत्र के रूप में निकलने लगा |

 

लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ बनाने का पहला प्रयास  

 

इधर प्रेमचंद के नेतृत्व में हिंदुस्तान के लेखकों को संगठित करने, भारतीय भाषाओँ की एकता और पारस्परिकता की दिशा में बढ़ने के प्रयत्न हो रहे थे, उधर सोवियत संघ में मैक्सिम गोर्की के नेतृत्व में 1934 में सोवियत लेखक संघ का गठन हुआ | सोवियत लेखक संघ के अधिवेशन के अवसर पर रोम्यां रोला, आंद्रे जीद, हेनरी बारबूज, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ आदि ने बंधुत्वपूर्ण बधाइयाँ और समर्थन के संदेश भेजे | लेखकों को संगठित करने का ऐसा ही एक व्यापक प्रयत्न जुलाई 1935 में हेनरी बारबूज के नेतृत्व में पेरिस में हुआ | ‘संस्कृति की रक्षा के लिए विश्व लेखक अधिवेशन’ (वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ राइटर्स एंड आर्टिस्ट्स फॉर दि डिफेंस ऑफ़ कल्चर) जुलाई महीने में पेरिस में बुलाया गयाम | इस अधिवेशन के संयोजकों में मैक्सिम गोर्की, रोम्यां रोलां, आंद्रे मालरो, टामस मान, वाल्डे फ्रैंक जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार थे | सज्जाद ज़हीर के हवाले से मालूम होता है कि इस अधिवेशन ने फासिज्म के खिलाफ़, उत्पीड़ित राष्ट्र के शोषित जनगण के समर्थन में एवं विचार स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए लेखकों की आवाज़ बुलंद की| इस अधिवेशन में सारी दुनिया के प्रगतिशील लेखकों की एक स्थाई समिति चुन ली गयी जिसके अध्यक्ष अंग्रेजी के कथाकार ई.एम. फोसर्टर बनाए गए और इसका केंद्रीय कार्यालय पेरिस में स्थापित कर दिया गया |

 

साम्राज्यवाद और फासिज्म के विरुद्ध लेखकों के स्वत्व की रक्षा के लिए सारी दुनिया के पैमाने पर संगठित कोशिशें आरंभ हुईं | 1935 में समाजवादी विचारधारा के कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों ने लंदन के एक चीनी रेस्त्रां के तहखाने में अपनी बैठक की और और भरतीय प्रगतिशील लेखक संघ (इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन) की स्थापना करने तथा उसे ‘संस्कृति की रक्षा के लिए विश्व लेखक अधिवेशन’ कार्यान्वित करने का दायित्व सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद को सौंपा गया था | मुल्कराज आनंद अध्यक्ष चुने गए और सज्जाद ज़हीर सेक्रेटरी | इसी बैठक में एक घोषणापत्र तैयार किया गया| घोषणापत्र की प्रतियाँ हिंदुस्तान के सभी प्रमुख लेखकों और संपादकों के पास भेजी गईं | मुंशी प्रेमचंद इन गतिविधियों को बहुत नज़दीक से देख रहे थे, अपनी पूरी हमदर्दी दे रहे थे और ‘हंस’ के माध्यम से इस लेखक संघ के उद्देश्यों को प्रचारित कर रहे थे | उन्होंने जनवरी 1936 के ‘हंस’ में लंदन में बने प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणापत्र का सारांश प्रकाशित किया |

 

हिंदुस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ का स्वागत और ‘हंस’ का सहयोग

 

कुछ लोग समझते है की लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने का निर्णय हुआ और हिंदुस्तान में लागू हो गया| ऐसे लोग सरल बनते हैं और हर आंदोलन के भीतर काम कर रहे अनेक प्रकार के तत्वों और सूत्रों के जटिल संबंध को न समझकर तुरंत सरलीकरण पर उतारू हो जाते हैं | हिंदुस्तान के अन्दर संगठन बनाने की जो भी कोशिशें हो रहीं थी, उनके सूत्रधार प्रेमचंद थे और पेरिस, मास्को और लंदन में जो कुछ भी सरगर्मियां और हलचले थीं, उनसे सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद संपृक्त थे |

 

प्रेमचंद इतने से ही संतुष्ट नहीं थे | ‘साहित्य में नवयुग’ लाने वाले हर प्रयत्न को एक दूसरे से जोड़ना चाहते थे| ‘हंस’ संगठनकर्त्ता का काम कर रहा था | ‘हंस’ ने अपनी टिप्पणी लिखी:

 

हमें यह जानकार सच्चा आनंद हुआ कि हमारे सुशिक्षित और विचारशील युवकों में भी साहित्य में एक नई स्फूर्ति और जागृति लाने की धुन पैदा हो गयी है | लंदन में दि इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की इस उद्देश्य से बुनियाद डाली गयी है और उसने जो अपना मैनिफेस्टो भेजा है, उसे देखकर यह आशा होती है कि अगर यह सभा अपने इस नए मार्ग पर जमी रही तो साहित्य में नवयुग का उदय होगा |

 

भाषा के प्रश्न पर प्रेमचंद हिंदी-उर्दू एकता के समर्थक थे और हिंदुस्तानी एकेडमी द्वारा किए जा रहे उन सभी प्रयासों का अनुमोदन करते थे | 1936 के जनवरी महीने में हिंदुस्तानी एकेडमी, प्रयाग, का सालाना जलसा हो रहा था| यह हिंदी-उर्दू का संयुक्त मंच था | प्रेमचंद इस जलसे में शरीक हुए | यहीं उनकी मुलाकात फ़िराक, अहमद अली, दयानारायण निगम और सज्जाद ज़हीर से हुई | प्रगतिशील लेखक संघ को सारे हिंदुस्तान में व्यापक पैमाने पर संगठित करने के बारे में बातें हुई | दो दिनों बाद सज्जाद ज़हीर के मकान पर सबके इकट्ठे मिलने का प्रोग्राम तय हुआ | मौलवी अब्दुल हक़ और जोश मलीहाबादी भी मौजूद थे | मुंशी दयानारायण निगम यद्यपि बहुत उत्साहित न थे, पर प्रेमचंद का मन उमंग से भरा हुआ था और संघ के ड्राफ्ट मैनिफेस्टो पर दस्तख़त करते हुए मुंशीजी ने हँस कर कहा:

 

मैं तो ठहरा बूढा आदमी और तुम लीग सरपट भाग रहे हो | में कहाँ दौड़ सकता हूँ तुम्हारे साथ, मेरा तो घुटना-वुटना फूट जाएगा |

 

शिवदान सिंह चौहान के हवाले से पता चलता है कि सज्जाद ज़हीर के भारत वापस आ जाने पर दिसंबर 1935 के अंतिम दिनों में ही इलाहबाद में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का गठन कर लिया गया था और इसके ड्राफ्ट मैनिफेस्टो पर निराला और पंत ने भी हस्ताक्षर किये थे | और प्रगतिशील लेखक संघ को प्रारंभ में ही टैगोर, नेहरु, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव आदि के सहयोग का आश्वासन प्राप्त हो गया था |

 

साहित्य में नई जनवादी प्रवृति, प्रेमचंद और फासिज्म विरोध 

 

यह आकस्मिक नहीं है कि 22–23 फरवरी 1936 को पूर्णिया में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में भाषण देकर जब प्रेमचंद घर लौटे तो उन्होंने इकबाल की जनवादी चेतना से भरी एक कविता अपनी डायरी में नोट की और साहित्य के सामाजिक दायित्व पर एकदम नए सिरे से विचार किया:

 

कविता में अगर जागृति पैदा करने की शक्ति नहीं है तो वह बेजान है | आप हाला बांधे या तंत्री के तार या बुलबुल और कफस, उसमें जीवन को तड़पाने वाली शक्ति होनी चाहिए | प्रेमिकाओं के सामने बैठकर आंसू बहाने का यह ज़माना नहीं है | उस व्यापार में हमने कई सदियां खो दीं, विरह का रोना रोते कहीं के न रहे | अब हमें ऐसे कवि चाहिए जो हजरते इकबाल की तरह हमारी मरी हुई हड्डियों में जान डाल दें | देखिए इस कवि ने लेनिन को ख़ुदा के सामने ले जाकर क्या फरियाद कराई है और उसका ख़ुदा पर कितना असर होता है | वह अपने फ़रिश्तों को देता है:

 

उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो,

काखे उमरा के दरो-दीवार हिला दो|

गरमाओ गुलामों का लहू सोज़े यकीं से,

कुंजिश्क फ़रोमाया को शाही से लड़ा दो|

सुल्तानिए जमहूर का आता है ज़माना,

जो नक्शे कोहन तुमको नज़र आए, मिटा दो|

 

जनवादी राजसत्ता का ज़माना आ रहा है, सब कुछ पुरातन को मिटा दो’- इस आह्वान को रेखांकित करना उस समय बड़ी बात थी|

 

प्रेमचंद भारत के उन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की एकता के अंत:सूत्र बन रहे थे जो फासिज्म विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका निभा रहे थे | पेरिस में अंतर्राष्ट्रीय लेखक सम्मेलन हो चुका था| अब ब्रसेल्स में 1936 ई. में विश्वशांति सम्मेलन हो रहा था| पं. नेहरु भारत के राष्ट्रिय मुक्ति आंदोलन के प्रतिनिधि होने के नाते ब्रसेल्स में हिंदुस्तान की आवाज पहुंचा रहे थे | इस काम में भारत के शिल्पी और विचारक कैसे पीछे रहते, खासतौर पर जबकि उस शांति महायज्ञ में रोम्यां रोलां और हेनरी बारबूज अग्निहोत्र का काम कर रहे हों| प्रेमचंद, रविंद्रनाथ ठाकुर, रामानंद चट्टोपाध्याय, नन्दलाल बसु, प्रफुल्लचंद्र राय, जवाहरलाल नेहरु आदि के दस्तखतों से एक घोषणापत्र ब्रसेल्स भेजा गया | उस घोषणापत्र के प्रारंभ में तो ब्रिटिश हुकूमत द्वारा लेखकों और पत्रकारों का जो दमन हो रहा था, उसकी भर्त्सना की गई; सेंसर और कस्टम वालों की निंदा की गई और उसके बाद कहा गया था:

 

महायुद्ध की प्रेतछाया सारी पृथ्वी पर मंडरा रही है | फासिस्ट तानाशाही खाने के बदले अस्त्र-संग्रह करके और संस्कृति के सुयोग के बदले साम्राज्य गठन के प्रलोभन को पकड़ कर अपना सैनिकवादी रूप दिखला रही है | अबिसिनिया को पदावनत करने के लिए इटली ने जिन सब पद्धतियो का सहारा लिया है, उनसे बुद्धी और सभ्यता के प्रति विश्वासी सब लोगों को गहरा धक्का लगा है| बड़ी-बड़ी साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रतिद्वंद्विता और परस्पर विरोध, संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी मनोवृत्ति को मनचाहा बढ़ावा, लड़ाई के सामानों की तेज़ वृद्धि – ये सब संकटमय परिस्तिथि की पूर्ण सूचना है| इस समय हम अपनी ओर से और देशवासियों की ओर से दूसरे देशों के जनसाधारण के स्वर में स्वर मिलाकर कहना चाहते हैं कि हम युद्ध से घृणा करते हैं और चाहते हैं कि युद्ध का रास्ता छोड़ा जाए, युद्ध में हमारा कोई भी हित नहीं है| किसी भी साम्राज्यवादी युद्ध में भारतवर्ष के योगदान के हम घोर विरोधी है क्यूंकि हम जानते हैं कि आगामी युद्ध में सभ्यता का विध्वंस हो जाएगा |

 

नागपुर में भारतीय साहित्य परिषद का अधिवेशन

 

दूसरी तरफ नागपुर में भारतीय साहित्य परिषद् का अधिवेशन 1936 में हुआ | उस अधिवेशन में प्रेमचंद, नरेंद्रदेव, मौलवी अब्दुल हक़, पं. नेहरु और अख्तर हुसैन रायपुरी के हस्ताक्षरों से एक पर्चा बांटा गया| इस पर्चे में साहित्यिक गतिविधियों को प्रगतिशील दिशा की ओर मोड़ने की अपील की गयी थी |

 

इस अपील का भारतीय साहित्य परिषद्, नागपुर की बैठक पर पूरा प्रभाव पड़ा| प्राय: सभी भाषाओँ के प्रमुख साहित्यकारों ने इसी अपील को ध्यान में रख कर वहाँ बहस में योग दिया| उस अधिवेशन में जो प्रस्तावों में देखा जा सकता है |

 

इस सम्मेलन को लेकर अज्ञेय ने एक विवाद खड़ा कर दिया| उन्होंने ‘विशाल भारत’ में सम्मेलन के प्रस्तावों के सम्बन्ध में यह रिपोर्टिंग की कि क्रन्तिप्रेरक साहित्य का प्रस्ताव गिर गया और यह कि कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट विचारधारा के लोगो को सम्मेलन में कोई ख़ास उपलब्धि नहीं हुई है | सम्मेलन की कार्यवाहियों की इस भ्रामक रिपोर्ट पर अख्तर हुसैन रायपुरी ने प्रहार किया | जुलाई 1936 में ‘विशाल भारत’ में उन्होंने लिखा कि वास्तविकता कुछ दूसरी ही है | परिषद् ने रातोंरात दो प्रस्ताव पेश किये: (1) जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्श का विरोधी हो, सुरुचि भंग करता हो अथवा सांप्रदायिक सदभावना में बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद् हरगिज़ प्रोत्साहन न  देगी | लोकजीवन के जीवित और प्रत्यक्ष सवालो को हल करने वाले साहित्य के निर्माण को यह परिषद् प्रोत्साहन देगी | (2) इस सभा का काम हिंदी अथवा हिंदुस्तानी में होगा |

 

इसमें पहले प्रस्ताव का विरोध होना स्वाभाविक था | अख्तर हुसैन रायपुरी ने विरोध के पीछे अपनी दलील रखी:

 

इसका निर्णय पाठक ही करें कि इस प्रस्ताव में डिक्टेटरी की बू आती है या नहीं| कोई लेखक अपनी कृति को आदर्शहीन, कुरुचिपूर्ण और मुर्दा सवालों का जवाब कहने को तैयार नहीं है | फिर भी आपके दिमाग में ‘सु’ और ‘कु’ की दीवारें खड़ी हुई हैं | जब भी आप अपने स्टैण्डर्ड से एक चीज़ की अच्छी और दूसरी को बुरी कहते हैं तो आओ डिक्टेटरी का बीज बो देते हैं | इस तरह की अनैतिकता असहिष्णुता से आरंभ होती है |

 

उस सम्मेलन में क्रांतिकारी साहित्य लिखने के प्रस्ताव का विरोध अज्ञेय और बनारसीदास चतुर्वेदी की ओर से हुआ था| उनका कहना था की क्रांतिप्रेरक साहित्य ‘थोथा और निस्सार’ है | उनकी इस आलोचना का जवाब देते हुए अख्तर हुसैन रायपुरी ने लिखा:

 

क्रांतिप्रेरक साहित्य का विरोध इस सबब से करना कि वह ऐसा साहित्य पैदा करने में सहायक हो रहा है जो ‘थोथा और निस्सार’ मेरी समझ में ठीक नहीं है | हमारे देश में क्रांतिप्रेरक साहित्य पैदा ही कब हो रहा है | ‘कला के नाम पर जो कविताएँ और कहानियाँ छपती है उनमे से कुछ में आत्मपूजकों की तुच्छ और रोंदी हुई आकांक्षाएं छिपी रहती हैं, जिनसे न जीवन के उच्च आदर्शो का कुछ संबंध है, न लोकजीवन के प्रत्यक्ष और जीवित सवालो से कोई वास्ता | छिछला और निस्सार साहित्य इसलिए पैदा हो रहा है क्यूंकि उसके निर्माता अपनी आत्मा से और जगत की आत्मा से अपिरिचित हैं| वे घोंघो की तरह ‘स्व’ की मोटी खाल में लिपटे हुए हैं, और उनके आसपास एक विराट संसार सिसक-सिसक कर अपने आदर्श की और बढ़ रहा है | क्रांतिप्रेरक साहित्य क्रन्तिकारी आंदोलन के साथ पनपेगा और बढ़ेगा| अभी नवशिशु है क्योंकि क्रांति की यह बिजली सुदूर अंतरिक्ष पर झिलमिला रही है |         

                                                                                             

हिंदुस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना

 

इस पृष्ठभूमि में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और औपचारिक तौर पर प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन के आरंभ की घोषणा के इतिवृत्त को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है |

 

सन 1934 के जून महीने से हिंदुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी गैरकानूनी घोषित कर दी गयी थी | दमनचक्र ज़ोरों पर था| सारी पार्टी को भूमिगत होना पड़ा| कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता, कुछ सोशलिस्ट नेताओं और कांग्रेस के भीतर के कुछ गरमदली नेताओं ने मिलकर सन 1934 में ही कांग्रेस के अंदर कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना की और मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार के लिए लखनऊ से ‘संघर्ष’ नामक हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया | इस पत्र का प्रकाशन भी सन 1936 में हो आरंभ हो सका| नरेंद्रदेव, जयप्रकाश, लोहिया, बेनीपुरी आदि इसी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पदाधिकारियों से संबंध स्थापित किया | लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन होने वाला था | कम्युनिस्ट पार्टी भूमिगत थी, पर उसके हमदर्दों को पूरी छुट दे दी गई थी, जिससे वे खुला राजनीतिक कार्य कांग्रेस के मंच से कर सकें | संभवतः इसीलिए कांग्रेस समाजवादी पार्टी के अंदर मार्क्सवादियों और गैरमार्क्सवादियों के बीच ज़बरदस्त रस्साकशी शुरू हो गई |[4]

 

इन्हीं दिनों विभिन्न जनसंगठनों के माध्यम से पार्टी ने जनसंपर्क कायम करने, मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रचार करने, सुधारवादी नेतृत्व के विरुद्ध स्वाधीनता संघर्ष के अंदर विचारधारात्मक लढ़ाई तेज़ करने और लेखकों, बुद्धिजीवियों, छात्रों तथा किसानों के मोर्चे पर अपना असर बढ़ाने के लिए अलग-अलग किस्म के खुले संगठन बनाने की योजना तैयार की | इन संगठनो में ही लेखकों का भी एक संगठन था - जिसे संचालित करने की ज़िम्मेदारी सज्जाद ज़हीर को सौंपी गई|[5] वह ऐसे नौजवावन थे जो अभी-अभी यूरोप प्रवास की आधुनिकता और विलायती रहन-सहन से लैस होकर हिंदुस्तान आए थे | सज्जाद ज़हीर ने खुद उर्दू में चार कहानियाँ लिखी थी, एक लघु उपन्यास लिखा था, फारसी के कवि हाफिज़ पर एक आलोचना पुस्तक लिखी थी, और पर मार्क्सवाद का उन्हें ज्ञान था | वे लोग प्रेमचंद के नेतृत्व का महत्व समझते थे और हिंदुस्तान में यथार्थवादी साहित्य के लिए लेखकीय संगठन की आवश्यकता महसूस करते थे | लंदन से लौटे हुए जिन हिंदुस्तानियों के माध्यम में सज्जाद ज़हीर प्रगतिशील लेखक संघ के नींव डालना चाहते थे, उनके बारे में उनका खुद का कहना है:

 

इन दोस्तों में अक्सर वे नौजवान थे जो हमसे पहले हिंदुस्तान आ चुके थे और जिन्हें हम अदीब नहीं तो तरक्कीपसंद की हैसियत से अपना हमखयाल और हमदर्द समझते थे|[6]

 

यानी प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के द्वारा प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन और संगठन चलाने का काम आरंभ हुआ | ऐसे लोगो में कुछ यघपि साहित्यकार नहीं थे, पर अपने जमाने के प्रखर बुद्धिजीवी विद्वान थे | हंसराज रहबर ने उन लोगो के नामों और कार्यो का उल्लेख किया है: (1) डॉ. अशरफ, जो अलीगढ़, मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रो. थे, (2) डॉ. महमूद ज़फर, अमृतसर के एक कॉलेज में वाईस प्रिन्सीपल थे और उनकी पत्नी डॉ. रशीद जहाँ, (3) प्रो. हीरेन मुकर्जी, जो ऑक्सफ़ोर्ड से बैरिस्टरी की डिग्री लेकर आए थे और कलकत्ता में बैरिस्टरी कर रहे थे, (4) डॉ. युसूफ हुसैन खां, जिन्होंने भक्ति और सूफी आंदोलन पर पेरिस से डाक्टरेट की उपाधी प्राप्त की थी, और (5) हठी सिंह, जिनका बाद में पं. नेहरु की बहन कृष्णा से विवाह हुआ और जो ऑक्सफोर्ड से शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटे थे|

 

इन ऊँचे तबके के पढ़े-लिखे शरीफ़ों और बुद्धिजीवियों के संपर्क से स्वाभाविक था कि सज्जाद ज़हीर को यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों और विद्यार्थियों का सहयोग प्राप्त होता| इलाहबाद में प्रगतिशील लेखक संघ चलाने के लिए जो सहयोगी मिले उनमे अहमद अली, फ़िराक गोरखपुरी, डॉ. सैय्यद एजाज़ हुसैन, प्रो. एहतेशाम हुसैन, वकार अज़ीम, पंत, शिवदानसिंह चौहान और नरेंद्र शर्मा उल्लेखनीय हैं |

 

अपनी ‘रोशनाई’ नामक पुस्तक में सज्जाद ज़हीर प्रगतिशील लेखक संघ बनाने के उद्देश्यों, पर रोशनी डालते हैं:

 

जब हमने प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन की ओर पग उठाया तो कुछ बातें विशेष रूप से हमारे सम्मुख थीं| पहली तो यह कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन का रुख देश की जनता और मजदूरों, किसानों और मध्यम वर्ग की ओर होना चाहिए| उनको लूटने वालों और उन पर अत्याचार करने वालों का घोर विरोध करना, अपनी साहित्यिक रचनाओं से जनता में चेतना, गति, क्रियाशीलता और एकता उत्पन्न करना और उन तमाम अवशेषों और प्रवृतियों का विरोध करना जो जड़ता, प्रतिक्रिया और निरुत्साह उत्पन्न करती हैं- हमारा मुख्य कर्त्तव्य ठहरा| इसी से फिर दूसरी बात निकलती है और वह यह कि सब कुछ तभी संभव था जब हम चेतन रूप से देश के स्वाधीनता संघर्ष और देश की जनता की अपनी स्थिति को सुधारने के आंदोलन में भाग लें| सिर्फ़ दूर के तमाशाई न हों बल्कि सामर्थ्य भर अपनी योग्यता के अनुसार स्वतंत्रता सेना के सिपाही बनें| लेकिन उसका यह अर्थ अवश्य था कि वे राजनीति से अलग और उदासीन भी नहीं हो सकते| प्रगतिशील लेखक के मन में मानव जाति से स्नेह और गहरी सहानुभूति ज़रूरी है| बिना मानवता प्रेम, स्वतंत्रता की इच्छा और जनतंत्रवाद के प्रगतिशील लेखक होना संभव नहीं| इस कारण हम खुल्लमखुल्ला और जान–बुझकर आंदोलन का संबंध स्वाधीनता और जनतंत्रवादी आंदोलन के साथ जोड़ना चाहते थे| हम चाहते थे कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी मजदूरों, किसानों, दरिद्र और पीड़ित जनता से मिलें, उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन का अंग बनें| उनके जलसे और जुलूसों में और उन्हें अपने जुलूसों और कांफ्रेंसों में बुलाएं| इसलिए हम अपमे संगठन में इस बात पर अधिक जोर देना चाहते थे कि बुद्धिजीवियों के लिए साहित्य रचना के साथ-साथ जनजीवन के साथ अधिक से अधिक संपर्क स्थापित करना आवश्यक है बल्कि इसके बिना नए साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती| इसलिए हम चाहते थे कि हमारे संघ की शाखाएं, एकांतप्रिय विद्वानों की टोलियां न हों, बल्कि उनमे हरकत भी हो| साहित्यिक गोष्ठियों में दूसरे लोग भी आएं| लेखकों की रचनाओं पर खुली बहसें हों| लेखक और कवि साधारण लोगों से मिलते जुलते रहें| उनमे घुले रहें, उनसे सीखें और उन्हें सिखाएं| हमारा संघ लेखकों का संगठन होते हुए और साहित्य रचना पर अधिक से अधिक ध्यान देते हुए भी ‘अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू’ अथवा हिंदी साहित्य सम्मेलन न बन जाए, गतिमान और सजीव संस्था बने, जिसका जनता से सीधा और स्थाई संपर्क हो|

 

1936 के अप्रैल महीने में कांग्रेस अधिवेशन लखनऊ में हुआ और उसी के समानांतर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के लिए पहला प्रगतिशील लेखक सम्मेलन आयोजित हुआ| कांग्रेस अधिवेशन के सभापति पं. नेहरु चुने गए| और प्रगतिशील लेखक सम्मेलन के अध्यक्ष प्रेमचंद बनाए गए | उसी समय लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और उसके अध्यक्ष प्रो. एन.जी. रंगा बनाए गए और स्वामी सहजानंद सरस्वती महासचिव नियुक्त किए गए |

 

लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के सभापति पद पर पं. नेहरु को क्यों लाया गया? कांग्रेस के अंदर वे कौन सी ताकतें थीं जो पं. नेहरु को बल पहुँचा रही थीं? पट्टाभिसीतारमैया ने 1936 के राजनीतिक माहौल का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ‘हर जगह नौजवानों में समाजवादी विचाधारा हावी हो रही थी | छात्र फेडरेशन और युवक संघो की लहर ज़ोर पकड़ रही थी |’ भगतसिंह की फांसी, जनआंदोलनों का दमन और नमक आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन की असफलताओं के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद का क्रूर दमनकारी हिंसक चरित्र सामने आ गया था और मात्र सत्य-अहिंसा की कार्यनीति पर से लोगो का विश्वास उठता जा रहा था |

 

ऐसी स्थिति में 1936 में लखनऊ अधिवेशन का सभापतित्व गांधीजी के हाथ में जाना कांग्रेस के हित में नहीं था | नौजवानों में कांग्रेस की रही सही लोकप्रियता भी घट जाती | ‘अत: पं. जवाहरलाल नेहरु से ही यह आशा की जा रही थी कि वे नए और पुराने, गांधीवाद और कम्युनिज्म के बीच सेतु का कम करें और इस तरह वे आश्चर्यजनक रूप में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए सुयोग्य थे |’

 

पूरा देश नई ताकत और नए नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई को व्यापक बनाने को अधीर था | ऐसे मौके पर किसानों का संगठन बन रहा था; छात्रों का संगठन बन रहा था और उसके साथ लेखकों का भी संगठन बन रहा था| गांधीवाद से मोहभंग और समाजवादी विचारधारा के प्रसार और उसके प्रति उत्साह के वातावरण में हिंदी और उर्दू के साहित्यकारों, बोलियों और प्रादेशिक भाषाओँ के रचनाकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने बहुत बड़ी संख्या में लखनऊ के इस पहले प्रगतिशील लेखक सम्मेलन का स्वागत किया |

 

इलाहबाद में चूंकि तमाम बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच आपसी जान-पहचान थी इसलिए प्रगतिशील लेखक संघ का काम वहाँ आरंभ हो गया था | पर लखनऊ में बहुत बुरा हाल था| स्थानीय साहित्यकारों में कोई भी शुरू में सहयोग करने नहीं आया | अमृतसर से आए डॉ. महमूद ज़फर और डॉ. रशीद जहाँ ने ही पर्चे बांटे, चंदा जुटाया और सम्मेलन की स्वागत समिति बनाई |

 

इस समय कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने के लिए हजारों कार्यकर्ता लखनऊ पहुँचने लगे| नरेंद्रदेव, जयप्रकाश, कमला देवी चट्टोपाध्याय, मियां इफ्ताखारुद्दीन और सरोजिनी नायडू ने प्रोग्रेसिव लेखकों की कांफ्रेंस में शामिल होने का वचन दिया |

 

प्रगतिशील लेखक संघ के इस पहले सम्मेलन में प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण ऐतिहासिक था; इस दृष्टि से कि आदर्शवाद की सीमाओं के अंदर यथार्थवाद का जो रूप विकसित हो रहा था वह अब सुसंगत स्वरुप ग्रहण कर सामाजिक यथार्थवाद की विचार प्रणाली के रूप में नई पीढ़ी को आकृष्ट करने लगा था |

 

प्रेमचंद ने कहा कि साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है| पहले के साहित्यकार कल्पना की एक सृष्टि खड़ी करके मनमाना तिलिस्म बांधा करते थे | कवियों पर व्यक्तिवाद का रंग चढ़ा हुआ था | कवि मंडली श्रंगारिक मनोभाव मानवजीवन का अंग मात्र हैं, जाति के जीवन को जड़ता और ह्रास के पंजे से मुक्त करने के लिए आज साहित्यिक रूचि बड़ी तेज़ी से बदल रही है| दलित, पीड़ित और वंचित की हिमायत करने के लिए जो लिखता है, वह समाज की न्यायवृत्ति और सौंदर्यवृत्ति को जाग्रत करता है और उसमें ही वह अपने प्रयत्न को सफल समझता है |

 

फिर प्रगतिशील लेखक संघ के नाम के संबंध में उन्होंने कहा कि यह नाम गलत है| साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है |

 

कला सौंदर्यवृत्ति को पुष्ट करती है पर सौंदर्यवृत्ति के मूल में भी उपयोगिता का पहलू होता है| और इस सौन्दर्य की सत्ता निरपेक्ष नहीं है, बल्कि सापेक्ष है| एक रईस के लिय जो वस्तु सुख का साधन है वही दूसरे के लिए दुःख का कारण हो सकती है| इसके साथ ही प्रेमचंद ने सौंदर्य की कसौटी बदलने की बात की:

 

हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी| अभी वह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी|

 

इतना ही नहीं, उन्होंने शासक वर्ग की सौंदर्यदृष्टि पर प्रहार भी किया:

 

उसके लिए सौंदर्य सुन्दर स्त्री में है, उस बच्चों वाली गरीब रूपरहित स्त्री में नहीं जो बच्चों को खेत की मेंड़ पर सुलाए पसीना बहा रही है| उसने निश्चय कर लिया है कि रंगे होंठो, कपोलों और भौंहों में निस्संदेह सुंदरता का वास है| उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होंठों और कुम्हलाए गालों में सौंदर्य का प्रवेश कहाँ? पर यह संकीर्ण दृष्टि का दोष है|’ और अंत में प्रगतिशील लेखकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हम तो समाज का झंडा लेकर चलने वाले सिपाही हैं|

 

साहित्यिक व्यक्तिवाद, कुंठित सौंदर्य दृष्टि आदि पर प्रहार और साहित्यकारों से क्रांतिकारी रोमांटिसिज्म और सामाजिक यथार्थवाद की तरफ बढ़ने वाली साहित्यिक रुचि की मांग प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण का यही सार था| प्रगतिशील लेखक सम्मेलन द्वारा पास किए गए घोषणापत्र पर प्रेमचंद के इस भाषण का प्रभाव देखा जा सकता है | घोषणापत्र में प्रगतिशील लेखक संघ के उद्देश्य भी साफ तौर पर परिभाषित किय गए:

 

  1. भारत के तमाम प्रगतिशील लेखकों की संस्थाएं संगठित करना औए साहित्य छापकर अपने उद्देश्यों का प्रचार करना |

  2. प्रगतिशील लेखकों और अनुवादकों को प्रोत्साहित करना और प्रतिक्रियावादी प्रवृतियों के विरुद्ध संघर्ष करके देशवासियों के स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाना |

  3. प्रगतिशील लेखकों की सहायता करना |

  4. स्वतंत्रता और स्वतंत्र विचार की रक्षा करना |

 

प्रतिक्रिया और प्रगति की ताकतों के संघर्ष में साहित्यकार तटस्थ न रहे यह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी| प्रगतिशील लेखक संघ ने अपनी इस ज़िम्मेवारी को महसूस किया |

 

मई 1936 के ‘हंस’ में प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन के लिए ‘हंस’ को सौंपने की बात प्रेमचंद ने लिखी | प्रेमचंद का दृष्टिकोण क्या था इसका पता अहमद अली के निबंध से भी चलता है | प्रेमचंद यहाँ तक मानते थे की नई पीढ़ी के लोगों पर प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा ‘दृढ़ साहित्यिक आंदोलन चलाने का भार आ पड़ा था’ और इस ‘आंदोलन के लिए हमारा देश तैयार हो गया है और हम लोग एक बहुत ही उपयुक्त और शुभ अवसर पर एक एसोसिएशन का आरंभ कर रहे हैं |’

 

इस प्रकार हम देखते है की एक ओर जहाँ प्रगतिशील लेखक संघ को अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों, बुद्धजीवियों, लेखकों और विशेषकर नए लेखकों का पूर्ण सहयोग मिला वहीँ दूसरी ओर प्रारंभ में ही ब्रिटिश हुकूमत और हिंदू पुनरुत्थानवादी लेखकों ने प्रगतिशील लेखक संघ का ज़बरदस्त विरोध किया | ‘ब्रिटिश नियंत्रित एवं बुर्जुआ प्रेस ने इसे मास्को प्रेरित बताया और हिंदू कट्टरपंथ के अगुआ व् पुनरुत्थान की भावना से अनुप्राणित रूढ़ीवादी लेखकों ने इसे भारतीय संस्कृति विरोधी आंदोलन कहा |’ प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम लखनऊ अधिवेशन के बाद तो प्रेमचंद पर ‘घृणा के प्रचारक’ होने का आरोप लगाया और ‘उनकी निंदा करते हुए अनेक लेख हिंदी पत्रिकाओं में छपे जिनमें उनकी कहानियों एवं उपन्यासों से दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया गया था कि कैसे प्रेमचंद ब्राह्मणों के पावन आधिपत्य को चुनौती देने वाली नीची जातियों के पात्रो को जान बूझकर चुनते हैं ब्राह्मण पात्रों को भ्रष्टाचारी, निर्दयी व् अंधविश्वासी रूप में चित्रित करते हैं |’

 

साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रगतिवाद का आरंभ      

 

इस इतिवृत की रोशनी में प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन का संगठन के स्तर पर आरंभ किस तरह हुआ, यह स्पष्ट है | जनेश्वर वर्मा का मत है कि प्रगतिशील आंदोलन का आरंभ 1936 से माना जाना गलत है | उनका निश्चित मत है कि प्रगतिवाद छायावाद की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि उसके सामानांतर चलने वाली साहित्यधारा है | प्रगतिवाद छायावाद के जन्मकाल से ही उसके साथ-साथ विकासशील रही है | रूस की समाजवादी क्रांति और भारतीय राष्ट्रीय जागरण के प्रभावस्वरूप सन 1918 से भारतीय जनजीवन में भी साहित्यिक अभिव्यक्ति है | अत: प्रगतिवाद का आरंभ 1918 से मानना चाहिए और हिंदी काव्य के क्षेत्र में गया प्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’ को उसका आदिप्रवतर्क मानना चाहिए |[7]

 

जनेश्वर वर्मा की इन मान्यताओं के पीछे उनकी दलील यह है कि स्नेही, हितैषी, रामेश्वर करुण आदि की रचनाएँ सन 1918 से सन 1930 के बीच की है | उन रचनाओं में जनक्रांति का समर्थन और वर्गसंघर्ष का चित्रण है इसी आधार पर वह कहते हैं कि साहित्य में छायावाद और प्रगतिवाद दोनों सामानांतर चले है | आधुनिक साहित्य के इतिहासकारों को असुविधा न हो इसलिए वह इस मान्यता को स्थापित करने के उद्देश्य से कहते हैं:

 

यह ठीक है कि आरंभ में प्रगतिवादी धारा बहुत निर्बल थी परंतु जैसे-जैसे देश में राजनीतिक चेतना का विकास होता गया और समाजवादी आंदोलन शक्ति संचय करते गए वैसे ही प्रगतिवादी धारा भी प्रबल होती गई और सन 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ उसने छायावाद पर अपनी विजय की घोषणा कर दी |

 

ऐसा प्रतीत होता है कि जनेश्वर वर्मा छायावाद को एकांगी और पलायन की प्रवृत्ति वाला आंदोलन मानते हैं | अत: जहाँ छायावादकाल में पलायन से इतर सामाजिक प्रवृत्तियां दिखती हैं तो वे अन्य किसी सामानांतर आंदोलन के अस्तित्व की कल्पना कर लेते हैं | दूसरी बात यह है कि शंकर, हितैषी, स्नेही, वरुण आदि की रचनाएं भारतेंदुकाल से चले आ रहे यथार्थवादी रुझानों का ही विकास है और खास कर समाजवादी क्रांति की विचारधारा का समसामयिक प्रभाव लेकर वे अपने यथार्थवाद और वर्गसंघर्ष तक की बात करती है | पर यह भी छिटफुट रूप में दो चार कवियों तक ही सीमित है |

 

तीसरी सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि साहित्य में भी प्रवृतियों का संघर्ष द्वंद्वात्मक तरीके से होता है; जनेश्वर वर्मा इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को अनदेखा करते हैं | छायावाद के भीतर रोमांटिक विद्रोह, सामंती नैतिकता के बंधनों के प्रति आक्रोश, वेदना, प्रकृतिप्रेम, स्त्री-पुरुष संबंधो में सहज स्वछंदता का आग्रह, साम्राज्यवाद का विरोध, व्यक्तिवाद, अहम्मान्यता, रीतिकालीन सामंती प्रेमदृष्टि के बदले नई रोमांटिक प्रेमदृष्टि, आदि अनेक प्रकार के रुझान मिलते हैं, जो कहीं परस्पर टकराते हैं, कहीं एक दूसरे के पूरक की भूमिका निभाते हैं | अत: यह समझ वैज्ञानिक नहीं है कि छायावाद पलायन का काव्य था |

 

जनेश्वर वर्मा की उपर्युक्त मान्यता के पीछे यांत्रिक ढंग से समाजवादी क्रांति के प्रभावों को हिंदी में देखने का आग्रह है | वह समझते हैं कि 1917 में अगर रूस में क्रांति हुई तो फ़ौरन उसी साल हिंदी में प्रगतिवाद शुरू हो गया| इतिहास को समझने की यह विधि यांत्रिक है और पूरी तरह अवैज्ञानिक है | अत: यह मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता कि प्रगातिशील आंदोलन का आरंभ छायावाद के जन्मकाल के सामानांतर हो गया था |

 

इतिहास की तोड़मोड़ और यांत्रिक समझ की वजह से जहाँ डॉ. जनेश्वर वर्मा प्रगतिवाद का आरंभ स्वाभाविक रूप में 1918 से मानते हैं, वहीँ दूसरी ओर उनसे ठीक उलटी दिशा में चलते हुए डॉ. रांगेय राघव ने अपनी मान्यता रखी कि 1936 में प्रगतिशील आंदोलन विदेश से लाकर हिंदी में रोप दिया गया| उनका विचार है:

 

हिंदी में इस भावना का विकास विलायत से लौटे हुए उन मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय युवकों ने किया जो मार्क्सवाद से प्रभावित थे, किंतु जिनका ज्ञान भारत के विषय में नहीं के बराबर था| वे लोग भारत के इतिहास और संस्कृति को कुछ अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से हो पढ़ सके थे| हम उनके सद्प्रयत्नों को कम करके दिखाने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं, वरन यह बताने का यत्न कर रहे हैं कि प्रारंभ से ही जो नींव थी उसकी ईट टेढ़ी गिरी और दुर्भाग्य से उसके ऊपर की इमारत भी जरा तिरछी हो उठी|[8]                  

                 

हिंदी में प्रगतिशीलता की भावना का विकास कुछ विलायती नौजवानों की कोशिशों से हुआ यह एक विचित्र ऐतिहासिक समझ है |

 

राष्ट्रप्रेम के छद्म के साथ अंध कम्युनिस्ट विरोध की चिरपरिचित तर्कपद्धति यहाँ भी मौजूद है | धर्मवीर भारती ने भी लगभग इसी शब्दावली में आरोप लगाया: ‘यहाँ प्रगतिवाद का प्रवेश तब हुआ जब विदेशों में उसका दिवाला पिट चूका था | विदेशों की इस उतरन को हमने बड़े चाव से दौड़कर पहना, जबकि हमारे अपने साहित्य में किसी भी प्रगतिवाद से सौगुनी शातिशाली प्रवृतियाँ पनप रही थीं |[9] इतिहास व्यक्तियों की इच्छा से स्वतंत्र होता है | प्रगतिशीलता की भावना का उदभव हिंदुस्तान की अपनी परिस्थितियों, जन आंदोलनों, ब्रिटिश हुकूमत के दमनचक्र के विरुद्ध राष्ट्रिय स्वाधीनता और समाजवादी विचारधारा के तेज़ी से प्रसार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के विरुद्ध व्यापक रूप से फैले हुए जन-आक्रोश आदि कारणों से हुआ| 1929 के बाद हिंदुस्तान की परिस्थितयों में और जनता की आत्मगत चेतना में क्रन्तिकारी परिवर्तन होने लगे थे | भारतेंदुकालीन असंगतियों से मुक्त नये यथार्थवादी रुझान के विकास और देश की परिस्थतियों के प्रति संवेदनशील रचनाकारों की ईमानदार प्रतिक्रियाओं से जो अग्रगामी चेतना वाला साहित्य जन्म ले रहा था, प्रगतिवाद उसी का सुसंगत ऐतिहासिक विकास था|

 

धर्मवीर भारती की एक बात गौर करने लायक है कि 1936 से पहले ही हिंदी में प्रगतिवाद से सौगुनी शातिशाली प्रवृत्ति छायावाद नहीं थी? तो क्या उस छायावाद को जीवित रखना चाहिए था जो क्रमशः पतनशील होता जा रहा था? लगभग ऐसी ही आलोचना रामवृक्ष बेनीपुरी ने की है:

 

छायावाद का जन्म 1921 की राजनीतिक पराजय की पृष्ठभूमि में हुआ था | 1934 में किसानों और मजदूरों का व्यापक आंदोलन हुआ, उसके कोलाहलों में प्रगतिवाद का जन्म हुआ | प्रगतिवाद मरता नहीं किंतु जिनके हाथों में इसके पालन पोषण का ज़िम्मा रहा, उन्होंने पूतना का काम किया - दूध की जगह ज़हर पिलाया इसे | छायावाद इस ज़मीन की उपज थी | कबीर से लेकर रविंद्र तक इसकी परंपरा रही है | प्रगतिवाद को विदेशों से लाकर हमारे यहाँ रोपा गया | रूस से प्रेरणा मिली, लंदन में गर्भाधान हुआ | हिंदुस्तान में पैदा होकर उसका रंग रूप हिंदुस्तानी नहीं हुआ |

 

बेनीपुरी जी परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं | एक ओर तो वह कहते हैं कि सन 1934 के किसान-मजदूर आंदोलनों के बीच प्रगतिवादी साहित्य का आरंभ हुआ, दूसरी ओर वह कहते हैं कि यह विदेशी है | ऐसी आलोचना बेसिर-पैर की है | संभवतः यह सोशलिस्ट नेता का प्रगतिशील लेखकों के बारे में दुराग्रहपूर्ण आलोचनात्मक रवैय्या है |

 

विश्व परिस्थिति और फासिज्म विरोधी साहित्यिक रुझान

 

प्रगतिशील आंदोलन विश्व के फासीवाद विरोधी आंदोलन का भी एक अंग था| उन दिनों नाज़ी जर्मनी महायुद्ध की घनघोर तैयारिओं में लगा हुआ था| चीन पर जापानी साम्राज्यवादियों ने आक्रमण कर दिया था| युद्धवादी शक्तियां अपने देश की संस्कृतिक शक्तियों को कुचलकर, प्रगतिशील पुस्तकों की होली जलाकर, फासीवाद विरोधी लेखकों को अनेक यातनाएं देकर खूनी आतंक कायम कर रही थी| युद्ध की तैयारियों के कारण मानवता का भविष्य संकट में था, मनुष्य ने अपने सुदीर्घ विकास में जो मानवमूल्य संचित किए थे, लगता था कि वे मिटने को हैं| भारत के लेखकों की सहज सहानुभूति शांति की रक्षा करने वालों के प्रति थी| अप्रैल सन 1936 के ‘हंस’ में प्रेमचंद ने लेखकों की क्रांतिकारी भूमिका के बारे में लिखा था:

 

आज युद्धवाद से लड़ने वाले कौन लोग हैं? यही अदीब|

भारत के प्रगतिशील लेखकों ने दूसरे महायुद्ध का विरोध करके विश्वमानवता का साथ दिया, अपने साहित्य की मानववादी परंपरा को सक्रीय रूप से निबाहा|’[10]

 

राजनीतिक दृष्टि से उस समय हिंदुस्तान साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के दौर से गुज़र रहा था| प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन उसी राजनीति से सचेत रूप में ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दबावों के कारण भी जुड़ गया था| साम्राज्यवादी शिविर में आपसी हितों की वजह से भी टकराव था अर्थात् जर्मनी और ब्रिटेन के बीच के टकराव की वजह से महायुद्ध के काले बदल मंडरा रहे थे| स्पेन में लोकतांत्रिक शक्तियों का दमन हो रहा था| पहली बार गैर-मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को यह लगा की पूंजीवादी लोकतांत्रिक भी फासीवाद के बढ़ते हुए हमलों की वजह से खतरे में है| नात्सीवाद के क्रूर पाशविक हमलों से आतंकित होकर समाजवादी सोवियत संघ और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने भी पूंजीवादी लोकतंत्र का विरोध करने के बजाय फासीवाद के खिलाफ पूंजीवादी लोकतांत्रिक दलों से सहयोग की सार्थकता समझी और लोकप्रिय मोर्चे अथवा संयुक्त मोर्चे की नीति अख्तियार की| इसी पापुलर फ्रंट की जीत पर जनरल फ्रैंकों ने विद्रोह कर दिया और पूंजीवादी लोकतंत्र का समूल विनाश करने के उद्धेश्य से हिटलर और मुसोलिनी ने उसी भारी सैनिक मदद दी| इस तरह यह लड़ाई दुनिया की हर आज़ादीपसंद कौम के लिए फासिज्म के विरुद्ध अपनी लड़ाई प्रतीत होने लगी| इस लड़ाई में भी स्पेनी कम्युनिस्ट पार्टी और स्टालिन के नेतृत्व वाली सोवियत समाजवादी राजसत्ता सबसे आगे थी| स्पेन के इस गृहयुद्ध में सारी दुनिया के स्वाधीनता प्रेमी नौजवान नाज़ियों और फासिस्टों से लड़ने और अजादीपसंद तबको को मदद देने पहुंचे थे| इस अंतराष्ट्रीय ब्रिगेड में भाग लेने वाले अधिकांश नौजवान कम्युनिस्ट थे और ऊँचे आदर्शो से प्रेरित होकर स्पेन गए थे| उन लोगों में विश्वप्रसिद्ध उपन्यास समीक्षक राल्फ फॉक्स एवं संस्कृति और साहित्य के व्याख्याता क्रिस्टोफर काडवेल थे- जो फासिस्टो के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए|

 

हिंदी के प्रगतिशील लेखकों को इन क्रांतिकारी लेखकों के अतिरिक्त उदारपंथी ब्रिटिश बुद्धिजीवियों से भी प्रेरणा मिल रही थी| इन बुद्धिजीवियों में सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ीवाद, पूंजीवाद और फासीवाद के विरुद्द तीव्र अस्वीकार का भाव था| स्टीफेन स्पेंडर, क्रिस्टोफर इशरबुड, बिल आडेन और लुई मेकनीस के नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| इसलिए इन्हें भी प्रगतिशील समझा जाता था| इन लोगों ने अपने आपको राजनीति से अलग नहीं रखा| इन्होने एक ओर अपने देश में पूंजीवाद का दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के तहत स्पेन में उभर रहे फासीवाद का विरोध किया|

 

प्रगतिशील आंदोलन: अनेक प्रकार के रुझानों का संगम 

 

लेखकों के इस संगठन के बनने पर शिक्षित मध्यवर्ग ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया| स्वागत करने वालों में अनेक प्रकार की विचारधारा और संस्कार के बुद्धिजीवी थे| फ्रायडवादी थे और मार्क्सवादी थे, सोशलिस्ट और गाँधीवादी भी; अराजकतावादी, बोहेमियन और व्यक्तिवादी भी| विचाधारा की दृष्टि से यह आंदोलन सुगठित इकाई न था| आमतौर पर मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे वामपंथी नौजवान ही इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे| उनके अलावा स्थापित बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में भी एक तरह का विचारधारात्मक ध्रुवीकरण आरंभ हो गया था| अत: कुछ लोग इसका समर्थन करने लगे थे और कुछ लोग विरोध| प्रेमचंद, पंत, निराला, इकबाल, रविंद्र, मजाज, दिनकर, नवीन, वृंदावन लाल वर्मा, फैज़, मंटो, साहिर, ख्वाजा अहमद अब्बास, बेनीपुरी, प्रभात, अंचल, नरेंद्र शर्मा, सुमन आदि अनेक कवियों-कथाकारों का सहयोग प्राप्त हुआ| पर दूसरी तरफ ब्रिटिश हुकूमत के हितों के सरंक्षकों की ओर से इस आंदोलन पर हमला भी बोला जाने लगा| उस समय अंग्रेज़ भक्त समझे जाने वाले अख़बार ‘स्टेट्समैन’ की ओर से पहला आक्रमण हुआ| उसमें इस आंदोलन के संबंध में कई लेख प्रकाशित हुए, जिनमें यह सिद्ध करने की कोशिश की गई थी यह आंदोलन यूरोप से पढ़कर आने वाले तरुण कम्युनिस्टों ने चलाया है, इसमें कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का हाथ है और ये लोग सोवियत रूस के एजेंट है| इन आरोपों में सत्य सिर्फ़ इतना ही था कि इस आंदोलन के संगठनकर्ताओ में सज्जाद ज़हीर, हीरेन मुखर्जी और महमूद ज़फर कम्युनिस्ट थे और उन्होंने यूरोप में शिक्षा प्राप्त की थी| इसके बाद दूसरा हमला सरकार की तरफ से हुआ| पहले संयुत प्रांत की सरकार ने ‘अंगारे’ नामक कहानी संकलन को जब्त किया| इसके बाद लाहौर में मंटो की दो कहानियों (‘काली शलवार’ और ‘बू’) तथा इस्मत चुगताई की एज कहानी (‘लिहाफ’) को निशाना बनाकर ‘अश्लील’ और परंपराविरोधी साहित्य लिखने के जुर्म में मुक़द्दमे चलाए गए| इन दिनों लेखकों को पत्र-पत्रिकओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के उद्देश्य से पूरा समर्थन दिया| यह खुल्लमखुल्ला लेखक की आज़ादी का दमन माना गया और इनके मुक़द्दमो की पूरी ताकत से पैरवी की गई|

 

प्रगतिशील आंदोलन के प्रारंभिक दौर में सहज आकर्षणवश अनेक प्रकार के बुद्धिजीवी उसके साथ आए| पर वे कौन लोग थे? क्या प्रगतिशील लेखक संघ के उद्देश्यों का वे ईमानदारी से पालन करते थे? या मध्यवर्ग के रईस घरानों के लोगो की फैशनपरस्ती और प्रगतिशीलता का चस्का बढ़ रहा था? इस संबंध में एक घटना का उल्लेख आवश्यक है|

 

बात 1936 के नवंबर महीने की है| घटना इलाहबाद विश्वविधालय की हिंदी सभा से संबंधित है| प्रेमचंद के निधन पर शोक सभा हुई थी| उस सभा में शरीक प्रगतिशीलों को देखकर निराला के मन में यह धारणा बनी कि प्रगतिशील लेखकों में ज़्यादातर वे ही हैं जो बड़े घरानों के हैं, ऊँची डिग्रियां और समाजवादी विचारधारा का एक बौद्धिक आवरण यूरोप से लेकर आए हैं तथा मुक्त घुमती हुई नवशिक्षित आधुनिकताएं हैं| उनकी यह धारणा सज्जाद ज़हीर, फ़िराक, जोश, हाजरा बेगम, उमा नेहरु, श्याम कुमारी नेहरु और चंद्रावती त्रिपाठी को देखकर बनी थी| इससे निराला क्षुब्ध हुए| रामविलास शर्मा ने लिखा है:

 

प्रगतिशील लेखकों से निराला का यह प्रथम परिचय था| प्रेमचंद इन सबका साथ दे चुके थे पर बहुत थोड़े दिन तक| निराला के मन में प्रेमचंद की तस्वीर एक हिंदी लेखक की तस्वीर थी, निराला की अपनी तस्वीर से मिलती-जुलती, अभावों की दुनिया में जूझते हुए ऐसे लेखक की तस्वीर जिसका ज्यादा समय साहित्यचर्चा और साहित्य लिखने में बीता था | पर ये प्रोग्रेसिव रायटर्स सम्रद्ध घरानों के लोग थे, लेखकों से ज्यादा नेता थे; विशेष रूप से हिंदी साहित्य से अपरिचित, लेकिन दूसरों को रास्ता बताने को उत्सुक थे|[11]

 

रामविलास शर्मा की इस टिप्पणी में अनेक प्रकार की असंगतियां हैं| पहली बात तो यही है कि एक पराधीन देश में क्या अमीर घरानों के नौजवान प्रगातिशील दृष्टिकोण का विकास ही नहीं कर सकते? ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता की भावना क्या समाजवादी ही नहीं कर सकते? ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता की भावना क्या समाजवादी रुझान ग्रहण नहीं कर सकती? अगर निराला इसे नहीं समझ पा रहे थे तो फिर निराला की आड़ लेकर सज्जाद ज़हीर, फ़िराक वगैरह के प्रति भर्त्सना का रुख अतार्किक प्रतीत होता है|

 

पी.सी. जोशी और सज्जाद ज़हीर इलाहबाद में पंत को प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल करने के प्रयत्न में सन 1936-37 तक सफल हो गए थे| इस नई विचारधारा से लैस होकर पंत भौतिकवादी हो गए थे, ऐसा प्रतीत होने लगा था| रामविलास शर्मा ने लिखा है:

 

पंत उन दिनों अपनी कवितओं में सिद्ध कर रहे थे की रूप ही भाव का मूल है| इसी दर्शन के अनुरूप उन्होंने पत्र का नाम ‘रूपाभ’ रखा| ‘रूपाभ’ संबंधी विज्ञप्ति में जवाहरलाल नेहरु, गोविन्द वल्लब पंत, जैनुल आबदीन अहमद, कुंअर मुहम्मद अशरफ आदि अनेक राजनीतिज्ञों का नाम था जिन्हें हिंदी साहित्य से कोई सरोकार न था| निराला को यह सब बहुत बुरा लगा| पंत का प्रगतिशील आंदोलन के साथ आना भी पसंद न था| उनका विचार था की वेदांत की भूमि से जनता की जैसी सेवा की जा सकती है, जैसा क्रांतिकारी साहित्य रचा जा सकता है, वैसा अन्य किसी दर्शन की भूमि से नहीं|

 

रामविलास शर्मा निराला की विचारभूमि पर खड़े होकर पंत ही नहीं, संपूर्ण प्रगतिशील आंदोलन को भी संदिग्ध दृष्टि से देख रहे थे| क्या ऐतिहासिक एवं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के बजाय वेदांत के दर्शन से समाज के अंतर्विरोधों की समझा जा सकता था?

 

उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी नेतृत्व में प्रांतीय सरकार बन चुकी थी जिसमे गोविंद वल्लभ पंत आदि सरकार के ज़िम्मेदार पदों पर आसीन थे| प्रगतिशील आंदोलन के लिए इन लोगों के पद और प्रतिष्ठा के दबदबे का इस्तेमाल होने लगा था, ऐसा आरोप लगाने वाले पंत, निराला और महादेवी वर्मा को भी प्रकारांतर से लांछित कर रहे थे| उनके अनुसार एक ओर जहाँ प्रगतिशील आंदोलन में शरीक होना महत्व का काम हो गया था, वहीँ दूसरी ओर जो लोग अब तक शरीक नहीं हुए थे, उनपर आतंक भी कम न था| इस वस्तुस्थिति पर लक्ष्मीकांत वर्मा का ब्योरा दृष्टव्य है:

 

हिंदी साहित्य में कम्युनिस्ट पार्टी के साहित्यिक दल, प्रगतिशील लेखक संघ ने लगभग दस वर्षों तक ऐसा आंदोलन चलाया था जिसके परिणामस्वरूप हिंदी के अनेक साहित्यकारों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह अपने को प्रमाणित करने के लिए किसी न किसी रूप में प्रगतिशील लेखक संघ से अपना संबंध स्थापित कर लें| इस भाग-दौड़ में छोटे बड़े सभी शामिल थे| यहाँ तक कि पंत, निराला, महादेवी वर्मा भी इससे नहीं बच सके| प्रगतिशील लेखक संघ के पास ‘हंस’, ‘नया साहित्य’, ‘जनयुग’, ‘वीणा’, वसुधा’ आदि अनेक पत्रिकाएं थीं जिनके माध्यम से लेखकों का प्रचार-प्रचार तो होता ही था, साथ ही उनको प्रतिष्ठा भी मिलती थी| 

 

मुख्य चुनौती: सांप्रदायिक रूढ़ीवाद की भाषानीति   

 

लक्ष्मीकांत वर्मा, धर्मवीर भारती, बेनीपुरी आदि की टिप्पणियों से यह स्पष्ट है कि मार्क्सवादी विचारधारा की प्रेरणा से आरंभ होने वाले प्रगातिशील आंदोलन के प्रति उनका रवैय्या शत्रुतापूर्ण है| पर चौथे दशक के उस दौर में प्रगतिशील आंदोलन के सामने चुनौती इन लोगो की तरफ से न आकर मुख्य रूप से साहित्य सम्मेलन के कर्णधारों और हिन्दू रूढ़ीवाद की ओर से आ रही थी| प्रेमचंद, महात्मा गाँधी और नेहरु द्वारा समर्थित हिंदी-उर्दू एकता की मांग के विरोध में हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक अधिवेशन (1937) के सभापति पद से टंडन जी ने सिंहगर्जना की थी| कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और अनेक तथाकथित राष्ट्रिय नेताओं द्वारा हिंदुस्तानी की जो मांग उठाई जा रही थी, उसका सख्त विरोध हिंदी-उर्दू के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध और अलगाव की भावना को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से हो रहा था| 1937 के फैजाबाद साहित्य सम्मेलन पुरषोत्तमदास टंडन और 1939 के बनारस साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष अंबिकाप्रसाद वाजपेयी के द्वारा हिंदुस्तानी की धारणा और आंदोलन पर ज़बरदस्ती प्रहार किया गया था| बनारस साहित्य सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय भी इस संबंध में भाषा के प्रश्न पर हिन्दू कट्टरता का ही दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे थे| हिंदुस्तानी के समर्थन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद अकेले पड़ गए| हिंदी-उर्दू एकता के नाम पर हिंदुस्तानी और उसके लिए दोनों लिपियों को समाप्त कर रोमन लिपि अपनाए जाने की अव्यवहारिक और औपनिवेशिक ज़हनियत का विरोध करते हुए काका साहब कालेलकर ने देवनागरी के सुधार पर बल दिया था| इस विवाद को उस सम्मेलन की साहित्य शाखा के अध्यक्ष निराला वैज्ञानिक ढंग से हल करने के पक्ष में थे| उनका कहना था: ‘हिंदी प्राचीन गरिमा के साथ विश्व की नवीन विभूतियों को अपने भीतर डाल रही है|’ उनके इस दृष्टिकोण का विरोध तथा हिंदुस्तानी का समर्थन बालकृष्ण शर्मा नवीन की ओर से हुआ| अत: प्रगातिशील आंदोलन के सामने भाषा, संस्कृति, जातीयता आदि के सवाल पर जनवादी हल प्रस्तुत करने की गंभीर चुनौतियां थीं और हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष छोड़ने की ऐतिहासिक जिम्मेदारियां आ गई थी| स्वाभाविक था कि इन प्रश्नों पर अंदरूनी मतभेद भी हो| शिवदान सिंह चौहान ने इस मतभेद की तरफ इशारा किया है:

 

प्रारंभ से प्रगतिवादी राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर हिंदुस्तानी का समर्थन करते आए है| इस समर्थन के लिए उन्हें तीन बातों से प्रेरणा मिली| पहली बात तो यह थी कि हिंदुस्तानी को उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक समझा और चूँकि प्रगतिवादी सांप्रदायिकता पक्ष मानकर उनके दृष्टिकोण को समझना अवांछनीय माना| दूसरे, इससे उन्हें राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर गहराई से सोचने से जैसे छुट्टी मिल गई और सरल समाधानों को ही स्वीकार करके उन्होंने अपनी इतिकर्त्तव्यता मान ली| तीसरे प्रगतिवादी आंदोलन में हिंदी और उर्दू में से किसी एक का पक्ष न लिया जाए बल्कि दोनों की ऐतिहासिक परंपराओं की एकता पर ज़ोर दिया जाए|[12]

 

हिंदी-उर्दू विवाद पर जनवादी दृष्टिकोण अख्तियार करने के लिए हिंदी-उर्दू लेखकों का सम्मेलन बुलाना आवश्यक समझा गया| एक तो इसलिए कि हिंदू संप्रदायवादियों और मुस्लिम संप्रदायवादियों की मार्फ़त ब्रिटिश हुकूमत हिंदीभाषियों की जातीय एकता को खंडित करने के लिए मज़हबी भावना को उकसा कर भेदभाव की नीति बरत रही थी| अत: औपनिवेशिक दासता से मुक्ति पाने के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में हिंदुस्तान की राष्ट्रिय एकता के लिए जनता के एकता अथवा विभिन्न उत्पीड़ित वर्गों की एकता के अलावा विभिन्न भाषा-भाषी जातीयताओं की एकता का सवाल प्रमुख बन गया था| पर यहाँ तो हिंदी-उर्दू समस्या को मूलत: एक ही जाति (हिंदी-उर्दू भाषी जातीयता) की दो भाषाओँ का सवाल बनाकर खड़ा किया गया था| एक जाति की दो भाषाएं न रही हैं, न हो सकती हैं यह मानकर ही चला गया| अत: जातीय जीवन को संगठित करने के उद्देश्य से 1938 में इलाहबाद में हिंदी-उर्दू के प्रगातिशील लेखकों का सम्मेलन बुलाया गया| बहस के लिए और एकता के लिए मुख्य सवाल तो साहित्य में प्रगतिशीलता की समस्या थी, पर मिली जुली कौमियत अथवा कम्पोज़िट कल्चर का सवाल भी गौण न था| इस सम्मेलन में पं. नेहरु शरीक हुए थे|

 

अपने हर सम्मेलन और अधिवेशन के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ के पदाधिकारी प्रतिष्ठित नेताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा करने में सफल हो जाते थे, अत: उनका सगंठन के स्तर पर ज़ोर बढ़ता और मज़बूत होता चला जा रहा था| इस सम्मेलन में उर्दू भाषा और साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान मौलवी अब्दुल हक़ को अध्यक्ष बनाया गया था| अध्यक्ष पद से उन्होंने प्रतिक्रियावादियों को दक्षिणपंथी अवसरवाद और भटकाव के खतरे बताए| उन्होंने साफ़ तौर पर प्रगातिशील लेखकों की लोकप्रियता और ख्याति के लोभ में आकर प्रतिक्रियावादियों से मित्रता के खतरे की ओर संकेत किया| इससे ज़ाहिर होता है कि उपयुक्त समय पर खतरे से सचेत कर दिया गया था| पर जहाँ तक एक जाति की एक भाषा के दृष्टिकोण थे| अत: उनके दृष्टिकोण से हिंदी-उर्दू के अलगाव को ख़त्म करने की मांग भी प्रतिक्रियावाद के बहकावे में आना था| प्रगतिशील लेखक संघ के अंदर ही कई लोग ऐसे थे जो मौलवी अब्दुल हक़ के स्वर में स्वर मिलाकर उर्दू-हिंदी की अलग-अलग लिपियों को मान्यता पट अडिग थे| अली सरदार ज़ाफरी ने यह मत प्रकट किया था कि उत्तर भारत में दो लिपियों का चलन अनिवार्य है| उनका कहना है कि दो लिपियों का चलन मध्यकाल के भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन की देन था| उनके एस तर्क का उत्तर देते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है:

 

आखिर सूफी और भक्ति कवि हिंदी प्रदेश के अलावा अन्य प्रदेशों में भी तो हुए थे? यदि क्रन्तिकारी विचारधारा के प्रभाव से दो लिपियों के चलन और एक भाषा के दो साहित्यिक रूपों के विकास की बात सही हो, तो बंगाल में दो तरह की बांग्ला और दो तरह की लिपियाँ, महाराष्ट्र में दो प्रकार की लिपियाँ और दो तरह की साहित्यिक भाषा प्रचलित होनी चाहिए| क्रांतिकारी विचारधारा जनता में एकता उत्पन्न करती है, एक ही बोलचाल की भाषा के दो साहित्यिक रूप उत्पन्न नहीं करती|[13] .... एक ही भाषा के दो साहित्यिक रूपों से जो अलगाव पैदा हुआ, उसके मूल में भक्त और सूफी नहीं थे| हिंदी प्रदेश के हिन्दुओं और मुसलमानों में संस्कृतिक और भाषागत अलगाव के लिए ज़िम्मेदार थे - यहाँ के सामंत और उनसे मित्रता करके उन्हें गद्दी से उतारने के लिए ज़िम्मेदार थे – यहाँ के सामंत और उनसे मित्रता करके उन्हें गद्दी से उतारने या अपनी कठपुतली बनाने वाले अंग्रेज़|

 

तत्कालीन बहस में हिस्सा लेने वाले अनेक लेखकों की ओर से रामविलास शर्मा के तर्कों की असंगति बतलाते हुए यह कहा गया कि हर भाषा अपने क्षेत्र की ठोस परिस्थितियों और परंपराओं से जीवन ग्रहण करती है| अत: हिंदी-उर्दू भाषी विशाल क्षेत्र पर तमिलनाड, बंगाल, केरल के भाषाई विकास के तर्क आरोपित नहीं किये जा सकते| गैर-हिंदी भाषाई क्षेत्रो में अंग्रेजी राज भाषाई शत्रुता के विष बीज बो नहीं पाया था|

 

प्रगतिशील लेखकों का कहना था कि हिंदी के पुनरुत्थानवादी और रूढ़ीवादी लेखक साहित्यिक भाषा की संस्कृत को तत्सम पदावली की ओर ले जाने की कोशिश करते रहे हैं और उर्दू के संकीर्ण दृष्टिकोण वाले कुछ लेखक उर्दू को अरबी-फारसी की ओर लगातार ले गए हैं| अत: साहित्यिक भाषा को संस्कृत की ओर या अरबी-फारसी की ओर ले जाना दोनों प्रकार के प्रयत्न संकुचित वर्ग-आधार की उपज है| दूसरी तरफ हिंदी और उर्दू के ऐसे भी लेखक रहे है और उन लेखकों की एक लम्बी ऐतिहासिक परंपरा है, भले ही वह अब धूमिल और क्षीण हो गई हो| प्रगातिशील आंदोलन इसी परंपरा को पुष्ट और पल्लवित करे अर्थात् अमीर खुसरो, वजही, कुल्ली, क़ुतुब शाह, मीरा, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, सौदा, मीर, भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र, नजीर, बालमुकुंद गुप्त, प्रेमचंद आदि की जनवादी साहित्यिक परंपरा से अपने को जोड़े और विकसित करे| जब बोलचाल में हिंदी-उर्दू एक है तो फिर साहित्य में वह अलग क्यों हों? साहित्य जनता के लिए होता है, न की सिर्फ़ अवकाशभोगी अल्पसंख्यक उच्च शिक्षित वर्ग के लिए प्रगतिशील आंदोलन जब जनता के लिए साहित्य की बात करता है तो फिर जनता की भाषा में साहित्य लिखा जाए| हिंदी-उर्दू के प्रबुद्ध लेखक जिन महत जनवादी उद्देश्यों को ध्यान में रखकर पास पास आए थे, उन्हें हर स्तर पर व्यवाहर में लागु करें- यह मांग प्रगतिशील लेखकों के बीच से होने लगी| रामविलास शर्मा ने उस अवधि को याद करते हुए लिखा है: यह बिलकुल सही है कि सन 1936 के आसपास हिंदी और उर्दू लेखकों की एक बहुत बड़ी संख्या जितना एक दूसरे के निकट आई, उतना पहले कभी न आई थी| फलत: रचना के स्तर पर उर्दू में प्रगतिशील लेखकों की ज़बरदस्त फ़ौज तैयार हो गई जिनमें हसरत मोहानी, फ़िराक मजाज़, मखदूम मुहीउद्दीन, अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, फैज़, वामिक जौनपुरी, जांनिसार अख्तर, साहिर लुधियानवी आदि कवि और कृष्णचंदर, रशीद जहाँ, राजेंद्र सिंह बेदी, अश्क, मंटो जैसे कहानी लेखक और सैयद एहतिशाम हुसैन और अब्दुल अलीम जैसे आलोचक प्रमुख हैं| रामविलास शर्मा ने आरोप लगाया है कि प्रगातिशील लेखक संघ के अंदर ही एक कौम की एक भाषा के दो साहित्यिक रूप के पक्षधर भी थे| उनके इस आरोप को बलराज साहनी के संस्मरणों से पुष्टि मिलती है| बलराज साहनी ने चौथे दशक के अंतिम दिनों और पांचवे दशक के प्रारंभिक वर्षों के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों का हवाला देते हुए लिखा है:

 

हाँ, लेकिन जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में जाता तो मेरा दिल बैठ सा जाता है| मैं देखता कि वहाँ भी हिंदी और उर्दू के सवाल पर लेखक दो हिस्सों में बंट रहे थे| मैं सोचता कि मार्क्सवादियों का काम है इस नकली भेद की दीवार को तोड़ना, न कि उसे परवान चढ़ाना| पर इस अंदरूनी मतभेद पर जन आंदोलनों का ऐसा ज़बरदस्त दबाव था कि यह कभी उग्र रूप नहीं ले पाया| मेहनतकश, किसान तथा प्रगतिशील मध्यमवर्ग के हिंदू-मुस्लिम जब जनसंग्राम में साथ-साथ उतरते तो वर्ग एकता दृढ़ होती और फलत: सांप्रदायिकता का ज़हर दिल से निकल जाता|

 

प्रगतिशील लेखक संघ का विस्तार     

 

हिंदी-उर्दू के लेखकों की एकता की दिशा में सफल कोशिशों के बाद प्रगतिशील लेखक संघ का अखिल भारतीय स्तर पर दिसंबर 1938 ई. में कलकत्ता अधिवेशन में विस्तार होता है| ध्यान देने की बात है कि इस अधिवेशन की अध्यक्षता रविन्द्रनाथ ठाकुर से करवाने की योजना क्यों बनाई गई थी? क्या रविंद्रनाथ ठाकुर सर्वहारा चेतना से लैस सामाजिक यथार्थवाद के लेखक थे? क्या वे प्रगतिशील लेखक माने जाने लगे थे?

 

कोई भी प्रगतिशील समीक्षक उन्हें सामाजिक यथार्थवादी न तो तब समझता था और न अब| हिटलरी नेतृत्व में जो फासिज्म सबको आतंकित किए हुए था, ब्रिटिश साम्राज्यवाद जिस क्रूर ढंग से कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का दमन कर रहा था और स्वाधीनता आंदोलन की ताकतें जिस तेज़ी से उभर रही थीं, उन परिस्थितियों में रवींद्रनाथ ठाकुर प्रतिक्रियावादी ताकतों का विरोध करने लगे थे और प्रगति की ताकतों का समर्थन करने लगे थे| 1930 ई. में रूस यात्रा से लौटने के बाद ‘रूस से चिट्ठी’ नामक उनकी पुस्तिका का प्रकाशन हुआ और भारत की हर भाषा में लाखों की संख्या में उसके अनुवादों का वितरण हुआ| रूस के समाजवादी नवनिर्माण से वह प्रभावित हुए थे और अपने मानवतावादी सपनों को व्यवाहर में चरितार्थ देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई थी| ब्रिटिश हुकूमत ने ‘रूस से चिट्ठी’ नामक पुस्तिका के प्रकाशन और वितरण पर पाबंदी लगा दी चूँकि साम्राज्यवादी शासकवर्ग को लगा कि उस पुस्तिका से बोल्शेविक सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार होता था| रविंद्रनाथ के बारे में मार्क्सवादी लेखकों की समझ क्या थी, इसका अंदाज़ा बांग्ला के लेखक उत्पल दत्त और हिंदी-उर्दू के लेखक हंसराज रहबर की टिप्पणियों से लगाया जा सकता है| उत्पल दत्त 1930 के बाद रविंद्रनाथ ठाकुर को प्रगतिशील लेखक मानते हैं| पर हंसराज रहबर उन्हें बुर्जुआ मानवतावादी लेखक मानते हुए भी उन्हें साहित्य की प्रगतिशील भूमिका से इंकार नहीं करते|

 

अत: साम्राज्यवाद विरोधी, फासिस्ट विरोधी और सामंतवाद विरोधी संघर्ष के उस दौर में लेखकों का व्यापक मोर्चा बनाने के उद्देश्य से रविंद्रनाथ ठाकुर को भी शामिल कर लिया गया| लगभग इसी समय जापान के फासिस्ट कवि नागूची की रविंद्रनाथ ठाकुर ने भर्त्सना की थी| अत: प्रगातिशील बुद्धिजीवियों के बीच वे लोकप्रिय हो गए थे| बीमारी के कारण रविंद्रनाथ कलकत्ता अधिवेशन में उपस्थित न हो सके| किंतु उन्होंने लिखित संदेश भेजा:

 

जनता से अलग रहकर हम बिलकुल अजनबी बन जाएंगे| साहित्यकारों को मनुष्यों से मिलजुल कर उन्हें पहचानना है| मेरी तरह एकांतवासी रहकर उनका काम नहीं चल सकता| मैंने एक मुद्दत तक समाज से अलग रहकर अपनी साधना में जो गलती की है, में उसे समझ गया हूँ और यही वजह है की यह संदेश दे रहा हूँ| मेरी चेतना का तकाज़ा है कि मानवता और समाज से लगाव रखना चाहिए और प्रेम करना चाहिए| अगर साहित्य मानवता से तादात्म्य स्थापित न कर सका तो वह अपने लक्ष्य और आकांक्षाओं को पाने में विफल रहेगा| यह सत्य मेरे दिल में उस चिराग की तरह रौशन है जिसे कोई दलील या तर्क-वितर्क बुझा नहीं सकता|

 

एक बुर्जुआ रूमानी कवि का साहित्य संबंधी यह जनवादी दृष्टिकोण समाज के बदले हुए संदर्भ और सारी दुनिया में समाजवाद की बढ़ती हुई ताकतों का भावात्मक प्रतिफल था| प्रगतिशील लेखक संघ के प्रारंभिक दौर में रवींद्रनाथ का यह भावुक समर्थन भी बल प्रदान करता था|

 

24-25 दिसंबर 1938 को प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में घोषणापत्र वितरित किया गया| उस घोषणापत्र में यह कहा गया कि भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है, पर प्रतिक्रियावाद अब भी सक्रीय हैं, अत: प्रगतिशील लेखक संघ का उद्देश्य उन रूढ़ीवादी वर्गों से साहित्य और कलाओं की रक्षा करना होगा जिनके हाथ में वे अब तक घिनौनी बनती रही हैं| उन्हें हमें जनता के मन-प्राण के निकट लाना होगा, उन्हें इतना सजीव बनाना होगा कि वे जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त कर सकें और हमें हमारे अभिप्रेत आदर्श तक पहुंचा सकें|

 

भारतीय भाषाओँ के अनेक साहित्यकार इस सम्मेलन में आए थे| प्रेमचंद ने ‘हंस’ के माध्यम से जिस अंतरप्रांतीय साहित्यिक एकता के आंदोलन का आरंभ किया था यह उसी का विकसित रूप था| ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद ने उक्त अवधी के प्रगतिशील आंदोलन का मूल्यांकन मलयालम साहित्य के प्रसंग में किया है:

 

केरल में प्रगतिशील साहित्य का आविभार्व पार्टीजन साहित्य के रूप में हुआ| कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने, जो मूलत: साहित्यकर्मी नहीं थे, 1937 में ‘जीवन साहित्य संघम’ नामक एक संगठन गठित किया| एक साल पहले लखनऊ में हुई प्रगतिशील लेखकों की अखिल भारतीय कांफ्रेंस द्वारा किए गए आह्वान से इन लोगों ने इस ओर काम करने की प्रेरणा प्राप्त की| यह सही है कि बाद में (1944) जब इसका नाम ‘प्रोग्रेसिव राइटर ऑर्गेनाइजेशन’ कर दिया गया तथा इसके नेतृत्व की बागडोर विख्यात साहित्यकारों के हाथ में सौंप दी गई, तब इस संगठन का स्वरुप और दृष्टिकोण भी बदल गया| किंतु अपने राजनीतिक विचारों के अनुसार एक नए प्रकार के साहित्य को सामने लाने के लिए, मजदूर-किसान आंदोलनों के साथ-साथ दृढ़ता से जुड़े हुए साम्यवादी कार्यकर्त्ताओं (इस काल के कांग्रेस समाजवादी कार्यकर्त्ताओं) द्वारा किए गए प्रयत्नों की परिणामस्वरूप ‘जीवन साहित्य संघम’ नामक भूतपूर्व संगठन पुन: अस्तित्व में आ गया| ‘पट्टा बाकी’ तथा ‘रक्थपानम’ नामक दो नाटक, अनेक लघु कहानियाँ, कविताएं और अन्य कलाकृतियाँ, इस काल के प्रगतिशील साहित्य की महत्वपूर्ण देन है| के. दामोदरन, जिन्होंने दो नाटक लिखे थे, चैरकुड के.जी.जी., अजुथ कुरटम तथा अन्य, जिन्होंने कविताएँ एवं कहानियाँ लिखीं, उस समय के ऐसे युवा लेखक थे जिन्होंने सिर्फ़ जन आंदोलन के विकास हेतु ही अपना साहित्य लिखा|

 

मलयाली साहित्य में जो प्रगतिशील साहित्य का आंदोलन आरंभ हुआ, उस दौर का मूल्यांकन करते हुए नबूदिरिपाद ने सामान्य भारतीय साहित्य के संदर्भ में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जिनका सारांश यह है कि संस्कृति के क्षेत्र मेंन अथवा विचारधारात्मक आंदोलनों के क्षेत्र में क्रांतिकारियों की बुनियादी राजनीति होती है- ज़िम्मेवार प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करना| यही कारण था कि उस समय साम्यवादी और दूसरे लेखक साथ-साथ कार्य करने के लिए तैयार थे और इसलिए राजनीतिक क्षेत्र के समान साहित्यिक क्षेत्र में भी 1944 तक लेखकों का व्यापक संयुक्त मोर्चा कायम हो सका| किंतु यह भी सच है की भविष्य के संभावित संघर्षो के बीज भी इसी जनवादी एकता में प्रसुप्त पड़े थे|

 

1938 के कलकत्ता अधिवेशन ने भारतीय साहित्य के प्रबुद्ध लेखकों का व्यापक संयुक्त मोर्चा कायम करने के लिए पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया| इसके पश्चात् प्रेमचंद की मृत्यु के बाद भी ‘हंस’ को ही इस महत आयोजन का मंच बनाया गया| फरवरी 1939 से श्रीपतराय के संपादकत्व में ‘हंस’ ‘अंतर प्रांतीय साहित्यिक प्रगति का अग्रदूत’ बनाया गया और उसके संपादक मंडल में उर्दू से मौलाना अब्दुल हक़, उड़िया से कालिंदी चरण पाणिग्राही, बांग्ला से नंदगोपाल सेनगुप्त, मराठी से वि.स. खांडेकर, कन्नड़ से वि. अश्वत्थ नारायण राव आदि को रखा गया|

 

प्रगतिशील लेखकों के जनवादी मोर्चे के गठन की समस्या

 

लेखकों के इस व्यापक जनवादी मोर्चे के दौर की अंदरूनी कठिनाइयाँ भी थी| हिंदी के प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन को व्यापक बनाने की कोशिश की जा रही थी| पर सवाल था क्या उसे सिद्धांतहीन संयुक्त मंच बना दिया जाए? इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है:

 

इस आंदोलन की सबसे बड़ी समस्या मार्क्सवाद से प्रभावित लेखकों की एकता की समस्या रही है| प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन मार्क्सवाद से प्रभावित रहा है, यह एक ऐतिहासिक सचाई है| मार्क्सवाद से प्रभावित साहित्य एक ओर, और मार्क्सवाद से अप्रभावित उससे भिन्न विचारधारा से प्रभावित, राष्ट्रिय और जनवादी साहित्य दूसरी ओर दोनों ही तरह के साहित्य और साहित्यकारों की एकता हमारी संस्कृति और समाज के लिए आवश्यक थी|

 

मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी लेखकों का व्यापक जनवादी मोर्चा बनाने की दृष्टि से ‘हंस’, ‘रूपाभ’, ‘संघर्ष’, आदि पत्रिकाओं का प्रयास सराहनीय था| इसके आलावा प्रगातिशील लेखक संघ की बैठकों में गैर-मार्क्सवादी लेखकों को भी आमंत्रित करने का सिलसिला जारी रहा| उन दिनों छायावाद के लगभग सभी प्रमुख कवि प्रगतिशील आंदोलन के साथ जुड़ गए थे| उनके अलावा अमृतलाल नागर, सुमन, दिनकर, नरेंद्र शर्मा, अंचल, पहाड़ी, नेमिचंद्र जैन, हरिनारायण व्यास, भारतभूषण अग्रवाल, गिरिजाकुमार, अश्क, कृष्णचंदर, बलराज साहनी, शील, शंकर शैलेंद्र, चंद्रकुंवर, रामिविलास शर्मा, राहुल, यशपाल, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, नरोत्तम सागर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर, बेनीपुरी, मिलिंद, राम इक़बाल सिंह ‘राकेश’, अमृतराय, श्रीपतराय आदि न जाने कितने लेखक प्रगातिशील आंदोलन के समर्थक या हमदर्द हो गए| संगठन की दृष्टि से कौन-कौन अनुशासित रहा, यह प्रश्न अप्रासांगिक है| रचना के स्तर पर आलोचनात्मक यथार्थवाद, क्रांतिकारी रूमानी दृष्टिकोण और सामाजिक यथार्थवाद, इन तीनो प्रणालियों के तत्व उस समय उभरे| चंद्रबली सिंह ने इसकी प्रष्ठभूमि के बारे में ठीक ही लिखा है:

 

प्रगतिवादी आंदोलन हमारे राष्ट्रिय जागरण और समाजवादी विचारधारा का संगम था| उसमे दृष्टिकोण की विविधता और वर्गचेतना के अनेक रूपों और स्तरों का होना स्वाभाविक था| उनके विभिन्न तत्वों में सहयोग और संघर्ष का होना भी उतना ही स्वाभाविक था| इसी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के माध्यम से प्रगतिशील आंदोलन का विकास हुआ, हमारे साहित्यिकों में जीवन की पकड़ गहरी हुई और यथार्थवाद हमारे साहित्य की मुख्य धारा बन सका| इस प्रक्रिया से गुज़रते हुए अनेक लेखकों ने अपने सुधारवादी या पूंजीवादी मानवतावादी दृष्टिकोण को क्रन्तिकारी मोड़ दिया|          

                                             

पर इसका एक दूसरा पक्ष भी इस प्रयास के अंदर से पनपना आरंभ हुआ– वह था आंदोलन को व्यापक बनाने के प्रयास में मार्क्सवादी विरोधी रुझानों, फ्रायडवादी प्रवृतियों, परंपराभंजक दृष्टिकोण की अंधभावना, प्रकृतिवाद, अराजकतावाद आदि के विरुद्ध संघर्ष से मुँह चुराना| ऐसा इसलिए हुआ कि प्रगातिशील लेखक संघ का नेतृत्व जिनके हाथ में था, उन्हें मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी लेखकों की द्वंद्वात्मक एकता के चरित्र की सही पहचान न थी|

 

1938-39 आते-आते ‘रूपाभ’ के संपादक सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा ने भी खुलेआम प्रगतिवाद का समर्थन और छायावाद के पतन या समाप्त होने की घोषणा कर दी| विभिन्न पत्र-पत्रिकओं में ‘साहित्य में प्रगतिवाद’ की प्रतिष्ठा की घोषणा की जाने लगी| मार्च 1937 के ‘विशाल–भारत’ में शिवदान सिंह चौहान का यह लेख वही है जो उन्होंने 1936 में लखनऊ में हुए हिंदी-उर्दू प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में पढ़ा था| अपने इस निबंध में लेखक ने हिंदी ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय साहित्य के संबंध में यह मत व्यक्त किया था कि भारतीय साहित्य में सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देने की प्रवत्ति नहीं रही है| विदेशी लेखकों में जो प्रगतिशील हैं, उनमें हेनरी बारबूज, आंद्रे जीद, मेलराक्स आदि का उल्लेख किया| इसके अतिरिक्त भारतीय लेखकों में केवल एक लेखक उन्हें प्रगातिशील प्रतीत हुआ- मुल्कराज आनदं| हिंदी लेखक किस प्रकार अपनी संकुचित परिधि में बंद हैं, फिर भी विश्व साहित्य का कर्णधार बनने का दावा करते हैं इसका भी हवाला दिया:

 

वे भी इतने नादान हैं कि प्रगतिशील और प्रगतिविरोधी शक्तियों में भेद नहीं कर सकते  हालांकि विश्व साहित्य का कर्णधार बनने का ताव वे मूंछो पर रोज़ दिया करते है| एक छोटा सा ज़रा रोचक उपन्यास लिख लिया, तो उसे वे टालस्टाय की कब्र पर और रोमां रोलां के सर पर पटक देते है, और कहते है, लो, देख लो, तुमसे अच्छा है|

 

अपने उक्त लेख में शिवदान सिंह चौहान ने छायावाद से प्रगतिवाद की होड़ समझते हुए छायावाद को प्रतिक्रियावादी साहित्यिक धारा घोषित कर दिया:

 

इस छायावाद की धारा ने हिंदी के साहित्य को जितना धक्का पहुंचाया, उतना शायद ही हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग ने भारत को पहुंचाया हो|

 

यह गलत रुझान कि पिछले विकास के स्वस्थ और जीवंत तत्वों को भी अस्वीकार किया जाए, प्रगतिवाद को प्रतिष्ठित करने के अतिरिक्त उत्साह से पैदा हुआ था| इस प्रकार के परंपराभंजक दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए रामविलास शर्मा ने उसी दौर के प्रसंग में लिखा:

 

चौहान भारतीय साहित्य के समस्त विकास को अस्वीकार कर नए साम्यवादी यथार्थवाद की स्थापना का स्वप्न देख रहे थे और समझ रहे थे कि साहित्य में लेनिनवादी विचारधारा को लागू करने का यही तरीका है|

 

छायावादी काव्यांदोलन के अंदर अनेक सकरात्मक प्रवृत्तियां भी थी| इसके अतिरिक्त छायावाद के उन्नायकों का समर्थन यथार्थवाद की इस नई साहित्यिक प्रवृत्ति को मिलने लगा था, ऐसी हालत में छायावादियों पर प्रतिक्रियावादी होने का आरोप आंदोलन के लिए अहितकर था| पंत ‘रूपाभ’ निकालकर प्रगतिवाद का समर्थन करने लगे थे, निराला नई यथार्थवादी प्रवृत्तियों से भरी-पूरी रचनाएं लिखने लगे थे|

 

अप्रैल 1937 के ‘हंस’ में प्रसाद ने यथार्थवाद पर विचारपूर्ण लेख लिखा था| अत: प्रगतिवाद का मुख्य अंतर्विरोध छायावाद से न होकर बीमार रूमानियत, आध्यात्मवाद, आदर्शवाद और रूढ़ीवाद से था|

 

यथार्थवाद और रूढ़ीवाद के अंतर्विरोध का ही परिणाम था कि निराला संपूर्ण हिंदी साहित्य में साहित्यिक विवादों के केंद्र बने हुए थे| उनके विरोधियों का मुख्य मंच था ‘विशाल भारत’| बनारसीदास चतुर्वेदी एक तरफ निराला पर हमला कर रहे थे| इतना ही नहीं, चतुर्वेदी जी के उस दौर के अभिन्न मित्र और सहकारी ‘अज्ञेय’ ने ‘विश्व भारती क्वार्टरली’ में अंग्रेजी में एक निबंध लिखा- ‘मॉडर्न (पोस्टवार) हिंदी पोएट्री’| निबंध में छायावाद और उसकी सौन्दर्यदृष्टि को कुंठित कहा गया, निराला में अहंकार और मौलिकता और रूढ़ीभंजन की अतिशयता से कविता की बलि प्रमाणित की गई| और निराला को कवि के रूप में ‘मृत’ घोषित कर दिया गया| निराला को लगा कि शिवदान सिंह चौहान तक और बनारसीदास चतुर्वेदी से लेकर अज्ञेय तक उन्हें यह भी लगा कि प्रगतिशील साहित्य क्या, साहित्य मात्र से खदेड़ने की साजिश कर रहे हैं| उन्हें यह भी लगा की प्रगतिशील लेखक संघ के नेतागण बड़े कुल में उत्पन्न रविंद्रनाथ ठाकुर को तो प्रगतिशील लेखक सम्मेलन का अध्यक्ष बना रहे हैं पर उन्हें धकेल रहे हैं| अप्रैल 1937 के ‘विशाल भारत’ में गंगाप्रसाद पाण्डेय ने शिवदान सिंह को जवाब दिया| पांडेय निराला जी के संपर्क में थे| वे साम्यवादी विचारधारा के विरोधी थे| अत: साहित्य में निराला का पक्षधर होने के नाते प्रगतिवाद के विरुद्ध मोर्चा लेना उन्हें आवश्यक प्रतीत हुआ| उन्होंने लेख का शीर्षक दिया- ‘हमारा साहित्य और साम्यवाद’| उसी अंक में जैनेंद्र कुमार की भी एक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जिसमे उन्होंने कहा कि वे प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं रहे, उसके घोषणापत्र से भी सहमत नहीं है, पर इसके बावजूद वे अपने को प्रगातिशील समझते हैं| शिवदान सिंह चौहान के निबंध की मान्यताओं का विरोध करते हुए ललित चरण गोस्वामी का मई अंक में एक निबंध प्रकाशित हुआ; शीर्षक था- ‘प्रगतिशील साहित्य किसे कहना चाहिए?’ जिस ‘विशाल भारत’ के मंच से प्रगतिवाद को लेकर वाद-विवाद चल रहा था और जिसके संपादक के सहानुभूति प्रगतिवाद के साथ न थी, उसी मंच से बच्चन के हालावाद को उछाला जा रहा था| दूसरी तरफ जब निराला का ठेठ हिंदी अथवा गुलाबी उर्दू में लिखित ‘चमेली’ नामक उपन्यास ‘रूपाभ’ फरवरी 1939 (सं पंत और नरेंद्र शर्मा) में प्रकाशित हुआ, तो घिनौने ढंग का प्रहार करते हुए बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा-  ‘ठेठ या घासलेट’? फिर ‘विशाल भारत’ के अगले अंक में ‘हमारे गुमराह भाई’, शीर्षक से चतुर्वेदी प्रगातिशील लेखकों पर भाषा की सरलता के मुद्दे को लेकर टूट पड़े| पंत, निराला और जोश मलीहाबादी की कविताओं के उद्धरण देकर चतुर्वेदी ने लिखा:  

 

हमारे लेखक और कवि बनते तो है प्रगातिशील, पर भाषा लिखते हैं बाबा आदम के जमाने की|

 

प्रगतिशील साहित्य के संबंध में विवाद

 

जनवरी 1938  से फरवरी 1939 तक बनारसीदास चतुर्वेदी छुट्टी लेकर चले गए| इस अवधी में ‘विशाल भारत’ के संपादक अज्ञेय बनाए गए और उनके सहायक कमलाकांत वर्मा| चौदह अंको में फ्रायडवाद और मंवेंद्र्नाथ राय की विचाधारा को अज्ञेय ने पूरी तरह प्रचारित-प्रसारित किया| ‘अज्ञेय’ ने संपादकीय विचार में दो संस्थाओ की कार्ययोजना का जिक्र किया:

 

पहली योजना एक साम्यवादी साहित्य संघ की योजना है| उस संघ का उद्देश्य होगा साम्यवाद के सिद्धांतो को स्पष्ट करना| भारतीय परिस्थिति के ख्याल से उनका विश्लेषण करना, भारत की प्रगति का अंतराष्ट्रीय प्रगति से सामंजस्य दिखाना आदि| यह संघ प्रतिमास एक पुस्तक अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और यथासंभव अन्य किसी भाषा में प्रकाशित करेगा| डायरेक्टरो में नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण का नाम उल्लेखनीय है| दूसरी योजना का क्षेत्र इससे व्यापक है| यह ‘भारतीय पुनरुज्जीवन संघ’ (इंडियन रेनेसां एसोसिएशन) की योजना है| इसका दफ्तर दिल्ली में होगा और यह कोआपेरीटिव आधार पर कम करेगी| यह संस्था दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि पर पुस्तकें प्रकाशित करेगी, पत्र निकलेगी और साथ ही आधुनिक भारत और संसार की समस्याओं पर उपन्यास, नाटक आदि भी प्रकाशित करेगी| युवक लेखकों और अन्वेषकों को प्रोत्साहन देना भी इसके अद्देश्यों में शामिल है| इसके डायरेक्टरो में एम.एन. राय, प्रो. हुमायूँ कबीर, बेरिस्टर पिल्लै और श्री बी.बी. कर्णिक के नाम उल्लेखनीय हैं|’

 

इस संपादकीय में प्रगतिशील लेखक संघ के विरोध में मंवेंद्र्नाथ राय और उनकी पार्टी रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी आदि द्वारा किये जा रहे प्रयासों को अतिरंजित ढंग से पेश किया गया है तथा प्रगतिशील लेखक संघ का सही नाम न देकर उसे एक साम्यवादी साहित्य संघ कहा गया है तथा कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध करार देकर उसे संकीर्ण संघ के रूप में प्रचारित किया गया है जबकि एम.एन. राय के भारतीय पुनरुज्जीवन संघ को उदार, निष्पक्ष और व्यापक क्षेत्र वाला बताया गया है| इस संपादकीय से ‘अज्ञेय’ की सहानुभूति और समर्थन का पता चल जाता है कि वे किस प्रकार प्रगतिशील लेखक संघ के विरुद्ध हर छोटे-बड़े प्रयास को ‘विशाल भारत’ के मंच से विज्ञापित कर रहे थे तथा पूरा समर्थन दे रहे थे| इसके साथ ही फ्रायडवाद के उन्नायक इलाचंद्र जोशी को पूरा अवसर दिया गया जिससे वे प्रगतिवाद पर खुलकर प्रहार कर सकें| वे लिखते हैं:

 

हिंदी साहित्य में प्रगतिशील का आंदोलन जोर पकड़ने लगा है| इस प्रगातिशील की प्रेरणा हमारे साहित्य के नवयुवक नेताओं को कम्युनिस्ट रूस के प्रारंभिक युग के साहित्यिक आंदोलन से मिली है| हमारे प्रगतिपंथियो का कहना है कि राजनीतिक क्षेत्र में जिस प्रकार ‘डिक्टेटरशिप आफ दि प्रोलेटेरियट’ का सिद्धांत प्रधानत: मान्य होना चाहिय, उसी प्रकार साहित्य क्षेत्र में भी शोषित वर्ग संबंधी विषय ही कला के मूल उपकरण के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए| परंतु वास्तविक कला के मूल में चिरंतन सत्य का जो भाव वर्तमान है, उस पर न तो पूंजीवाद की ही छाप लग सकती है, साम्यवाद की| इसके अंत:सत्य में कोई अंतर नहीं पड़ सकता है|

 

‘साहित्य के अंत:सत्य’ की चिरंतनता की रक्षा का झंडा उठाए हुए अनेक लोग सामने आए, और प्रगतिवाद के विरोधियों के शिविर में दाखिल हो गए| पर उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ ने भी यह समझा कि प्रगातिशील लेखक संघ के द्वारा राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर साहित्य में प्रगातिशीलता का दुरुपयोग किया जा रहा है:

 

इसलिए प्रगतिशील साहित्य मेरे विचार में केवल वही साहित्य नहीं, जिससे किसान, मज़दूर, बेकार अथवा विपन्न की दशा का चित्रण हो वरन जो भी अपनी लीक से परे होकर चलता है, अपनी आसपास की दशा का जो भी गहरा अध्ययन करता है, समय की कुरीतियों पर जो भी तीव्र प्रहार करता है और अपने आपको समझने के लिए जो भी हमारी सहायता करता है, वही प्रगतिशील है|

 

इस तरह अश्क जैसे अपवादस्वरूप कुछेक लोगों को छोड़कर ‘विशाल भारत’ मुख्य रूप में प्रगति-विरोधी साहित्यकारों के द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा था| कलकत्ते में प्रकाशित ‘विचार’ नामक साप्ताहिक का उल्लेख किए बिना यह प्रसंग अधूरा ही रहेगा| यह पत्र निराला और प्रगतिवाद विरोध का ज़बरदस्त मंच था| विडंबना यह कि उस समय आमतौर पर भगवतीचरण वर्मा को ‘भैंसा गाड़ी’ और अन्य यथार्थवादी कविताओं के कारण पढ़े लिखे नौजवान प्रगतिशील कवि समझते थे, पर भगवती बाबू अंत:चेतनावाद, फ्रायडवाद, व्यक्तिवाद आदि के समर्थक थे, न कि प्रगतिवाद के| उन्होंने कामग्रंथियों, व्यक्तिमन की कुंठाओ और व्यक्ति की अवचेतन पर बहस चलाते हुए ‘विचार‘ साप्ताहिक में एक स्तंभ में भगवती बाबू ‘अपने मानसिक द्वंद्व के चित्र अंकित किया करते थे|’[14] इतना ही नहीं बल्कि निराला के विरुद्ध, कुरुचिपूर्ण टिप्पणी के साथ उनकी कविता ‘बापू तुम मुर्गी खाते यदि’ भी ‘विचार’ साप्ताहिक में प्रकाशित हुई| निराला की यह कविता सन 1940 की प्रतिनीधि रचना थी- अपने प्रखर यथार्थवादी स्वर में नवीनता, और आदर्शवाद से मोहभंग की तिक्तता लिए हुए थी| हिंदू रूढ़ियों पर प्रहार और गांधीवादी देशभक्ति की एकांगिता और कांग्रेसी कुटिलता पर आक्रमण| पर ‘विचार’ में प्रकाशित भगवती चरण वर्मा की टिप्पणी की वजह से बहस किसी और मुद्दे पर चल पड़ी, न कि कविता के यथार्थवादी स्वर पर| इससे स्पष्ट है कि ‘विचार’, ‘विशाल भारत’ का सहचर था न की ‘हंस’ का|

 

प्रगतिशील सहित्य के साथ नई साहित्यिक पत्रकारिता का अभ्युदय 

 

प्रारंभ से ही ‘हंस’ प्रगतिशील आंदोलन का मुखपत्र था| प्रगतिशील लेखक संघ की हर बैठक की रिपोर्ट या उस पर टिप्पणी ‘हंस’ में प्रकाशित होती रही| यहाँ तक की सम्मेलनों अथवा अधिवेशनों में जिन प्रमुख साहित्यिकों के भाषण होते थे या निबंध पढ़े जाते थे, वे भी ‘हंस’ में प्रकाशित होते थे| इसके अलावा अन्य भारतीय भाषाओँ में प्रगतिशील साहित्य का आंदोलन कैसा रूप ले रहा था, उनके साहित्यकार इस आंदोलन पर किस तरह विचार कर रहे हैं इसकी झलक देने के हिंदीत्तर साहित्यकारों के प्रमुख निबंधो या सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद भी प्रकाशित होता रहता था| उदाहरण के लिए अप्रैल 1939 के ‘हंस’ में बांग्ला लेखक भूपेंद्र्नाथ दत्त के लेख का बैजनाथ सिंह ‘विनोद’ द्वारा किया गया अनुवाद ‘साहित्य में प्रगति’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ| प्रगतिवाद को ‘हंस’ के अलावा कुछ नई पत्रिकाओं के प्रकाशन से भी बल प्राप्त हुआ| उन पत्रिकाओं के प्रकाशन से भी बल प्राप्त हुआ| उन पत्रिकाओं में सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा क द्वारा कालाकांकर से जुलाई 1938 में ‘रूपाभ’ मासिक का पहला अंक प्रकाशित हुआ| पंत ने ‘रूपाभ’ के प्रकाशन की मनोभूमि स्पष्ट करते हुए लिखा:

 

कविता के स्वप्नभवन हो छोड़कर हम इस खुरदरे पथ पर क्यों उतर आए, इस संबंध में दो शब्द लिखना आवश्यक हो जाता है| इस युग में जीवन की वास्तविकताओं ने जैसा उग्र आकार धारण कर लिया है, उसमे प्राचीन विश्वासों में प्रतिष्ठित हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गए हैं| श्रद्धा अवकाश में पलने वाली संस्कृति का वातावरण आंदोलित हो उठा है और काव्य की स्वप्नजड़ित आत्मा जीवन की कठोर आवश्यकता के उस नग्न रूप से सहम गई है| अतःएव इस युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती| उसकी जड़ों को अपनी पोषणसामग्री ग्रहण करने के लिए कठोर धरती का आश्रय लेना पड़ रहा है|

 

दर्शन के स्तर पर पंत उन दिनों यह सिद्ध कर रहे थे कि रूप ही भाव का मूल है| यह विचार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नज़दीक पड़ता था और कला के अंत:सत्य की चिरंतनता की धारणा को काटता था| अपने इस दर्शन, प्रगतिशील आंदोलन के समर्थन, साहित्य में नवीनता लाने के प्रयास आदि की वजह से पढ़-लिखे नौजवानों के बीच ‘रूपाभ’ लोकप्रिय हो रहा था|

 

‘चकल्लस’ नामक साप्ताहिक अमृतलाल नागर के संपादन में 1938 से प्रकाशित हुआ| अवधि के कवि बलभद्र दीक्षित ‘पढ़ीस’ के कवितासंग्रह के नाम पर इस पत्र का नामकरण किया गया था| ‘संघर्ष’ नामक अख़बार का संपादन छोड़कर नरोत्तम नागर भी इस पत्र का नामकरण किया गया था| ‘संघर्ष’ नामक अखबार का संपादन छोड़कर नरोत्तम नागर भी इस पत्र से संबद्ध हो गए थे| ‘चकल्लस’ व्यंग्य और हास्य का पत्र था| इस पत्र में प्रगतिवाद के विरोधियों का मज़ाक तो उड़ाया ही जाता था, इसके अलावा बनारसीदास चतुर्वेदी से लेकर गांधीवाद तक पर व्यंग्य होते थे|

 

लगभग एक-डेढ़ वर्षो तक निकलने के बाद ‘चकल्लस’ बंद हो गया और नरोत्तम नागर ने इलाहबाद आकर निराला के अलिखित उपन्यास ‘उच्छ्रंखल’ के नाम पर अपना नया पत्र निकाला| इस पत्र में भी प्रगतिवाद का समर्थन था और साहित्य में नवीन प्रयोग की तलाश थी| उसी दौरान शिवदान सिंह चौहान ने भी इलाहाबाद में ‘प्रभा’ नामक पत्रिका का प्रकाशन एवं संपादन किया और प्रगतिवाद को समर्थन दिया तथा प्रतिक्रियावादियों का विरोध किया|

 

सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल, साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद विरोधी राजनीति का प्रचार, स्वाधीनता संघर्ष का समर्थन- इन तीनों ही दृष्टियों से ‘हंस’ के समकक्ष साहित्यिक और राजनीतिक भूमिका अदा करने वाले पत्रों में रामवृक्ष शर्मा ‘बेनीपुरी’ द्वारा पटना से प्रकाशित ‘जनता’ का प्रमुख स्थान है| ‘जनता’ ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ का साप्ताहिक पत्र था| इस पत्र पर जयप्रकाश नारायण से प्रभावित ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ के एक गुट का नियंत्रण था| इस पत्र का 1937 ई. में प्रकाशन आरंभ हुआ; पर 1939 में बेनीपुरी लोकप्रिय हो गए थे| द्वितीय महायुद्ध के समय उन्होंने ‘न एक पाई न एक भाई’ का नारा दिया| कुछ ही काल में यह आह्वान राष्ट्रिय नारा बन गया|

 

‘जनता’ साप्ताहिक के द्वारा वे किसानों में नवजागृति का शंख फूंक रहे थे| सितंबर 1939 ई. में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा तो ‘जनता’ ने पूरी तैयारी के साथ अंतरार्ष्ट्रीय अंक निकाला| उसी अंक में दिनकर की कविता ‘ओ द्विधाग्रस्त शार्दुल बोल’ प्रकाशित हुई| यह कविता युद्ध का विरोध करने के लिए लिखी गई थी| अंग्रेज़ो को युद्ध में कोई सहायता मत दो| युद्धकाल में ही स्वाधीनता| युद्धकाल में ही स्वाधीनता संघर्ष तेज़ करो| इन्हीं कारणों से ब्रिटिश सरकार ने ‘जनता’ के प्रकाशन पर रोक लगा दी| ‘जनता’ के माध्यम से वियोगी, कलक्टरसिंह केसरी, प्रभात, अनूपलाल मंडल, दिनकर, आरसी प्रसाद सिंह, प्रिंसिपल मनोरंजन, राधाकृष्ण, राम इक़बाल सिंह ‘राकेश’, राहुल सांक्र्त्यायन, आचार्य नरेंद्र देव आदि की रचनाएं बराबर छपती थी| ‘जनता’ की दो विशेषताएँ थी| नेपाल की सामाजिक व्यवस्था और राजशाही के खिलाफ खुलकर विद्रोह फैलाना उसकी उग्र राजनीति का परिचायक था| इसी प्रकार साहित्यिक स्तंभ के अंतर्गत विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ छापकर वातावरण को आंदोलित करते रहना उसका स्वाभाव था|

 

‘जनता’ कार्यालय उन दिनों (1937 से 1939 तक) समाजवादी, कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी नौजवानों और साहित्यकारों का अड्डा था| 1936 से प्रगतिवाद का आंदोलन आरंभ हो गया था और पटना में प्रगतिवाद को साहित्यिक समर्थन देने के लिए ‘जनता’ के मंच का उपयोग हो रहा था|

 

‘जनता’ के अलावा नरेंद्र देव के संपादन में प्रकाशित पत्र ‘संघर्ष’ का लखनऊ के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों के अतिरिक्त नौजवानों पर काफी असर था| ‘संघर्ष’ पहले नरोत्तम नागर के संपादन में निकलता था| बाद में इस पत्र के प्रकाशन और संपादन का संपूर्ण दायित्व नरेंद्र देव ने उठा लिया| इस तरह 1938 से ‘संघर्ष’ साप्ताहिक हो गया| साहित्य के लिए भी इसमें कुछ पृष्ठ सुरक्षित रहते थे|

 

‘विप्लव’ नामक (मासिक) साहित्यिक और राजनीतिक पत्र का प्रकाशन 1938 में यशपाल के जेल से छूट कर आने के बाद लखनऊ से हुआ| तीन चार वर्षो तक यह पत्र निकलता रहा, फिर यशपाल की गिरफ़्तारी के बाद पत्र का प्रकाशन बंद हो गया| उस जमाने में नैजवान साहित्यिक ‘विप्लव’ को ढूंड-ढूंड कर पढ़ रहे थे| अंग्रेजी राज में जब रूसी साहित्य के प्रकाशन और वितरण पर रोक लगी हुई थी तथा ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के कार्यकर्ताओं का क्रूरतापूर्वक दमन किया जा रहा था, उस समय ‘विप्लव’ के क्रांतिकारी साहित्य और विचारधारात्मक निबंधो में नौजवानों की दिलचस्पी स्वाभाविक थी| ‘विप्लव’ बिक्री के लिए इधर-उधर छुपाकर रखा जाने लगा था और नौजवान उसे कानोंकान प्रचारित करते थे| ‘विप्लव’ का मार्च 1940 में ‘मार्क्स अंक’ निकला| उक्त अंक में प्रो. शिब्बनलाल और यशपाल के गांधीवाद और मार्क्सवाद के तुलनात्मक संदर्भ में वाद-विवाद प्रकाशित हुए| इसके अलावा स्पेन के गृहयुद्ध की रिपोर्ट, मार्क्सवादी समाज में किसानों का स्थान, पैरिस कम्यून में क्रन्तिकारी लुई अगस्त ब्लांकी आदि पर भी निबंध छपते रहते थे| फरवरी 1940 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ, जिसका ब्रिटिश सरकार द्वारा पूरी तरह दमन किया गया| ‘विप्लव’ में इस अधिवेशन और दमन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तथा हुकूमत के इस जनविरोधी रवैये की भर्त्सना की गई|

 

इस तरह हम देखते है कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन को अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करने वाले पत्रों में ‘हंस’, ‘चकल्लस’, ‘उच्छ्रंखल’, ‘जनता’, ‘संघर्ष’, ‘रूपाभ’, ‘प्रभा’, और ‘विप्लव’ का प्रमुख स्थान है| इन पत्रों के कार्यालय प्रगातिशील साहित्यकारों, वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं, विश्वविधालयों के तरुण बुद्धिजीवियों और नए उत्साही पाठको के केंद्र बन गए|

 

युद्धकाल में प्रगतिशील लेखक संघ का नया दायित्व

 

साहित्य सम्मेलन के मंच पर विचारधाराओं का संघर्ष अपने मुखर रूप में 1940 के पूना अधिवेशन में प्रकट हुआ| साहित्य परिषद् के अध्यक्ष पद से दिए गए अपने भाषण में नंददुलारे वाजपेयी ने कहा:

 

आज हिंदी में श्रेष्ठ साहित्य के सर्जन के कौन से क्षेत्र हैं? निश्चय ही समाजवादी विचारों के क्षेत्र क्यों? क्योंकि उन्हीं क्षेत्रो ने इस समय नवीन प्रतिभा को आकर्षित कर रखा है| क्यों नहीं आज प्रचलित धार्मिक क्षेत्रो में श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाएं और सुंदर कला का निर्माण हो रहा है? क्यों आज वे पुरानी अनुकृति से ही अथवा दूसरे नवीन क्षेत्रों की प्रगतिशील शैलियों को अपनाकर संतोष कर रहे है| स्वत: नई भूमि क्यों नहीं तैयार करते?[15]

 

वाजपेयी जी के इन प्रश्नों के उत्तर सम्मेलन पर हावी पुनरुत्थानवादी साहित्यकों के पास नहीं थे; क्योंकि वे स्वाधीनता संघर्ष और युद्धकालीन विश्व की बदलती हुई ऐतिहासिक प्रकृति और बदलते हुए शक्ति संतुलन को समझने की कोशिश नहीं करते थे| इन्हीं सीमाओं के कारण वे साहित्य पर प्रगतिवाद के हावी होने से भौंचक और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए थे| युद्ध के दिनों में भी वे कोई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका नहीं निभा पाए| सितंबर 1939 से महायुद्ध आरंभ हो गया| ब्रिटिश सरकार ने वामपंथी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने युद्ध, साम्राज्यवाद और फासीवाद के विरोध में प्रचार अभियान शुरू किया| जयप्रकाश नारायण और नरेंद्रदेव ने ब्रिटिश सरकार के युद्धप्रयासों को निष्कल करने के लिए जनता में प्रचार आरंभ कर दिया| सोवियत समाजवादी गणराज्य पर सन 1941 की गर्मियों में नाज़ियों ने जब आक्रमण किया तो प्रगतिशील लेखक संघ के भीतर इस राजनीतिक मुद्दे पर दो खेमे बन गए| कम्युनिस्ट एक बात कहते थे, तो गैर-कम्युनिस्ट ठीक दूसरी बात| 1942 की अगस्त क्रांति का ज़माना आया, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस समेत मित्र राष्ट्रों का और एक तरह से ब्रिटिश फौज और कूटनीति का पक्षसमर्थन किया और फासीवाद के बढ़ते हुए दौर में ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयासों में मदद पहुँचाने की बात को प्रमुखता प्रदान की इसी बीच बंगाल में भयंकर आकाल पड़ा| अत: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों और हमदर्दों ने अकाल के प्रश्न पर साहित्यिक मोर्चे को सक्रीय बनाने का प्रयास किया|

 

इस तरह 1939 से 1946 तक का दौर अनेक प्रकार के जटिल राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों का दौर बन गया| उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टी का ध्यान मुख्य रूप में फासीवाद के विरोध में चेतना फ़ैलाने और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपनी लड़ाई को थोड़ी देर के लिए धीमा करने का हो गया| रामविलास शर्मा ने इस जटिल स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को दोषपूर्ण बताया| उनके अनुसार उस अवधी में प्रगतिशील लेखक संघ में एक तरह से बिखराव शुरू हो गया था चूँकि कॉमुनिस्टों के साथ जिन राष्ट्रिय जनवादी चेतना से संपन्न लेखकों का संयुक्त मोर्चा बनाया गया था, उनके बीच कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य अकेले पड़ गए चूंकि वे दूसरे महायुद्ध के समय साम्राज्यवादी शासन के प्रति उपेक्षा का भाव रखते थे और एकांकी ढंग से केवल फासीवाद विरोधी संग्राम पर जोर देते थे| कम्युनिस्टों की इस भूमिका को कांग्रेसी, सोशलिस्ट तथा सुभाषचंद्र बोस के अनुयायी राष्ट्रिय स्वाधीनता के साथ गद्दारी की संज्ञा देते है| उक्त अवधी में दिनकर ने ‘दिल्ली और मास्को’ शीर्षक कविता में अंतरार्ष्ट्रीयवाद के खोखलेपन पर अपना क्षोभ व्यक्त किया| 1942 की अगस्त क्रांति पर प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रीय कार्यकर्ताओं में संभवत: किसी ने भी कोई रचना नहीं लिखी पर दिनकर, नवीन, मिलिंद, प्रभात आदि कवियों ने अनेक रचनाएं लिखीं| इस दृष्टि से प्रगतिशील लेखकों को संगठित कर आंदोलन करने का प्रयास भी नहीं हुआ| फासीवाद के विरोध में और बंगाल के अकाल पर लेखकों को संगठित ढंग से प्रचार अभियान में सहयोग देने के लिए जगह-जगह सम्मेलन और अधिवेशन बुलाए गए|

 

इस तरह का पहला विशाल फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन सन 1942 में दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से बुलाया गया| अज्ञेय से लेकर कृष्ण चंदर तक उसमे शामिल हुए| उस सम्मेलन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उसे अखिल भारतीय फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन (दिल्ली 1942) के घोषणापत्र के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया था| इस प्रस्ताव का मसौदा अंग्रेजी में अज्ञेय में किया था|  प्रस्ताव लंबा था, पर उसके कुछ महत्वपूर्ण अनुच्छेद उद्धृत किए जा सकते हैं:

 

हम भारतीय लेखकों का फासिज्म से कोई सामंजय नहीं है| फासिज्म एक अपरिचित शत्रु नहीं है| फासिज्म के अनिवार्य संस्कृति विरोधी तत्व की उपेक्षा करने या उसकी और से आँख मींचने का मतलब स्वेच्छा से अपने को एक बर्बर आक्रमणकारी की लंबी और घातक गुलामी का शिकार बनाना होगा| आज की दुनिया में फासिस्ट जीत का मतलब एक नए अंधकार-युग की शुरुआत होगी और इस संकट को दूर करने में भारतीय जनता को अपना कर्त्तव्य पूरा करना होगा| उन्हें सोवियत संघ की बहादुर जनता, वीर चीनी राष्ट्र और सारे देशों की फासिज्म विरोधी जनता के साथ एक होना होगा| हम हिंदुस्तान के महान और बहुमूल्य सांस्कृतिक उत्तराधिकार के प्रहरी है| फासिस्ट लुटेरों से इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है| अपनी रचनाओं के द्वारा फासिज्म के खिलाफ अपने को दिमागी तौर पर मज़बूत बनाने में हमें जनता मदद करनी चाहिए| किताबों और पैम्फलेटों, रेडियो और सिनेमा, गानों और रंगमंचों के ज़रिए हमें विशाल जनता के पास पहुँचना चाहिए| अपनी मातृभूमि के आह्वान पर आगे आना और मुक्ति तथा संस्कृति की दीपशिखा को प्रज्जवलित रखना हमारा कर्त्तव्य है|

 

अगस्त के व्यापक जन-उभार में हिस्सा न लेकर कम्युनिस्ट पार्टी ने गलती की थी| उसका मार्जन करने के उद्देश्य से तथा प्रगातिशील लेखक संघ के व्यापक जनवादी मोर्चे को अक्षुण्ण रखने के लिए उसके सदस्यों और हमदर्दों ने दमनविरोधी आंदोलन शुरू कर दिया| अगस्त की देशव्यापी आंदोलनात्मक कार्यवाई एक तरह से स्वत: स्फूर्त जन-उभार थी| उसमें जिन लोगो ने हिस्सा लिया था, ब्रिटिश सरकार उनका पूरी तरह निर्दयता से दमन कर रही थी| अत: फासीवाद विरोधी आंदोलन को एक और धार देते हुए दमन विरोधी प्रचार को भी उसमें सम्मिलित कर लिया गया| बनारस में सितंबर 1942 के महीने में स्थानीय साहित्यिकों और बुद्धिजीवियों का एक कन्वेंशन प्रगतिशील लेखक संघ (काशी शाखा) की ओर से बुलाया गया| उस कन्वेंशन में पारित प्रस्ताव का एक अंश उद्धरणीय है:

 

इधर हमारे देश में जो अनेक दुर्घटनाएं घटित हुई है, उनके कारण हम सभी लेखक और पत्रकार, साहित्यिक और अन्य बुद्धिजीवी अत्यंत दुखी और विचलित हुए हैं| गोलियों की बौछारों, गिरफ़्तारी और भयंकर दमन-चक्र के कारण देश भर में आतंक की काली छाया छा गई है| यद्यपि हम सब न राजनीतिज्ञ हैं, और न सभी एक से राजनैतिक विचारों के हैं, परंतु फिर भी हम अपने चारों ओर घटित होने वाली घटनाओं को देखकर उदासीन नहीं रह सकते| विशेषकर हम विचारस्वतंत्र्य और भाषास्वतंत्र्य के हनन और समाचारपत्रों पर पाबंदियां लगाए जाने तथा काशी विश्वविद्यालय की दुर्गति किए जाने का एक स्वर से विरोध करते हैं| नागरिक स्वतंत्रताओं के इस प्रकार छीने जाने से देश में एक भयंकर सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो गया है| यह हम सब बुद्धिजीवियों के हेतु घोर चिंता का विषय है|

 

यह एक लंबे वक्तव्य का अंश है| इस वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने वाले लेखकों के नाम हैं- बाबू राव विष्णु पराड़कर, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, रायकृष्ण दास, केशव प्रसाद मिश्र, रामचंद्र वर्मा, रणदा उकील, जयचंद्र विघांलकर, नंददुलारे वाजपेयी, पद्मनारायण आचार्य, लल्ली प्रसाद पांडेय, भीष्म आर्य, शिवरानी देवी, प्रेमचंद, मनोरमा देवी गोयल, नरेंद्र शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री, रुस्तम सैटिन, श्रीपत राय ,सुरेंद्र श्रीवास्तव, अमृतराय, गोविंद वल्लभ, त्रिभुवन नाथ, राजीव सक्सेना, मौलवी अब्दुल मजीद, मुंशी बेताब, श्रीमती जौहरा महमूद, मोहम्मद ताकि और अलिफ़ उल्लाह उस्मानी|

 

हिंदी-उर्दू के उपर्युक्त लेखकों के अलावा बांग्ला के साहित्यकारों में सतीशचंद्र गुप्त, सुरेशचंद्र चक्रवर्ती और महेश चंद्र राय के भी हस्ताक्षर थे|

 

‘हंस’ के अक्टूबर अंक में ही इलाहबाद प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से दमन और फासिज्म के विरुद्ध अपील प्रकाशित की गई| उक्त अपील में बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और शिवदान सिंह चौहान की गिरफ़्तारी की निंदा की गई तथा देश के तमाम लेखकों से दमन के विरुद्ध संगठित होने का आह्वान किया गया| इसके अलावा यह भी कहा गया कि फासिज्म के विरुद्ध महान स्टालिन के नेतृत्व में जो अंतिम निर्णायक युद्ध हो रहा है, उसमे देश की तमाम ताकतों को एकजुट करने की आवश्यकता है| इस अपील पर इलाहबाद के सुप्रसिद्ध लेखकों में नरेंद्र शर्मा, पहाड़ी, प्रकाशचंद्र गुप्त, फिराक, आर.एन. देव आदि के हस्ताक्षर थे|

 

Notes

 

 [1] रामधारीसिंह दिनकर : ‘मिट्टी की ओर’, उदयाचल प्रकाशन; पटना, 1946, पृ. 147|

[2] जवाहरलाल नेहरु : ‘मेरी कहानी’, ग्यारहवां संस्करण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1965, पृ. 635-636|  

[3] अमृत राय : ‘कलम का सिपाही’, प्रथम संस्करण, हंस प्रकाशन, इलाहबाद, 1962, पृ. 544-45|

[4] रजनी पामदत्त : ‘भारत: वर्तमान तथा भावी’, प्रथम संकरण, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1956, पृ. 221|

[5] राममनोहर लोहिया : ‘समाजवादी आंदोलन का इतिहास’, प्रथम संस्करण, राममनोहर लोहिया समता न्यास विद्यालय, हैदराबाद, 1969, पृ. 19|

[6] हंसराज रहबर : ‘प्रगतिवाद: पुनर्मूल्यांकन’, प्रथम संस्करण, नवयुग प्रकाशन, दिल्ली, 1966, पृ. 25 पर सज्जाद ज़हीर की उर्दू पुस्तक ‘रोशनाई’ से उद्धृत|

[7] जनेश्वर वर्मा : ‘हिंदी काव्य में मार्क्सवादी चेतना’, ग्रंथम, कानपुर, प्रथम संस्करण, 1976, पृ. 305-06|

[8] रांगेय राघव : ‘प्रगतिशील साहित्य के मानदंड’, सरस्वती पुस्तक सदन, आगरा, प्रथम संस्करण, 1954, पृ. 7|

[9] धर्मवीर भारती : ‘प्रगतिवाद: एक समीक्षा’, साहित्य भवन लि., प्रयाग, प्रथम संस्करण, 1949, पृ. 14|

[10] रामविलास शर्मा : ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं’, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, दूसरा संस्करण, 1957, पृ. 138|

[11] रामविलास शर्मा : ‘निराला की साहित्यसाधना’, खंड-1, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1969, पृ. 351|

[12] शिवदान सिंह चौहान : ‘साहित्य की समस्याएं’, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1959, पृ. 292|

[13] रामविलास शर्मा : ‘भाषा और समाज’, प्रथम संस्करण, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1961, पृ. 316|

[14] ‘आज के लोकप्रिय हिंदी कवि: भगवतीचरण वर्मा’, राजपाल एंड संस, प्रथम संस्करण, ‘परिचय’, पृ. 20|  

[15] ‘आधुनिक साहित्य’, भारती भंडार, इलाहबाद, द्वितीय संस्करण, संवत 2013 वि., पृ. 389|