समाज की ही तरह साहित्य भी गतिशील होता है| साहित्य समाज में हो रहे परिवर्तन का साक्षी होता है| हमारा देश जितना विविधधर्मी है उसी के अनुरूप दलित साहित्य में भी विविधता है| दलित साहित्य की विकास यात्रा को एक नयी ऊँचाई मिल रही है| इसके ऐतिहासिक विकासक्रम पर अगर हम ध्यान केंद्रित करें तो पता चलेगा कि इसकी निरंतरता में बहुत कुछ नया जुड़ा है| इसका दायरा कई मायनों में विस्तृत हुआ है| इसने एक तरफ जहाँ अपना भौगोलिक विस्तार कर अखिल भारतीय स्वरुप ग्रहण कर लिया है वहीं इसमें विधागत समृद्धि के साथ-साथ कलात्मक ऊँचाई भी आई है| विषय वस्तु के भी स्तर पर इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं| लेखकों का अनुपात विविध सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाला हुआ है| दलित साहित्य लेखन में दलित महिलाओं की भागीदारी ने न केवल दलित साहित्य के स्वरूप को प्रभावित किया है बल्कि पूरे भारतीय साहित्य के स्वर को उसने एक नयी दिशा दी है| मेरा ख्याल है कि दलित साहित्य में पहली पीढ़ी के लेखक बहुत हद तक गैर अकादमिक संस्थानों से जुड़े हुए थे/ हैं| लेकिन अब जो नया परिवर्तन हुआ है उसमें अकादमिक जगत से जुड़े हुए दलित लेखकों का खासा हस्तक्षेप हुआ है| हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि अकादमिक जगत की पृष्ठभूमि वाले लेखकों के आने से दलित साहित्य के स्वरुप पर क्या असर पड़ा है? इसने कला के स्तर पर, विषयवस्तु के स्तर पर और दिशा के स्तर पर क्या असर डाला है?
हिंदी दलित साहित्य ने मोटे तौर पर लगभग छः दशकों की अपनी यात्रा पूरी की है| यह इक्कीसवीं सदी का द्वितीय दशक है जब हम अपने देश के बारे में यह कह सकते हैं कि इसने भी सामाजिक लोकतंत्र का एक स्तर पा लिया है| दलित साहित्य के उभार से सामाजिक लोकतंत्र के इस स्तर की भी पुष्टि होती है| लेकिन अभी भी हमारे समाज को मुकम्मल लोकतंत्र हासिल करना बाकी है| सांस्कृतिक और साहित्यिक स्तर पर जो विविधता इस सदी ने देखी है उसमें दलित साहित्य का बहुत योगदान है| इन महत्वपूर्ण बदलावों के बाद भी बहुधा ऐसा लगता है कि सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में अभी भी बदलावों की प्रक्रिया अपना मुकम्मल स्वरूप ग्रहण नहीं कर पाई है| अभी भी हमारा समाज मध्ययुगीन बर्बरता के दिनों को अपने सीने से चिपकाये हुए है| समाज में दमन की प्रक्रिया अपने विभिन्न रूपों में जारी है| परंपरागत सामंती ब्राह्मणवादी दमन पद्धति ने कई रूप धर लिए हैं| इसके कई रूपों की आवाजाही उत्पीड़ित समाजों में भी हुई है| हिंदी दलित साहित्य के आरंभिक अभिव्यक्तियों में इन रूपों की पहचान नहीं थी इसलिए उसके खिलाफ कोई विद्रोह भी नहीं था| विद्रोह था तो जातिव्यवस्था और इसको बनाये रखने वाली विचारपद्धति ब्राह्मणवाद के खिलाफ| लेकिन जैसे-जैसे समाज में साक्षरता बढ़ी है दलित समुदाय के लोगों का दखल अकादमिक और इससे इतर महत्वपूर्ण ज्ञान की जगहों पर हुआ है वैसे-वैसे दमन के सूक्ष्म और जटिल रूपों की भी पहचान तेज हुई है| यहाँ तक कि दलित साहित्य ने अपने भीतर की कमियों और सीमाओं का रेखांकन भी करना शुरू किया है| यह एक अच्छा संकेत माना जा सकता है क्योंकि जो समाज, व्यक्ति या देश आलोचना के साथ-साथ आत्मालोचना को नहीं स्वीकार करता उसके भीतर का बदलाव बहुत टिकाऊ और दीर्घजीवी नहीं हो सकता| इसके विकास की संभावना अवरुद्ध हो जाती है| लेकिन सुखद बात यह है कि बदलावधर्मी दलित साहित्य की ताज़ी अभिव्यक्तियों में आलोचना-आत्मालोचना का संतुलन बनता दिख रहा है| आलोचना की जगह आलोचनात्मक संवाद ने ले ली है| ज्ञानमीमांसा के इकहरेपन ने इसकी बहुयामिकता को स्वीकार करना शुरू कर दिया है|
दलित साहित्य की उपलब्द्धियों उसकी सीमाओं और उसके योगदान पर चर्चा करना इस लेख का अभीष्ट है| ऐसा लगता है कि दलित कविता से ही बात शुरू करनी चाहिए| प्रायः दलित चिंतक संत साहित्य और नाथ, सिद्ध और संत कविता को दलित कविता की पृष्ठभूमि के रूप में चिन्हित करते रहे हैं लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस मान्यता को अपनी किताब ‘दलित साहित्य: अनुभव संघर्ष एवं यथार्थ’(वाल्मीकि 2013) में अस्वीकार कर दिया| इसका कारण उन्होंने यह बताया कि चूँकि संत कविता में व्यक्त भक्त और ईश्वर का संबंध वैसा ही है जैसे दास और मालिक का इसलिए यह कविता कोई सामंतवादी ढांचे को तोड़ती नहीं है, इसलिए यह दलित कविता की पृष्ठभूमि नहीं हो सकती| ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का यह तर्क विल्कुल ठीक है लेकिन भक्ति या दास और मालिक के बीच संवाद फॉर्म में जो समाज व्यवस्था की आलोचना का मूल्य है उसको भी स्वीकार करना बदलाव की परंपरा की पहचान करना है| हीरा डोम की जिस कविता को कई बार दलित कविता नहीं भी कहा जाता है उसमें भी जो संवाद का फॉर्म है उसके आधार पर वाल्मीकि जी के पैमाने पर दलित कविता नहीं सिद्ध होती लेकिन ध्यान से पाठ करने पर यह कविता एक तरफ जहाँ ईश्वर से अपने भौतिक सांसारिक जीवन में दमन के खिलाफ ईश्वर से शिकायत करती है वहीँ वह ईश्वर के पूर्वाग्रही रूप को उजागर करते हुए उसकी सत्ता को भी चुनौती देती है| उनकी शिकायत है कि उनका दुःख भगवान भी नहीं देखता है| ध्यान रहे कि यह शिकायत एक वचन में नहीं है बल्कि बहुवचन में है- ‘हमनी के दुःख भगवानओं न देखता जे/हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि’ (द्विवेदी 1914:2:512-513)| ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने की बानगी देखिये- ‘कहवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब/ डोम जानि हमनी के छुए से डेराले’ (द्विवेदी 1914:2:512-513)| डोम को छूने मात्र से जो ईश्वर डर रहा हो इस बात का बोध रखने वाला कवि कब तक ऐसे ईश्वर की सत्ता को मान सकता था यह कल्पना की सीमा में सहज ही आ सकता है| यह अनायास नहीं है कि संत कवियों का ईश्वर निर्गुण है, अजन्मा है| क्या निर्गुण संतों की इस चेतना का विस्तार हीरा डोम की इस कविता में नहीं दिखाई देता?
दलित कविता का फलक विस्तृत हुआ है| आरंभिक दलित कविताओं में पूंजीवाद से उपजे उत्पीड़न और ब्राह्मणवाद से इसके संश्रय पर कोई उल्लेखनीय आलोचना नहीं है| लेकिन 2015 में प्रकाशित दलित कविता की कई पुस्तकों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये कविताएं सामाजिक सत्ता के साथ-साथ राजनीतिक सत्ता के विविधवर्णी उत्पीड़न दमन के रूपों की मुखर और स्पष्ट आलोचना प्रस्तुत करती हैं| हेमलता महिश्वर हमारे समय की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं| उनका कविता संग्रह 2015 में प्रकाशित हुआ ‘नील, नीले रंग के’ (महिश्वर 2015) | यह सर्व विदित है कि दलित आंदोलन और साहित्य में नीले रंग का बहुत महत्व है| लेकिन इनकी कविताओं में नील दमन को प्रतिबिंबित करने वाला एक बदला हुआ प्रतीक बनकर आया है और यह जो नीले रंग का जो नील है उसे दलित चेतना ही नष्ट कर सकती है| कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘पहेली’ दलित संवेदना के विस्तार की कविता बन जाती है| रोचक शैली वाली यह कविता सत्ता द्वारा उत्पीड़ितों को विभाजित कर उत्पीड़ितों के ही एक हिस्से को उसके खिलाफ खड़ा करके अपना हित साधने तथा मनुष्यता और पृथ्वी को खतरे में डालने की राजसी प्रवृत्ति की आलोचना करती है| सरकारी दमन की ब्रह्म उपस्थिति को चिन्हित करते हुए हेमलता जी कहती हैं-
बूझो! बूझो!
केंद्र से राज्य तक
बस्तर से असम तक
झारखण्ड, उड़ीसा, आन्ध्रा, महाराष्ट्र
कैसे असम नहीं
सम है सरकार
आडिट की नहीं दरकार| (महिश्वर 2015:21)
परिवर्तन का हर विचार जो दलित मुक्ति में सहायक है उसके खिलाफ सरकार का जो दलित आदिवासी विरोधी अभियान है उसको बहुत गौर से आलोचना की विषयवस्तु बनाती हैं| वह आगे लिखती हैं-
सलवा जुडूम में आदिवासी
सलवा जुडूम का आदिवासी
एस पी ओ आदिवासी
नक्सली आदिवासी
उल्फा आदिवासी
माओ आदिवासी
मरता आदिवासी
मरने से किसको बचाता आदिवासी
आगे आदिवासी
पीछे आदिवासी
बोलो कितने बचे आदिवासी| (महिश्वर 2015:21-22)
प्रकृति और मनुष्यता को बचाने की चिंता से युक्त यह कविता प्रकृति के प्रति कोई नास्टेल्जिक भाव नहीं पैदा करती बल्कि मनुष्यता के अस्तित्व की आधारभूत ज़रुरत के रूप में इसे देखती है| वह लिखती हैं-
जंगल में है आदिवासी
तो समझो
मौसम को सुरक्षित रखने की मदद हासिल है| (महिश्वर 2015:22)
उनकी नजर हिंसा का शस्त्र और शास्त्र रचने वालों तक जाती है और सत्ता द्वारा उनके पुरस्कृत किये जाने, महिमामंडित किये जाने की वजह पूछती है| वह लिखती हैं-
अल्फ्रेड नोबेल
तुम जनक विध्वंश के
निर्माण के
पुरस्कर्ता
कैसे हो गए?(महिश्वर 2015:25)
दलित कविता सीधे-सीधे अपनी बात कहती थी लेकिन उसमें शैली के स्तर पर आई विविधता ने उसको कलात्मक ऊँचाई दी है| व्यंग्य दलित साहित्य की संभवतः सबसे कम प्रयोग की जाने वाली शैली है लेकिन हेमलता जी की कविताएं विकास और शक्ति के नाम पर विध्वंस रचने वाली व्यवस्था पर व्यंग्य करती हैं|
बुद्ध
कर रहा था
कर रहा है
अनवरत
युद्ध| (महिश्वर 2015:28)
‘बुद्ध-३’ शीर्षक वाली यह कविता अहिंसा के दार्शनिक पाखंड के आवरण में दलितों, महिलाओं और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के ऊपर अनवरत होने वाली हिंसा को उजागर कर सत्ता द्वरा अहिंसा के जाप को बनावटी सिद्ध करती है| स्वर्ग और नरक की मायावी मनुष्य विरोधी मान्यताओं को ख़ारिज करती हैं इनकी कविताएं| वह ‘स्वर्ग और स्त्री’ शीर्षक कविता में लिखती हैं-
रखो स्वर्ग
अपना अपने पास
तुम्हे मुबारक
डालती हूँ मैं उस पर
गारत
कि मुझको तो
भाता है स्वतंत्र भारत| (महिश्वर 2015:33)
जाहिर है कि स्त्री की स्वतंत्रता की भावना वाली यह कविता देश की स्वतंत्रता में ही अपनी स्वतंत्रता की तलाश करती है| कवयित्री का यह विचार दलित साहित्य पर खंडित दृष्टि का आरोप लगाने वालों के लिए एक उत्तर हो सकता है| हेमलता जी की कविताएं सीधे पितृसत्ता की आलोचना नहीं करती हैं बल्कि स्त्रियों की स्थितियों को कलात्मक रूप में ढालकर व्यक्त कर देती हैं| कला संवेदना का विरोधी नहीं होती| कई बार यथार्थ का वर्णन उतना प्रभावी नहीं होता जितना यथार्थ का कलामयी वर्णन| आखिर कला का भी काम तो चेतना को उन्नत ही करना होता है|
‘उपस्थित/अनुपस्थित’ शीर्षक की कविताएं स्त्री के ऊपर पुरुष वर्चस्व और उसकी उपेक्षा से उपजे भाव को व्यक्त करती हैं| वह लिखती हैं-
चिपकी रह जाती है
झाड़न में जितनी धूल
उतना सा भी
नहीं रख पाई वे
बचाकर
अपना मन
मनोंमन कई टन
झाड़कर
घर की धूल| (महिश्वर 2015:34)
दलित कविता सामाजिक जातिवादी और लैंगिक उत्पीड़न से उपजे आक्रोश और चिंतन से अपनी रचनात्मक उर्जा ग्रहण करती है| ‘सोनी सोढ़ी के लिए’ शीर्षक से लिखी गयी कविता बेहद मार्मिक और दिल दहला देने वाली सत्ता की दमनकारी स्थिति को दर्शाती है और उसको चुनौती देने वाली किरण के फूटने की आशा करती है| यह कविता कवि के संवेदनात्मक तनाव और सृजन की यात्रा को भी दर्शाती है| वह लिखती हैं-
तुम्हारे
स्खलित वीर्य बूंद को
चंद्रबिंदु की तरह
सहेज लिया था
और दी थी पनाह
अपनी कोख में
तो जना था शिशु
मेरी रचनात्मकता ने
अब तुमने
ठूंस दिए जो
टुकड़े पत्थर के
तो भी पैदा होगा
मानस मनुज
तुम्हारे रोपे
और
मेरे पोसे गए पत्थर
मत घबराना
कहेंगे सच तुम्हारा|(महिश्वर 2015:39)
‘रुखसाना का घर’ शीर्षक कविता संग्रह की लेखिका अनिता भारती (भारती 2015) का यह दूसरा काव्य संग्रह है| संग्रह का शीर्षक और उसका आवरण ही दलित आंदोलन और साहित्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक है| ऐसे समय में जब दलित समुदाय को हिन्दू अस्मिता के एकीकरण के नाम पर मुस्लिमों के खिलाफ खड़ा करने की पूरी कोशिश हो रही है ऐसे में एक दलित स्त्री की ओर से सांप्रदायिक दंगों की शासकीय साजिश को उजागर करती कविताएं लिखना देश को बचाने और दलित साहित्य की सिमित कर दी गयी परिभाषा को विस्तार देती हैं| समय-समय पर बाबा साहब को भी मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश की जाती रही है| विडम्बना तो यह है कि वे लोग जो बाबा साहब को देश विरोधी साबित करते रहे हैं वे ही अब उनको मुस्लिम विरोधी साबित कर दलितों को हिन्दू अस्मिता के नाम पर गोलबंद कर उनके दमन का प्रमाण पत्र हासिल करने में लगे हैं| लेकिन सुखद बात यह है कि दलित स्त्री कविता सत्ता के मुस्लिम विरोधी रुख को दलित दमन से जोड़कर देखती है| ‘रुखसाना का घर संग्रह’ की कविताएं मुजफ्फर नगर दंगे में प्रभावित मुस्लिम महिलाओं के भयानक दर्द को तथा सत्ता के षड़यंत्र को दिखाती हैं| वह लिखती हैं-
रुखसाना तुम्हारी आँखों के बहते पानी ने
कई आँखों के पानी मरने की
कलई खोल दी है| (भारती 2015:23)
दलित स्त्री कविता धर्म निरपेक्षता की जाँच देश में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं से करती है| एक स्थिति के बाद कविता दुःख और आक्रोश को व्यंग्य में ढाल देती है|
तुम्हारी बेटी के नन्हे हाथों से
उत्तर कापियों पर लिखे
एक छोटे से सवाल
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की विशेषताओं पर
अपना अर्थ तलाश रहे हैं| (भारती 2015:21)
अनीता भारती का यह कविता संग्रह दलित, मुस्लिम और उपेक्षित स्त्री की एकता, उनके दुःख के पहचानने तथा एक सामूहिक आवाज बन जाने की भावना अपने में समाहित किये हुए है| तभी तो उनकी नजर उस हर स्त्री पर है जो दलित, दमित और वंचित है| ‘ये औजार किसानों के लिए नहीं हैं’ शीर्षक कविता गरीबों के ही परंपरागत हथियार एक दिन उनके सृजन में सहायक होने की जगह उनका ही नाश करने के काम आने लगेंगे, की विडम्बना पर केंद्रित है| एक स्त्री ने मानव समृद्धि के लिए जिस हथियार को जन्म दिया वही हथियार उसके खिलाफ तथा उसकी बहनों के खिलाफ इस्तेमाल हो रहा है| वह लिखती हैं-
ओ मुजफ्फर नगर की लोहारिन वधू!
जब तुम आग तपा रहीं थीं भट्टी में
उस भट्टी में गढ़ रहीं थीं औजार
हंसिया, दांव और बल्लम
तब क्या तुम जानती थी
कि ये सब एक दिन तुम्हारे वजूद को खत्म करने के काम आयेंगे? (भारती 2015:25)
अनीता भारती एक सचेत चिंतक भी हैं| दलित स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी का बहुत कुछ उनके लेखन से ही आकार ग्रहण कर पाया है| लेकिन जब उनकी कविता ‘कहाँ तक वाजिब है’ पढता हूँ तो आश्चर्य होता है कि इतनी सचेत और सधी हुई लेखिका स्त्री प्रश्न पर अपनी सीमा बनाती हुई क्यों दिखती हैं| दलित स्त्रीवाद में जाहिर है कि केवल दलित स्त्री का सवाल नहीं शामिल है वह एक व्यापक दायरे को समेटता है| तब ऐसा क्यों है-
जब इस देश में हजारों निर्भायायें हों
तब एक ही निर्भया के लिए
जंतर-मंतर को
देश की संसद को
देश के पुलिस थानों को
देश के सारे गली मोहल्लों को
युद्ध स्थल में बदल देना
कहाँ तक वाजिब है? (भारती 2015:41)
उनकी इस कविता से यह ध्वनित होता है कि अगर किसी दलित स्त्री के बलात्कार के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई गयी तो सवर्ण स्त्री के बलात्कार पर इतना हल्ला क्यों? यह ठहर कर सोचने का विषय है| यह तो सच है कि दलित स्त्री के बलात्कार के बाद कोई बड़ा आंदोलन नहीं होता है| 16 दिसंबर को होने वाली घटना के खिलाफ होने वाला आंदोलन किसी सवर्ण लड़की के लिए किया गया आंदोलन नहीं था बल्कि देश के मध्यवर्गीय युवाओं के भीतर इस तरह की घटनाओं से व्याप्त असुरक्षा के खिलाफ उपजा हुआ स्वाभाविक विक्षोभ था जिसमें किसी जाति, धर्म, संप्रदाय और नस्ल विशेष के लोग हीशामिल नहीं थे| दलित स्त्री कविता को देश के युवा के भीतर बलात्कार और महिला दमन के खिलाफ बनने वाली आंदोलनात्मक चेतना का स्वागत करते हुए उनके भीतर व्याप्त जातिवादी भावना की आलोचना करनी चाहिए जिसकी ही वजह से दलित स्त्री पर होने वाले दमन और बलात्कार की उपेक्षा होती है| मोटे तौर पर इनकी कविताएं सांप्रदायिक, जातिवादी तथा दलित आंदोलन के अवसरवादी स्वरुप तथा सत्ता और आंदोलनों के जातिवादी और लैंगिक चरित्र के खिलाफ चेतना का विस्तार करती हैं|
दलित साहित्य में देश की एक वैकल्पिक परिकल्पना मौजूद है| यह जो विरासत में मिला हुआ देश है वह नाकाफी है| इसलिए देश का सपना यहाँ अलग ढंग से आकार लेता है| देश में कविता और कविता में देश कब गूँथ जाते हैं पता ही नहीं चलता| रजत रानी मीनू का कविता संग्रह ‘पिता भी तो होते हैं माँ’ (रानी ‘मीनू’2015) की कविताएं इसी ‘देश’ को अपने समाये हुए हैं| वह लिखती हैं-
कविता मेरा देश है
कविता मेरा भाव|
कविता एक स्त्री लिंगी शब्द है
जिसमे समाया है
पूरा का पूरा
विश्व परिवार| (रानी ‘मीनू’2015:53)
उनकी कविताएं व्यंग्य का रूप धर लेती हैं| लिखती हैं- देश का वंश चलाने के लिए मजदूर स्त्री/देती है एक स्त्री एक बच्चे को जन्म!’| इनकी कविताएं पितृसत्ता की खुले रूप में रूप में आलोचना करती हैं तथा पारिवारिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं| ये प्रतीक नहीं बनातीं हैं अपनी बात सीधे सपाट शब्द्दों में और कई बार तो लम्बी-लम्बी कविताओं में कहती हैं| इनकी कविताएं रहस्य का आवरण नहीं बनाती हैं| इनकी कविताओं की विषयवस्तु व्यापक है| दलित स्त्री और दलित की स्थिति के लिए ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को ज़िम्मेदार ठहराती उनकी कविताएं जीवन के विविध आयाम को अपने दायरे में लाती हैं| उनकी कविता ‘रविवार का दिन’ तथा ‘गोया मैंने किया है अपराध’ सहित कई कविताएं पितृसत्ता की खुली आलोचना करती हैं| वह लिखती हैं-
तुमने बना
कर रख दिया आश्रिता मात्र
और मैं
गाती रही गीत
पिता की जमीदारी के
भ्राता और पति की मजबूती के| (रानी ‘मीनू’2015:69)
स्त्री मुक्ति की आकांक्षी उनकी कविताएं तब स्त्री विमर्श के विपरीत जाने लगती हैं जब वह कहती हैं-
वे स्त्रियाँ भाती हैं
जो करती हैं
सदाचार से प्यार
किसी भी हालत में
बेदाग बनाये रखती हैं
किरदार
वे स्त्रियाँ भाती हैं उन्हें| (रानी ‘मीनू’2015:105)
यह कविता उनके सहज स्वाभाविक विचार से विपरीत यात्रा करती हुई कविता है|
असंग घोष जी प्रशासनिक सेवा से संबंध रखते हैं| उनका कविता संग्रह ‘समय को इतिहास लिखने दो’ (घोष 2015) को पढ़कर दलित साहित्य में व्यक्त होने वाला आरंभिक आक्रोश दिखता है| उनकी कविताएं आक्रोश से आशा की ओर बढ़ती हुई दिखती हैं| डांटने फटकारने की शैली के कारण कविताएं दलित साहित्य के नए टेस्ट को जन्म देती हैं| यह शैली बेहद आत्मविश्वास के बिना संभव नहीं हो सकती थी| उनकी लेखनी विद्रोह का बीज बोती है|
मैंने
अपनी लेखनी से
तेरे खिलाफ
विद्रोह का बीज
बो दिया है| (घोष 2015:83)
उनकी कविता में फटकार का एक नमूना यह है-
इससे पहले
की मेरे सारे औजार
मेरे शस्त्र बनकर
तुम्हारे खिलाफ
विद्रोह करें
तू भाग जा यहाँ से| (घोष 2015:84)
स्त्री के प्रति संवेदनशीलता उनकी कविता की विशेषता है| वह लिखते हैं-
तुम्हारे लिए
स्त्री थी
केवल एक देह| (घोष 2015:91)
उनकी कविताओं का मुख्य स्वर ही है आक्रोश| उनको इसका प्रभाव भी पता है| लिखते हैं-
तुझे
पसंद नहीं है
मेरा कविता करना
इन कविताओं में
तुम्हें गाली-गुप्तार की
ध्वनि सुनाई देती है| (घोष 2015:109)
संत राम आर्य चर्चित दलित साहित्यकार हैं| उनका कविता संग्रह है ‘दर्द की भाषा’| (आर्य 2014) जिस आत्मालोचना की उभरती हुई प्रवृत्ति की बात ऊपर की गयी है वह इस काव्य संग्रह में दर्ज है| अपनों से ही शिकायत करती कविता-
यहाँ अपने अपनों को काटते हैं
जोड़ते नहीं बांटते हैं
टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं देश और आदमी के (आर्य 2014:27)
दलित अभिजन प्रवृत्ति और सामाजिक कुरीतियों की आलोचना करती कविताएं सांप्रदायिक उन्माद की भावना से हमें सचेत करती हैं| इनका उपन्यास है ‘अमन के रास्ते’(आर्य 2015)| यह उपन्यास अंतरजातीय विवाहों में आने वाली कठिनाईयों को ध्यान में रखकर लिखा गया| विवाह संस्था एक सामाजिक शक्ति संरचना के साथ-साथ लैंगिक शक्ति संबंध को भी अभिव्यक्त करता है| जातिवादी पूर्वाग्रह और हमारी सामाजिक रूढ़ियों का भी अपना वर्चस्वशाली ढांचा होता है| इसके कारण अंतरजातीय विवाहों के संबंध निर्धारित होते हैं| यह उपन्यास इन्हीं समस्याओं को उजागर करता है तथा इसकी ऐतिहासिकता को भी अपने दायरे में शामिल करता है|
साहित्य में कविता अपने छोटे कलेवर के कारण जल्दी पढ़ ली जाती है और कम शब्दों में वह अपनी बात भी समाज को पहुँचा देती है| लेकिन कहानी और उपन्यास के साथ यह स्थिति नहीं है| दलित साहित्य में कहानी विधा भले ही उतनी चर्चित नहीं रही हो लेकिन उसका प्रभाव एक हद तक रहा है| लेकिन यह कहा जा सकता है कि दलित कहानी की प्रतियोगिता दलित कविता से ही रही है| ओमप्रकाश वाल्मीकि एक ऐसे दलित साहित्यकार रहे जिनकी लगभग सारी विधाओं की खूब चर्चा हुई| उनकी कहानियाँ भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ी गयीं जितनी उनकी आत्मकथा और कविताएं| ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ अपने कहानीपन का एक अलग अंदाज लिए हुई थीं लेकिन उनकी विषय वस्तु प्रायः जातिवादी दमन और आतंरिक जातिवाद और ब्राहमणवादी संस्कृति थे| दलित कहानी का समकालीन परिदृश्य थोड़ा समृद्ध हुआ है| विषयवस्तु का विस्तार हुआ है| बाजार, नयी पूंजी, लैंगिक उत्पीड़न, दलित समाज के भीतर व्याप्त आधुनिकता विरोधी रूढ़ियाँ, ब्राह्मणवाद का पूंजीवाद के साथ मिलकर उत्पीड़न के नए तरीकों को जन्म देने की प्रवृत्ति की पहचान इसमें प्रमुख हैं|
टेकचंद हमारे समय के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं| उनकी कहानियाँ उपरोक्त विषयों पर केंद्रित हैं| टेकचंद की कहानियाँ ग्रामीण जीवन का यथार्थ कम गाँव के क़स्बा में बदलते जाने और अंततः शहर तक के परिवर्तन को अपना विषय बनाती हैं| इनकी कहानियाँ दिल्ली के आस-पास के गांवों में आने वाले दलित समाज और गैर-दलित समाज के भीतर के बदलाव पर केंद्रित हैं| विकास की गति में दलित जीवन का मनोवैज्ञानिक महाख्यान प्रस्तुत करती हैं| गतिशीलता, इतिहासबोध की स्पष्टता इनकी कहानियों की विशेषताएं हैं| उनका कहानी संग्रह है- ‘मोर का पंख’|(टेकचंद 2015) इसकी एक कहानी है ‘ए टी एम’| यह कहानी में एक ऐसी स्त्री की दशा के बारे में चित्रण है जो पढ़ी लिखी है नौकरी पेशा है| उसके पति सहित ससुराल वाले यह चाहते हैं कि अपनी पूरी कमाई वह ससुर या पति के हाथ में रख दे और अपने खर्च के लिए भी उन्हीं पर निर्भर करे| पहले तो नहीं बाद में लेकिन वह इस बात का विरोध करती है और कहती है- ‘मैं मर-मर कर कमाऊ और कमाई पर मेरा हक़ भी नहीं| अपने लिए तो किसान पंचायत मैं सीना ठोक कै कहो हो के ‘धरती किसकी? जो बोवै उसकी!’ फिर मेरी बारी में दोगली बात क्यों? मेरी मेहनत की कमाई पर मेरा हक़ क्यूँ ना हो? अपना ए टी एम, अपनी कमाई मैं किसी को देने वाली नहीं हूँ’(टेकचंद 2015:124)| यह दलित समाज में स्त्री अधिकार दावा प्रस्तुत करती कहानी है| इनकी लगभग सारी कहानियाँ दिल्ली के आप-पास के क्षेत्रों की विषयवस्तु वाली हैं| अगर बदलती हुई दिल्ली का सबाल्टर्न इतिहास जानना है तो टेकचंद जी की कहानियाँ आप को सूक्ष्मता से इसमें मदद करेंगी|
रत्न कुमार सांभरिया वरिष्ठ साहित्यकार हैं| 2015 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘एयरगन का घोड़ा’ (सांभरिया 2014) है| इस संग्रह की कहानियाँ तिरस्कार की परंपरा को ख़ारिज करते हुए दलित-शोषित में साहस, संबल और स्वभिमान पैदा करती हैं| इस कविता संग्रह की एक कहानी है– पुरस्कार| यह कहानी उच्च संस्थानों में व्याप्त महिला शोषण की प्रवृत्ति की आलोचना करती है और महिला स्वाभिमान की भावना को जगाती है| यही विशेषता उनकी ‘विद्रोहिणी’ कहानी में भी है| यह कहानी एक स्वाभिमानी विधवा स्त्री की है जो समाज के बहुत सारे नियम-कानून को अपनी स्वतंत्रता में बाधा मानती है और मध्ययुगीन खाप पंचायत को नकार देती है| उसके पति की मृत्यु के बाद उसके रहन-सहन से परेशान उसके ससुराल वाले खाप पंचायत का आयोजन करते हैं लेकिन वह बहुत बहादुरी से पंचायत में जाने से मना कर देती है| वह कहती है- ‘जो आदमी किसी अकेली औरत का आधी रात दरवाजा खटखटाए, वह पंचायत करेगा? आप जाएँ, मुझे बच्चे को होमवर्क करवाना है|’ (सांभरिया 2015:130) इस तरह हम देखते हैं कि उनकी कहानियाँ स्त्री मुक्ति की उनके आत्मविश्वास की नयी परिभाषा गढ़ती हैं| दलपत चौहान का कहानी संग्रह ‘ठंडा खून’ (चौहान 2015) है| इनकी कहानियाँ दलित जीवन विभिन्न आयामों को अपने में समाहित करती है| उनकी कहानियाँ उन्हीं के न भुलाये गए अतीत का दस्तावेज हैं| एक तरह से कहानी संग्रह के रूप में यह उनकी आत्मकथा कही जा सकती है|
दलित साहित्य में उपन्यास विधा को अभी और विस्तार लेना बाकी है| संभवतः अनुभव के हू-ब-हू व्यक्त कर देने के दबाव ने दलित साहित्य में कलात्मक सृजन में एक बाधा पैदा किया| हालाँकि अपनी बात को कहने के लिए कलात्मक पैमाना तय कर देने से उसकी स्वभाविकता नष्ट होने का खतरा रहता है| सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हे बदलना ही होगा’(टाकभौरे 2015) अपनी विषयवस्तु और प्रवाह के कारण ध्यान आकर्षित करता है| सुशीला जी की नज़र समाज के अनेकों सवालों पर रहती है| दलित साहित्य की मूल चिंता है जातिवाद का खात्मा| यही चिंता उनके उपन्यास में अभिव्यक्त हुई है| उनका उपन्यास यह प्रस्तावित करता है कि लोग अंतरजातीय विवाह तो करते हैं लेकिन उच्च कही जाने वाली जातियाँ बहुत हद तक आपस में ही अंतरजातीय विवाह करती हैं| इस दृष्टिकोण को बदलना होगा तभी समाज से जाति का खात्मा होगा| दलित साहित्य आलोचना का भी विकास होना चाहिए| दलित साहित्य का दलित दृष्टिकोण से आलोचनात्मक मूल्याङ्कन अभी भी एक महत्वपूर्ण और जरुरी कार्यभार बना हुआ है| बजरंग बिहारी तिवारी दलित साहित्य के गंभीर अध्येता माने जाते हैं| उनकी पुस्तक दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (तिवारी 2015) हिंदी दलित साहित्य के मूल्याङ्कन का एक प्रयास है| अपनी पुस्तक के कविता वाले अध्याय में वे जयप्रकाश लीलवान की कविताओं पर लिखते हुए जो निष्कर्ष देते हैं वह समकालीन आलोचना के परिदृश से एक प्रश्न है| वह लीलवान की कविताओं पर लिखते हुए कहते हैं– ‘लीलवान की “समय की आदमखोर धुन” शीर्षक पचास पेज लम्बी कविता हिंदी के समकालीन काव्य-परिदृश्य की एक उपलब्धि है| इसे भारतीय कविता का प्रतिनिधि स्वर कहा जा सकता है| यथार्थ के सुनियोजित आभासीकरण को पहचानती हुई यह कविता उन क्रूरताओं और नृशंसताओं को चिन्हित करती है जिसे “तकनीक सज्जित निरंकुश वर्चस्व” ने चकाचौधी आवरण से ढक दिया है|’ (तिवारी 2015:62) जाहिर है समकालीन हिंदी आलोचना जब ऐसी कविताओं की कोई सुध नहीं ले रही है तब बजरंग जी का ऐसी कविता पर ध्यान जाना और उसके महत्व को रेखांकित करना समकालीन आलोचना के इकहरे और पूर्वाग्रही स्वरुप को तोड़ना है| बजरंग जी की आलोचना दृष्टि मार्क्सवादी है वे अपनी आलोचना में द्वंद्वात्मक पद्धति का इस्तेमाल करते हैं यही कारण है कि दलित साहित्य के प्रति उनका दृष्टिकोण भावुकता वाला नहीं है| वह हमेशा उसकी सकारात्मकता के साथ उसके नकारात्मक पहलू को भी सामने लाते हैं| बजरंग जी दलित साहित्य का समग्र मूल्यांकन करते हुए इस बात की आशा करते हैं कि जिन सवालों पर दलित साहित्यकारों की पहली पीढ़ी ने नहीं लिखा उस पर वर्तमान पीढ़ी लिखेगी| जेंडर, पितृसत्ता, भूमंडलीकरण, बाजारवाद आदि को वे ब्राह्मणवाद के नए नए रूप मानते हैं और इसकी सत्ता को मजबूत करने वाली शक्ति (प्रतिक्रियावादी फासीवादी पूंजीवादी) के षड़यंत्र को उजागर करने पर जोर देते हैं आलोचना का समकालीन परिदृश्य दलित साहित्य को गंभीरता से स्वीकार करते हुए इसका मूल्यांकन कर रहा है यह एक अच्छी स्थिति है| दलित साहित्य की कई मूल स्थापनाओं का समर्थन करती उनके विस्तार की मांग करती और उनसे बहस करती यह किताब दलित साहित्य और हिंदी आलोचना को समृद्ध करती है| 2015 में उनकी प्रकाशित पुस्तकें जाति और जनतंत्र–दलित उत्पीड़न पर केंद्रित, भारतीय दलित साहित्य आंदोलन और चिंतन, यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ीआलोचना (भारती और तिवारी 2015) हैं|
समाज में एक हद तक बदलाव तो आया है लेकिन दलित उत्पीड़न और हत्याओं, बलात्कारों, और बहिष्कार की अनगिनत घटनाएं अभी भी घटती चली जा रही हैं| दलित उत्पीड़न और हत्या के मामले में 2015 का वर्ष मध्यकालीन बर्बरता को मुँह चिढ़ा रहा है| ऐसी ही एक घटना राजस्थान के डांगावास में दलित संहार की है| इस घटना में पांच लोगों को जाट समुदाय के लोगों द्वारा बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया और 11 लोगों को गंभीर रूप से घायल कर दिया गया| इस घटना पर विस्तृत रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकार भंवर मेघवंशी ने प्रकाशित कर इस घटना की मुख्य सच्चाई को सबके सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया है|
ग्रंथसूची:
वाल्मीकि,ओमप्रकाश. 2013. दलित साहित्य अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ. दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन|
द्विवेदी, महावीर प्रसाद. सितम्बर 1914. सरस्वती. भाग 15. खंड 2, पृष्ठ सं. 512-513. www.hindisamay.com
महिश्वर, हेमलता. 2015. नील,नीले रंग के. दिल्ली: शिल्पायन प्रकाशन|
भारती, भारती. 2015. रुखसाना का घर. दिल्ली: स्वराज प्रकाशन|
रानी, रजत ‘मीनू’, 2015. पिता भी होते हैं माँ. दिल्ली: वाणी प्रकाशन |
घोष, असंग. 2015. समय को इतिहास लिखने दो. दिल्ली: शिल्पायन प्रकाशन|
आर्य, संतराम. 2014. दर्द की भाषा. दिल्ली: बेधड़क प्रकाशन|
---. 2015. अमन के रास्ते. दिल्ली: बेधड़क प्रकाशन|
टेकचंद. 2015. मोर का पंख तथा अन्य कहानियां. दिल्ली: वाणी प्रकाशन |
सांभरिया, रत्नकुमार. 2015. एयरगन का घोड़ा. नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स|
चौहान, दलपत. 2015. ठण्डा खून. दिल्ली: शिल्पायन प्रकाशन|
टाकभौरे, सुशीला. 2015. तुम्हे बदलना ही होगा. दिल्ली: सामायिक प्रकाशन|
तिवारी, बजरंग बिहारी. 2015. दलित साहित्य एक अंतर्यात्रा. गाज़ियाबाद: नवारुण प्रकाशन|