छत्तीसगढ़ में तालाबों का सांस्कृतिक औचित्य/ Cultural Significance of Lakes in Chhattisgarh

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Published on: 21 August 2018

राहुल कुमार सिंह

शोधकर्ता, लेखक एवं विचारक
उपसंचालक, संस्कृति एवं पुरातत्व, रायपुर, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ की सीमावर्ती पहाड़ियां ऊँचाई का, प्राकृतिक संसाधनयुक्त रत्नगर्भा धरती सम्पन्नता का, व वन-कानन सघनता का परिचय देते हैं वहीं मैदानी भाग उदार विस्तार का परिचायक है। इस मैदानी हिस्से की जलराशि में सामुदायिक व समन्वित संस्कृति के दर्शन होते हैं, जहां जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण तालाबों के रूप में विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के वृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं। तालाब हमेशा से ही लोकजीवन का अटूट हिस्सा रहे हैं। प्रस्तुत लेख छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में तालाब की केन्द्रीय भूमिका की एक पड़ताल है।

 

कंकाली तालाब, रायपुर 

 

छत्तीसगढ़ी लोककथाओं और लोक गीतों में तालाबों का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओड़िया, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं। गाया जाता है, 'राम कोड़ावय ताल सगुरिया, लछिमन बंधवाय पार।' खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा में प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में, तथा बस्तर के लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी पारम्परिक मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। रतनपुर का घी-कुडि़या तालाब राजा मोरध्‍वज के अश्‍वमेध यज्ञ आयोजन में घी से भरा गया था, ऐसा माना जाता है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे, और राजा बालंद कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता, जहां-जहां रात बासा, वहीं तालाब। उक्ति है, 'सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा।' विशेषकर पटना (कोरिया) में कहा जाता है, 'सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर॥'

गोपिया तालाब, अकलतरा 

बड़ी संख्या में जगह-जगह पर बने तालाब इस क्षेत्र में तालाबों की महत्ता के प्रमाण हैं। तालाबों की बहुलता इतनी है कि 'छै आगर छै कोरी', यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई गांवों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में, तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में 'सात आगर सात कोरी' (147) तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्‍या में तालाब विद्यमान हैं। 'लखनपुर में लाख पोखरा' यानि सरगुजा की लखनपुर जमींदारी में लाख तालाब कहे जाते थे, अब यह गिनती 360 तक पहुंचती है। छत्तीसगढ़ में छत्तीस से अधिक संख्‍या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग यानि मिट्‌टी के किले या गढ़ जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों का सामरिक उपयोग संदिग्ध है किन्तु गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है। रायपुर और सारंगढ़ के श्रृंखलाबद्ध तालाब और उनकी आपसी सम्‍बद्धता के अवशेष स्‍मृति में और मौके पर अब भी विद्यमान है। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी, संभवतः एग्रीकल्‍चर एंट हार्टिकल्‍चर सोसायटी आफ इंडिया के 19वीं सदी के अंत में सचिव रहे जे. लेंकेस्‍टर, की पहल पर खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंख्‍य 'लंकेटर तालाब' अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।

यहाँ तालाबों से जुड़ी विशिष्ट लोक मान्यताएं और तरह-तरह की रस्में भी हैं। भीमादेव बस्तर में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी-कृषि के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई रीति-रिवाज़ पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भांवर घूमते हैं और परिवारजन सातों बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है। यह रोचक है कि आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, लोनिया, मटकुड़ा, मटकुली, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही।

छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिस अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यतः तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। लकड़ी के इन स्‍तंभों का स्‍थान अब सीमेंट लेने लगा है और सक्ती के महामाया तालाब में उल्‍लेखनीय लोहे का स्तंभ स्थापित है, स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। किरारी, जांजगीर के हीराबंध तालाब से प्राप्त स्तंभ पर खुदे अक्षरों के आधार पर यह दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस प्राचीनतम काष्ठ उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए ऐसे तालाब का ही जल उपयोग में आता है।

 

                                                                                                                           

                                       लकड़ी का प्राचीन स्तम्भ -किरारी तालाब   

 

धमधा का स्तम्भ ताम्रपत्र युक्त तालाब  

 

तालाब स्तम्भ की प्रतिष्ठा और जीर्णोद्वार उत्कीर्ण ताम्रपत्र 

 

तालाब को बनाने की प्रक्रिया से लेकर प्रबंधन तक स्थानीय समुदाय की सक्रियता रहती है। तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं। घाट, सामान्‍यतः पुरुषों, महिलाओं के लिए अलग-अलग, धोबी घाट, मवेशी घाट (अब छठ घाट) और मरघट होता है। तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है, और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। अधिकतर ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के होते हैं।

धोभी घाट, बूढ़ा तालाब, रायपुर 

 

कुछ रीति-रिवाज भी तालाब के प्रबंधन को ध्यान में रखते हुए बनाये गए मालूम पड़ते हैं। कार्तिक-स्नान, ग्रहण-स्नान, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना) और विसर्जन आदि के अलावा पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। सावन अमावस्या पर हरेली की गेंड़ी, भाद्रपद अमावस्या पर पोरा के दिन, तालाब का तीन चक्कर लगाकर पउवा (पायदान) विसर्जन और चर्मरोग निदान के लिए तालाब-विशेष में स्‍नान, लोक विधान है। विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्‌दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर, गांवजल्ला लद्‌दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। बरसात में, नदी-नाले का पुराना छूटा प्रवाह मार्ग-सरार, तालाब बन जाता है। गरमियों में पानी सूख जाने पर तालाब में पानी जमा करने के लिए छोटा गड्‌ढ़ा-झिरिया बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है। खातू (खाद) पालने के लिए सूखे तालाब का राब और कांपू मिट्‌टी निकालने की होड़ लग जाती है।

पुरेनहा तालाब, अकलतरा में जलीय वनस्पति 

 

तालाबों के नाम भी अकारण नहीं होते। नामकरण सामान्यतः तालाब के आकार, उपयोग और विशिष्टता के आधार पर होता है, जैसे पनपिया या पनखत्‍ती, निस्तारी और अपासी (आबपाशी) और खइया, नइया, पंवसरा, पंवसरी, गधियाही, सोलाही या सोलहा, पचरिहा, सतखंडा, अड़बंधा, छुइखदान, डोंगिया, गोबरहा, खदुअन, पुरेनहा, देउरहा, नवा तलाव, पथर्रा, टेढ़ी, कारी, पंर्री, दर्री, नंगसगरा, बघबुड़ा, गिधवा, केंवासी (केंवाची)। बारात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है। तालाब नामकरण उसके चरित्र, इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे—फुटहा, दोखही, भुतही, करबिन, काना, भैरा, छुइहा, टोनही, डबरी, सोनईताल,  फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, रजबंधा, गोपिया आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे—भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। 'पानी-पोखर' दिनचर्या का तो 'तलाव-उछाल' जीवन-मरण का शब्‍द है।

तालाब या पानी के सूचक उपसर्गों को जोड़कर गाँव का नाम रखने के भी परंपरा है। पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची हैं और उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने हैं। उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद,  मरौद, रहौद,  लाहौद, चरौदा,  कोहरौदा,  बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा,  बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। उसी प्रकार सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर,  लाखासर, खोंगसरा,  अकलसरा,  तेलसरा, बोड़सरा,  सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा,भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, जोरातराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उड़नताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़,  नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, हाड़ाबंद, बिल्लीबंद जैसे हैं। ऐसा ही एक नाम अब रायपुर का मुहल्ला टाटीबंद है। वैसे टाटा और टाटी ग्राम नाम भी छत्तीसगढ़ में हैं, जिसका अर्थ छिछला तालाब जान पड़ता है।

पुरेनहा तालाब, अकलतरा में जलीय वनस्पति 

 

संदर्भवश, छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी है तो सरगुजा में महान नदी और यहीं एक मछली नदी भी है, इसी तरह मेढकी नदी कांकेर में है। सरगुजा में ही सूरजपुर-प्रतापपुर के गोविंदपुर के पास नदी 'रजमेलान' के एक तट-स्‍थान को पद्मश्री राजमोहिनी देवी के ज्ञान-प्राप्ति का स्‍थान माना जाता है, रोचक यह कि रजमेलान, वस्‍तुतः नदी नहीं बल्कि 'रज' नामक नदी में एक छोटी जलधारा 'सत्' के मिलान यानि संगम का स्‍थान है। इसी अंचल की साफ पानी वाली बारहमासी पिंगला नदी ने तमोर पहाड़ी के साथ 'तमोर पिंगला' अभयारण्‍य को नाम दिया है। कांकेर में दूध नदी और फिंगेश्‍वर में सूखा नदी है तो एक जिला मुख्‍यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर बलौदा बाजार-पलारी का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है। बारसूर में चन्‍द्रादित्‍यसमुद्र नामक तालाब खुदवाए जाने के अभिलेखीय प्रमाण हैं। इसी तरह तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया,  बंधवा, सागर,  रानीसागर, डबरी, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सरगबुंदिया, सेतगंगा,  गंगाजल,  नर्मदा और निपनिया भी हैं। जल-स्रोत या उससे हुए भराव को झिरिया कहा जाता है, इसके लिए झोड़ी या ढोढ़ी, डोल, दह, दहरा, दरहा और बहुअर्थी चितावर शब्द भी हैं।

तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थितिकी-तंत्र के बिना अधूरी है जिसमें जलीय वनस्पति—गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), पिकी, जलमोंगरा, ढेंस कांदा, कुकरी कांदा, सरपत, करमता, सुनसुनिया, कुथुआ, साथ ही जलीय जन्तु जैसे—सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिड़िया (ऐरी), उभयचर आदि और कभी-कभार ऊद व मगर भी होते हैं। मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात हैं—डंडवा, घंसरा, अइछा, सोढ़िहा या सोंढ़ुल, लुदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, भेंड़ो, बामी, काराझिंया, खोखसी या खेकसी, झोरी, सलांगी या सरांगी, डुडुंग, डंडवा, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, रुदवा, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंघी, लुडुवा, कोकिया, रेछा, कोतरी, खेंसरा, गिनवा, टेंगना, मोहराली, सिंगार, पढ़िना, भुंडी, सांवल, बोलिया या लपची, केउ या रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, पथर्री, चंदैनी, कटही, भेर्री, कतला, रोहू और मिरकल मछलियों के नाम भी सहज आते हैं।

सफुरा  माता तालाब , गिरौदपुरी 

 

जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं रायपुर के निकट ग्राम सरोना और कोटगढ़-अकलतरा के सतखंडा तालाब जैसे उदाहरणों में उसकी पारस्थितिकी, सत्ता की पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। इसी तरह 'तरिया गोसांइन' और 'अंगारमोती' जैसे ग्राम देवता खास तालाबों के देवता हैं, जो ग्राम के जल-आवश्यकता की पूर्ति का ध्यान रखते है, जिन तालाबों में ऐसे देवता वास हो, उनके जल का शौच के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जाता, कोई अन्‍जाने में ऐसा कर बैठे तो देवता उसे माफ तो करता है, लेकिन सचेत करते हुए आभास करा देता है कि भविष्‍य में भूल न हो, और फिर भी तालाब के पारम्परिक नियमों की उपेक्षा या लापरवाही हो तो सजा मिलती है। 

कंकाली तालाब, रायपुर 

 

सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र: बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में अपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है। आम के पेड़ों की अमरइया, स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, देवी का स्थान माताचौंरा या महामाया और शीतला या नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में वट, पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया भी प्रमुख तालाबों के अभिन्न अंग हैं।

बंधवा तालाब, रायपुर 

 

झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार और पूरी बारात के तालाब में डूब जाना जैसी मान्यता, तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है तो पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में जलीय वनस्पति-चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य की इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।

 

तालाब पर कुछ ऐतिहासिक उल्लेख 

• 18 मई 1790 को अंगरेज यात्री जी.एफ. लेकी रायपुर पहुंचा था। उसने यहां के विशाल, चारों ओर से पक्‍के बंधे तालाब (संभवतः खो-खो तालाब या आमा तालाब) का जिक्र करते हुए लिखा है कि तालाब का पानी खराब था। 'नागपुर डिवीजन का बस्‍ता', दस्‍तावेजों में रायपुर और रतनपुर के तालाबों का महत्‍वपूर्ण उल्‍लेख मिलता है। प्रसिद्ध यात्री बाबू साधुचरणप्रसाद, 1893 में छत्‍तीसगढ़ आए थे। उन्‍होंने रायपुर के कंकाली तालाब, बूढ़ा तालाब, महाराज तालाब, अंबातालाब, तेलीबांध, राजा तालाब और कोको तालाब का उल्‍लेख किया है। इसी प्रकार पं. लालाराम तिवारी और श्री बैजनाथ प्रसाद स्‍वर्णकार की रचना 'रतनपुर महात्‍म्‍य' में भी रतनपुर के तालाबों का रोचक उल्‍लेख है।

•सन 1900 में पूरा छत्तीसगढ़ अकाल की चपेट में था। इसी साल रायपुर जिले के एक हजार से भी अधिक तालाबों को राहत कार्य में दुरुस्त कराया गया। रायपुर के पास स्थित ग्राम गिरोद में ऐसी सूचना अंकित शिलालेख सुरक्षित है। छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका छत्तीसगढ़ मित्र के सन्‌ 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है, 'रायपुर का आमा तलाव प्रसिद्ध है। यह तलाव श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।'

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.