उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र भी भारत के तमाम अन्य हिस्सों की तरह लोक परंपराओं का क्षेत्र है। ख़ास बात यह है कि तमाम सांस्कृतिक सम्मेलनों व परंपराओं के आदान-प्रदान के बाद भी इस क्षेत्र में लोक देवताओं और उनसे जुड़े स्थानीय लोक उत्सवों का विशेष महत्व है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि इन लोक परंपराओं और आस्थाओं के बगैर इस पर्वतीय क्षेत्र की कल्पना करना मुश्किल है। क्षेत्र में प्रचलित एवं पूजित अनगिनत लोक देवताओं में लोक देवी ‘नंदा’ का विशेष महत्व है। उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में यह संभवतः सबसे ज्यादा प्रचलित एवं प्रसिद्ध लोक देवी हैं। इससे जुड़े हुए उत्सवों की भी लंबी फेहरिस्त है और राज्य के एक बड़े हिस्से में इन उत्सवों का आयोजन होता है।
‘नंदा’ का कोई लिखित इतिहास नहीं है। जो कुछ इसके इतिहास का वर्णन है, वह ‘जागरों’ के रूप में विद्यमान है। एक विशेष शैली के लोक गीतों को स्थानीय स्तर पर ‘जागर’ कहा जाता है। नंदा जागरों में नंदा का विस्तृत उल्लेख है। हालांकि ये जागर भी अलिखित हैं, और श्रुति और स्मृति के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते रहे हैं। जागरों के अनुसार नंदा एक सामान्य सी कन्या है जिसका विवाह उच्च हिमालयी शिखरों में रहने वाले किसी व्यक्ति से हुआ है। उस निर्जन एवं नीरस स्थान पर रहते-रहते उसे उसके मायके की याद सताती है, जहाँ ऋतुएँ आती-जाती हैं और अलग-अलग क़िस्म के फल, फूल, रंग, सुगंध, फ़सलें व लोगों का आपसी प्यार और मेल-जोल ज़िंदगी को जीवंत बनाता है। मायके के इन रंगों और भावनाओं को छूने व महसूस करने के लिए वह कुछ दिनों के लिए अपने मायके जाना चाहती है। नंदा से जुड़े तमाम प्रचलित लोक उत्सवों में नंदा की पूजा में इन्हीं भावनाओं का आरोपण होता है। स्थानीय लोग नंदा को अपनी बहन या बेटी (जिसे स्थानीय भाषा में ध्याण कहा जाता है) के रूप में पूजते हैं। लोग मानते हैं कि वे सभी नंदा के मायके पक्ष के हैं, और उनका गाँव/क्षेत्र नंदा का मायका है।
हालांकि नंदा और उससे जुड़े हुए उत्सवों का प्रचलन उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक है, लेकिन इस लेख में एक क्षेत्र विशेष में आयोजित किये जाने वाले नंदा उत्सवों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस क्षेत्र को नंदीकुण्ड नंदा जात क्षेत्र कहा जा सकता है। इस क्षेत्र में जनपद चमोली गढ़वाल के मल्ला नागपुर व तल्ला पैनखण्डा के दो दर्जन से भी अधिक गाँव सम्मलित हैं। ये सभी गाँव अलकनंदा नदी के दाहिनी ओर विकास खण्ड जोशीमठ से विकास खण्ड दशोली तक फैले हैं।
नंदा लोक उत्सव
नंदा से जुडे़ लोक उत्सवों को दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहली श्रेणी नंदा जात की है। यहाँ जात का अर्थ यात्रा से है। उत्तराखण्ड के कई पर्वतीय इलाकों में उच्च हिमालयी शिखरों तक नंदा की पूजा-आराधना के लिए साहसिक एवं धार्मिक यात्रा आयोजित की जाती हैं, जिन्हें नंदा जात कहते हैं। नंदीकुण्ड नंदा जात क्षेत्र में भी हर वर्ष इस जात का आयोजन किया जाता है। दूसरी श्रेणी के उत्सवों में मेले हैं जो अलग-अलग गाँवों में अलग-अलग समय पर आयोजित किये जाते हैं। इन उत्सवों में जुगाथ, स्यालपाती, मणों और आठों मुख्य हैं। इन सभी उत्सवों का संक्षिप्त उल्लेख इस लेख में किया गया है।
नंदा जात
नंदा संबंधी उत्सवों में नंदा जात संभवतः सबसे प्रमुख उत्सव है। यह उत्तराखण्ड के कुछ हिस्सों में आयोजित की जाने वाली एक उच्च हिमालयी साहसिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक यात्रा है। यात्रा को स्थानीय भाषा में ‘जातरा’ कहा जाता है और शायद इसी शब्द का अपभ्रंश रूप ‘जात’ है। (Fig. 1) उत्तराखण्ड के अलग-अलग क्षेत्रों में गाँवों के कुछ समूह नंदा जात का आयोजन हर वर्ष भाद्रपद के माह (अगस्त-सितम्बर) में करते हैं। इसके अलावा लगभग 12 वर्ष के अंतराल में स्थानीय राज परिवारों के वंशज भी एक नंदा जात आयोजित करते हैं जिसे ‘नंदा राजजात’ कहा जाता है। यह जात अपेक्षाकृत वृहद होती है। नंदी कुण्ड नंदा जात क्षेत्र के दो दर्जन से अधिक गाँव भी हर वर्ष नंदा जात का आयोजन करते हैं। यह यात्रा भाद्रपद माह में क्षेत्र के हर एक गाँव से शुरू होकर उच्च हिमालयी क्षेत्र में समुद्र तल से तकरीबन 17,000 फीट की ऊँचाई पर स्थिति सरोवर नंदीकुण्ड तक जाती है। यह पूरी यात्रा यात्रियों द्वारा नंगे पाँव चलकर की जाती है।
लोक कथाओं के अनुसार कन्नौज के राजा जसीधवल उच्च हिमालयी रास्तों की विकट यात्रा कर नंदा के स्थान तक गये और उन्हें अपने राज्य में कुछ समय व्यतीत करने के लिए न्यौता दिया। इस यात्रा में समाज के कई वरिष्ठ एवं जानकार लोग भी शामिल थे। यह भी माना जाता कि राजा और उसके वंशजों ने उसके बाद कई वर्षों तक निरंतर इस यात्रा के माध्यम से नंदा का आदर-सत्कार किया। यह अब एक परंपरा बन गयी और स्थानीय निवासी इस परंपरा को हर वर्ष निभाते हैं।
आज नंदा जात का जो स्वरूप है उसमें नंदा जागरों, स्थानीय लोक देवताओं और नंदा के प्रतीक जैसे छंतोली (स्थानीय उत्पादों से बना विशेष प्रकार का छाता) और कंडी (स्थानीय उत्पादों से बनी बेलन के आकार की टोकरी) का बड़ा महत्व है। नंदीकुण्ड नंदा जात क्षेत्र में सम्मलित होने वाले सभी गाँवों से हर वर्ष कम से कम एक यात्री जात में सम्मलित होता है। यात्री या तो छंतोली या फिर कंडी लेकर जात में शामिल होता है। इन दोनों प्रतीकों को तैयार करने व सजाने की भी रस्म गाँवों में मनायी जाती है। हर गाँव के किसी सार्वजनिक स्थान पर इन प्रतीकों को तैयार किया जाता है। एक निर्धारित दिन गाँव के महिला, पुरूष व बच्चे आकर इन प्रतीकों को फूलों, चमकीले वस्त्रों, चूड़ियों, बिंदी आदि से सजाते हैं। लोगों के द्वारा नंदा को दी जाने वाली भेंट को कंडी में रखा जाता है। इस भेंट में अक्सर स्थानीय फल, फूल या पकवान होते हैं।
सात दिन तक चलने वाली यह यात्रा भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) शुक्ल पंचमी के दिन शुरू होती है और शुक्ल अष्टमी के दिन नंदीकुण्ड पहुँचती है। यात्रा भाद्रपद की शुक्ल दशमी को समाप्त होती है। सभी गाँवों के यात्री एक निश्चित दिन यात्रा के आखिरी पड़ाव ग्राम डुमक में एकत्रित होते हैं। उसके बाद की यात्रा कठिन रास्तों से होकर गुज़रती है। इस पूरी यात्रा के दौरान जागरों का गायन होता है। ऊबड़-खाबड़ रास्तों, घने जंगलों को पार करने के बाद यात्रा दल वृक्ष विहीन उच्च हिमालयी बुग्यालों[i] में पहुँचते हैं। इन बुग्यालों में भी लंबी यात्रा करने के बाद यात्रा दल नंदी कुण्ड नामक सरोवर पहुँचता है| (Figs 2 & 3) यह सरोवर वनस्पति विहीन एवं ग्लेशियर के समीप एक मछली के आकार का तालाब है। इस सरोवर के एक छोर से मैना नामक नदी का उद्गम होता है, जो बाद में गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा में मिलती है। इस स्थान पर जागरों, गाँव से लाये गये फल, फूल, मेवे, मिष्ठान व अन्य उपहारों के माध्यम से नंदा की पूजा की जाती है। इस पूजा के बाद यात्रा दल पास के प्राकृतिक फुलवारियों से ब्रहम कमल तोड़ते हैं। जिन्हें गाँव में लोगों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। गाँव पहुँचने पर ग्राम वासी यात्रा दल का स्थानीय लोक वाद्यों और जागरों के माध्यम से स्वागत करते हैं।
जुगाथ
जुगाथ उत्सव उन गाँवों में आयोजित होता है जिन गाँवों में लोक देवता ‘जाख’ को भुम्याल देवता (गाँव की समस्त भूमि का देवता) के तौर पर पूजा जाता है। जाख के मंदिर को ‘जखनार’ कहा जाता है, और जुगाथ इन्हीं मंदिरों में आयोजित किया जाता है। नंदीकुण्ड नन्दा जात क्षेत्र में ग्वाड़, कुजौं, बौंला, बेमरू, स्यूण, डुमक, कलगोठ, पोखनी, द्वींग, किमाणा, एवं जखोला में यह उत्सव मनाया जाता है। जुगाथ वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली जुगाथ चैत्र (मार्च-अप्रैल) माह में मनायी जाती है। यह माह उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, इस माह में हर महिला के मायके वाले उसके घर पर आकर उसे उपहार एवं मिष्ठान देते हैं। नंदा को चूंकि स्थानीय लोग बेटी या बहन जैसा लाड़-प्यार करते हैं, इसलिए नन्दा को भी अपनी ओर से मिष्ठान आदि अर्पण करने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है।
दूसरी जुगाथ भाद्रपद माह (अगस्त-सितम्बर) में आयोजित की जाती है। यह जुगाथ नन्दा जात सम्पन्न होने के तुरंत बाद आयोजित की जाती है। नंदीकुण्ड नन्दा जात में नंदा को कैलास से गाँव तक बुलाने की रस्म अदा की जाती है और उसके बाद होने वाली जुगाथ में उसे फिर वापस कैलास भेजने की रस्म अदा की जाती है।
भाद्रपद में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ब्रहमकमल खिले रहते हैं, साथ ही गाँवों में विभिन्न प्रकार के फल, फूल खासतौर पर ककड़ी, मक्का, सेब आदि उत्पादित होते हैं। इस जुगाथ में इन फलों और फूलों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सामाग्रियों से नन्दा की पूजा-अर्चना की जाती है। इसके आलावा चैत्र मास में आयोजित की जाने वाली जुगाथ में उत्तराखण्ड के राज्य वृक्ष बुरांश का महत्व बढ़ जाता है। इस मौसम में पर्वतीय जंगलों में लाल बुरांश के फूल जंगलों को मनमोहक बनाते हैं। नन्दा की पूजा इन्हीं फूलों से की जाती है। इसके अलावा बुरांश की पत्तियों को जोड़ कर पत्तल तैयार किये जाते है, जिसमें नंदा को पकवान परोसे जाते हैं। जुगाथ सबसे छोटा नंदा उत्सव होता और यह साल में दो बार आयोजित किया जाता है।
स्यलपाती
कुछ लोक कथाओं के अनुसार एक बार कन्नौज के राजा जसीधवल की रानी बालम्फा ने नंदा का अपमान किया। इससे रूष्ट होकर नंदा ने कन्नौज के पूरे राज्य को श्राप दे दिया। इस श्राप से कन्नौज में कई अप्राकृतिक एवं अनिष्टकारी घटनायें होने लगी। लोगों का जीना मुश्किल हो गया। इस सब से परेशान राज्य की जनता और राज परिवार राज्य छोड़ कर कहीं और जाकर बसने लगे। जब राजा को इस परेशानी के पीछे की कहानी का पता चला तब जाकर राजा और उसकी प्रजा ने नन्दा को मनाने के लिए पहली बार स्यलपाती का उत्सव आयोजित किया। इस उत्सव में उन्होंने वादा किया कि भाद्रपद के माह में राजा और राज्य वासी सभी मिलकर नंदा को ससम्मान राज्य में बुलाने के लिए जात का आयोजन करेंगे। इस तरह नंदा ने अपना श्राप वापस लिया और राज्य एक बार फिर सुखी और समृद्ध हो गया। आज भी नंदीकुण्ड जात क्षेत्र के कुछ गाँवों में इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। खासतौर पर जब कभी गाँव में अत्यधिक सूखा पड़ जाए, बाढ़ आ जाए या कुछ और सामुहिक नुकसान हो जाए तो गाँव वाले स्यलपाती उत्सव मनाने की सोचते हैं।
यह उत्सव कई सालों बाद आयोजित किया जाता है, आमतौर पर किसी भी गाँव में स्यलपाती की पुर्नरावृति 10 से 15 साल के बाद होती है। अधिकतर गाँवों में यह आयोजन भाद्रपद माह में नंदा जात खत्म होते ही शुरू किया जाता है, जबकि कुछ गाँवों में यह आयोजन मार्गशीर्ष (दिसम्बर-जनवरी) माह में किया जाता है। नंदीकुण्ड नन्दा जात क्षेत्र में यह आयोजन ग्वाड़, पपणियाणा, पाडली, कुड़ाव, देवर-खडोरा, क्वौंज, बेमरू, मैकोट, कुजौं, डुंग्री, छिनका, खण्डरा, डुमक व कलगोठ में स्यलपाती उत्सव मनाने की परंपरा है।
स्यलपाती के आयोजन के लिए उरोक्त सभी गाँवों में निश्चित स्थान हैं। ये स्थान या तो किसी का खेत है या मंदिर का प्रांगण। उत्सव की शुरूआत लकड़ी के एक विशेष खांचे पर कपड़ों की मदद से नन्दा व स्वनूल लोक देवियों की मूर्ति बनाने से शुरू होता है। पूजा के लिए ब्रहम कमल लाये जाते हैं और जागरों का गायन होता है। (Fig. 4) आस-पास के गाँव वालों को मेले में शामिल होने के लिए बुलावा भेजा जाता है। आस-पास के लोग भी अपने-अपने गाँवों के भूम्याल व अन्य लोकदेवताओं के निशानों या प्रतीकों तथा ढोल-दमों जैसे स्थानीय लोक वा़द्यों के साथ इस मेले में शामिल होते हैं। इस पूरे आयोजन का उद्देश्य नन्दा की आराधना करना है।
इस मेले में गाँव की ध्याण (ब्याही हुई बेटी या बहन) का बड़ा स्थान होता है। गाँव की हर एक ध्याण को इस मेले में बुलाया जाता है। उनका गाँव की ओर से सम्मान किया जाता है। मेले में लोक गीतों और नृत्यों का भी बड़ा महत्व है। महिला और पुरूष मिलकर एक दूसरे का हाथ थामकर गोल घेरों में गीत गाते हैं। (Fig. 5) इन गीतों में लोकदेवताओं तथा स्थानीय प्रकृतिक सुंदरता का वर्णन होता है। इस लोक गीत व नृत्य को स्थानीय भाषा में ‘दांकुड़ी’ कहा जाता है।
आठों एवं मणों
आठों एवं मणों दो अलग-अलग नंदा उत्सव हैं। हालांकि दोनों उत्सवों को मनाने के तरीकों में काई खास अंतर नहीं है। इन उत्सवों में बली देने की परंपरा है, और आठों के उत्सव में आठ बलियाँ दी जाती हैं जबकि मणों में दी जाने वाली बलियों की कोई सँख्या निर्धारित नहीं है। मणों शब्द आम तौर पर स्थानीय स्तर पर अनगिनत, अनंत या असंख्य जैसे शब्दों के एवज में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह माना जाता है कि मणों में दी जाने वाली बलियाँ अनगिनत होती हैं।
नंदीकुण्ड नन्दा जात क्षेत्र में कुजौं, बौंला, बेमरू, स्यूण, डुमक, पोखनी, द्वींग, किमाणा, जखोला, भर्की, देवग्राम और ल्यारी में मणों उत्सव आयोजित किये जाते हैं। इसके अलावा कलगोठ, पल्ला, बवें, किमाणा, बेमरू, कुजौं और उर्गम गाँव में आठों उत्सव मनाये जाने की परंपरा है। ये दोनों उत्सव बड़े स्तर पर आयोजित किये जाते हैं और आमतौर पर पांच दिनों का मेला होता है। सामान्यतया ये मेले मार्गशीर्ष माह के एकादशी से शुरू होकर पूर्णिमा तक चलते है। इन उत्सवों का आकार बड़ा है जिससे इनमें अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है, इसलिए एक बार उत्सव हो जाने के कई सालों बाद ही लोग दुबारा इन उत्सवों को आयोजित करने की सोचते हैं।
लोक कहानियों और जागरों के अनुसार इन दोनों उत्सवों का संबंध भी कन्नौज के राजा जसीधवल और उसकी प्रजा से ही है। कहानियों के अनुसार जब राजा ने रूष्ट नंदा को मना लिया और नंदा उसके राज्य में कुछ दिन समय व्यतीत करने के लिए मान गयी, तब राजा व उसकी प्रजा ने नंदा के स्वागत के लिए एक भव्य आयोजन निर्धारित किया। माना जाता है कि इस आयोजन में आतिथ्य स्वीकारने के लिए नंदा के साथ उसकी बहन सुनंदा (जिसे कुछ जगहों पर स्वनूल भी कहा जाता है) भी साथ थी। इन्हीं पर्वतीय गाँवों में कई जगह सुनंदा की भी पूजा और आराधना की परंपरायें विद्यमान हैं। मान्यता है कि इस भव्य आयोजन में राजा ने नंदा को अनेक प्रकार के उपहार भेंट किये और नंदा ने प्रसन्न होकर राजा और राज्य वासियों को सुखी एवं सम्पन्न होने का आशीष दिया। नंदा उत्सव आठों और मणों इन्हीं मान्यताओं पर आधारित हैं। इन उत्सवों के आयोजन ने कालांतर में परंपरा का स्वरूप ले लिया। गाँव वासी अपने गाँव की सुख, समृद्धि, सदभाव, अन्न और धन की प्राप्ति हेतु लोकदेवी नंदा के आर्शीवाद लेने हेतु इन उत्सवों का आयोजन करते हैं।
ये दोनों आयोजन बड़े स्तर पर आयोजित किये जाते हैं, जिसमें गाँव का हर परिवार भागीदार होता है। आस-पास के सभी गाँवों के लोगों को मेले में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाता है। यह मेला किसी खुले स्थल पर होता है, जहाँ पर नंदा सहित गाँव के सभी प्रमुख लोकदेवता और देवियों की मूर्तियों या चिन्हों को आम जनता के दर्शन हेतु रखा जाता है। आस-पास के गाँवों से आने वाले लोग भी अपने-अपने लोक देवताओं के चिन्हों को लेकर इस मेले में सम्मलित होते हैं। पांच दिन तक चलने वाले इस आयोजन में सभी धार्मिक एवं सांस्कृतिक कर्मकांड व अन्य गतिविधियों में जागरों का बड़ा महत्व होता है। पूरे पांच दिन जागरों का गायन होता है। इस आयोजन में भी गाँव की सभी ध्याणियों (ब्याही हुई बेटी या बहन) को बुलावा भेजा जाता है, मेले की ओर से उनका विशेष सम्मान किया जाता है। इस दौरान हर ध्याणी को नंदा का रूप मान कर उसका आदर-सत्कार किया जाता है। मान्यता है कि जिस घर में जितनी ध्याणियों का सम्मान होगा उस घर पर नंदा की उतनी ही ज्यादा कृपा होगी। इस मेले में ध्याणियों का पुर्नमिलन होता है। युवा और वृद्ध ध्याणियों में संवाद होता है, और अतीत के किस्सों और कहानियों का साझा करने का मौका मिलता है।
बड़ी सँख्या में लोगों के शामिल होने की वजह से रहने व खाने की व्यवस्था का भी एक पारंपरिक प्रबंध है। अलग-अलग गाँवों से आने वाले आमंत्रित लोगों को राशन, ईंधन व बर्तन देकर उन्हें खुद ही खाना बनाने को कहा जाता है। इसके अलावा मेले की ओर से एक सामूहिक रसोई तैयार की जाती है जिसमें बाकी सभी लोग खा सके। जागरों के अलावा मेले में स्थानीय गीत व नृत्य ‘दांकुड़ी’ का भी विशेष महत्व है। बड़े-बड़े समूहों में महिला व पुरूष नाचते और गाते हैं, जिसे दांकुड़ी कहा जाता है।
नंदा से जुड़े उत्सवों का इस क्षेत्र में बड़ा महत्व है लेकिन ये उत्सव कब से प्रचलन में हैं, इसका कोई निश्चित उत्तर अभी तक नहीं है। इतिहासकार डी.डी. शर्मा[ii] ने अपनी पुस्तक ‘उत्तराखण्ड में लोक देवता’ में नंदा को लोक परंपरा का हिस्सा बताते हुए कहा है कि नंदा गढ़वाल तथा कुमायूँ के राजपरिवारों की कुल देवी थीं और सातवीं सदी से ही नंदाजात जैसे उत्सवों का आयोजन यहाँ के निवासी और बाद में राजघराने आयोजित करते रहे हैं। गौरतलब है कि नंदा की स्मृति, चिन्ह, कहानी, गीत और उत्सव पूर्ण रूप से मौखिक हैं। इन विषयों के दस्तावेजीकरण के बहुत कम प्रयास हुए हैं। खास तौर पर नंदा से जुड़े उत्सवों के आयोजन की प्रक्रिया अभी भी अलिखित हैं। संभव है कि समय से साथ-साथ इन उत्सवों को आयोजन में बहुत परिर्वतन आये हों लेकिन कोई लिखित दस्तावेज न होने से उन बदलावों का विशलेषण नहीं किया जा सकता है।
[i] उच्च हिमालयी क्षेत्रों में एक निश्चित ऊँचाई के बाद वृक्ष खत्म हो जाते हैं। इस वृक्ष रेखा से आगे और हिम रेखा शुरू होने तक मखमली घास का चारागाह मिलता है जहाँ गर्मियों के दौरान अनेक प्रकार की घास एवं रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं। इस चारागाह को ही बुग्याल कहते हैं।
[ii] डी. डी शर्मा, उत्तराखण्ड के लोक देवता (हल्द्वानी, उत्तराखण्ड: अंकित प्रकाशन, 2006).