Sajjan Singh Rawat, a jagar singer, has been performing ritualistic folk songs for over five decades in Uttarakhand (Courtesy: Jeet Singh)

जागर गायक सज्जन सिंह रावत का साक्षात्कार

in Interview
Published on: 05 July 2019

जीत सिंह (Jeet Singh)

समाजशास्त्र एवं समाजकार्य में परास्नातक जीत सिंह पब्लिक पालिसी रिसर्चर हैं। जीत सिंह मूलतः उत्तराखण्ड के चमोली जनपद से है, और अभी दिल्ली में कार्यरत हैं। जीत सिंह, संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक - ‘लोक नन्दाः नंदीकुण्ड नन्दा जात’ के सह-लेखक भी हैं।

जागर’ उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में गाये जाने वाले लोक गीत हैं।

आम तौर पर ये गीत लोक देवी या देवताओं की कहानियों का बखान करते हैं। हालांकि जागर गायन हेतु कोई प्रतिबंध नहीं है लेकिन इसकी गायन शैली में निपुण कुछ ही लोग हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में जागुरूवेकहा जाता है। यह साक्षात्कार ऐसे ही एक जागुरूवे श्री सज्जन सिंह रावत का है। 85 वर्षीय श्री रावत ने वर्ष 197576 से जागर गायन शुरू किया। श्री रावत उत्तराखण्ड के चमोली जिले के सूदूरवर्ती गाँव भर्की के रहने वाले हैं।

 

जीत सिंह: जागर क्या हैं? इनका इतिहास क्या है और जागरों का नन्दा देवी से क्या संबंध है?

सज्जन सिंह रावत: मूलतः जागरों का अर्थ होता है देवताओं को आह्वान कर उन्हें अपने पास बुलाने हेतु आग्रह करना है। यह एक तरह की तपस्या है, जिसमें आप रात-दिन जागर गायन के माध्यम से देवताओं का आह्वान करते हैं। इसका अर्थ हिन्दी के शब्द ‘जागरणके अनुरूप ही है। मुख्यतः जागरों का संबंध लोक देवी नन्दा से है, लेकिन इसके अलावा इस क्षेत्र में लोक देवी स्वनूल तथा लोक देवता जाख आदि से भी संबंधित कई जागर प्रचलित हैं। नन्दा और स्वनूल के एक ही जागर हैं। इन जागरों से पता चलता है कि नन्दा, गौरा व स्वनूल एक ही लोक देवी के नाम हैं। और अलग-अलग स्थानों पर उसकी पूजा अलग-अलग रूपों में की जाती है। नन्दा को यदि जानना है, उससे रू-ब-रू होना है, तो जागर ही एकमात्र साधन है। इसके अलावा नन्दा को जानने व समझने लिए लिए कोई और पौराणिक दस्तावेज नहीं है।

जहाँ तक सवाल है जागरों की उत्पत्ति को तो मुझे पूरा विश्वास है कि जागरों को हम जैसे लोगों ने ही बनाया है, मुझे नहीं लगता है कि यह कोई अलौकिक कृति है। जागरों को बनाने वाले किसी खास व्यक्ति का कोई जिक्र या इतिहास नहीं है। संभावना है कि जब से नन्दा के उत्सव इस क्षेत्र में मनाए जा रहे हैं, जागर भी तभी से अस्तित्व में आ गए होंगे।

जी.सिं.: जागरों में नन्दा का क्या उल्लेख है?

स.रा.: जैसा मैंने पहले भी कहा है कि जागर ही लोक देवी नन्दा को जानने व समझने का एक मात्र माध्यम है। इसीलिए जागरों में नन्दा के जीवन, उनके व्यवहार, उनकी भावनाएं, आत्मीयता आदि का विस्तिृत विवरण है। जागरों के अनुसार नन्दा के अलावा उसकी और छः बहनें हैं। जागरों में नन्दा और उनकी बहन बालम्फा का खासा जिक्र है। इन सारी कहानियों का सार यह है कि नन्दा समस्त क्षेत्रवासियों की एक बेटी या बहन है, जिसे क्षेत्र का हर परिवार अपनी बेटी या बहन जैसा लाड़-प्यार करता है। नन्दा जागरों में लोक देवी नन्दा को गौरा भी कहा गया है। इसके अलावा जागरों में नन्दा को किसी और नाम से नहीं पुकारा जाता है। कई लोग अब नन्दा को पार्वती भी कहते हैं लेकिन जागरों में कहीं भी नन्दा को पार्वती नहीं बताया गया है।

जी.सिं.: लोक देवी नन्दा के उत्सवों के आयोजन करने के संबंध में जागरों में किस प्रकार का वर्णन है?

स.रा.: नन्दा का स्थानीय गाँव वालों के साथ देवी से ज्यादा एक बेटी या बहन का रिश्ता ज्यादा प्रधान है। जागरों में बताया गया कि नन्दा और बालम्फा आपस में बहनें थीं। बालम्फा, कन्नौज के राजा जसीधवल की पत्नी थी। एक बार राजा ने अपनी पत्नी यानि बालम्फा की बहन नन्दा को उसे अपने घर में बुलाने का वचन दिया, लेकिन वह उसे भूल गया। इस भूल की वजह से नन्दा राजा तथा उसके राज्य से रूष्ट हो गई। इससे बहुत सारे नुकसान राजा और उसके राज्य को उठाना पड़ा। बाद में राजा ने नन्दा की बुलाने के लिए दुर्गम क्षेत्रों से होकर गुजरने वाले कैलाश जहाँ नन्दा रहती थी की यात्रा कर उसे अपने राज्य बुलाया और उसका आदर-सत्कार किया। इस प्रक्रिया को फिर राजा ने समय-समय पर दोहराया और बाद में संभवतः इसे नन्दा राज जात कहा जाने लगा। राज जात की भांति ही स्थानीय ग्रामीण नन्दा जात आयोजित करने लगे, जिन्हें अब लोक जात का नाम दिया जा रहा है। इन लोक जातों का इतिहास भी राज जात के समकालीन ही है। खास बात यह है कि आज भी ग्रामीण जन नन्दा को अपनी बेटी या बहन जिसे स्थानीय भाषा में ‘ध्याण’ कहा जाता है, के रूप में उसके उत्सवों का आयोजन करते हैं।

जी.सिं.: क्या नन्दा के अलग-अलग उत्सवों के लिए भिन्न-भिन्न जागर हैं?

स.रा.: नन्दा के उत्सवों में नन्दा जात, जुगाथ, स्यालपाती, आठों और मणों सम्मलित हैं। इन सभी उत्सवों में गाये जाने वाले जागर समान हैं। हालांकि आठों और मणों बड़े उत्सव है, इसलिए इन उत्सवों में सभी जागर गाये जाते हैं। बाकी के उत्सव अपेक्षाकृत छोटे हैं इसलिए कुछ ही जागर गाये जाते हैं। जब नन्दा कन्नौज के राजा व राज्य से रूष्ट हो गई थीं तो पूरे राज्य में बहुत सारे उत्पात होने लगे। इन परेशानियों का वर्णन करने वाले जागर जिसे कन्नौज के जागर कहा जाता है वे सिर्फ आठों और मणों में ही गाये जाते हैं। आठों में आठ बली दी जाती है और मणों में दी जाने वाली बली अनगिनत होती है, जितना चाहे उतनी बली दी जा सकती है। आमतौर पर भेड़ों की ही बली दी जाती है। जुगाथ जैसे छोटे उत्सवों में नन्दा को बुलाने तथा उसे वापस भेजे जाने से संबंधित जागर गाये जाते हैं। स्यालपाती उत्सव का मकसद है कि नन्दा को वचन देना कि अगले वर्ष हम आपकी जात आयोजित करेंगे।

जी.सिं.: कई बार जागरों में कुछ विरोधाभास देखने को मिलते हैं, ऐसे कौन-कौन से विरोधाभास हैं जो आमतौर पर देखे जाते हैं?

स.रा.: उत्तराखण्ड के कई क्षेत्रों में नन्दा उत्सव मनाए जात हैं और आम तौर पर सभी जगहों पर जागर में वर्णित कहानी एक जैसी ही है। हालांकि लोक जातों या जुगाथ जैसे आयोजनों में कहानी में वर्णित स्थानों में कहीं-कहीं अंतर देखा जा सकता है। इसके अलावा जागर अभी भी अलिखित हैं, और जागर गायकों को नए शब्दों के प्रयोग करने की छूट होती है, इस वजह से भी कभी अंतर या विरोधाभास देखने को मिलता है।

जी.सिं.: क्या जागरों की कोई विशेष गायन शैली है?

स.रा.: हाँ, यह एक विशेष प्रकार का लोक संगीत है जिसमें गढ़वाली बोली के शब्दों का प्रयोग है। जागर एक सामूहिक गायन कला है, हालांकि जागर गायन हमेशा एक दक्ष गायक की अगुवाई में ही होता है। अर्थात दक्ष गायक शुरू करता है और उसके बाद बाकी के इच्छुक लोग उसका अनुसरण करते हैं। अनुसरण करते हुए जागर गायन करने वाले लोगों में कोई भेद नहीं है, समाज का हर कोई व्यक्ति इसमें शामिल हो सकता है।

जागरों की कोई तय स्क्रिप्ट नहीं है, लेकिन कहानी तय है। आमतौर पर दक्ष जागर गायक कहानी को ध्यान में रखते हुए जागर के शब्द गाते-गाते ही तैयार करता है। इसी वजह से आप जागरों में प्रयोग होने वाले शब्दों में परिर्वतन देखते हैं। यहाँ तक कि जागर गायक द्वारा एक उत्सव में गाये जागर और उसी के द्वारा किसी अन्य अवसर पर गाये जागरों की शब्दों में अंतर देखा जा सकता है। हालांकि कहानी में आपको कोई अंतर नहीं मिलेगा। जागर गायक को गाते समय तुकबंदी का भी बड़ा ध्यान रखना होता है, जो गायन की मधुरता और आकृषण को बनाये रखने के लिए जरूरी होता है।

जी.सिं.: जागर कौन लोग सीखते हैं और उसकी सीखने की परंपरागत प्रक्रिया क्या है?

स.रा.: कुछ दशकों पूर्व तक जागर गायक कुछ एक खास समुदाय से आते थे। जनपद चमोली में जिला मुख्यालय से सटे कुजौं गाँव में रहने वाला एक समुदाय जागर गायन का काम करता था। ये लोग दशोली तथा जोशीमठ के विभिन्न गाँव जहाँ नन्दा के उत्सव होते हैं वहाँ जागर गाते थे। यह एक पूरी जजमानी प्रथा थी। हालांकि समय के साथ-साथ इस समुदाय के लोगों ने जागर गायन बंद कर दिया, जिससे जागर गायकों की कमी महसूस होने लगी। ऐसे में मेरे जैसे कई इच्छुक लोगों ने जागर गायन सीखा, जो किसी खास जागर गायन समुदाय से नहीं आते हैं। इस क्षेत्र में आज अधिकतर जागर गायक उस समुदाय से बाहर के ही हैं। एक समय ऐसा था कि हर गाँव में कुशल जागर गायक तैयार हो गए थे, हालांकि नई पीढ़ी के लोगों द्वारा रूचि न लेने के चलते जागर गायकों का एक बार फिर संकट बढ़ने लगा है। 

जागर कहीं लिखे नहीं गए हैं, यह आजतक पूर्णतः श्रुति और स्मृति के आधार पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक स्थांतरित हुए हैं। पारंपरिक तौर पर इच्छुक व्यक्ति कई वर्ष तक जागर गायकों के साथ समय बिताता था और इसी तरह जागर सीखता था। हालांकि अब देखने में आ रहा है कि कुछ लोगों ने उसे कागजों पर लिख लिया है। इससे जागरों की कहानी तो बच सकती है लेकिन जागर गायन की विशिष्ट शैली को नहीं बचाया जा सकता है।

जी.सिं.: जागर अलिखित हैं और लोगों की रूचि भी इसमें कम हो रही है। ऐसे में क्या आपको जागरों के लोप हो जाने का खतरा दिखता है?

स.रा.: एक समय था कि जब नन्दा के छोटे से लेकर बड़े उत्सवों में दक्ष जागर गायकों को ही बुलाया जाता था। लेकिन अब जागर गायकों की संख्या बहुत कम हो गई है। लोग छोटे नन्दा उत्सव जैसे जुगाथ या नन्दा जात जो हर वर्ष आयोजित होते हैं, अब बिना दक्ष जागर गायक के ही सम्पन्न करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन नन्दा उत्सवों का जागरों के बिना कोई महत्व नहीं है। ऐसे में यदि नए लोग जागर गायन के क्षेत्र में नहीं आये तो नन्दा के बड़े उत्सव जैसे स्यालपाती, आठों और मणों के आयोजन में बड़ी दिक्कतें आयेंगी।

जागर गायन में अब नए लोगों की रूचि कम हो रही है, जिससे एक बड़ी सांस्कृतिक विरासत खत्म हो रही है। लोगों की रूचि में गिरावट तथा जागरों की अपनी ही खास विशेषताएं अब इसके संरक्षण में बाधा उत्पन्न कर रही है। इच्छुक नए गायकों को दक्ष गायकों के साथ कम से कम तीन-चार साल का समय व्यतीत करना पड़ता है। लेकिन इस तरह से आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में सीखना मुश्किल होता जा रहा है। हालांकि जागरों को कागजों पर उतारने से नन्दा की कहानी और उससे जुड़ी संस्कृति को संजोया जा सकता है। लेकिन इसका बड़ा नुकसान यह है कि जागर गाने की कला का लोप हो जाएगा। भविष्य में लोग सिर्फ वही गायेंगे जो किताबों में लिखा जाएगा। जागर गायक समय के अनुकल शब्दों के नए प्रयोग नहीं कर पाएगा। जागर गायकों को जागरों में सुधार करने और उसे और बेहतर बनाने की जो आज स्वतंत्रता है वह खत्म हो जाएगी। लेकिन सच्चाई यह है कि यह आज लिखे नहीं गए तो हम कहानी को भी खो देंगे।