नन्दा लोकोत्सवों का समसामयिक अध्ययन

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जीत सिंह (Jeet Singh)

समाजशास्त्र एवं समाजकार्य में परास्नातक जीत सिंह पब्लिक पालिसी रिसर्चर हैं। जीत सिंह मूलतः उत्तराखण्ड के चमोली जनपद से है, और अभी दिल्ली में कार्यरत हैं। जीत सिंह, संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक - ‘लोक नन्दाः नंदीकुण्ड नन्दा जात’ के सह-लेखक भी हैं।

उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में ‘नन्दा देवी’ का बड़ा सांस्कृतिक महत्व है। खास तौर पर राज्य के चमोली तथा अल्मोड़ा जिले के कुछ गांवों में लोक देवी नन्दा की परिकल्पना और उससे जुड़ी परंपराएं और रीति-रिवाज स्थानीय लोक संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा है। वैदिक देवियों की अपेक्षा नन्दा की परिकल्पना काफी भिन्न है। इसके अनुयायियों के लिए नन्दा एक ऐसी प्रिय बहन या बेटी है जो उच्च हिमालयी श्रृंखलाओं में बसती है। आमतौर पर नन्दा का कोई चेहरा या स्वरूप प्रचलित व सर्वमान्य नहीं है। अर्थात नन्दा एक निराकार लोकदेवी है, ऐसे में नन्दा से जुड़ी हुई वस्तुओं व स्थानों का बड़ा महत्व है, और लोग उन्हीं की पूजा करते हैं। नन्दा उत्सव-नन्दा जात के दौरान रिंगाल तथा भोजपत्र से एक छत्र बनाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में छंतौली कहा जाता है। इस छंतौली की पूजा ही नन्दा की पूजा माना जाता है। इसके अलावा अनेक मंदिरों में उपलब्ध प्रचीन हथियार जैसे तलवार तथा कटार और नन्दा के नाम से प्रसिद्ध उच्चहिमालयी सरोवर जैसे नंदीकुण्ड और रूपकुण्ड की पूजा भी नन्दा की पूजा ही माना जाता है। नन्दा से जुड़े तमाम उत्सव हैं जो समय-समय पर आयोजित किये जाते हैं। नन्दा संबंधी संस्कृति का इतिहास काफी पुराना होने के बावजूद भी इसका कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, ऐसे में नन्दा को जानने के लिए स्थानीय लोकगीत ही एकमात्र साधन हैं। इन लोकगीतो को ‘जागर’ कहा जाता है|

नन्दा सिर्फ एक लोकदेवी नहीं है बल्कि यह लोगों की भावनाओं, विचारों, जीवन, जीविका, ज्ञान एवं दृष्टिकोण का प्रतिबिंब है। प्रस्तुत माड्यूल का उद्देश्य इस अपेक्षकृत छिपि सांस्कृतिक विरासत के कुछ पहुलूओं का एक जागर गायक का साक्षात्कार, नन्दा लोक जात पर एक फोटो निबन्ध एवं नन्दा की परिकल्पाना एवं उसके उत्सवों पर एक लेख के माध्यम से प्रस्तुतीकरण है|