Dr Omprakash Bharti (Courtesy: Manish Kumar Jaisal)

कला समीक्षक डॉ ओमप्रकाश भारती का पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा पर साक्षात्कार

in Interview
Published on: 14 September 2019

मनीष कुमार जैसल (Manish Kumar Jaisal)

मनीष कुमार जैसल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस मुंबई, सहपीडिया यूनेस्को, तथा नेहरू लाइब्रेरी और म्यूजियम के लिए रिसर्च फ़ेलो है| उन्होंने फिल्म अध्ययन में पीएच.डी. करी है| कई मान्य समाचार पत्र तथा न्यूज पोर्टल में उनके फिल्म समीक्षा तथा समसामयिकआलेख प्रकाशित हुए हैं|

पूर्वोत्तर के कला रूपों और सिनेमा माध्यम को लेकर किए जा रहे शोध कार्य को और अधिक तथ्यात्मक तथा तर्कसंगत बनाने के लिए हमने देश के जाने-माने कला समीक्षक, कला प्रेमी और प्रदर्शनकारी कला के प्रोफेसर डॉ ओमप्रकाश भारती से बात की।

 

 

बिहार से ताल्लुक रखने वाले डॉ. भारती वर्तमान समय में मध्य भारत के अलावा पूर्वोत्तर की कला संस्कृति, समाज और सिनेमा पर गहरी रुचि और गहन अध्ययन-अध्यापन के लिए जाने जाते हैं। पिछले 30 वर्षों से इस क्षेत्र से जुड़े डॉ भारती बीते तीन साल ईस्ट जोनल कल्चरल सेंटर, कोलकाता, के डायरेक्टर रहे और अभी हाल ही में भारत सरकार के अधीन आने वाले आई.सी.एस.आर. (Indian Council for Cultural Relations) सुआ केंद्र (Suva, फिजी देश की राजधानी) के डायरेक्टर रहे। वर्तमान में ये स्वदेश लौटकर अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रदर्शनकारी कला विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।

(ये अप्रैल, 2019 में किये गए मूल साक्षात्कार के संपादित अंश हैं।)

मनीष कुमार जैसल (म.जै.): आपका अधिकांश कार्य और अनुभव पूर्वोत्तर राज्यों की नाट्य परंपरा एवं संस्कृति पर रहा है| ऐसे में पूर्वोत्तर की सिनेमा संस्कृति और नाट्य परंपरा में आप क्या संबंध देखते हैं? 

ओम प्रकाश भारती (ओ.भा.): जब मैं 1998 में अपने कैरियर की शुरुआत कर रहा था तब मुझे संगीत नाटक अकादमी में पूर्वोत्तर भारत का इंचार्ज बनाया गया। मैं पूर्वोत्तर की सभ्यता और संस्कृति को नेशनल एकेडमी की तरफ से देखता रहा। और 2006 में मैं शिलॉन्ग चला गया, जहाँ आठ राज्यों के सिनेमा और सामाजिक संस्कृति को 2011 तक, यानि पाँच वर्षों तक देखता रहा। पूर्वोत्तर भारत के कलारूपों और नाट्य परंपराओं को वहाँ के कलाकारों के साथ आत्मीय संबंध बनाते हुए समझता रहा। कह सकते हैं एक अधिकारी और शोधकर्ता के साथ एक आमजन की भांति, मैं वहाँ की सांस्कृतिक परिदृश्य को क़रीब से देखता रहा। आपने बहुत सही सवाल किया है कि पूर्वोत्तर की सिनेमा संस्कृति और पूर्वोत्तर की नाट्य परंपरा में क्या संबंध है। वैसे तो पूर्वोत्तर में सिनेमा और रंगमंचीय परंपरा की शुरुआत लगभग समानान्तर रूप से होती हुई दिखती है। जिस समय 1935 में असम में पहली फिल्म ‘जॉयमती’ बनी, जिसे ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने बनाया, उसी के आस-पास ही वहाँ रंगमंचीय सुगबुगाहट भी देखने को मिलती है। ख़ासतौर पर असम में, जो बंगाल के पास है, बांग्ला और मणिपुरी रंगमंच भी वहाँ हमें खड़ा होते हुए दिखते हैं। हम सभी जानते हैं कि पूर्वोत्तर भारत के कला रूपों में जो शिल्पकारी है, क्राफ्टिंग है, वह बहुत मज़बूत है। यह चीज़ उनकी रंगमंचीय परंपरा और दूसरे संचार और लोक माध्यमों में दिखाई देती है। अब हम देखते हैं कि वहाँ के रंगमंच से सिनेमा को बड़ा लाभ यह हुआ कि प्रशिक्षित अभिनेता मिल गए। अगर हम मुख्य धारा का सिनेमा देख लें तो पाते हैं कि ऐसेअदाकार हमें कहींदेखने को नहीं मिलती जो पूर्वोत्तर भारत की इन फिल्मों में देखने को मिलती है। ज़्यादा से ज़्यादा वहाँ फारसी थियेटर का प्रभाव देखने को मिल रहा था, लेकिन पूर्वोत्तर के सिनेमा में अगर हम पहली फिल्म ‘जॉयमती’ को ही देख लें तो पाते हैं कि उस फिल्म की अभिनय शैली में भी भिन्नताएँ हैं। इसका कारण है कि वहाँ सामाजिक और भिन्न विषयों पर होने वाले रंगमंच से भिन्नताओं से भरपूर अभिनेता मिल रहे थे। अभिनय शैली के अलावा वहाँ फिल्म की क्राफ्टिंग भी रंगमंच से प्रभावित है। आप अगर देखें कि वहाँ शूटिंग लोकेशन को लेकर भी उसी दौर में कार्य शुरू हो गए थे। मोबाइल थियेटर की परंपरा वहाँ शुरू हो गई। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि टाइटेनिक फिल्म तो बाद में बनी लेकिन उसका सेट तो मोबाइल थियेटर के ज़रिये असमिया नाट्य निर्देशकों ने पहले ही बना लिया था। अब इन्हीं सब तथ्यों को देखा जाए तो असमिया फिल्मों के पितामह भूपेन दा से पहले ज्योति प्रसाद अग्रवाल आते हैं। 1935 में वे जॉयमती नाम की फिल्म बनाते हैं और अगर  उनका  व्यक्तित्व हम देखें तो उन्होंने चार-पाँच फिल्में बनाई हीं साथ ही एक दर्जन अच्छे नाटक भीलिखे। इसका मतलब यह कि एक व्यक्ति जो मूल रूप से नाटक कार थे, उन्होंने अपने व्यक्तित्व को समझते हुए फिल्म निर्माण का मार्ग भी चुना। अब इसी तरह अगर हम मणिपुर में देखें तो पाते हैं कि वहाँ जो रंगमंचीय परंपरा थी उसका  प्रभाव वहाँ के सिनेमा में दिखाई पड़ता है। मिज़ो और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा जैसे सिक्किम हो या नागा सिनेमा हो वह तो हमें बहुत बाद में हमें दिखता है।

म.जै.: विषय वस्तु के आधार पर इन आठों राज्यों के सिनेमा के विषय में आपके क्या विचार हैं?

ओ.भा.: जिस तरह बॉलीवुड में पहले धार्मिक, आनुष्ठानिक सिनेमा, फिर राष्ट्रीय भावना, फिर समानान्तर सिनेमा और फिर नए सिनेमा का दौर आया वैसे अगर हम पूर्वोत्तर और वहाँ के सिनेमा को देखें तो वहाँ का समाज और वहाँ की सिनेमा थोड़ा अलग दिखता है। पूर्वोत्तर के सिनेमा को टेक्स्ट के आधार पर देखें तो सबसे ज़्यादा जो आरंभिक दौर में फिल्में बनी वे पर्सनेलिटी ओरिएँटेड फिल्में थीं, व्यक्तित्व को लेकर थीं। हमें लगता है वह समाज अपनी सामाजिक अस्मिता को लेकर जो क्राइसिस था उसे महसूस कर रहा था। क्योंकि फिल्म की शुरुआत तो वहाँ बहुत पहले हो जाती है। लेकिन उस समय भी वह संपूर्ण प्रदेश भारत के राष्ट्रवाद से नहीं जुड़ा था। हाँ ये बात अलग है कि अंग्रेज़ों से वे भी नाराज़ थे और शेष भारत भी।  अंग्रेज़ों से वे उसी तरह लड़ रहे थे। इसीलिए अगर पहली फिल्म ‘सती जॉयमती’ देखें, जो नायिका प्रधान फिल्म थी, उसमें नायिका राजा के अत्याचार के विरुद्ध खड़ी होती है। वही फिल्म ‘पियाली फुकन’ जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध थी, चाहे वे चाय बगानों के मज़दूर हों या आदिवासी, उनको संगठित करके रिवोल्ट का प्रतिनिधित्व करती है। इस तरह हम देखते हैं कि शुरुआत के दिन में वहाँ के व्यक्तित्व/ हीरो को लेकर कई फिल्में बनी जो उस समाज के लोगों का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं। 

दूसरी बात जो पूर्वोत्तर की है वे यह है कि कुल जनसंख्या कीलगभग अस्सी फीसदी आदिवासी और जंगलवासी लोग है और यहाँ उनके कला रूपों में प्रेम प्रकृति और सौन्दर्य बड़ी मज़बूती से उपस्थित है। प्रेम की स्वछंद स्वीकृति जिस तरह पूर्वोत्तर भारत की कला परंपराओं में है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। क्योंकि शेष भारत में जिस तरह प्रेम छूआछूत और कास्ट सिस्टम जैसी चीज़ें थी वह पूर्वोत्तर भारत में नहीं थी। अब भी वहाँ प्रेम और स्वछंद स्वीकृति देखने को मिलती है, भले ही वहाँ अलग-अलग ट्राइब्स, समाज और रीति रियाज़ हैं। लेकिन इस तरह की कोई समस्या नहीं दिखती। मनी कुँवर और फूल कुँवर जैसी प्रेम गाथाओं को आप बॉलीवुड के किसी भी प्रेम आधारित फिल्म से टक्कर नहीं दे सकते। देखिये पूर्वोत्तर भारत में एक सावधानी है जो बॉलीवुड की एक फैन्टेसी है, उससे वे बचतेहै। जिस तरह से बॉलीवुड आपको एक कल्पना लोक में ले जाता है उस तरह के कल्पना लोक की संभवना अब भी वहाँ के सिनेमा में शायद ही देखने को मिले। चूँकि समाज अपनी परंपराओं के प्रति इतना सजग है कि अगर उन परंपराओं के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ महसूस करता है तो वह उसे नकार देगा। हालांकि अब वहाँ प्रेम प्रसंग वाली काल्पनिक कहानियाँ बन रही है लेकिन वह सावधान हैं कि वहाँ के समाज को वह कहानी समझ आए, एक्सेप्टेबल हो। सोशल सेंसरशिप वहाँ बहुत ज़्यादा है। आप देखिये जब बॉलीवुड में गंभीर और समानान्तर सिनेमा का दौर आया तो पूर्वोत्तर का सिनेमा भी इसमें पीछे नहीं रहा। फनी भूषण शर्मा, भूपेन हजारिका जैसे निर्देशक आए जिन्होंने पूर्वोत्तर ही नहीं बल्कि शेष भारत के सिनेमा, जो सामाजिक और वैचारिक सिनेमा बन रहा था, उसमें भी अपना योगदान दिया। इस दौर में पूर्वोत्तर सिनेमा में अपने पॉलिटिकल इशु, समकालीन मुद्दे कुछ फिल्मों में हमें देखने को मिल जाते हैं। 

लेकिन मुझे एक बड़ी दिक्कत दिखती हैं वह है सरकारी प्रायोजन, जो ब्यूरोक्रेसी है वह पूर्वोत्तर को दया भाव से देखती रही है। पूर्वोत्तर को एक बड़े मंच पर एक बड़े मन से स्वीकार करने की ज़रूरत अब महसूस होती है। वहाँ सब कुछ था, जो समाज अपने रिसोर्स, अपने तीज त्यौहारों से खुश होता हो उसके प्रति आप दया भाव क्यों दिखायेंगे? उनकी जो अच्छाइयाँ हैं, उनकी जो उपलब्धियाँ हैं उनका जो योगदान है, उन्हें आपको प्रोत्साहित करना पड़ेगा। अब आप देखिये यहाँ दूरदर्शन और फिर प्रसार भारती आदि के केंद्र खुले। अरुणाचल, गुवाहाटी, मिज़ोरम आदि जगहों पर हमने देखा कि इन केंद्रों के खुलने से इस ओर एक नई ऑडियो-विजुअल परंपरा का निर्वहन शुरू हुआ। इन केंद्रों ने एक थीम को स्पॉन्सर करना शुरू किया। जिसमें फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने निश्चित विषय पर कार्य करना शुरू किया। लेकिन पूर्वोत्तर के बाहर के लोग इसमें इसलिए नहीं जुड़ सके क्योंकि एक तो टेक्स्ट (जैसे लोकगाथाएँ, पूर्वोत्तर की मौखिक परंपरा आदि) की समस्या है और अगर किसी ने टेक्स्ट में छूट (cinematic liberty) ले रखी है तो समाज का दबाव है। (सोशल) सेंसरशिप निर्देशकों को मजबूर करता है। 

वहीं दूसरी समस्या अलग-अलग भाषा समूह है। अगर असमिया में देखें तो कुल दो करोड़ लोग हैं जिसमें कह सकते हैं कि असमिया फ़िल्मकार अपने एक करोड़ दर्शकोंके लिए फिल्में बना रहा था। लेकिन पूर्वोत्तर की अन्य भाषाओं के सिनेमा का दर्शक 10 लाख से ज़्यादा नहीं है। बाहर के फ़िल्म-मेकर व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह जोखिम नहीं लेना चाहते कि पूर्वोत्तर भारत के विषय को लेकर वहाँ जाकर फिल्म बनाएँ। तो फाइनली यह हुआ कि दूरदर्शन में वृत्तचित्र बनने लगे और सरकारी योजनाओं में उनकी समस्याओं को पोट्रे किया गया। अब आप देखेंगे कि वहाँ जो सोशल इंसर्जेंट की समस्या है, छोटे-छोटे सोशल मूवमेंट है, आदिवासी समाज के रीति रियाज़, परंपरा आदि को लेकर काफ़ी काम हुआ। 

मैं कह सकता हूँ कि शुरुआत में जो पर्सनेलिटी ओरिएँटेड फिल्में बनी, फिर रोमांस का दौर चला, जिसमें वहाँ की प्रेम गाथाओं को शामिल किया, प्रकृति चित्रण है, आप देखेंगे कि बीहू गाकर पूरे गाँव का भ्रमण हमें वहाँ की फिल्में कराती हैं। फिर आज़ादी के बाद का दौर आता हैं और आप सोचिए कि 1958 में वहाँ एक फिल्म ‘रंगा पोलिस’ बनती है, छह नेशनल अवार्ड उसे मिलते हैं। निक बरुवा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को उस दौर की महत्वपूर्ण फिल्मों मे से एक माना जाता है। आप देखिये जो उस दौर में करप्शन है उसका चित्रण हमें देखने को मिलता है। एक इंस्टीट्यूशन पर वे फिल्म 1958 में सवाल उठाती है जो हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में 70 के दशक यानि समानान्तर सिनेमा और व्यावसायिक दौर में दिखता है। ये जो चेतना हमें पूर्वोत्तर के सिनेमा में दिखती हैं इसके पीछे का मुख्य कारण असमिया साहित्य का समृद्ध होना भी मान सकते हैं। असमिया में अगर हम उपन्यास लेखन की परंपरा देखें तो जो ‘जॉयमती’ की कहानी है लक्ष्मी नाथ बेजबरुआ की है| वे असमिया साहित्य के इतने गंभीर कथाकार हैं कि उन्होंने अपने जीवन भर में 200-300 कहानियाँ और दो दर्जन उपन्यास सिर्फ उसी समाज से जुड़े हुए लिखे हैं। साथ ही दर्जनों फिल्मों की पटकथाएँ भी उन्होंने लिखी हैं। ये जो चिंतन के स्तर पर गंभीरता है, वे पूर्वोत्तर के सिनेमा में है, और फिर डॉक्यूमेंटरी फिल्म का दौर आया जिसमें पूर्वोत्तर की समस्याओं का चित्रण किया गया। 

और वर्तमान दौर चल रहा हैं इस भोजपुरी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में आ रही हैं| उसमें पूर्वोत्तर का सिनेमा इतनी छूट तो नहीं दे रहा था न अब दे रहा है। आपको सामाजिक यथार्थ के दायरे में रह कर ही काम करते हुए वे दिखेंगे। लेकिन जो पाश्चात्य और बॉलीवुड का सिनेमा है उसका असर भी अब आपको पूर्वोत्तर के सिनेमा में देखने को मिलेगा।   

म.जै.: दर्शकों के परिपेक्ष्य और सिनेमा संस्कृति का एक प्रकार से सीधा संबंध दिखाई देता है। पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा दर्शकों एवं वहाँ कि संस्कृति की क्या ख़ासियत आपको वहाँ के सिनेमा में देखने को मिलती है?

ओ.भा.: अगर पूरे पूर्वोत्तर की सिनेमा संस्कृति के इतिहास का आकलन एक साथ करें तो यह कह सकते हैं कि वहाँ के दर्शक ख़ास थे। वहीं संस्कृति और साहित्य से जुड़े लोग थे जिनको सिनेमा पसंद था। उस समाज में जिस तरह का मनोरंजन सिनेमा दे रहा था उसके समानांतर उनकी सोसाइटी सेलिब्रेटेड दिखती है। उस सोसाइटी में मनोरंजन के कई ऑप्शन पहले से उपलब्ध हैं ऐसे में सिनेमा पर निर्भरता नहीं दिखती। अगर मैं ग़ुवाहाटी को छोड़ दूँ तो या फिर मणिपुर को देखें तो वहाँ के इन्सर्जेंट ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मों पर बैन लगा दिया था। मैंने कई बार देखा कि लोग चोरी-छिपे घरों में हिंदी फ़िल्में देख रहे होते थे और कई मेरे ख़ास दोस्त भी मेरे दिल्ली जाने पर कहते थे कि दिल्ली से आते हुए हिंदी फ़िल्म की डीवीडी लेते आइयेगा। आप देखेंगे कि लोग हिंदी बोल नहीं पा रहे लेकिन हिंदी सिनेमा देखना पसंद कर रहे हैं। मतलब साफ़ है कि दर्शकों का एक ख़ास वर्ग था, वे संस्कृति कर्मी, साहित्य कर्मी विचारधारा से जुड़े लोग थे, समाज के चिंतक थे, सोशल एक्टिविस्ट थे इनका एक पूरा वर्ग था जो सिनेमा से जुड़ा हुआ था। इसके कारण वहाँ सोशल सेंसरशिप का दायरा बहुत बड़ा है। आप कुछ भी उलट-पलट अगर अपनी फ़िल्मों में दिखाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ का समाज आकर प्रतिरोध भी करता है। 

दूसरी बात यह है कि शेष भारत में जिस तरह परिवार वाली फ़िल्में 70 से 90 के दशक में देखने को मिलती थी वे यहाँ देखने को नहीं मिलती। इसका मुख्य कारण यह भी रहा कि यहाँ अलग-अलग भाषा और संस्कृति समूह है जिस वजह से एक मत, एक राय नहीं बनाई जा सकती। आप यह भी देखिए कि असमिया पूरे पूर्वोत्तर में समझी जाती है, इसीलिए उस भाषा में बनने वाला सिनेमा अन्य पूर्वोत्तर के राज्यों में देखा जाता है जबकि अन्य राज्य जैसे मणिपुर, अरुणाचल आदि का सिनेमा उसी राज्य तक सीमित होकर रह जाता है। चूँकि अन्य राज्यों के आने-जाने का मुख्य रास्ता गुवाहाटी से होकर गुजरता है इसीलिए असमिया सिनेमा लोकप्रिय होता चला गया। हम कह सकते हैं कि पूर्वोत्तर में दर्शकों  का नज़रिया जो था वोकाफ़ी इंडिविजुअल था और बड़ा खंडित भी रहा। अगर हम असम को छोड़ दें तो पूरे पूर्वोत्तर में कहीं भी प्रेक्षागृह (सिनेमा हॉल) का कन्सेप्ट नहीं दिखता। अब हम यह सकते हैं कि कल तक अरुणाचल में कोई भी सिनेमा हॉल नहीं था। अगर कहीं खड़ा भी हुआ तो वह मुख्य रूप से हिंदी सिनेमा के व्यवसाय के इरादे से ही हुआ। सिक्किम में यदि देखें कि नेपाली सिनेमा तो देखा जाता है लेकिन उसी के समानांतर अगर 200 दर्शक नेपाली के हैं तो उतने ही दर्शक हिंदी के भी आपको देखने को मिलेंगे

म.जै.: पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा पर आपकोबिहारी व बंगाली सिनेमा संस्कृति का क्या कोई प्रभाव दिखाई पड़ता है?

ओ.भा.: मैं पूर्वोत्तर में उस समय तक जा रहा था जिस समय वहाँ का समाज ये दहेजप्रथा जैसी चीज़ों को नही समझता था। धीरे-धीरे वहाँ के लोगों ने इसे भी अडॉप्ट किया। जब मैं वहाँ था तो कई बार भिन्न लोगों से इस संदर्भ में बात कीतो पता चला ये सब उन्हें हिंदी फ़िल्मों से पता चला। लेकिन इसके पीछे एक बात और जानना ज़रूरी है कि जब अँग्रेज़ यानि ‘चाय अँग्रेज़’ (चाय की खेती के इरादे से आए अँग्रेज़) आए तो चाय के बाग़ानों में बड़ी संख्या में बिहार, यूपी और बंगाल से मजबूर जो ख़ुद आदिवासी समुदाय से आते थे वे यहाँ आ गए। आज अगर उनको खोजें तो पाते हैं कि पूर्वोत्तर में जो टी-ट्राइब है वह वही लोग हैं। अब हम सिनेमा के संदर्भ में देखें तो अब उनकी फ़िल्में भी बन रही हैं और गाने भी बनाए जा रहे हैं चूँकि उनकी संख्या भी बढ़ी है। सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि मध्य भारत से गए लोग पूर्वोत्तर में अपनी संस्कृति व परंपराओं के साथ आए। तो इसने वहाँ के सिनेमा, संस्कृति और समाज तीनों को प्रभावित करने के साथ वहाँ के साहित्य और रंगमंच को भी प्रभावित किया। दूसरा एक और मसला यहाँ देखने को मिलता है कि उसी दौर में बिहार और अन्य मध्य भारतीयहिस्सों से कुछ ठेकेदार टाइप के लोग भी गए थे जो टी बाग़ानी करते, थे वे आज भी सिल्चर के आस-पास रहते हैं और तो और अब वे वहाँ की सक्रिय राजनीति में भी हैं। दो-तीन विधायक सीटें भी अब वे आसानी से जीत रहे हैं। अंग्रेज़ों ने अपने-अपने फ़ायदे के लिए दो महत्वपूर्ण काम किए एक चाय की बाग़ानी और दूसरा पूर्वोत्तर में खेती। 

तीसरी बात और भी महत्वपूर्ण हैं कि असम का सबसे नज़दीक हिस्सा जो बिहार से जुड़ा है वह है मिथिला, वहाँ असमिया भाषा, मैथिली बोली और वैष्णो आंदोलन तीनों के मिल जाने से एक नई संस्कृति परंपरा जन्म लेती है। जैसे कामाख्या मंदिर के मिथक में पूरा मिथिला और पूरे मिथिला के मिथक में पूरा कामरूप प्रदेश का वर्णन हमें देखने-सुनने को मिलता है। एक सांस्कृतिक संवाद प्राचीन काल से ही बिहार से रहा इसीलिए वर्तमान में भी पूर्वोत्तर के सिनेमा में बिहारी सिनेमा का प्रभाव हमें दिखता है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि पूरे पूर्वोत्तर में आज़ादी के बाद तक बांग्ला भाषा ही पढ़ाई जा रही है। और पठनपाठन की भाषा जो रही वह या तो बांग्ला या तो अंग्रेज़ी रही, जिसको लेकर कई आंदोलन भी यहाँ के इतिहास में देखने को मिलते हैं। ऐसे में अलग-अलग भाषाओं ने जन्म लिया। मिजो, असमिया, सिक़्क़मी आदि भाषाओं का आविर्भाव हो गया। और इन्हीं में उस समाज ने पढ़ना शुरू किया। चूँकि बंगाल अंग्रेज़ी हुक़ूमत की राजधानी थी ऐसे में पूर्वोत्तर के सिनेमा ने भी वहाँ से काफ़ी कुछ ख़ुद को जोड़े रखा, वीडियो एडिटिंग, कच्चा माल आदि सब बंगाल से लेने के साथ ही वहाँ की समाज-संस्कृति से काफ़ी कुछ लेते हुआ दिखता है। लेकिन एक अद्भुत बात है कि फ़नी भूषण शर्मा, भूपेन हज़ारिका, ज्योति प्रसाद अग्रवाल जैसे इतने बड़े निर्माता-निर्देशकों ने बंगाली फ़िल्मों के साथ-साथ असमिया फ़िल्मों की अस्मिता और स्वतंत्रता को स्वतंत्र रखा। आप देखेंगे कि इन सभी ने बांग्ला सिनेमा के पैरलर असमिया सिनेमा को एक अलग पहचान देते हुए खड़ा किया। यह वाक़ई अद्भुत और अविस्मरणीय हैं।

म.जै.: इतिहास लेखन के परिपेक्ष्य से देखें तो पूर्वोत्तर भारत का इतिहास कहीं न कहीं उपेक्षित दिखाई पड़ता है | ऐसे में क्या इसका प्रभाव भी वहाँ की सिनेमा संस्कृति और विषय वस्तु पर दिखाई पड़ता है?

ओ.भा.: जी बिलकुल वहाँ इसका प्रभाव देखने को मिलता है क्योंकि वहाँ की जो नई पीढ़ी है, और संचार माध्यम अब भी पूर्वोत्तर भारत में सुचारु रूप से संचालित नहीं हो सका है। आज भी वहाँ बहुत सारे ऐसे इलाके हैं जहाँ सड़कें नहीं हैं, लोग दो-दो दिन तक पैदल चल कर अपने गाँव पहुँचते है, वहाँ नेटवर्क और बिजली की कोई भी ऐसी सुविधा नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं था कि संचार के लिए सारे आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करके लोग गाँव तक पहुँच जाते थे, तात्पर्य यह है कि जो टेक्स्ट बुक है, जो इतिहास लिखा गया, जो पुस्तकें लिखी गयी लोगों का ज्ञान उस पर ज़्यादा आधारित था। क्योंकि एक ही गाँव में पाँच संस्कृति और समूह के लोग रहते थे, तो उनकी भाषाएँ भी अलग होती हैं, तो उनका जो आपसी संवाद है उसका भी एक बड़ा संकट रहा है जो कि पूर्वोत्तर भारत की अब तक की बड़ी समस्या के रूप में आती रही है। अब आप यह देखिये कि शिलांग में एक रिक्शा चलाने वाले को भी चार भाषाओं का ज्ञान होना ज़रूरी है। एक तो उसकी अपनी मातृभाषा, बांग्ला भाषा, फिर उसे अंग्रेज़ी भाषा भी बोलनी आनी चाहिए, साथ ही हिन्दी भाषा का ज्ञान भी होना ज़रूरी हो जाता है फिर असम की तरफ बढ़ते हुए उसे असमिया भी सीखना आवश्यक हो जाता है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि एक सामान्य मनुष्य जो रिक्शा चला कर अपने परिवार का पालन पोषण कर रहा है उसे भी इन चार भाषाओं का ज्ञान होना ज़रूरी है। कहीं न कहीं ये टार्चर नहीं तो क्या है? उसे अपना जीवन निर्वाह करने के लिए और कितनी भाषाओं को सीखना होगा। जहाँ तक भारतीय इतिहास में उपेक्षित होने की बात है तो यह सवाल पूरे भारत पर जाता है कि भारतीय इतिहास में जो आदिवासी और दलित समाज है उसकी उपेक्षा आज तक दिखाई देती है। और पूर्वोत्तर भारत कि जनसंख्या में 80% आदिवासी और जनजाति समाज है और मुख्य धारा की जो इतिहास लेखन की जो परंपरा है उसमें अभी तक इसे शामिल नहीं किया गया है। साथ ही जब लोग इसके रेफ्रेंस की बात करते हैं तो जैसे कथा कार हो गए, मौखिक परंपराएँ हो गयी, कहानियाँ और लोक प्रथाएँ हो गयी, लोग इसके आधार पर तुष्टिकरण करने लेने लगते है। कभी-कभी आपको वहाँ वैज्ञानिकता का अभाव भी देखने को मिलेगा क्योंकि लोग उन मानवीय बातों को आधार मान ले रहें है, जो कभी हुई ही नहीं है। इसलिए आपने देखा भी होगा कि किसी ऐतिहासिक तथ्य को लेकर पूर्वोत्तर भारत में अब तक कोई महत्वपूर्ण फिल्म नहीं बनी है। क्योंकि अब तक हम पूर्वोत्तर की सच्चाई को दिखाने में असमर्थ रहे हैं। इसके कारण हमारा सिनेमा भी उपेक्षित रहा है और इसका बड़ा प्रभाव भी सिनेमा पर पड़ा कि ऐसे सोशल मुद्दों के होने के बावजूद भी हमें सिनेमा में देखने को नहीं मिला है तो कहीं न कहीं ये हमारी असफलता ही रही है।

म.जै.: मणिपुरी सिनेमा काफ़ी समय तक फला-फूला पर हाल ही में वह कुछ समस्याओं का सामना कर रहा है। आपके अनुसार इसके क्या कारण हो सकते हैं?

ओ.भा.: पहला कारण यह हो सकता है कि वह बहुत ही सेलीब्रेटेड सोसाइटी है। मनोरंजन के इतने साधन उस समाज हैं और यह कहा भी जाता है कि 366 दिन होते हैं और वहाँ 370 फ़ेस्टिवल होते हैं। और सारा त्यौहार उनका उत्सवधर्मी है। तो पहला कारण यही है कि समाज में ही मनोरंजन के भरपूर साधन उपलब्ध हैं। दूसरा कारण यह भी है कि सिनेमा अन्य कला रूपों सेमहँगा मीडियम है। सिनेमा बनाना, उसका ख़र्च उसकी कास्टिंग आदि एक बड़ा कारण है। आप देखिए कि मणिपुर की जनसंख्या ही 20 लाख है और उन 20 लाख के पास टीवी रेडियो और अन्य माध्यम भी उपलब्ध हैं ऐसे में सिनेमा मुश्किल से पाँच-छह लाख लोगों के लिए ही हो सकता है। अब इन पाँच-छह लाख लोगों के लिए फ़िल्में बनाना एक बड़ी चुनौती है। अब आप फ़िल्म बनाना चाहते हैं तो इसका व्यावसायिक दृष्टिकोण शून्य होगा। तो हम कह सकते हैं कि इसका दूसरा प्रमुख कारण दर्शकों का दायरा सीमित होना भी है। 

तीसरी जो बड़ी बात है कि मणिपुर पिछले 20 वर्षों से इन्सर्जेंसी, आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद से जूझ रहा है। हालाँकि जूझ तो असम भी रहा था लेकिन असम का सोशल स्ट्रक्चर थोड़ा अलग था। हम देखें तो डिब्रुगढ़ से नीचे के असम के अलग-अलग हिस्सों में भिन्न आदिवासी समूह, जनजाति और आतंकवादी समूह रहता था। तब भी असम रिलैक्स था। क्योंकि वहाँ से चिंतक और विचारधारा से जुड़े लोग इन आतंकवादी घटनाओं आदि का विरोध भी कर रहे थे। लेकिन मणिपुर में इम्फ़ाल एक शहर है, बाकि तो पूरा मणिपुर छोटे-छोटे डिस्ट्रिक्ट हेड क्वार्टर में बना रुरल एरिया ही है। और इस तरह एक जन समूह द्वारा प्रतिरोध नहीं हो सका। आप देखेंगे कि अगर आज मणिपुर बंद बुलाया गया और इम्फ़ाल बंद तो मणिपुर पूरा बंद हो जाता है। ऐसी खबरों और घटनाओं से ख़ुद उन 20-30 लाख नागरिकों के साथ पूरे भारत को भी दहशत में डाल देती हैं। आतंकवाद और सामाजिक अशांति के चलते मणिपुरी सिनेमा भी एक हद तक प्रभावित होता रहा है और अभी की स्थिति आप सभी के समक्ष है सिनेमा तो वहाँ किसी न किसी रूप में देखा जा रहा है लेकिन कोई फ़िल्म मेकर अपना पैसा और समय मणिपुरी सिनेमा में कभी इन्वेस्ट करता नहीं दिखता। 

म.जै.: नई प्रोद्योगिकी के साथ पूर्वोत्तर के सिनेमा में किस तरह से परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं?

ओ.भा.: मैंने पहले भी कहा कि वहाँ की सोसाइटी में क्राफ़्टिंग बहुत ज़्यादा है। तकनीकी और शिल्प में वहाँ के लोग बहुत ज़्यादा आगे हैं। फ़िल्म प्रशिक्षण संस्थान भी वहाँ खुले| मणिपुर में एक और गुवाहाटी में दो फ़िल्म इंस्टिट्यूट खुले हैं, जहाँ लोग ट्रेनिंग ले रहे थे। साथ ही अगर आप साइंस और प्रौद्योगिकी की बात करें तो आठ-दस इंजनीयरिंग कॉलेज के साथ वहाँ दो आइ.आइ.टी. भी हैं। वहाँ के युवा वहीं रहकर भी विज्ञान और संचार से जुड़े वहीं साथ-साथ देश के दूसरे हिस्सों में जाकर भी इस नई प्रौद्योगिकी को सीखने के साथ इसके विकास में अपना ख़ास योगदान देते रहे हैं। आप देखिए की पूर्वोत्तर का सिनेमा तकनीकी रूप से अन्य सिनेमा से कहीं पीछे नहीं है।

म.जै.: हिंदी सिनेमा और पूर्वोत्तर के सिनेमा में आपको क्या समानताएँ या भिन्नताएँ नज़र आती हैं?

ओ.भा.: पूर्वोत्तर के सिनेमा को अगर हम टेक्स्ट के लेवल पर देखें तो जिस तरह के कल्पना प्रसूत संसार का निर्माण हिंदी फ़िल्म कर रही हैं उस तरह का संसार पूर्वोत्तर में नहीं है। मार-धाड़ वहाँ भी है लेकिन यूटोपिया नहीं है। उस समाज को कोई बड़ा चमत्कार नहीं चाहिए। वह अपने समाज, संस्कृति और परंपरा के प्रति सजग है। आप देखिए की वह बीहू का ड्रेस पहन कर कोई भी हीरोईन रॉक-पॉप डांस नहीं कर सकती। ये उस समाज को पसंद नहीं है। अभी भी आपको अपनी परंपरा के साथ मिल कर ही अपनी बात कहनी पड़ेगी। वहाँ के सिनेमा में मनुष्य पंख लगा कर उड़ते नहीं दिखाई देते। और वहीं हिंदी सिनेमा में हमने इसकी छूट ले रखी है। वे समाज तर्कशील है और सिनेमा में उन्हें सच्ची दुनिया का आभास चाहिए।

दूसरी बात हिंसा को लेकर दिखाई देती है। उस समाज में हिंसा न के बराबर थी। वे तो हमने हिंदी सिनेमा में दिखाया कि टैक्सी वाले से टकराव होने पर या किसी भी प्रेम प्रसंग के हो जाने पर उसके घर वाले मार-पीट जैसी घटनाओं को अंजाम देते थे। पूर्वोत्तर में हिंसा का मतलब सीधे इन्सर्जेंट ग्रुप के साथ टकराव है। जो उस समाज की सच्चाई है। हिंसा को फ़िल्मों में कैसे रख कर दिखाया जाए यह उस सिनेमा से सिखाना चाहिए। 

सिनेमा के सौंदर्य और शिल्प के स्तर पर भी अगर देखें तो वहाँ की फ़िल्मों के नायक, नायिकाएँ हम हिंदी भाषी या मध्य भारत के लोग नहीं हो सकते वहीं मराठी फ़िल्मों या तमिल, तेलगु के अभिनेता भोजपुरी और अन्य सिनेमा के साथ काम कर सकते हैं। पूर्वोत्तर में बाहर के अभिनेताओं का आना मुश्किल हो जाता हैं इसका सीधा कारण उनका फ़ीचर है, ब्यूटी है। उनका सौंदर्य बोध हमसे अलग है। इसके लिए उनके लोग भी उन्हें भरपूर मात्रा में मिल जाते हैं। एक भिन्नता यह भी है कि वहाँ की जो सांगीतिक परंपरा है उसमें रॉक-पॉप की गुंजाईश कम है। क्योंकि वहाँ आज भी समाज में इतनी सारी धुनें हैं कि उसको ही समाज अभी भी जी रहा है। कह सकते हैं की इन सभी स्तरों में वह समाज हमेशा से सजग रहा है।

म.जै.: व्यावसायिक दृष्टि से पूर्वोत्तर राज्यों के भविष्य की रूप रेखा क्या होगी?

ओ.भा.: जिस तरह शेष भारत में सिनेमा की व्यवसायिकता पर सवाल उठ चुका है, प्रेक्षागृह से लोग भागने लगे हैं, घरों में लोग सिमटने लगे हैं। और निश्चित तौर पर आप देखिए हर हफ़्ते जिस तरह से फ़िल्में बदल जाती हैं वह कई सवाल खड़े करतेहैं। अपने ज़माने में हम देखते थे कि किसी फ़िल्म का पचासवां हफ़्ता चल रहा है। सौ-सौ हफ़्ते तक फ़िल्में चल रही है। ‘शोले’ और ‘एक फूल दो माली’ जैसी फ़िल्में उस ज़माने में आदर्श हुआ करती थीं। हमें यह लगता हैं कि आख़िर फ़िल्म दर्शकों को ही देखनी हैं। एक बड़ा संकट यह भी है कि अगर कोई फ़िल्म बनती हैं तो अलग-अलग भाषा समूहों के चलते दर्शकों की उपस्थिति वहाँ नहीं हो पा रही है। क्योंकि आखिर में सिनेमा की व्यवसायिकता को दर्शक ही तय करेगा। असमिया को छोड़ दें तो वहाँ अन्य किसी भाषा मेंसिनेमा उभरता हुआ नहीं दिख रहा। असमिया का कोई फ़िल्म मेकर अब घाटे में तो नहीं जा रहा। लेकिन शेष भारत के अगर फ़िल्म मेकर चाहें तो यह संकट दूर कर सकते हैं। 

हम देखते हैं कि बंगाल के निर्देशकों ने देश भर के अलग-अलग हिस्सों में जाकर जो फ़िल्में बनायीं उससे उस प्रदेश के समाज, संस्कृति और सभ्यता का विकास होता दिखा है। भूपेन हज़ारिका को ही उदाहरण के तौर पर देखें तो वे पूर्वोत्तर के संगीत को ही हिंदी और बांग्ला में परोस रहे थे और फ़िल्में हित भी कर रहे थे। सीधे तौर पर मैं यह कह सकता हूँ कि व्यावसायिक दृष्टिकोण पर पूर्वोत्तर के सिनेमा को विशेष सहयोग की आवश्यकता है जो शेष भारत के फ़िल्म मेकर और स्टेट का यह मूल कर्तव्य होना चाहिए कि यहाँ के शिक्षित और अशिक्षित समाज के लिए यहीं की सभ्यता और संस्कृति को ऑडियो और वीडियो माध्यम के ज़रिए पेश करे। फ़िल्म संस्थान और फ़िल्मों को सब्सिडी देने की योजना पर भी कार्य करना चाहिए।