असमिया सिनेमा: भूत, वर्तमान और भविष्य

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Published on: 14 September 2019

मनीष कुमार जैसल (Manish Kumar Jaisal)

मनीष कुमार जैसल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस मुंबई, सहपीडिया यूनेस्को, तथा नेहरू लाइब्रेरी और म्यूजियम के लिए रिसर्च फ़ेलो है| उन्होंने फिल्म अध्ययन में पीएच.डी. करी है| कई मान्य समाचार पत्र तथा न्यूज पोर्टल में उनके फिल्म समीक्षा तथा समसामयिकआलेख प्रकाशित हुए हैं|

असमिया फिल्म ‘मिशन चाइना’ की असम के बाहर व्यावसायिक सफ़लता और साथ ही एक अन्य असमिया फिल्म ‘विलेज रॉकस्टार’ का भारत की ऑस्कर एंट्री के लिये चुना जाना इंगित करता है कि तरफ़ असमिया फ़िल्में असम से बाहर के दर्शकों की तरफ़ बढ़ रही हैं तो वहीं पुरस्कारों की होड़ में भी ये पीछे नहीं हैं। असम के फ़िल्मी दर्शकों का नज़रिया कैसा है? वहाँ की फ़िल्मों की विषय-वस्तु कैसी रही है? ये प्रश्न मौजूदा समय में प्रासंगिक हैं। 

वर्ष 2017 में निर्देशक ज़ुबीन गर्ग (पेशे से फ़िल्म निर्देशक, संगीतकार, कंपोज़र, गायक और कलाकार ज़ुबीन को हिंदी भाषी दर्शक हिंदी फ़िल्म गैंगस्टर के गीत ‘या अली’ में देख सुन चुके हैं) निर्देशित असमिया फ़िल्म ‘मिशन चाइना’ ने असमिया सिनेमा को असम राज्य के बाहर के दर्शकों तक भी पहुँचाने का काम किया था। हैं। ‘मिशन चाइना’ ढाई करोड़ की लागत में बनी और फ़िल्म ने लगभग छः करोड़ का व्यवसाय भी किया था। मिशन चाइना एक ऐसे रिटार्यड कर्नल की कहानी है जिसे मंत्री की बेटी, जिसका उग्रवादियों द्वारा किडनैप किया जा चुका है, उसे बचाने का ज़िम्मा दिया जाता है। राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत इस फ़िल्म को औसतन पसंद किया गया था। 

ज्ञातव्य है कि स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशिका रीमा दास की फ़िल्म ‘विलेज रॉकस्टार’ को सर्वश्रेष्ठ असमिया फ़िल्म और बेस्ट एडिटर का ख़िताब 65वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह में मिला था। वहीं रीमा दास की यह फ़िल्म वर्ष 2019 में होने वाले 91वें एकेडमी अवार्ड समारोह (ऑस्कर) के लिए भी चुनी गई है। इस वर्ष ‘अक्टूबर’, ‘राज़ी’, ‘कड़वी हवा’, ‘अज्जी’, ‘हिचकी’, ‘पैडमैन’, ‘महानती’, ‘पद्मावत’, ‘गली गुलियां’, ‘बाईस्कोपवाला’, ‘102 नॉट आउट’, ‘गुलामजाम’ व ‘भयानकम’ जैसी 29 फिल्मों ने भी ऑस्कर के लिए नामांकन भेजा था। लेकिन ऑस्कर के निर्णायक मंडल ने फ़िल्म विलेज रॉक स्टार को ही चयनित किया है। इस पूरे परिदृश्य से यह पता लगाया जा सकता है कि असमिया फ़िल्मों की लोकप्रियता जहाँ देश भर में बढ़ रही है वहीं ये दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों की प्रकिया में शामिल हो रहीं हैं। 

असम के छायागाँव की दस वर्षीय बच्ची धुनु और उसके दोस्तों की ज़िंदगी पर केंद्रित यह से दर्शकों मन मोहती है। रीमा ने धुनु और उसके दोस्तों की दिन प्रतिदिन की ज़िंदगी को परदे पर उतारते हुए गाँव और उसके परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का परिचय भी दिया है, साथ ही बाल मन को सशक्तता से पेश किया है। असम की पहली चाइल्ड आर्टिस्ट का ख़िताब भी धुनु का किरदार निभा रही भनिता दास को मिला। अब तक फ़िल्म को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समेत 19 अवार्ड मिल चुके हैं। हम लोकतांत्रिक देश में रह रहें हैं और विरोध व्यक्त करने के मौलिक अधिकार को प्रदर्शित करता फ़िल्म का एक दृश्य हमें बतौर दर्शक मंत्रमुग्ध कर देता है। इस दृश्य में कुछ बच्चे स्कूल से लौट रहे होते हैं और अचानक से बारिश होने लगती है, देखते ही देखते बच्चे बारिश से परेशान होकर नारे लगाने लगते हैं -

वी नीड टू बैन द फ़्लड!

वी नीड टू बैन द रेन!!

इस फ़िल्म की चर्चा करते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि इसमें धुनु का किरदार बाद में जोड़ा गया था। वही धुनु जिसका अपना रॉक बैंड स्थापित करने का सपना है और उसे यह उम्मीद है कि कभी न कभी असल में उसके पास गिटार होगा। धुनु का परिवार किस तरह प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता है फ़िल्म यह भी दिखाती है। 

अब जबकि असमिया सिनेमा असम से बाहर के दर्शकों के लिए उपलब्ध हो रहा है और दूसरी तरफ़ पुरस्कारों की झड़ी भी लगातार लग रही है, ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि असमिया सिनेमा का इतिहास कैसा था और यहाँ तक पहुँचने में कितने पड़ाव और यात्रा-संघर्ष रहे हैं? 

शुरुआती ज़मीन 

असमिया सिनेमा की नींव 1935 में असम के कवि, नाटककार, संगीतज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने रखी थी। स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में जेल में रहते हुए उन्होंने अपने सपनों और कल्पनाओं को लिपि बद्ध करते हुए फ़िल्म ‘जॉयमती’ का निर्माण किया था। मायथोलोजिकल थीम और थिएट्रिकल स्टाइल में बनी यह फ़िल्म असम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक़ रखती है। चूँकि 1920 में एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में अपनी फ़ेलोशिप के दौरान ज्योति प्रसाद ने यू.एफ.ओ. स्टूडियो से फ़िल्म की बारीकियाँ भी सीखी थीं ऐसे में उन्हें फ़िल्म की तकनीकियाँ अच्छे से मालूम थी। यह वही दौर था जब भारत के विभिन्न क्षेत्रीय सिनेमा में कई विचारधाराओं पर फ़िल्मों का निर्माण हो रहा था। ऐसे में ज्योति प्रसाद ने महिला विमर्श को अपनी कल्पनाओं का केंद्र बिंदु बनाया और असमिया सिनेमा की पहली फ़िल्म बनाई। फ़िल्म में निर्देशन, संपादन, लेखन, संगीत, नृत्य, सेट डिज़ाइन आदि ज्योति प्रसाद ने स्वयं ही किया था। 60 हज़ार की लागत में बनी इस फ़िल्म को दर्शकों ने भले ही पसंद नहीं किया लेकिन आधुनिक तकनीक से लैस यह पहली फ़िल्म असम के इतिहास और संस्कृति को सहेजती है। दुखद यह भी है कि आज इसका कोई भी प्रिंट भारत में मौजूद नहीं है। 

असम के सिनेमाई इतिहास को गहनता से देखने पर पता चलता है कि असम से ही ताल्लुक़ रखने वाले प्रमथेश चंद्र बरुआ भी फ़िल्मकार के साथ एकत्र और पटकथा लेखक रह चुके हैं। 1935 में उन्होंने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर फ़िल्म देवदास का निर्माण बांग्ला भाषा में किया था। जिसे बंगाली दर्शकों ने खूब पसंद भी किया था। अगर पी.सी. बरुआ अपनी जन्मभूमि में रहकर ही फ़िल्मों का निर्माण करते तो वह असम के पहले फ़िल्मकार हो सकते थे। हालाँकि 1936 में उन्होंने फ़िल्म देवदास का निर्माण हिंदी भाषा तथा 1937 में असमिया भाषा में किया दोनों ही फ़िल्में, फ़िल्मों के गहन अध्ययन-अध्यापन के लिए जानी जाती हैं। 

अपनी पहली फ़िल्म जॉयमती की नकारात्मक दर्शकीय प्रतिक्रिया से ज्योति प्रसाद ने हार नहीं मानी। उन्होंने असम के एक और हिस्टोरिकल कैरेक्टर इंद्रमालती पर भी फ़िल्म का निर्माण 1937-38 में किया। ग़ौरतलब है कि इस फ़िल्म में असमिया संगीत के सशक्त हस्ताक्षर भूपेन हज़ारिका ने पहली बार अभिनय भी किया था। इसके बाद असमिया सिनेमा में लगातार कई प्रयास अन्य फ़िल्मकारों द्वारा किए जाते रहे। चौथे दशक के अंत में द्वितीय विश्व युद्ध का छिड़ जाना असमिया सिनेमा के विस्तार और विकास में बाधा भी बना। भारत में फ़िल्म निर्माण विदेशों से आयात पर ही टिका हुआ था ऐसे में फ़िल्म निर्माण की मूलभूत वस्तुओं जैसे सिल्वर, नाइट्रिक एसिड, जिलेटिन आदिकी कमी से भारत का सिनेमा उद्योग बुरी तरह चरमरा गया था। आज़ादी के पूर्व के असमिया सिनेमा को अगर विषय वस्तु के आधार पर देखें तो पाएँगे कि असमी सिनेमा की तीसरी फ़िल्म ‘मोनुमती’ में असम पर बर्मियों द्वारा किए आक्रमण, चौथी फ़िल्म ‘रूपोही’ में असम के ग्रामीण परिवेश, पाँचवीं फ़िल्म ‘बदन बरफूकन’ में असम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रमाण मिलता है। लेकिन इन सभी फ़िल्मों को दर्शकों की तरफ़ से ख़ास पसंद नहीं किया गया। यह भी जानना ज़रूरी है कि जब हिंदी सिनेमा में रोमांटिक गीत-ड्रामा और मेलोड्रामा अतिरंजित एक्टिंग का दौर शुरू हो गया था, तब ज्योति प्रसाद ने असम की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, देशभक्ति को परदे पर पेश कर रहे थे। स्टेज एक्टिंग और फ़िल्म एक्टिंग का मूलभूत अंतर ज्योति प्रसाद ने बख़ूबी अपनी फ़िल्मों के ज़रिए समझाने की कोशिश की थी। 

आज़ाद भारत और असम का सिनेमा 

यह तथ्य तर्क संगत है कि आज़ादी की लड़ाई में सिनेमा का योगदान सकारात्मक रहा है। नेहरु स्वयं सिनेमा को लेकर चिंतित रहा करते थे। अपनी किताब ‘भारत : नेहरु के बाद’में लेखक और इतिहासकार राम चंद्रा गुहा बताते हैं कि नेहरु कई सम्मेलनों में फ़िल्मकारों को फ़िल्मों की विषय-वस्तु पर ध्यान देने की अपील कर चुके थे। आज़ादी के बाद भारत सरकार ने भारतीय सिनेमा के विकास और विस्तार पर केंद्रित कई योजनाएँ बनाई थी। कई ज़रूरी योजनाओं में देरी भले ही हुई पर सिनेमा माध्यम अपनी पहचान को स्थापित कर चुका था। फ़ानी शर्मा ने फ़िल्म ‘सीरज’ से हिंदु-मुस्लिम एकता पर स्पष्ट चित्रांकन पेश किया, तो प्रवीण फ़ुकन की फ़िल्म ‘परघाट’ और ‘विप्लवी’ में असम का ग्रामीण परिवेश पूरी तरह दिखता है। 

यह वही दौर था जब फ़िल्मों के विकास और प्रतिभा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा प्रतिवर्ष होनी शुरू हुई थी। इसी कड़ी में असमी फ़िल्म ‘पियोलि फ़ुकन’, जो स्वतंत्रता सेनानी पियोलि फ़ुकन के जीवन संघर्ष पर केंद्रित थी, को प्रेसिडेंट मेरिट सर्टिफ़िकेट दिया गया। देखते ही देखते निप बरुआ की ‘रोंगा पुलिस’ (1958) व प्रभात मुखर्जी की ‘पुबेरू’ (1959) जैसी फ़िल्मों को भी प्रोत्साहन मिला। रोंगा पुलिस पहली फ़िल्म बनी जिसे पहली बार रजत पदक से सम्मानित किया गया। वहीं पुबेरू को बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जगह मिली। यह असमिया सिनेमा के ख़ुद के खड़े होने का दौर था। जिसे लेकिन अब तक दर्शकों की ओर से कोई खास पहचान नहीं मिल सकी थी। 

फ़िल्मों की दुनिया में एक बार फिर भूपेन हज़ारिका बतौर निर्देशक आए और 1956 में ‘एरा बटर सुर’, ‘शकुंतला’, ‘प्रतिध्वनि’ जैसी फ़िल्मों से उन्होंने अपनी निर्देशकीय छवि स्थापित की। साथ ही उनकी फ़िल्मों को राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से जनसंचार में पी.एच.डी. भूपेन हज़ारिका की ‘एरा बटर सुर’ असमी दर्शकों की पसंद बन गई। पहली बार असमिया फ़िल्म में बैक ग्राउंड स्कोर व प्ले-बैक म्यूज़िक भूपेन हज़ारिका ने ही दिया। इसके बाद अब्दुल मजीद की फ़िल्म ‘चमेली मेमसाहब’ में दिए संगीत के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया। 

असमी फ़िल्मों में कॉमेडी ‘इति सितो बहुतो’ (1963) व क्राइम थ्रिलर ‘डॉक्टर बेज बरुआ’ (1969) की भी शुरुआत हुई। हिंदी में डब पहली असमिया फ़िल्म ‘भाग्य’ (1968) बनी। इन्हीं प्रमुख बदलावों के साथ असमी सिनेमा में दर्शकों की पसंद का दौर आ चुका था। समरेंद्र नारायण देव की ‘अरण्य’ (1970), कमल नारायण चौधरी की पहली रंगीन फ़िल्म ‘बेटी’ (1972), फ़ानी तलुक़ादार की ‘विभरत’ (1972), मनोरंजन सूद की ‘उठारन’ (1973), पलक गोगोई की ‘खोज’ (1974) के अलावा ‘ममता’, ‘उतरन’, ‘कलोल’ व ‘पुतला घर’ जैसी फ़िल्में दर्शकों की पसंद बनी। इसी दौर में गुवाहाटी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रहे डॉ भावेंद्र नाथ सेकिया ने 1977 में ‘संध्या राग’ बना कर पहली बार इंडियन पैनोरोमा में जगह बनाई। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त इस फ़िल्म के बाद उन्हें ‘अग्निस्तान’ (1985) तथा ‘कोलाहल’ (1988) के लिए भी राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। अग्निस्तान ऐसे ऐय्याश ज़मींदार की पढ़ी-लिखी बीवी की कहानी है जिसे वह ख़ूब प्रताड़ित करता है। 

नए दौर का असमिया सिनेमा 

यहाँ नए दौर का सीधा आशय उदारीकरण के दशक से लेकर अब तक के असमिया सिनेमा से है। चूँकि सिनेमा संस्कृति में सबसे बड़े बदलाव 90 के दशकों में देखें गए हैं जैसे - सिंगल थिएटर से मल्टी प्लेक्स की शुरुआत, प्रशिक्षित निर्देशकों, कैमरामैन, पटकथा लेखकों आदि का इस विधा से जुड़ना आदि। इसका सीधा सम्बंध फ़िल्म की विषय वस्तु के साथ फ़िल्म के टारगेट ऑडीयन्स तक में पड़ा है।

एफ़.टी.आई.आई. (फ़िल्म एंड टेलिविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया) से प्रशिक्षित जाहनु बरुआ असमिया फ़िल्मों के बढ़ते क्रम में जुड़े। 1982 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म ‘अपरूपा’ बनाई जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। बाद में बरुआ ने ‘पपोरी’ (1986) और ‘हलोधिया चोराय बोधन खाई’ (1987) जैसी फ़िल्में भी बनाई जिसे दर्शकों और समीक्षकों की ख़ूब तारीफें मिली। इसी क्रम में जाहनु अपनी दसवीं फ़िल्म ‘तोरा’ के बाद छोटे बजट की फ़िल्मों के साथ हिंदी सिनेमा की तरफ़ बढ़े। नौ बार राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके असमी फ़िल्मकार का यह फ़ैसला चौंकाने वाला तो था ही लेकिन ऐसे में यह जानना भी ज़रूरी है कि समय के साथ उन्होंने असमी सिनेमा का साथ नहीं छोड़ा। 2012 में असम स्टेट फ़िल्म कोरपोरेशन की मदद से फ़िल्म ‘बाँधों’ का निर्माण कर उन्होंने फिर से असमिया फ़िल्मों में वापसी की। 26/11 हमलों में एक बूढ़ी दम्पति जो अपने पोते को खो चुकी है, उसकी कहानी यह फ़िल्म कहती है। फ़िल्म को 2012 के राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह की ओपनिंग फ़िल्म के रूप में पेश किया गया था। 

इसी क्रम में एक और फ़िल्मकार मंजू बोरा का असमिया फ़िल्मों में योगदान प्रशंसनीय है। असमी सिनेमा की पहली फ़िल्म ‘जॉयमती’ की कहानी पर ही 2006 में मंजू ने दोबारा चित्रांकन किया और उसको नई पीढ़ी के दर्शकों के समक्ष पेश किया। फ़िल्म 2006 में इंडियन पैनोरोमा का हिस्सा भी बनी थी। 

सीधे तौर पर यह कहा जा सकता है कि असमी सिनेमा में लगातार परिवर्तन होते रहे हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि पर निप बरुआ की ‘मरम’ (1978), बीजू फ़ुकन की ‘भाई-भाई’ (1989), मुन्ना अहमद की ‘जान जोले कपालत’ (2000), महिला विषयक जाहनु बरुआ की ‘फिरिंगोती’, मंजू बोरा की ‘जॉयमती’, लव सेंट्रिक ‘मनुमती’, ‘शगुनलता’ ‘तेजिमोला’, ‘अविमान’ ‘शिराज़’ आदि, सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि पर ‘शिराज़’ (1988), ‘रामधेनु’ (2011), ‘दिनोबंधु’ (2012) व ‘ममताज’ (2013) आदि, क्षेत्रीय मुद्दों पर आधारित ‘तुला आस तेजा’, ‘बोरलर धार’, ‘मघोट ममोनिर विया’ (2002) ‘देवतार विया’ (1977) आदि का निर्माण हुआ है। इन सभी फ़िल्मों की विषय-वस्तु से दर्शकों को कहीं ना कहीं विविधताएँ ज़रूर मिली हैं। पूरे असमिया सिनेमा को शोध की दृष्टि से देखने पर पता चलता हैं कि बहुतेरी असमिया फ़िल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है।

स्थानीय भाषा ‘बोडो’ में सिनेमा

चूँकि असमिया भाषा में बेहतर से बेहतर फ़िल्में बनने का प्रयास लगातार हो रहा था। ऐसे में एक अन्य स्थानीय भाषा बोडो में भी फ़िल्मों की परम्परा शुरू हुई जिससे बोडो भाषी अपनी संस्कृति और सभ्यता से रूबरू हो सके साथ ही समसामयिक विषयों से जुड़ सके। 1980 के दशक के मध्य में ही असमी के अलावा बोडो में भी फ़िल्मों का निर्माण होने लगा था। वही निर्देशक ज्वांगडो बोडोसा की फ़िल्म ‘अलायरों’ (1986) जो सिल्क उद्योग के आंदोलन पर केंद्रित थी उसे सर्वश्रेष्ठ रीजनल फ़िल्म का पुरस्कार मिला। निर्देशक बोडोसा की एक अन्य फ़िल्म जो डिफोरेस्टाइजेशन के विरोध में भी खड़ी होती है वह है ‘हग्रामायाओ जिनाहारी’ (1995)। दस दिनों में फ़िल्म की शूटिंग और एडिटिंग प्रक्रिया पूरी करने वाले इस फ़िल्म के निर्देशक ज्वांगडो बोडोसा को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार भी मिला था।

इसके अलावा परमेश्वर बारो की ‘Annaini RadaiमालादैमेरिकीGwrbwni Mijingप्रेमचंद्र मोहंती की ‘Nwngni Thakai Angni Jwnwmआदि फ़िल्में भी बनीं जिससे बोडो सिनेमा स्थापित हुआ। यह वही दौर था जब असमिया भाषा में नए नए प्रयोग कंटेंट के आधार पर हो रहा था वहीं बोडो भाषा में बनी फ़िल्मों में जन मुद्दों को बारीकी से दिखाने का भरसक प्रयास चल रहा था। कहा जा सकता है कि 80के दशक के मध्य में शुरू हुए बोडो फ़िल्मों के संसार में कई ऐसी फ़िल्में बनी है जो जन आंदोलनों को सीधे तौर पर परदे पर चित्रित करती हैं। 

संक्षेप में

असमिया सिनेमा के प्रथम फ़िल्मकार ज्योतिप्रसाद अग्रवाल से लेकर जाहनु बरुआ और रीमा दास तक की फ़िल्मों का कलात्मक पक्ष अति महत्वपूर्ण रहा है। व्यवसाय के नज़रिए से असमिया फ़िल्में भले ही फ़्लॉप रही हो लेकिन कलात्मकता और प्रयोगों की कमी नहीं दिखती। असम सरकार द्वारा फ़िल्मों के संरक्षण तथा विकास पर ज़रूरी ध्यान ना दिया जाना भी चिंताजनक रहा है। एन.एफ.डी.सी. (नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया) तथा राज्य वित्त निगम जैसी संस्थाएँ फ़िल्मकारों की आर्थिक मदद कर पाने में पूरी तरह सफल नहीं रही। वहीं विकृत नगरीकरण और अशिक्षा के कारण दर्शकों में भी फ़िल्मों को देखने की अभिरुचि सही तरीक़े से नहीं बन पाई है। फ़िल्म के विभिन्न पक्षों के निर्माण के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भरता भी इस दिशा में हमेशा से अहम रहा है। सिनेमाघरों की कमी और असमिया फ़िल्मों पर शोध की कमी का कारण ही यही है कि असमिया सिनेमा की स्थिति में परिवर्तन जिस तेज़ी से होने चाहिए थे वह नहीं हो सके हैं। 

संदर्भ सूची :

Rajadyaksha, A., ed.. Encyclopedia of Indian Cinema. London: British Film Institute, 2008. 

Saran, Renu, ed. History of Indian Cinema. New Delhi: Diamond Pocket Books (P) Ltd, 2013.

Sharma, AJyoti Prasad as a Filmmaker. Guahati: Adi Publication, 2005. 

Thoraval, Y., ed. Cinema of India. Delhi: Macmillan Publishers India, 2007.