कबीर के काव्य में पर्यावरणीय चेतना / Depiction of Nature in Kabir's Poetry

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Published on: 19 June 2019

Priti Tripathi

Dr Priti Tripathi is an Assistant Professor (Department of Hindi) at RBD Women’s College, Bijnor, Uttar Pradesh.

कबीर के काव्य में जगह-जगह प्रकृति अपनी पूरी गरिमा व भव्यता के साथ मौजूद है। यहाँ तक कि वह कई बार उपदेशक की भूमिका में भी नज़र आती है, जो इस जटिल व विषमतामय जीवन की परिस्थितियों से उबरने में मनुष्य की सहायता करती है। ऐसे में यदि हम उनके काव्य में अभिव्यक्त इस पर्यावरणीय चेतना को समझ सकें और इसे जीवन में उतार सकें तो उन्हें एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।  (चित्र: संत कबीर के साथ नामदेव, रायदास और पीपाजी, 19वी सदी, राष्ट्रीय संग्रहालय, Photo courtesy: Public domain)

 

 

कहते हैं कि कबीर का जन्म मध्यकाल की जिस संक्रमणकालीन बेला में हुआ था, उसमें मनुष्य तो मनुष्य, स्वयं प्रकृति भी अपना मार्ग बदल रही थी। उस समय गंगा की मात्र एक लहर पीछे छूट गयी थी, उससे जो ताल बना, बनारस में उसका नाम पड़ा- लहरतारा।[i] इसी तालाब के किनारे कबीर अपने पालनहार माता-पिता नीरू-नीमा से पहली बार मिले थे। अब ऐसे बालक का प्रकृति व उसके उपादानों से आत्मिक जुड़ाव होना स्वाभाविक है। कबीर के काव्य में जगह-जगह प्रकृति अपनी पूरी गरिमा व भव्यता के साथ मौजूद है। यहाँ तक कि वह कई बार उपदेशक की भूमिका में भी नज़र आती है, जो इस जटिल व विषमतामय जीवन की परिस्थितियों से उबरने में मनुष्य की सहायता करती है। यथा:

कबीर मनिषा जनम दुर्लभ है, देह न बारंबार।

तरवर थैं फल झड़ि पड्या, बहुरि न लागै डार।।[ii]

 

अर्थात् जिस प्रकार संसार में मनुष्य का जन्म कठिनता से मिलता है उसी प्रकार लाख प्रयत्न करने पर भी एक बार शाख से तोड़ा गया, पत्ता वापस जोड़ा नहीं जा सकता। अतः देवोपासना अथवा किसी भी कर्मकांड के लिए पेड़ से पत्ता तोड़ना (बेलपत्र, धतूरा आदि) कबीर की दृष्टि में असंगत है। क्योंकि:

पाती तोरै मालिनी, पाती-पाती जीउ।[iii]

 

प्रत्येक पत्ती में जीवों का निवास स्थान है, उसे अनावश्यक हानि नहीं पहुँचानी चाहिये। जो पत्ती अपनी सजीवता में पेड़ के लिए सौन्दर्यवर्धक व आभूषण के समान शोभाकारक है, वही उससे तोड़ लिये जाने के उपरान्त निर्जीव होने के कारण जीव-जन्तुओं के काम की नहीं रह जाती।

 

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प्रकृति कबीर के काव्य का सार्वभौम व शाश्वत पक्ष है। उनकी दृष्टि में पेड़-पौधे, धरती, आकाश सम्प्रदाय निरपेक्ष हैं, अतः ये सदैव बने रहने चाहिये। हमारी उत्पत्ति जिस धरती से हुई है, वह हमें जीवन का पालन करने हेतु अन्न, जल, फल-फूल सभी प्रदान करती है, किन्तु कभी घमण्ड नहीं करती, न ही इसे अपना गुण मानती है:

सबकी उतपति धरती, सब जीवन प्रतिपाल।

धरति न जाने आप गुन, ऐसा गुरु विचार।।[iv]

 

ऐसी अप्रतिम सहनशीलता व महान दातव्य भाव के कारण कई बार वह गुरु से भी बड़ी प्रतीत होती है। पृथ्वीपुत्र वृक्ष भी परोपकार में उससे कम नहीं है। वह पक्षपातरहित होने के कारण सभी को समान रूप से छाया देता है। निरीह पशु-पक्षियों को आश्रय देता है। प्राणवायु ऑक्सीजन का संचार करता है। उसके फल-फूल, पत्ते और लकड़ी मनुष्य के काम आते हैं। कबीर के शब्दों में वृक्ष का वृक्षत्व उसके इसी परोपकार भाव में निहित है:

वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।

परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।[v]

 

अर्थात् ये मूलतः दूसरे के उपकार के लिए ही जीवन धारण करते हैं, इनका यह व्यवहार सज्जनों के स्वभाव के समतुल्य है। किन्तु स्वार्थी मनुष्य को इसकी परवाह कहाँ? वह तो हानिरहित होने पर भी पत्ती खाने वाले पशुओं को मारकर खा जाता है। कबीर इसे बड़ी गम्भीरता से लेते हैं और ऐसे लोगों को चेतावनी देते हुये कहते हैं कि:

बकरी पाती खाति है, ताको काढ़ी खाल।

जो नर बकरी खात हैं, तिनका कौन हवाल।।[vi]

 

वे पेड़-पौधों व जीव-जगत के संरक्षण को धार्मिकता से जोड़कर मनुष्य को प्रकृति की गोद में सहजता व सादगी से जीवन जीने की ओर प्रेरित करते प्रतीत होते हैं। यहाँ तक कि रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान भी वे प्रकृति के आश्रय में खोजते दिखाई पड़ते हैं। यथा:

कबीर तन पक्षी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।

जो जैसी संगति करे, सो तैसे फल खाइ।।[vii]

 

यहाँ कबीर ने मनुष्य के सामाजिक जीवन में सत्संगति का महत्त्व बताने के लिए ‘पक्षी’ के प्राकृतिक प्रतीक का सहारा लिया है। इसी तरह वे बगुले और कौवे के प्रतीक के माध्यम से संसार में सफेदपोश लोगों की पोल खोलते हैं। ऐसे उद्धरण उनके लोकजीवन विषयक सूक्ष्म ज्ञान के परिचायक हैं।

 

संक्षेप में ‘गगन हमारा ग्राम’ मानने वाले कबीर इतना तो भली-भाँति जानते थे कि जीवन अमूल्य है और इसकी उत्पत्ति शून्य में संभव नहीं है। अतः, वे प्राचीन धर्मग्रन्थों की सकारात्मक शिक्षाओं को मानव जीवन हेतु उपयोगी बनाने के लिए प्राकृतिक प्रतीक ग्रहण करते हैं और सारे वातावरण में परम सत्ता के प्रकाश का अनुभव करते हैं। जैसे मेंहदी के पत्ते में लालिमा होते हुए भी अन्तर्धान रहती है, उसी प्रकार ईश्वर जड़-चेतन में अन्तर्निहित होते हुए भी अदृश्य रहता है:

साहेब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय।

ज्यों मेंहदी के पात में, लाली रखी न जाय।।[viii]

 

इस तरह कबीर का काव्य तमाम पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों व जीव-जन्तुओं का ऐसा अनूठा संग्रह बन गया है, जहाँ उनकी हर गतिविधि पर कवि की पैनी नज़र है। यह एक तरह से एक मध्यकालीन कवि के तौर पर कबीर के काव्य की महत्तर सिद्धि है। ऐसे में यदि हम उनके काव्य में अभिव्यक्त इस पर्यावरणीय चेतना को समझ सकें और इसे जीवन में उतार सकें तो उनके महानिर्वाण के 500 वर्ष बाद (माघ एकादशी, जून 28, 2018) भी यह उन्हें एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 

 

प्रस्तुत लेख एक स्वतंत्र टिप्पणी है।

 

Notes


[i] कबीर की परिनिर्वाण पंचशती (वार्षिक आयोजन शृंखला-2018), कबीर चौरा मठ मूलगादी, वाराणसी, पृ. 6.

[ii] कबीर ग्रंथावली: साखी, सं.-श्यामसुन्दरदास, चितावणी कौ अंग, पद सं. 34, पृ. 114.

[iii] संत कबीर, डॉ. रामकुमार वर्मा, राग आसा, पद-14, पृ. 104.

[iv] सद्गुरु कबीर साहब कृत ‘बीजक’ विवेक प्रकाशिनी, बीजक टीका, टीकाकार-साध्वी ज्ञानानंद जी, श्री कबीर ज्ञान प्रकाशन केन्द्र, झारखण्ड, दोहा सं. 201, पृ. 478.

[v] कविताकोश, कबीर दोहावली, दोहा सं. 912, पृ. 10.

[vi] हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, भक्तिकाल, प्र. 2 - निर्गुण धारा: ज्ञानाश्रयी शाखा, पृ. 46, प्रयाग पुस्तक सदन, इलाहाबाद.

[vii] कबीर ग्रंथावली: साखी, संपा.-श्यामसुन्दर दास, संगति कौ अंग (26), दोहा सं. 7.

[viii] सन्त कबीर के दोहे, भाग-5, श्रेष्ठ हिन्दी कवितायें, https://www.hindisahityadarpan.in.