बुन्देलखण्ड की लोक-संस्कृति और इतिहास के संग्रह में हिन्दी साहित्य की भूमिका: एक मूल्यांकन

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Published on: 29 June 2020

अमिता चतुर्वेदी (Amita Chaturvedi)

अमिता चतुर्वेदी एक स्वतन्त्र लेखिका हैं। उन्होंने सन् 2014 में भीमराव अम्बेडकर यूनीवर्सिटी से हिन्दी में एम.फिल. की उपाधि प्राप्त की है। उनके लेख गृहशोभा, पोलिस प्रोजेक्ट, और ग्रिट फेलोशिप के अन्तर्गत द वायर हिन्दी प्रकाशन में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में वे ‘अपना परिचय’ नामक ब्लॉग संचालित कर रही हैं।

बुन्देलखण्ड मध्य-भारत का ऐसा भाग है, जिसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों के आंशिक क्षेत्र समाहित हैं। बुन्देलखण्ड के अलग-अलग भागों में इतिहास, संस्कृति और भाषा की दृष्टि से विविधता होते हुए भी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समानता लिए हुए एक अलग ही विशिष्टता है। किसी भी प्रान्त पर आधारित साहित्य में वहाँ की संस्कृति का संरक्षण उस क्षेत्र की भौगोलिक, सांस्कृतिक-जनजीवन, जनजातियों, बोली आदि विशिष्टताओं के समावेश द्वारा होता है। परन्तु बुन्देलखण्ड पर आधारित साहित्य का पर्याप्त विश्लेषण नहीं हुआ है। साहित्य किसी स्थान की विशेषताओं से समाज को समग्र रूप से अवगत कराता है और वहाँ के जनजीवन से परिचय कराकर लोकप्रियता प्रदान करता है। प्रस्तुत लेख में बुन्देलखण्डी लोक-संस्कृति एवं जन-जीवन पर आधारित साहित्य का इन सभी आयामों के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया गया है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य इस प्रश्न का उत्तर देना है कि क्यों साहित्य किसी क्षेत्र की संस्कृति और लोक-जीवन के ऐतिहासिक और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अध्ययन के लिए उपयुक्त माध्यमों में से एक प्रमुख विकल्प है। 

किसी क्षेत्र की लोक-संस्कृति में कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु समाहित होते हैं जैसे कि वहाँ का स्थापत्य, भौगोलिक परिवेश, जनजीवन, संस्कृति, बोली आदि, जिनके आधार पर क्षेत्र-विशेष की लोक-संस्कृति के संग्रह का मूल्यांकन किया जा सकता है। बुन्देलखण्ड की लोक-संस्कृति और जन-जीवन के इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं को कुछ महत्वपूर्ण उपन्यासकारों ने अपने साहित्य में स्थान दिया है, जिसमें वहाँ के ऐतिहासिक एवं वर्तमान समयकाल की झलक देखने को मिलती है। इनमें से दो विशिष्ट रचनाकार हैं वृन्दावनलाल वर्मा एवं मैत्रेयी पुष्पा। 

वृन्दावनलाल वर्मा तथा मैत्रेयी पुष्पा दोनों साहित्यकारों का जीवन बुन्देलखण्ड में व्यतीत हुआ जिसका परिचय दोनों साहित्यकारों की रचनाओं में बुन्देलखण्ड के विस्तृत परिचय से मिलता है। ऐतिहासिक मूल्यों से प्रभावित परिवार में परवरिश होने के कारण वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में बुन्देलखण्ड के मध्यकाल के ऐतिहासिक वैभव एवं शौर्य की गाथा मिलती है। उन्होंने अपने समय से पहले की घटनाओं, तथ्यों, नामों और विभिन्न स्थलों के विषय में अनेक जगह से जानकारी एकत्रित कर लिखा है।  

वहीं एक मध्यमवर्गीय परिवार के सन्घर्षपूर्ण वातावारण में बड़े होने के कारण मैत्रेयी पुष्पा का सरोकार बुन्देलखण्ड की भौगोलिकता तथा जनजीवन के प्रत्येक पहलू से भलीभाँति हुआ। इसीलिये मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में वहाँ के भूगोल तथा शहरी-ग्रामीण जनजीवन के विभिन्न पहलुओं का समावेश दिखाई देता है।

दोनों के साहित्य के अध्ययन से बुन्देलखण्ड की कुछ प्रमुख विशेताओं का बोध होता है।

स्थापत्य कला का चित्रण एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण

बुन्देलखण्ड की ऐतिहासिक स्थापत्य कला एवं परिवेश का चित्रण वृन्दावनलाल वर्मा के साहित्य में देखने को मिलता है क्योंकि उनका साहित्य मुख्यत: ऐतिहासिक दृष्टिकोंण से प्रेरित था। वृन्दावनलाल वर्मा के मन में सवाल था कि ‘रानी स्वराज्य के लिये लड़ीं, या अंग्रेजों की ओर से झाँसी का शासन करते-करते उनको जनरल रोज से विवश होकर लड़ना पड़ा?’[1] इसका उत्तर पाने की कोशिश में उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास की संरचना की। उपन्यास को तथ्यपरक बनाने के लिए उन्होंने अपने समयकाल से पूर्व की घटनाओं, स्थलों तथा भौगोलिकता के विषय में जगह-जगह जाकर लक्ष्मीबाई के समय की सामग्री एकत्रित की, जिनका उन्होंने उपन्यास में उल्लेख किया है। इस सामग्री के आधार पर स्वयं उपन्यास लिखने के समय तक होने वाले अनेक भौगोलिक और स्थानीय परिवर्तनों की ओर अपने उपन्यास में उन्होनें अनेक स्थलों पर संकेत किया है। 

चित्र 1: झाँसी के किले के स्थापत्य का व्यापक चित्रण वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में देखने को मिलता है। यह चित्र इस किले के मुख्य द्वार का है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)
चित्र 1: झाँसी के किले के स्थापत्य का व्यापक चित्रण वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में देखने को मिलता है। यह चित्र इस किले के मुख्य द्वार का है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)

 

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में झाँसी के किले व कचनार में धामोनी के किले के विशाल रूप का चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने तालबेहट, ओरछा, बरुआसागर आदि शहरों के किलों का उल्लेख भी किया है। उनके उपन्यासों में झाँसी शहर के मन्दिरों, बागों, बाजार, शहर की सुरक्षा के लिए निर्मित फाटकों आदि का चित्रण भी किया गया है। 

 

चित्र 2: झाँसी के किले में स्थित ‘कड़क बिजली’ नामक तोप का वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में लक्ष्मीबाई के अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़े गए युद्ध के संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेख किया है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)
चित्र 2: झाँसी के किले में स्थित ‘कड़क बिजली’ नामक तोप का वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में लक्ष्मीबाई के अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़े गए युद्ध के संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेख किया है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)

 

चित्र 3: इदन्नमम उपन्यास में ओरछा के किले के बारे में मैत्रेयी पुष्पा ने इस प्रकार वर्णन किया है- ‘ओरछा का किला धुँधला-सा दिखाई देता है, ज्यों अँधेरे में विशालकाय हाथी बैठा हो।’ (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 16 नवंबर 2019)
चित्र 3: इदन्नमम उपन्यास में ओरछा के किले के बारे में मैत्रेयी पुष्पा ने इस प्रकार वर्णन किया है- ‘ओरछा का किला धुँधला-सा दिखाई देता है, ज्यों अँधेरे में विशालकाय हाथी बैठा हो।’ (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 16 नवंबर 2019)

दोनों उपन्यासों में बुन्देलखण्ड की स्थापत्य कला का चित्रण वहाँ की ऐतिहासिक विरासत के रूप में किया गया है। कचनार में वृन्दावनलाल वर्मा ने धामोनी के विषय में लिखा है, ‘धामोनी एक उजाड़ बीहड़ है; परन्तु इतिहास और परम्परा का एक चमत्कार उसे घेरे हुए है’।[2] इस वर्णन के माध्यम से उनके मन पर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। 

भौगोलिक चित्रण

वृन्दावनलाल वर्मा के साहित्य में बुन्देलखण्ड के भौगोलिक परिवेश का वर्णनात्मक चित्रण वहाँ की पहाड़ियाँ, धामोनी के जंगल, बरुआसागर की झील, बीहड़, टौरियों तथा बेतवा और धसान जैसी नदियों के उल्लेख के माध्यम से मिलता है। साथ ही बुन्देलखण्ड की विभिन्न वनस्पतियों जैसे करधई, कठवर, तेंदु, अचार साज, महुआ, कोहे आदि का वर्णन उनके उपन्यासों में किया गया है। 

 

चित्र 4: बुन्देलखण्ड की प्रमुख नदी बेतवा का उल्लेख वृन्दावनलाल वर्मा एवं मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में प्रमुखता से मिलता है। प्रस्तुत चित्र ओरछा स्थित बेतवा नदी के घाट से लिया गया है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 16 नवंबर 2019)
चित्र 4: बुन्देलखण्ड की प्रमुख नदी बेतवा का उल्लेख वृन्दावनलाल वर्मा एवं मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में प्रमुखता से मिलता है। प्रस्तुत चित्र ओरछा स्थित बेतवा नदी के घाट से लिया गया है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 16 नवंबर 2019)

 

इसके विपरीत मैत्रेयी पुष्पा ने बुन्देलखण्ड के वर्तमान भूगोल को अपने कथानक का एक अंग बनाया है। बेतवा बहती रही’ उपन्यास में उन्होंने प्रकृति के साथ डाकुओं के प्रसंग को जोड़ते हुए बुन्देलखण्ड की भौगोलिक विशेषताओं का इस प्रकार चित्रण किया है-

बहने को पहूज नदी बहती है वहाँ, पर मिट्टी के ऊँचे-नीचे भरका-गहरी खाईयाँ और बेतरतीब रेतीले ढूह कैसी दहशत पैदा करते हैं। पूरा रास्ता सुनसान खेतों से गुजरकर पहूज पहुँचता है। भाँड़ेर के आसपास के गाँव कुछ ऐसे ही हैं- सूने सनसनाती हवा में लिपटे, पक्के, सफेद मकान… रात होते ही मन में आशंका धुकधुकाने लगती है-‘कहीं डाकू न आ जायें।[3]

वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों के कुछ प्रसंगों से बुन्देलखण्ड के मध्ययुगीन जनजीवन का परिचय मिलता है, जिसमें वहाँ की कुछ विशेषताएँ प्रकट होती हैं जैसे कि, झाँसी में ‘पहाड़ी की ऊँचाई-निचाई’[4] पर बसी बस्तियों का वर्णन। इसी प्रकार कचनार में धामोनी के एक मकान का चित्रण इस प्रकार किया गया है, ‘आग मकान में नहीं लग सकती क्योंकि पत्थर का बना है और पत्थर की पातें ऊपर छाई हुई हैं।[5] इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि बुन्देलखण्ड के विशिष्ट भूगोल का वहाँ के आम जनजीवन पर विशेष प्रभाव बहुत समय पहले से देखने को मिलता है।

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में आधुनिक बुन्देलखण्ड का भौगोलिक परिचय मिलता है जिसके माध्यम से बुन्देलखण्ड की प्राकृतिक सम्पदा को हुए नुकसान का पता चलता है। क्रशर लगने तथा बाँध बनने से वहाँ की भौगोलिकता और जनजीवन पर विपरीत प्रभाव को मैत्रेयी पुष्पा की दृष्टि ने समझा है। जैसा कि उन्होंने अपने उपन्यास इदन्नमम में क्रशर के कारण खेतों की जगह लेने वाली बजरी, रेत और धूल की ओर संकेत करते हुए दो पात्रों के बीच एक संवाद के माध्यम से लिखा है- 

गनपत, जे मसीनें काहे की गढ़ी हैं?”

“गिट्टी-मुरम पीसने की। अपन श्यामली में थे तभी गढ़ गईं।” … चारों ओर बजरी, रेता और धूल के बवंडर![6]

क्रशर लगने के कारण किसानों के पास खेत न बचने पर उन्हें मजदूरी भी न मिलने का भी उन्होंने उल्लेख किया है- ‘क्रैशरों की हदबन्दी में आए किसान लोग अब मजदूर भी नहीं रहे।’[7] साथ ही वह इस स्थिति से उपजे वर्गभेद को रेखांकित करते हुए लिखती हैं- ‘आने वाले दिनों में इन व्यापारियों की औलादें खाएँगी इस पहाड़ को और खून पिएँगी हमारे वारिसों का।’[8]

 

चित्र 5: मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों में पारीछा में स्थित बाँध को कहानी का एक महत्वपूर्ण अंग बनाया है। प्रस्तुत चित्र में पारीछा बाँध का सम्यक रूप देखने को मिलता है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)
चित्र 5: मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों में पारीछा में स्थित बाँध को कहानी का एक महत्वपूर्ण अंग बनाया है। प्रस्तुत चित्र में पारीछा बाँध का सम्यक रूप देखने को मिलता है। (फोटो: अमिता चतुर्वेदी, 17 नवंबर 2019)

बाँध बनने से पारीछा गाँव की प्राकृतिक सम्पदा, जंगल और नदी को होने वाले नुकसान का मैत्रेयी पुष्पा ने विशेष रूप से दोनों ही उपन्यासों में वर्णन किया है यद्यपि उन्होंने यह भी लिखा है कि गाँव के लोग बिजली आने से प्रभावित हैं। जैसा कि वह पारीछा थर्मल प्लांट के संदर्भ में इदन्नमम में लिखती हैं, ‘जहाँ पारीछा बिजली-टेशन बन गया है, पहले वहाँ क्या था? गाँव जंगल और नदी। अब देखो कि गाँव-गाँव लट्टू झिलकते हैं।’[9] वहीं उन्होंने बेतवा बहती रही में लिखा है, ‘सामने ही पारीछा थर्मल पावर प्लान्ट है। झिलमिलाती रोशनी में डूबी आधुनिक बस्ती। सीमेंट का छोटा सा जंगल। तपती धरती।’[10] यह वर्णन लेखिका के वहाँ की हरियाली नष्ट होने के अवसाद को दर्शाता है।

बोली एवं लोकगीत

वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई में बुन्देलखण्डी बोली का प्रयोग वहाँ के आम निवासियों के वार्तालाप में किया गया है। रानी लक्ष्मीबाई और सभी राजसी परिवार के लोग उपन्यास में खड़ी बोली में बात करते हैं। उसी प्रकार कचनार में राजाओं का युद्ध में साथ देने वाले गुसाइयों को बुन्देलखण्डी बोली में बोलते हुए वर्णित किया गया है।

मैत्रेयी पुष्पा स्वयं बुन्देलखण्डी बोली से भली-भाँति अवगत हैं। उनका उपन्यास इदन्नमम सम्पूर्ण रूप से बुन्देलखण्डी बोली में कृत साहित्य का ही एक उदाहरण है। बेतवा बहती रही में भी उन्होंने बुन्देलखण्डी बोली का प्रयोग किया है। साथ ही उनका बुन्देलखण्ड के लोकगीतों से भी परिचय है। इदन्नमममें लिखित बुन्देलखण्ड के एक लोकगीत ‘सुआटा’ के उल्लेख से वहाँ का सांस्कृतिक पहलू प्रस्तुत होता है। यह लोकगीत वहाँ की लड़कियाँ गाती हैं, जिसे सुआटा खेलना कहा जाता है। गीत के बोल इस प्रकार हैं,

तिन के फूल तिनहि के दाने,

चन्दा उगे बड़े भुनसारे।

सारे बारे फूल सिराए,

काठ कठीले काठे से,

पाँचों भइया पंडा से।

छटई बहन ईंगुर सी।[11]

जनजातियों का विवरण

वृन्दावनलाल वर्मा तथा मैत्रेयी पुष्पा ने बुन्देलखण्ड की जनजातियों का उल्लेख किया है, जिनका वहाँ की आबादी में प्रमुख स्थान रहा है और अब भी है। दोनों ही उपन्यासकारों ने इन जनजातियों के जीवन में आए विपरीत बदलावों पर ध्यान दिया है

कचनार में वर्णित धामोनी के राजा दलीप सिंह राज गोंड थे। इस उपन्यास के प्रारम्भ में वृन्दावनलाल वर्मा ने गोंड जनजाति के जीवन में आए परिवर्तन के विषय में लिखा है कि पहले जो गोंड जनजाति अपने अधिकार के लिए लड़ने के लिए जानी जाती थे, आज उनकी वह पहचान खो रही है। वह लिखते हैं,

धामोनी गोंडों-राजगोंडों का था। मुगलों, मराठाओं और बुन्देलों की जकड़ों में से गोंडों ने हटते-हटते भी इसको खोया और पाया। यह कई बार घटित हुआ। आजकल के राजनीतिक विकास में गोंड कोई विशेष भाग लेते हुए नहीं जान पड़ते; यद्यपि मध्यभाग में उनके कई राज्य हैं। परन्तु एक समय वे अपने सहज, सरल, स्वाभाविक और प्रमोदमय जीवन द्वारा भारतीय-संस्कृति को अपने दृढ़ और पुष्ट हाथों की अंजलियाँ भेंट किया करते थे। वे फिर क्या ऐसा नहीं कर सकते? मुझको तो आशा है।[12]

मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यास इदन्नमम में बुन्देलखण्डी जनजातियों के बारे में अपनी कहानी में वर्णन किया है कि वहाँ की राउत, सहरिया, भील, जनजातियाँ वन-प्रान्त में रहती थीं, परन्तु समय के चलते उनके जीवन में कठिनाईयाँ आ गईं। जैसा कि उन्होंने एक पात्र के स्वयं के वर्णन के माध्यम से भावपूर्ण उल्लेख किया है, 

हम भील की जात, शिकार के धनी माने जाते थे। ब्याह बरात में बड़ी रौनक लगती थी हम औरों के यहाँ। सिरकार ने जंगलन से काढ़ के कुत्ता की दर के कर दए। अहादुरी-बहादुरी सब धर दी एक कनाएँ। अब तो महनत-मशक्कत के बाद भी भूखे के भूखे।[13]

सारांश

इस अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि उपन्यासों के माध्यम से किसी क्षेत्र की लोक-संस्कृति का संग्रह किया जा सकता है। इसका एक मुख्य कारण है कि उपन्यास साहित्य का ऐसा रूप है जिसमें किसी क्षेत्र-विशेष की लोक-संस्कृति का समग्रता से परिचय मिलता है। साहित्य के माध्यम से उस प्रान्त की लोक-संस्कृति को अनेक रूपों में समझा जा सकता है। जैसा कि बुन्देलखण्ड पर आधारित साहित्य के इस मूल्यांकन से ज्ञात होता है साहित्य में किसी क्षेत्र की स्थापत्य-कला की विशेषताओं को सूक्ष्मता से समझने का अवसर मिलता है। साथ ही उस क्षेत्र के जनजीवन और भौगोलिक तथा ऐतिहासिक संरचना की विशिष्टता का भी ज्ञान होता है। ऐसे उपन्यासों में प्राकृतिक चित्रण तो मिलता ही है पर साथ ही आधुनिक विकास के उद्यमों से किसी क्षेत्र के भौगोलिक सौन्दर्य को पहुँचने वाले नुकसान को भी समझा जा सकता है। क्षेत्रीय उपन्यासों में जिन जनजातियों का उल्लेख मिलता है, उनके जीवन में समय के अन्तराल में होने वाले परिवर्तन के साक्ष्य भी मिलते हैं। इस प्रकार उपन्यास किसी क्षेत्र की लोक-संस्कृति के संग्रह का वह माध्यम है जिसमें वहाँ की संस्कृति के समग्र-रूप को समेटा जा सकता है क्योंकि साहित्य की सभी विधाओं में उपन्यास में ही किसी विषय को विस्तार मिलने की सम्भावना होती है।

 

 


[1] वर्मा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, 3.

[2] वर्मा, कचनार, 8.

[3] पुष्पा, बेतवा बहती रही, 15.

[4] वर्मा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, 59.

[5] वर्मा, कचनार, 45.

[6] पुष्पा, इदन्नमम, 174.

[7] उपरोक्त, 207.

[8] उपरोक्त22.

[9] उपरोक्त175.

[10] पुष्पा, बेतवा बहती रही, 6.

[11] पुष्पा, इदन्नमम, 132.

[12] वर्मा, कचनार, 6.

[13]पुष्पा, इदन्नमम, 268.

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

पुष्पा, मैत्रेयी. इदन्नम. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 2012.

पुष्पा, मैत्रेयी. बेतवा बहती रही. नई दिल्ली: किताबघर प्रकाशन, 2014.

वर्मा, वृन्दावनलाल. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई. झाँसी, दिल्ली: मयूर प्रकाशन, 1956. 

वर्मा, वृन्दावन्लाल. कचनारनई दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, 2016.