महात्मा गांधी का द्वितीय छत्तीसगढ़ प्रवास,

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Published on: 28 September 2018

आशीष सिंह

पत्रकार , लेखक एवं संपादक। छत्तीसगढ़ के इतिहास, साहित्य एवं संस्कृति में रूचि।

 

 महात्मा गाँधी का  दो बार  छत्तीसगढ़ आगमन हुआ पहली बार  दिसंबर सन १९२० में तथा दूसरी बार नवम्बर सन १९३३ में। पहला  प्रवास जल सत्याग्रह के सम्बन्ध में हुआ और दूसरी बार उनका प्रवास तिलक कोष एवं स्वराज कोष हेतु था।  

 

महात्मा गाँधी  के द्वितीय छत्तीसगढ़ प्रवास से सम्बंधित कुछ रोचक प्रसंग:

                           

तू तो बड़ा चतुर है!

 

नवम्बर 1933 में गांधीजी ने हरिजनोद्धार के लिए भारत भ्रमण की घोषणा की। देशव्यापी अभियान का श्रीगणेश उन्होंने छत्तीसगढ़ से किया। उनकी यात्रा दुर्ग नगर से प्रारंभ हुई थी। 22 नवम्बर को गांधीजी दुर्ग पहुंचे और घनश्याम सिंह गुप्त के अतिथि हुए। गुप्तजी आर्य समाजी थे, वे कांग्रेस के प्रभावशाली नेता थे। 31-7-1937 से 19-2-1952 तक वे सीपी-बरार विधानसभा के स्पीकर भी रहे। वे 1933 में दुर्ग नगर पालिका के अध्यक्ष भी बने थे। उन्होंने 1926 निगम द्वारा संचालित पाठशाला का गांधीजी को भ्रमण कराया। इस पाठशाला में विद्यार्थी बिना किसी भेदभाव के एक टाटपट्टी पर साथ बैठते थे। इससे गांधीजी को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। विद्यालय भ्रमण के बाद मोतीलाल बावली परिसर में शाम को एक विशाल सभा को गांधीजी ने संबोधित किया। उस जमाने में लाउडस्पीकर की व्यवस्था नहीं थी। लोगों तक आवाज पहुंचना तो संभव ही न था। गांधीजी कुर्सी पर बैठकर ही संबोधित करते थे, इसलिए एक ओर के श्रोता ही उन्हें देख पाते थे। गुप्तजी ने इसका उपाय ढूंढ निकाला। जैसे ही गांधीजी मंच पर बिराजे गुप्तजी ने उनसे कहा कि आप इस घूमने वाली कुर्सी पर बैठ जाएं कुर्सी को धीरे-धीरे चारों दिशाओं में गोल घुमाते जाएंगे, जिससे सभी लोग आपके दर्शन कर सकें। महात्माजी को यह उपाय पसंद आया। उन्होंने गुप्तजी से कहा था – ‘तू तो बड़ा चतुर निकला। ऐसा अब तक किसी ने नहीं किया था। अब दूसरी जगहों पर भी तेरी इस प्रणाली का उपयोग करने के लिए कहूंगा’। छत्तीसगढ़ में गांधीजी की सभा में रिवॉल्विंग चेयर का यह पहला प्रयोग था।

 

महात्मा गाँधी, दुर्ग ,२२ नवम्बर १९३३। फोटो सौजन्य -राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय , नई दिल्ली । 

 

गुप्तजी को एकाधिक बार गांधीजी के सान्निध्य का लाभ मिला था। एक प्रसंग वर्धा का है। निर्धारित समय पर गुप्तजी महात्माजी की कुटिया पहुंच गए, उस समय वे किसी बड़े यूरोपीय अधिकारी से चर्चा कर रहे थे। गांधीजी ने अपनी घड़ी देखी और अफसर से कहा कि अब आपसे थोड़ी देर के बाद बात होगी। जिन्हें मैंने अभी समय दिया था, वे आ चुके हैं। यह एक उदाहरण है जो गांधीजी की समय की पाबंदी को जाहिर करता है। इसी तरह हिंदी के प्रति भी गांधीजी कट्टर थे। एक मौके पर गांधीजी से गुप्तजी ने अंग्रेजी में बात शुरू कर दी। गांधीजी ने उन्हें तत्काल टोक दिया – ‘तू तो अच्छी हिन्दी जानता है, हिन्दी में बोल’। एक अन्य प्रसंग विधानसभा के नियम का है। स्पीकर गुप्तजी ने बिलासपुर के सदस्य बैरिस्टर ठाकुर छेदीलालजी को सदन में हिंदी में भाषण की अनुमति दी थी, जिसका अन्य सदस्यों ने विरोध किया। मगर गुप्तजी ने नियमों का हवाला देकर सदस्यों को संतुष्ट कर दिया। इस घटना को गांधीजी ने हरिजन में प्रकाशित कर ‘रिमार्केबल रूलिंग’ कहा था।

महात्मा गाँधी, दुर्ग ,२२ नवम्बर १९३३। फोटो सौजन्य -राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय , नई दिल्ली । 

 

महाकोशल में गांधी जी के दौरे की व्यवस्था का दायित्व व्योहार राजेंद्र सिंह और पं. रविशंकर शुक्ल पर था। दुर्ग में विशाल सभा को संबोधित कर गांधी जी उसी रात मोटर से रायपुर पहुंचे। रात नौ बजे आमापारा स्कूल (वर्तमान में आर.डी. तिवारी स्कूल) से जुलूस के रूप में वे बूढ़ापारा स्थिति पं. शुक्ल के निवास पहुंचे। भीड़ का अनुमान सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आमापारा से शुक्ल निवास पहुंचने में उन्हें करीब तीन घंटे से ज्यादा समय लग गया। कदम-कदम पर उनकी आरती उतारी गई, फूल मालाओं से महात्मा गांधी लद गए थे। सड़क के दोनों ओर पुष्प और तोरण की सजावट की गई थी और रास्ते भर दीपक जलाए गए थे। ऐसा ऐतिहासिक स्वागत हृदय सम्राट का ही हो सकता है। गांधीजी 28 नवंबर तक रायपुर में रहे। वे प्रात: अन्य शहरों का दौरा कर सभाएं लेते और रात्रि विश्राम के लिए लौट आते।

 

दीवार तोड़ निकले गांधी

 

23 नवंबर को विक्टोरिया गार्डन (मोती बाग) में संध्या चार बजे खादी और स्वदेशी प्रदर्शनी के लिए गांधीजी आए। यतिजी ने अपनी डायरी में लिखा – ‘इस अवसर पर एक लाख से अधिक भीड़ था। मानों रायपुर जिला ही उमड़ पड़ा था। जिधर देखो उधर नरमुंड ही नरमुंड दिखाई देते थे। भीड़ इतनी थी कि गांधीजी को दूसरे रास्ते से ले जाना पड़ा’। गांधी मीमांसा के लेखक पं. रामदयाल तिवारी भी वहां मौजूद थे। उन्होंने लिखा – ‘गांधीजी का स्वागत लोगों की श्रद्धा का भयंकर प्रदर्शन है। उनकी गाड़ी पहुंचते ही व्यवस्था का सारा बांध टूट गया। गांधीजी की गाड़ी लोगों के बवंडर में फंस गई। यदि वह काफ़ी मजबूत न होती तो लोगों की सम्मिलित शक्ति से दबकर चूर-चूर हो जाती’। सारांश यह कि गांधीजी का स्वागत समारोह इतना बेकाबू हो गया कि वह बड़ी मुश्किल से गुजरा।

 

प्रदर्शनी स्थल पर उमड़ा जन सैलाब और दुर्भाग्य से लाउडस्पीकर भी बिगड़ गया। वहां गांधीजी ने क्या कहा यह कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाया। प्रदर्शनी स्थल से बाहर जाने के लिए गार्डन की पिछली दीवार को तोड़ना पड़ा।

 

24 नवंबर को लॉरी स्कूल (वर्तमान में सप्रे स्कूल) में गांधीजी की सभा हुई तथा उनका अभिनन्दन किया गया। चांदी की मंजूषाओं में रखकर उन्हें मानपत्र भेंट किए गए। रजत मंजूषाओं को सभा स्थल में ही नीलाम कर दिया गया। प्राप्त राशि हरिजन-कोश में दी गई। वे मौदहापारा में आयोजित सभा में सम्मिलित हुए। उन्होंने सतनामी आश्रम और अनाथालय का दौरा भी किया। स्मरणीय है कि सतनामी आश्रम की स्थापना पं. सुंदरलाल शर्मा के प्रयासों से ही हुई थी। जब महात्माजी को इसकी जानकारी दी गई तो उनके मुख से निकले शब्द थे – ‘हरिजनों के उद्धार विषयक कार्य में पं. सुन्दरलाल शर्मा राजिमवाले मुझसे दो वर्ष बड़े हैं। जिन्होंने देश के इस महत्वपूर्ण कार्य को मेरे इस मिशन से पूर्व संपादित कर संचालित करने में एक आदर्श उपस्थित किया है’।

 

मैं तो बनिया हूं

 

सतनामी आश्रम के निरीक्षण के बाद गांधीजी नयापारा में कन्हैयालाल वर्मा के घर गए। वहां उन्होंने महिलाओं की सभा को संबोधित किया। भाषण के बाद उन्होंने हरिजन-फंड के लिए अपनी झोली फैला दी। महिलाओं ने उनकी झोली भर दी। जेठा बाई ने अपनी सोने की अंगूठी दान कर दी। गांधीजी ने कहा – ‘मैं तो बनिया हूं। इसे नीलाम करूंगा’। गांधी चौक की सभा में उसे 15 रुपए की अंगूठी की 500 रुपए की बोली में नीलाम हुई।

 

राष्ट्रीय दुर्गुणों से बचना

 

गांधीजी को भाषण देने राजकुमार कालेज आमंत्रित किया गया। प्रिंसिपल थे स्मिथ पीयर्स। गांधीजी ने कहा – ‘बच्चों अंग्रेजों के संपर्क में आकर उनके सद्गुण तो अवश्य लेना लेकिन मद्यपान और जुआ सरीखे उनके राष्ट्रीय दुर्गुणों से बचने के लिए प्रयत्नशील रहना’। राजकुमार कालेज में छत्तीसगढ़ की रियासतों के राजकुमार अध्ययन करते थे। गांधीजी को यह बात मालूम थी। उन्होंने अपने संबोधन में आगे कहा था – ‘बदकिस्मती से हम लोग सोचते हैं कि राजा तो राजा है साधारण जनता से उसका कोई संबंध नहीं हो सकता। इसलिए हम देखते हैं कि आप लोगों के लिए अलग से विद्यालय खोलना पड़ता है। आप लोगों में इतना साहस नहीं है कि आप लोग साधारण विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर सकें। छुआछूत की भावना कलंक है। ऐसी स्थिति में आपको प्रह्लाद के समान साहस से काम लेना होगा। कोई व्यक्ति जन्म से ही सवर्ण या अस्पृश्य हो जाता है यह विचार मेरी समझ से एकदम विपरीत है’। राजकुमार कालेज के प्राचार्य स्मिथ पीयर्स के दुस्साहस की शिकायत होम सेक्रेटरी से की गई।

 

धमतरी में गांधीजी

 

 महात्मा गाँधी, २२ नवम्बर १९३३। फोटो सौजन्य -राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय , नई दिल्ली । 

 

25 नवम्बर को प्रात: साढ़े दस बजे गांधीजी की सभा धमतरी में हुई। लोकल बोर्ड नगर निगम की ओर से उन्हें मानपत्र भेंट किया गया। गांधीजी ने सभा में ही मानपत्र को नीलाम कर दिया, 15 रुपए की बोली लगी थी। सभा के पश्चात् वे एक बजे वे नत्थूजी जगताप के घर गए, वहां उन्होंने दूध और मेवे ग्रहण किये। इस बीच पत्रों का पुलिंदा उनके पास पहुंच गया। उनके निर्देश पर उनके सचिव महादेव देसाई पत्रों का उत्तर देते। जगताप के घर से गांधीजी छोटेलाल श्रीवास्तव के घर पहुंचे। उनके घर के सामने महिलाओं की सभा हुई। सभा में गांधीजी छुआछूत और जाति-संप्रदाय के भेदभावों को समाप्त करने का आह्वान किया। सभा के बाद सतनामी समाज के मुखिया चरण के लाए भोजन में से फल ग्रहण किये। वे हरिजन मुहल्ले की स्वच्छता से बहुत प्रभावित हुए।

 

पोटली में हल्दी चावल

 

धमतरी से रायपुर समय मकईबंध चौक पर महात्मा गांधी की मोटर में एक पोटली आकर गिरी। गांधीजी के निर्देश पर पोटली खोली गई, उसमें एक हल्दी की गांठ, थोड़े पीले चावल, दो कौड़ियाँ, एक-आधा आने का सिक्का और कुछ फूल थे। गांधीजी के मुख से निकला - ‘यह किसी सच्चे गरीब की भेंट है’। पोटली की नीलामी 101 रुपये में नवापारा-राजिम की सभा में हुई थी।

 

बिलासपुर में गांधीजी

 

शबरी के राम

 

गांधीजी बिलासपुर के लिए कार से रवाना हुए। नांदघाट के पास एक वृद्धा फूलमाला लेकर उनकी गाड़ी के सामने खड़ी हो गई। गांधीजी निर्धारित कार्यक्रम के अलावा कहीं ठहरते नहीं थे। मगर 70-75 वर्ष की वृद्धा को देख उन्होंने कार रुकवाई, पूछा – ‘क्या बात है’? महिला ने कहा – ‘हरिजन महिला हूं, मरने से पहले एक बार गांधी के चरण धोकर फल-फूल चढ़ाना चाहती हूं’। गांधीजी ने हंसते हुए कहा – ‘उसके लिए तो एक रुपया लूंगा’। उस गरीब वृद्धा के पास कहां से आता एक रुपया? सन् 1933 में एक रुपया! महिला हताश हो गई। उसने कहा – ‘तैं इहें ठहर बाबा, मंय घर मं खोज के आवत हौं’। गांधीजी को और मज़ाक सूझा, उन्होंने कहा – ‘मेरे पास तो रुकने का समय नहीं है’। जवाब सुनकर महिला रुआंसी हो गई। इतने में ही गांधीजी ने अपना एक पांव आगे बढ़ा दिया। वृद्धा की साध पूरी हो गई।

 

रायपुर में बिलासपुर जाते हुए वे सिमगा और नांदघाट में थोड़ी देर के लिए ठहरे। 25 नवंबर की रात को ट्रेन से रायपुर लौट आए। 26 तारीख को सारागांव, खरोरा, पलारी, कनकी, बलोदाबाजार और सिमगा का दौरा गांधीजी ने किया। 27 नवंबर को वे डूमरतरई, माना, अभनपुर, भोथीडीह, मरौद, कुरूद होते धमतरी गए। गांधीजी भाठापारा और राजिम भी गए थे। 23 से 28 नवंबर तक धमतरी के डॉ. हजारीलाल जैन गांधीजी के सारथी थे। 28 नवंबर को सुबह आठ बजे वे ट्रेन से बालाघाट रवाना हो गए। उल्लेखनीय है कि हरिजन यात्रा के दौरान गांधीजी देश में इतने दिन और कहीं नहीं ठहरे थे।

 

24 नवम्बर को प्रात: आठ बजे गांधीजी बिलासपुर पहुंचे। भोर से ही नगर में भीड़ जुटनी शुरु हो गई थी। सात बजते-बजते तो लोगों की भीड़ जनसैलाब में तब्दील हो गई, मुख्य मार्ग पर तो चलने की भी जगह नहीं थी, चींटी की तरह गांधीजी की मोटर रेंग रही थी। लोग सिक्कों की बौछार कर रहे थे, जो गांधीजी को चोट भी पहुंचा रहे थे। भीड़ की संभावना तो थी ही लिहाजा स्वयंसेवकों का जत्था कार को घेरे हुए था। मगर लोगों का जोश और गांधीजी के चरण स्पर्श की अभिलाषा ऐसी थी कि लोगों के धक्कों और नाखूनों के आघात से कई स्वयं सेवक घायल हो गए। कार के आगे रास्ता साफ करते चल रहे यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव भीड़ की चपेट में ऐसे फंसे कि उनके पैर जमीन से उखड़ गए और वे इधर-उधर धक्के खाते सड़क से किनारे ही हो गए। गांधीजी के ठहरने की व्यवस्था स्वागताध्यक्ष कुंजबिहारीलाल अग्निहोत्री के निवास में थी। श्रीवास्तवजी पर गांधीजी की सभा की रिपोर्टिंग का दायित्व था। भोजन-विश्राम के बाद उन्हें महिलाओं की सभा के लिए जाना था। अग्निहोत्री जी के घर के सामने तो अथाह भीड़ थी, इसलिए पिछले दरवाजे से उन्हें जाना पड़ा। लेकिन लोगों को इसकी भनक लग गई। जैसे ही गांधीजी कार की ओर बढ़े, उनका एक पैर कार की पायदान पर था और दूसरा जमीन पर था तभी किसी ने उनका पैर पकड़ लिया। यह देख श्रीवास्तवजी ने बिना किसी संकोच के अपने पैर से उस व्यक्ति का हाथ दबा दिया। वे लिखते हैं – ‘काम क्रूरता का था, किंतु गांधीजी का पैर छूट गया’।

 

महिलाओं की सभा के बाद बिलासपुर में एक विराट सभा को संबोधित कर वे स्टेशन गए जहां से ट्रेन द्वारा वे रायपुर आए।

 

नापी को बुलाओ

 

धमतरी घटना की है। गांधीजी को हजामत बनवानी थी। मीराबेन ने डॉ. हजारीलाल जैन से कहा – ‘नापी बुला लाओ’। डॉ. जैन गांधीजी के साथ आए लोगों से पूछते रहे – ‘नापीजी कौन हैं? महात्माजी उन्हें बुलाते हैं’। किसी ने उन्हें बताया नापी नाई को कहते हैं। हजारीलाल दौड़े-दौड़े ब्राम्हणपारा पहुंचे और वहां से माखन को ले आए। माखन ने गांधीजी की हजामत बनाई। गांधीजी ने हजारीलाल से कहा – ‘सवा रुपया न्यौछावर दे दो’। इतना सुनते ही माखन महात्माजी के चरणों में गिर गया और कहा – ‘जेकर दरसन बर लाखों लोगन तरस रहिथें, तउन ल मैं आज छू लेंव, इही मोर न्योछावर हे’। तब गांधीजी ने कहा – ‘सवा रुपए की हरी घास किसी गाय को खिला दो’।

 

इसी तरह रायपुर के कुबेर को भी गांधीजी की हजामत करने का मौका मिला था। उसने भी न्यौछावर लेने से इंकार कर दिया, बल्कि वर्षों तक गांधीजी के केश उसने संभाल कर रखे भी थे।

 

लायसेंस जब्त

 

सभी की किस्मत माखन और कुबेर की तरह नहीं होती। 1920 में जब गांधीजी रायपुर आए तब धमतरी आने-जाने के लिए अब्बास भाई की मोटर गांधीजी की सवारी बनी। बस में गांधीजी और अन्य नेताओं को धमतरी जाना था। पुलिस ने ऐन वक्त पर बस के ड्राइवर को रोक लिया। ब्राह्मणपारा स्थित बाल समाज वाचनालय के सामने तमाम नेता बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। ड्राइवर के न आने पर अब्बास भाई ने स्टेयरिंग संभाला और गांधीजी को धमतरी ले कर गए। कुछ दिनों के बाद अब्बास भाई की रायपुर बस सर्विस का लायसेंस डिप्टी कमिश्नर सी.ए. क्लार्क ने रद्द कर दिया।

 

ताले का भय विफल

 

1933 में गांधीजी की सभा बिलासपुर में शनिचरी पड़ाव में शाम चार बजे हुई थी। रामशरण तंबोली उस समय 11वीं के छात्र थे और शासकीय हाईस्कूल के पीछे छात्रावास में रहते थे। सुबह से ही छात्रावास के मुख्यद्वार पर ताला लगा दिया गया और वार्डन तैनात हो गए। छात्रों के अनुनय-विनय और आक्रोश का प्राचार्य पर कोई असर नहीं हुआ। वे उल्टे छात्रों को धमकाने लगे और रेस्टीकेट करने की धमकी देने लगे। ये उपाय इसलिए किए गए थे ताकि छात्र गांधीजी के दर्शन न कर सकें और उनका भाषण न सुन सकें। सभा स्थल से स्टेशन के रास्ते पर छात्रावास स्थित है। छात्रों को छात्रावास के मैदान में, जहां से सड़क नजर आती है, वहां हॉकी खेलने की इजाजत मिल गई। गांधीजी का काफिला तेजी से गुजर गया। उनकी झलक भी छात्रों को नहीं मिल पाई। इस बीच मौका देख तंबोलीजी गेट फांद स्टेशन की ओर दौड़ पड़े... प्लेटफार्म पर ट्रेन खड़ी थी। दरवाजे पर गांधीजी झोली फैलाए खड़े थे। छात्र रामशरण को देखते ही गांधीजी ने संकेत किया, भीड़ ने रास्ता बना दिया। हांफते तंबोली गांधीजी के पास पहुंचे और उनकी झोली में दुअन्नी अर्पित की।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.