राजस्थान के भीलवाड़ा क्षेत्र में कपड़े की पृष्ठभूमि पर लोक देवता देवनारायण एवं पाबूजी आदि के जीवन पर आधारित एवं उनकी शौर्य गाथाओं पर बनाए जाने वाले पारम्परिक अनुष्ठानिक कुंडलित चित्र, पड़/फड़ चित्र कहलाते हैं। फड़ केवल एक चित्र भर नहीं माना जाता, यह अपने आप में देव स्वरूप है। इसलिए इसे बनाने वाले चित्रकार और बाँचने वाले भोपा, दोनों ही इसे पवित्र मानते हैं। भोपा पूरी फड़ को साक्षात् देवता मानते हैं, वे इसे प्रति दिन धूप-अगरबत्ती लगाते हैं और इसे घर में पवित्र स्थान पर रखते हैं। वे एक बार इसे खोलने के बाद बिना बाँचे बंद नहीं करते। फड़ के पुराने हो जाने पर उसे इधर-उधर नहीं फेंका जाता बल्कि पुष्कर ले जाकर पवित्र सरोवर में विसर्जित किया जाता है।
अधिकांश फड़ चित्रकारों का मानना है कि राजस्थान के भीलवाड़ा एवं शाहपुरा में बनाए जाने वाले फड़ चित्रों का इतिहास लगभग ६०० वर्ष पुराना है। वे मानते हैं कि यहाँ के छीपा चित्रकारों ने फड़ चित्रण के लिए मेवाड़ शैली के अंतर्गत एक विशिष्ट चित्रण शैली का विकास किया जिसे फड़ चित्र शैली के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ के छीपा चित्रकार अपने को जोशी कहते हैं, जिनकी अनेक पीढ़ियाँ यहाँ बीत गयी हैं। राजस्थान का छीपा समुदाय कपड़ा छपाई का कार्य करता है। जोशी फड़ चित्रकार मानते हैं कि वे छीपा समुदाय से हैं परन्तु उनके पूर्वज कपड़ा छपाई नहीं बल्कि चित्रित जन्मकुण्डलियाँ बनाते थे और दीवारों पर चित्रकारी करते थे। उनके एक समूह ने कालांतर में फड़ चित्रांकन आरम्भ किया।
आज जितने भी जोशी फड़ चित्रकार परिवार कार्यरत हैं वे सभी एक ही कुटुंब के सदस्य हैं। यह जोशी चित्रकार भीलवाड़ा से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित पुर गाँव के निवासी थे। उस समय इस गाँव को पुरमंडल कहते थे। इनके कुछ कुनबेदार आज भी इस गाँव में रहते हैं, इनकी कुलदेवी का स्थान भी यहीं है। वर्ष में एक बार एवं महत्वपूर्ण अवसरों पर अपनी कुलदेवी की पूजा हेतु यह सभी जोशी परिवार यहाँ आते रहते हैं। सन् २००० तक यहाँ गणेश जोशी नामक फड़ चित्रकार कार्यरत थे, अब उनके परिवार ने चित्रकारी बंद कर दी है। जोशी चित्रकार परिवारों में प्रचलित स्मृतियों के अनुसार पुर गाँव में दो जोशी चित्रकार भाई रहते थे, जब मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के समय में राजा सुजान सिंह द्वारा सन् १६३१ ईस्वी में शाहपुरा नगर बसाया गया उस समय, पुर गाँव से पाँचाजी जोशी नामक चित्रकार को शाहपुरा बुला लिया गया, तभी से शाहपुरा में फड़ चित्रकारी आरम्भ हुई।
यह कथाचित्र, पड़ अथवा फड़ चित्र कहलाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि फड़ एक अपभ्रंश है जिसका प्रादुर्भाव पढ़ शब्द से हुआ है जिसका तात्पर्य है पढ़ना। जब भोपा लोकगायक स्थानीय शौर्य गाथाओं पर आधारित इन चित्रों को प्रस्तुत करते हैं तब ऐसा लगता है कि वे इन चित्रों के माध्यम से उन शौर्य गाथाओं को पढ़ रहे हैं। परन्तु फड़ शब्द अधिक मान्य और आम प्रचलन में है। स्वयं भोपा भी इन चित्रों को फड़ ही कहते हैं।
कुछ लोग फड़ चित्रों को पटचित्रों से भी जोड़ कर देखते हैं, क्योंकि यह दोनों ही कपड़े की सतह पर चित्रित किये जाते हैं और इनका स्वरुप विवरणात्मक होता है। परन्तु पट, सूती कपड़े की दो सतहों को आपस में चिपका कर बनाया जाता है जबकि फड़ कपड़े की एक सतह से बनाई जाती है। पटचित्र ओडिशा की जगन्नाथ उपासना से सम्बद्ध होते हैं और फड़ चित्र राजस्थान के लोक देवताओं की शौर्य गाथाओं पर आधारित हैं।
फड़ चित्र किस प्रकार बनना आरम्भ हुए इस सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ फड़ चित्रकार मानते हैं कि प्राचीन काल में भोपा गायक राजस्थान में प्रचलित लोकदेवताओं की गाथाएं गा-गाकर सुनाया करते थे। उन्हें लगा की यदि इन कथाओं पर आधारित चित्र बनवाकर गायन के साथ प्रस्तुत किये जाएं तो प्रस्तुति अधिक प्रभावशाली बन पड़ेगी और यजमानों से अधिक धन-धान्य मिलेगा। अतः उन्होंने फड़ चित्रकारों के पूर्वजों से इन लोक कथाओं पर आधारित चित्र बनाने का आग्रह किया और इस प्रकार फड़ चित्र बनना आरम्भ हुए।
राजस्थान की लोक कथाओं के जानकार डॉक्टर महेंद्र भानावत द्वारा प्रस्तुत किंवदंती के अनुसार जब देवनारायण जी का जीवनकाल पूर्ण होने वाला था तब भक्तों ने आग्रह किया कि लोक छोड़ने से पहले वे अपनी छवि भक्तों के लिए स्मृति स्वरुप प्रदान कर जाएँ। इस आग्रह पर स्वयं देवनारायण ने छोचू भाट, जोकि उनके कुल का भाट था, से कहा कि तुम चतर छीपा के घर जाओ और उससे मेरी एक तस्वीर बनवाकर लाओ। भाट ने जाकर चतर छीपा को कहा कि वह उसे भगवान की तस्वीर बना दे, ‘तस्वीर कैसी बनेगी यह मैं बताता हूँ—उसमें चौबीस तो अवतार बनाओ और देवनारायण के कुल संबंधी, ज़मीन-आसमान में जितनी घटनाएं हुई हैं वह सब बनाओ’। चित्र पूरा होने पर भाट उसे लेकर देवनारायण के पास गया। चित्र देखकर भगवान बोले, ‘अरे भाट मैंने तो एक चित्र के लिए कहा था तू ये क्या फड़ की फड़ ले आया’। तभी से यह चित्र, फड़ चित्र कहलाये और इन्हें बनाने की परंपरा आरम्भ हुई।
राजस्थान में जो पारम्परिक फड़ चित्र बनाये जाते हैं वे निम्न प्रकार के हैं—
१. देवनारायण की फड़
देवनारायण, राजस्थान के पूज्यनीय लोक देवता हैं जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से उनके जीवन काल के सम्बन्ध में मतभेद है। कुछ विद्वान उनका जीवन काल विक्रम संवत् १२०० से १४०० के मध्य मानते हैं। फड़ चित्रों की दृष्टि से यह सबसे प्राचीन फड़ है तथा इसकी माप भी सबसे बड़ी होती है। इसकी लम्बाई २० हाथ से २५ हाथ तक होती है। इसमें देवनारायण (बगड़ावत) की कथा का चित्रांकन किया जाता है। इस फड़ की प्रस्तुति दो भोपा, जंतर वाद्य बजाते हुए करते हैं। यह भोपे गूजर, राजपूत तथा बलाई जाति के होते हैं। इस फड़ के यजमान गुज्जर समुदाय के लोग होते हैं।
२. पाबूजी की फड़
यह फड़, राजस्थान की सर्वाधिक लोकप्रिय फड़ है। इसकी लंबाई १५ से २० हाथ तक होती है। इसमें मारवाड़ के कोलू गांव में जन्मे पाबूजी की जीवनगाथा चित्रित की जाती है। लक्ष्मण का अवतार माने जाने वाले पाबूजी का जीवन काल विक्रम संवत् १३१३ से १३३७ का माना जाता है। इन्हें रबारी अथवा राइका ऊँट पालक समुदाय के लोग पूजते हैं। माना जाता है कि राजस्थान में सर्वप्रथम ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी को ही है। इस फड़ की प्रस्तुति भोपा एवं भोपी द्वारा रावणहत्था वाद्य बजाते हुए की जाती है।
३. गोगाजी की फड़
गोगाजी जिन्हें जाहर वीर गोगा भी कहा जाता है राजस्थान के लोकप्रिय लोक देवता हैं, इन्हें पीर के रूप में पूजा जाता है। इन्हे सर्पों का देव भी कहा जाता है क्योंकि ये सर्प दंश से रक्षा करते हैं। विश्वास किया जाता है कि इनका जन्म गुरु गोरखनाथ के आशिर्वाद से नवीं शताब्दी में हुआ था। इन्हें गायों की सेवा और रक्षा के लिए माना जाता है। राजस्थान एवं गुजरात के रबारी समुदाय में इनकी बहुत मान्यता है।
४. रामदेव की फड़
कहते हैं कि रामदेव की फड़ का प्रचलन पाबूजी की फड़ के बाद हुआ और यह पहले हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित हुई, वहाँ से यह मेवाड़ और मारवाड़ तक फैल गयी। रामदेव, राजस्थान के एक महत्वपूर्ण लोक देवता हैं जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है। इनका जीवनकाल सन् १३५२ से १३८५ तक माना जाता है। इनकी मान्यता यहाँ के मेघवाल समुदाय में बहुत अधिक है। यह फड़ चमार, बलाई, भांभी और ढ़ेड़ जाति के लोग बँचवाते हैं। यह फड़ भोपा-भोपिन दोनों मिलकर बाँचते हैं और साथ में रावणहत्था भी बजाया जाता है।
५. माताजी की फड़
इसे भैंसासुर की फड़ भी कहा जाता है। इस फड़ का प्रचलन वागरी समुदाय में है। इस फड़ का वाचन नहीं होता, इसे घर में रखा जाता है।
उपरोक्त फड़ों के अतिरिक्त रामदला एवं कृष्णदला की फड़ें भी बनाई जाती हैं। इन दोनों ही फड़ों का प्रचलन अधिक पुराना नहीं हैं।
भारत में कुंडलित कथाचित्र बनाने की अनेक समृद्ध परम्पराएं हैं, परन्तु फड़ चित्र उन सबसे इस अर्थ में भिन्न होते हैं कि इनमें कथानक अथवा घटनाओं का चित्रण क्रमशः एक के बाद एक नहीं किया जाता। चित्र में विभिन्न घटनाएं यहाँ-वहां बिखरी रहती हैं। इस कारण प्रदर्शन के समय पूरा चित्र एक साथ खोलना पड़ता है, उसे धीरे-धीरे क्रमशः नहीं खोला जा सकता। फड़ चित्रों का प्रारूप इस प्रकार निरूपित किया जाता है कि उसे देखकर दर्शक कथा का ठीक से अनुमान नहीं कर सकते। बिना भोपा द्वारा की गई विवेचना के पूर्ण चित्रित कथा का आनंद लेना संभव नहीं है। कथानक के चित्रण में इसी बिखराव के कारण भोपा-भोपिन को नृत्य अदायगी और भावाभिव्यक्ति का अवसर मिलता है।
फड़ चित्रकार मानते हैं कि फड़ के प्रारूप में स्थान विभाजन में घटनाओं के स्थानों को प्राथमिकता दी गयी है। जैसे पाबूजी की फड़ में अजमेर, पुष्कर, कोलूमण्ड, लंका, सोड़ा गाँव आदि स्थानों की एक निश्चित स्थिति होती है और वहाँ घटने वाली घटनाएँ इनके आस-पास चित्रित की जाती हैं। फड़ में इन घटनाओं का स्थान इतना रूढ़ होता है कि भोपा आँखें बंद करके भी उन्हें इंगित कर सकता है। फड़ में निरूपित चित्रों की प्रस्तुति और प्रतिकृति इस प्रकार संयोजित की गई होती है कि सम्पूर्ण फड़ ही एक रंगमंच का आभास देती है। चित्रों की रेखाएं, आकृतियों की चेष्टाएं, उनका रंग वैशिष्ट्य, उनका बाह्य परिवेश तथा सुसंगत वातावरण सब मिलकर एक नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं। भोपा-भोपिन द्वारा कथा की भावपूर्ण अदायगी और विवेचना दर्शक को समूची घटनाओं का जीवंत आभास करा देती है।
परम्परागत रूप से फड़ चित्रण के लिए हाथ से बुना मोटा कपड़ा, जिसे रेज़ा या रेज़ी भी कहा जाता था, प्रयुक्त किया जाता था। आजकल मिल का बुना पतला सूती कपड़ा, कोसा एवं सिल्क का कपड़ा भी प्रयोग में लाया जाने लगा है। सबसे पहले फड़ का आधार तैयार किया जाता है, इसके लिए कपड़े को वांछित माप में काट लिया जाता है। अब इसे बिछाकर इस पर चावल का माड़ लगाया जाता है। सूखने पर माड़ लगे कपड़े की सतह को चिकने पत्थर से घोंटा जाता है। घुटाई करने से माड़, कपड़े में बैठ जाता है। कपड़ा एकसार और चिकना हो जाता है, उसकी रंग पकड़ने की क्षमता बढ़ जाती है और रंग उसकी सतह पर फैलता नहीं है।
आजकल तो अधिकांशतः सजावटी फड़ चित्र बनाए जा रहे हैं जिनके चित्रण के लिए किसी पारम्परिक विधि-विधान का पालन नहीं करना पड़ता परन्तु अनुष्ठानिक फड़ बनाने के लिए एक निश्चित विधि-विधान है। कपड़े की सतह तैयार हो जाने पर चित्रकार द्वारा उस पर किसी कुंवारी कन्या से पीले कच्चे रंग से चित्रांकन की शुरुआत कराई जाती है। इसके बाद चित्रकार इसी रंग से फड़ का समूचा रेखांकन करता है। अब रेखांकित आकृतियों के चहरे और शरीर में केसरिया रंग भरा जाता है। इसके बाद आवश्यकतानुसार चित्र में क्रमशः पीला, हरा, कत्थई, नीला आदि रंग भर कर फड़ पूरी की जाती है। विभिन्न चरित्रों में रंगों का संयोजन पूर्णतः शास्त्रसम्मत होता है। देवी पात्रों के चेहरे नीले, देव पात्रों के चेहरे लाल, राक्षस एवं पिशाचों के चेहरे काले, सात्विक पात्रों के चेहरे सफेद-नीले बनाये जाते हैं। वैभवशाली, संपन्न और विलासी पात्रों में भी रंग विविधता रखी जाती है।
फड़ चित्रण की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न आकृतियों का निरूपण उनके महत्त्व के अनुसार किया जाता है। अधिक महत्त्व वाले चरित्र बड़े और प्रमुखता से तथा पूर्ण विवरणों सहित अंकित किये जाते हैं, जबकि सामान्य चरित्रों को छोटा रखा जाता है। जैसे पाबूजी की फड़ में पाबूजी, उनके सरदार और उनकी घोड़ी को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है, उन्हें आकार में बड़ा तथा ओजपूर्ण बनाया जाता है।
आजकल तो रेडीमेड रंगों एवं ब्रशों का प्रयोग भी होने लगा है परन्तु फड़ चित्रकार, परम्परागत रंग स्वयं ही अपने लिए तैयार करते थे। फड़ चित्रों में सात रंगों का प्रयोग किया जाता है। यह रंग प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त किये जाते हैं जैसे नारंगी रंग पेवड़ी या सिन्दूर से, पीला रंग हरताल से, हरा रंग जंगाल से, भूरा रंग गेरू या हिरमिच से, लाल रंग हिंगलू से, नीला रंग नील से और काला रंग काजल से बनाया जाता है। रंगों को पक्का करने के लिए उसमें खेजड़ी वृक्ष का गोंद मिलाया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोग कोई विशेष मनौती पूर्ण होने पर फड़ बँचवाते हैं। कभी-कभी किसी बड़े अनिष्ट की आशंका से बचने के लिए समूचे गाँव के लोग सामूहिक रूप से मनौती मानते हैं और उसके पूरा होने पर सब मिलकर फड़ बँचवाते हैं। जिस दिन फड़ बँचवानी होती है उस दिन का भोपा को न्यौता दिया जाता है। सगे सम्बन्धियों और पास-पड़ोसियों को न्यौता जाता है, छोटे गाँवों में तो समूचे गाँव को बुला लिया जाता है। फड़ सुनने आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आरती तथा अन्य महत्वपूर्ण प्रसंगों पर भोपा को पैसे भेंट देना अपना पवित्र कर्तव्य समझता है। इस पूरे आयोजन के दौरान लोग फड़ में पाबूजी का वास मानते हैं और बीच-बीच में हाथ जोड़कर उनका नमन करते रहते हैं। वर्षा ऋतु के चार महीनों में क्योंकि सभी देवता सो जाते हैं इसलिये इन महीनों में फड़ बँचवाना और बनाना बंद रखा जाता है, श्राद्ध पक्ष में भी फड़ नहीं बाँची जाती। भाद्रपद माह की नवमी-दशमी और चैत्र नवरात्री में फड़ अवश्य ही बँचवाई जाती है।
जहाँ फड़ बँचवानी होती है, वहाँ भोपा उसे दो बाँसों की सहायता से खड़ी कर फैला देता है। इसके बाद वह अगरबत्ती जलाता है, दीप प्रज्वलित करता है, गूगल धूप लगाता है और रावणहत्था बजाते हुए जिस देव की फड़ बाँचनी है उसकी आरती गाता है। इसके बाद देव से प्रार्थना करता है कि वे उसे शक्ति प्रदान करें जिससे वह फड़ को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके। भोपा अपनी पूरी होशियारी से फड़ बाँचता है, अपने गायन और नर्तन से श्रोताओं को रात भर अपनी ओर खींचे रखता है। वह सुबह होते-होते कथा समाप्त करता है। जब तक फड़ पूरी न बाँच ली जाए तब तक उसे समेटता नहीं है।
फड़ प्रस्तुति के दो प्रमुख अंग हैं—कथा वाचन और कथा गायन-नर्तन। यद्यपि मूल कथानक एक ही होता है पर प्रत्येक भोपा उसे अपने ढंग और निज कंठ के सुरीलेपन से विशिष्ट बना देता है। फड़ गायन में मुख्यतः कहरवा द्रुत लय, कहरवा अति विलम्बित लय, कहरवा-ताल मध्य लय और कहरवा मध्य लय का प्रयोग किया जाता है।
सामान्यतः फड़ राजस्थानी बोली में ही बाँची जाती है परन्तु इस पर आँचलिकता का भी प्रभाव रहता है। जैसे मेवाड़ क्षेत्र के भोपा की बोली पर मेवाड़ी और मारवाड़ क्षेत्र के भोपा पर मारवाड़ी बोली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
पाबूजी की फड़ बाँचने वाले भोपे नायक समुदाय के होते हैं। मान्यता है कि फड़ बाँचने का यह अधिकार उन्हें स्वयं पाबूजी द्वारा दिया गया है। किंवदंती के अनुसार पाबूजी के चाँदा और डेमा नामक दो बघेला सरदार थे। वे दोनों भाई थे जो ख़राब नक्षत्रों में जन्म लेने के कारण अभिशिप्त थे और इसी कारण उन्हें बाल्यावस्था में ही जंगल में फिंकवा दिया गया था। वहाँ उन्हें एक भीलनी ने पाल पोसकर बड़ा किया। कालांतर में इन्हीं चाँदा और डेमा के वंशज नायक कहलाए। भीलनी के यहाँ पाले जाने के कारण इन्हें भील भी कहा जाता है। पाबूजी की कथा के अनुसार पाबूजी के अधिकांश साथी नायक जाति के थे।
भोपा फड़ वाचन के समय रावणहत्था नामक वाद्य बजाता चलता है। यह सारंगी से मिलता-जुलता एक सरल वाद्य है, जिसे गज द्वारा बजाया जाता है। गज के दोनों सिरों पर घुंघरू बाँधे जाते हैं जो स्वर के साथ ताल देने का कार्य करते हैं। सुरीली आवाज़ के इस सरल वाद्य को भोपा स्वयं ही बना लेते हैं। डॉक्टर महेंद्र भानावत द्वारा प्रस्तुत किंवदंती के अनुसार रावणहत्था, रावण का प्रिय वाद्य था इसलिए इसका नाम रावण के नाम से जुड़ गया। वह अपने बीसों हाथों से इसे बजाया करता था। पाबूजी जब लंका गए तब उनके साथ गया रतना राइका वहां से यह वाद्य अपने साथ ले आया था। एक मान्यता यह भी है कि शिव भक्त रावण को जब अपनी साधना में सफलता नहीं मिली तब उसने अपने बांये हाथ की नसें निकालकर, हाथ को एक वाद्य का रूप दे दिया और उससे मधुर रागिनी निकाल कर शिव साधना करने लगा। चूंकि रावण का हाथ ही वाद्य बन गया था इसलिए इसे रावणहत्था के नाम से जाना गया।
वर्तमान में राजस्थान में फड़ चित्रकारी का कार्य भीलवाड़ा, शाहपुरा, कांकरौली (राजसमंद) और चित्तौड़ गढ़ में हो रहा है। परन्तु कांकरौली और चित्तौड़ गढ़ स्थानों पर कार्यरत जोशी फड़ चित्रकार भी शाहपुरा अथवा भीलवाड़ा से ही गए हैं।
शाहपुरा में शांति लाल जोशी, दुर्गेश जोशी और राजेंद्र जोशी के परिवार हैं, यह तीनों आपस में सगे भाई हैं। दुर्गेश जोशी और शांतिलाल जोशी को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। शांतिलाल जोशी के दो बेटे, विजय जोशी एवं अभिषेक जोशी भी इसी कार्य में लगे हैं।
भीलवाड़ा में श्रीलाल जोशी, नन्द किशोर जोशी, कन्हैयालाल जोशी और कैलाश जोशी, जो चारों सगे भाई हैं, के परिवार फड़ चित्रकारी करते हैं। श्रीलाल जोशी के दो बेटे कल्याण जोशी और गोपाल जोशी अच्छे चित्रकार हैं। श्रीलाल जोशी मूलतः शाहपुरा के हैं जो बाद में यहाँ आ बसे थे। नंदकिशोर जोशी के दो बेटों प्रकाश जोशी और मुकुट जोशी ने फड़ चित्रकारी में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। कन्हैया लाल जोशी के दो बेटे राजेश जोशी और मुकेश जोशी इसी क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। कैलाश जोशी का कोई बच्चा यह कार्य नहीं करता है। यहाँ दूसरा चित्रकार समूह, तीन सगे भाइयों—महावीर जोशी, जगदीश जोशी और सुरेश जोशी के परिवारों का है। इन तीनों भाइयों का कोई भी बच्चा चित्रकारी नहीं करता है। यहाँ एक अन्य चित्रकार घनश्याम जोशी भी फड़ चित्र बनाते हैं।
कांकरौली (राजसमंद) में छीतरमल जोशी फड़ चित्रकारी करते हैं। वे मूलतः भीलवाड़ा के हैं परन्तु कुछ वर्ष पहले अपनी ससुराल कांकरौली जाकर काम करने लगे हैं।
चित्तौड़ गढ़ में सत्यनारायण जोशी नाम के फड़ चित्रकार हैं। ये मूलतः भीलवाड़ा के हैं परन्तु तीन-चार पीढ़ियों पहले इनका परिवार चित्तौड़ गढ़ जा बसा था।
पिछले दो दशकों में फड़ चित्रों का स्वरुप और फड़ चित्रकार जोशी समाज बहुत बदल गया है। बदलते हुए आर्थिक-सामाजिक परिवेश में फड़ वाचक भोपा तथा परम्परागत फड़ श्रोता समाज भी काफ़ी हद तक प्रभावित हुए हैं। फड़ चित्रकारों के बच्चे शिक्षित होकर अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं। फड़ बँचवाने वाले समाज सिकुड़ रहे हैं। पारम्परिक फड़ चित्रों की माँग बहुत कम हो गयी है। अतः फड़ चित्र भी अब नए रूप में अपना अस्तित्व बना रहे हैं।
(यह आलेख फड़ चित्रकारों—प्रकाश जोशी, विजय जोशी, कल्याण जोशी एवं गोपाल जोशी से हुई चर्चा तथा डॉ. महेंद्र भानावत द्वारा लिखित पुस्तक—पड़ कांवड़ कलंगी से ली गई जानकारियों पर आधारित है।)