दिल्ली घराना: डा० मल्लिका बनर्जी की डा० कृष्णा बिष्ट के साथ बात-चीत
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दिल्ली घराना: डा० मल्लिका बनर्जी की डा० कृष्णा बिष्ट के साथ बात-चीत

in Interview
Published on: 09 February 2018
The history of the Delhi Gharana can be traced from the times of Amir Khusrau to the fall of Mughal rule. Dr Krishna Bisht, one of the foremost disciples of Ustad Chand Khan, shares its cultural evolution with her disciple Dr Mallika Banerjee (2014).

 डा० मल्लिका बनर्जीदीदी, सबसे पहले आज हम पूछेंगे कि दिल्ली घराने की उत्पत्ति कहाँ से हुई?

 

डा० कृष्णा बिष्टदिल्ली घराने की शुरुआत दो संगीतज्ञ भाई जो कि दिल्ली में रहते थे, हसन सावंत और बूला कलावंत द्वारा हुई। हसन सावंत सूफ़ी तबियत, धार्मिक प्रवृति के आदमी थे। इसलिए उन्होंने सूफ़ियों का संग किया और कव्वाली वगैरह जो धार्मिक संगीत है, उसमें उनकी रुचि थी। बूला कलावंत एक राज-दरबार में आसीन थे और वो राज-गायक ही रहे। कलावंत शब्द पहले नहीं इस्तेमाल होता था पर जब उन्होंने इस संगीत को अपनाया तब वो कलावंत कहलाने लगे और उनकी संताने भी कलावंत के नाम से जाने जानी लगीं।

 

 

मल्लिका: समय के अनुसार, ये किस सदी की बात है?

 

कृष्णा: ये बहुत पुरानी बात है। आप समझिये ये पहली सदी की बात है, बहुत ही पुरानी बात है। आगे चलकर मैं आपको बताऊँगी कि आज के तारीख़ में इसको जोड़ना बहुत मुश्किल है। मैं थोड़ा आगे बढ़ती हूँ। इन कलावंतों के परिवार में ही दो बहुत अच्छे गाने वाले कलाकार हुए हैं। एक का नाम था जमालुद्दीन तथा दूसरे का नाम कमालुद्दीन। जमालुद्दीन को उजाला के नाम से भी जाना जाता था और कमालुद्दीन को काला के नाम से। ये अपने आप में बड़े मज़े की बात है। अब ये उजाला और काला नाम क्यों है? उजाला को दिन के सारे रागों पर अधिकार था और काला को रात के सारे राग बड़ी सहजता से आते थे। इसलिए उन दोनों भाइयों का नाम उजाला और काला पड़ा और उनके असली नाम करीब-करीब लोग भूल ही गए। ये इस परिवार के बड़े प्रसिद्ध कलाकार हुए। इन कलाकारों की मैं कोई प्रमाणिक-ठोस तारीख नहीं बता सकती हूँ। इसलिए जब इनको हम आगे कि कड़ी से जोड़ते हैं तो वो टूटता चला जाता है। मैं समझती हूँ कि आज कि हमारी चर्चा ख़याल की दिल्ली घराने से है ना कि किसी अन्य विधाओं के ऊपर। उस समय तो ख़याल का इतना बोलबाला नहीं था, इसलिए ये स्वाभाविक है कि उस वक़्त अन्य विधाओं का गायन होता रहा होगा। ख़याल था, पर इतना ज्यादा लोकप्रिय नहीं था। जब सदानंद-अदानंद का आविर्भाव हुआ, उस समय से ख़याल की लोकप्रियता बहुत ज्यादा बढ़ गयी।  हर राग, हर शैली या हर विधा क्यों आगे बढती है या फिर क्यों प्रतिष्ठित होती है? इसलिए क्योंकि उनमें बंदिशें चाहियें। आज कितने ताल लुप्त हो गए इसलिए ही क्योंकि उनमें बंदिशें नहीं हैं। इसी तरह बंदिशों के अभाव में कितने ही राग लुप्त हो गए। जब सदानंद-अदानंद ने इतनी सारी बंदिशों की रचना की तो ख़याल लोकप्रिय होते चले गए। 

 

मैं मानती हूँ कि अठारहवीं सदी में धीरे-धीरे कर के ख़याल का स्वर्णिम युग शुरू हो गया। मैं ये नहीं कह रही कि उसके पहले ख़याल नहीं था। ख़याल तो शाहजहाँ के समय भी था। उनके काल में हमें ख़यालों के नाम मिलते हैं, इसका प्रमाण भी है। ख़याल किसी-किसी रूप में जरूर था पर आईने-अकबरी में कहीं भी ख़याल नहीं है। इसका मतलब कि उस वक़्त तक ख़याल उतना विकसित या प्रतिष्ठित नहीं हुआ था। अब आप देखिये कि सदानंद-अदानंद की बंदिशों की वजह से ये शैली इतनी लोकप्रिय हो गयी कि उसके बड़े-बड़े कलाकार हो गए और ये अलग-अलग शाखाओं में बढती चली गयी। ये जो अलग-अलग शाखाएं हैं, ये ही आगे चल कर घराने बन गए। ख़याल की इतनी प्रसिद्धि हुई कि ये धीरे-धीरे विभिन्न शैलियों में बंट गयी और आगे चलकर घरानों में बदल गयीं। घराना इस से ज्यादा पुराना नहीं हो सकता है क्योंकि घराना खयाल के साथ सम्बंधित है ना कि ध्रुपद के साथ। ध्रुपद की तो वाणियाँ होतीं थीं। उस से पहले संप्रदाय होते थे। दक्षिण भारत में आज भी संप्रदाय कहते हैं। इसलिए घरानों को उतना पीछे ले जाने से कोई लाभ नहीं है। मैं चाहूंगी कि अठारहवीं सदी में जब सदानंद की प्रसिद्धि हुई, उसी समय में मियाँ अचपल का जन्म हुआ। मियाँ अचपल का सम्बन्ध ख़याल के ख्वाल बच्चों से था। इनका सम्बन्ध ख़ुसरो परंपरा से भी था तथा सावंत परिवार से भी। लेकिन, मैं इस बात पर एक बार फिर से जोर देना चाहूंगी कि इसे मैं तिथि के अनुसार नहीं जोड़ सकती हूँ। मियाँ अचपल सूफी संगीत भी गाते थे, उनके पास संगीत का एक बड़ा ख़जाना था पर जब उनके समय में ख़याल की प्रसिद्धि हुई तो उन्होंने ख़याल को ही अपनाया। वह उत्तम ख़याल गायक थे एवं अच्छे वाक्यकार थे। उनकी कई रचनाओं का गायन आज भी सभी घरानों के कलाकारों के द्वारा किया जाता है। इसके अलावा वो एक महान गुरु थे। ये बहुत बड़ी बात है। ये देखा गया है कि जो गवैया होता है, उसके पास रचना के लिए समय नहीं होता है। जो रचनाकार होता है वो शिक्षा नहीं दे पाता है। मियाँ अचपल के अन्दर ये सारे ही गुण विद्यमान थे। इस लिए उनका नाम जब भी सारे घरानों के उस्ताद लेते हैं तो श्रद्धा से कान पकड़ते हैं। वैसे तो मियाँ अचपल का असली नाम क्या था ये कोई बताता नहीं है, पर मैंने कहीं पढ़ा है कि उनका असली नाम अजमल खां था। ये विलक्षण प्रतिभा के धनि थे। इनके शिष्यों में मियाँ तानरस खां हुए जिनको कि हम 'लीजेंडरी एक्स्पोनेंट ऑफ़ ख्याल' मानते हैं। तानरस खां साब दासना, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। उनके घर में पहले से ही संगीत का चलन था पर उन्होंने मियाँ अचपल खां से दिल्ली की गायकी की तालीम ली।

 

मियाँ अचपल सूफ़ी तबियत के आदमी थे। उन्हें पारिवारिक मोह में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए उनके परिवार में उनके किसी संतान की सूचना हमें नहीं मिलती है। मियाँ अचपल के भाई, गुलाम हुसैन खां के ऊपर परिवार निर्वाह करने का दायित्व गया। इन दोनों के सगे भाई होने कि वजह से मियाँ अचपल की वंश परंपरा इनके भाई के संतानों के मार्फ़त आगे बढ़ी। इस वंश परंपरा के बारे में विस्तार से बताने के पहले मैं समझती हूँ कि आपको कलावंतों के बारे में भी थोडा बता दूं। क्या आप जानना चाहेंगी?

 

 

मल्लिका: जी बिल्कुल।

 

कृष्णा: इस परिवार में मैंने आपको काला-उजाला के बारे में पहले ही बता दिया है। उनको मैं इस परिवार से आगे नहीं जोड़ पा रही हूँ। उनके बारे में मेरे पास कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं। इस परिवार में जिन प्रख्यात गायकों के बारे में मैं आपको बता सकती हूँ, जिनके प्रमाण इतिहास में मिल सकते हैं वो हैं इला और उमरा की जोड़ी। अब इनके कुछ नाम भी तो होंगे! क्या आप उनके नाम आदि के बारे में भी दिलचस्पी रखती हैं?

 

 

मल्लिका: जी। आप इला-उमरा से जुडी तमाम बातें बता सकतीं हैं।

 

कृष्णा: इला और उमरा के असली नाम अल्लाबख्श तथा उमरबख्श थे। लेकिन वो दोनों इला और उमरा के नाम से जाने जाते थे। 1748 में मोहम्मद शाह रंगीला का देहांत हुआ। उनकी मृत्यु के बात दिल्ली की राजनीति तथा स्थिति में काफ़ी उथल-पुथल हुआ और इसकी हालत बहुत खराब हो गयी। उस वक़्त ये दोनों महान ख़याल गायक बल्लभगढ़ चले गए। हालांकि, 1885 के गज़ेटियर, वॉल्यूम 2 के अनुसार बल्लभगढ़ उस समय दिल्ली का ही एक तहसील माना जाता था। जैसे मैं अपनी जानकारी से आपको बतलाती हूँ कि हमारे बचपन में हम शाहदरा को यु. पी. लिखते थे।  इसी तरह आज बल्लभगढ़ दिल्ली में नहीं आता है। इस तरह के बदलाव आते रहें हैं परन्तु ये सारे लोग दिल्ली के कलाकार हैं। इस तरह इला-उमरा जो कलावंत हैं ये भी दिल्ली के ही हुए। उमर खां के पुत्र हुए मोहम्मद बख्श और इनके पुत्र हुए अब्दुल गनी खां।

 

 

मल्लिका: आपका कहना ये है कि इला-उमरा के समय से दिल्ली के ये गायक बल्लभगढ़ के राजाश्रय में चले गए।

 

कृष्णा: हाँ और केवल वो ही नहीं यहाँ से सारे कलाकार भागे थे। मोहम्मद शाह बहुत बड़े आश्रय-दाता थे और उनके बाद यहाँ दिल्ली में कुछ रह नहीं गया था। कुछ समय तक ये उथल-पुथल चली फिर बहादुर शाह ज़फर के समय सब कुछ स्थिर हो गया। बहादुर शाह ज़फर के समकालीन हुए मियां अचबल। हालाँकि उनसे उम्र में बड़े थे। उम्र के 55-60 साल तक तो मियाँ अचपल का इंतकाल हो गया था। उनके बाद तानरस खां साब बहादुर शाह के गुरु बने। 

 

अब्दुल गनी खां साब का निकाह मियाँ अचपल के भाई ग़ुलाम हुसैन खां साब की बेटी से हुआ। इन्हें संगी खां साब भी कहा जाता था। इन निकाह के बाद दोनों परिवार एक हो गए। इनकी बेग़म का नाम गफूरन बेग़म था।गफूरन बेग़म के अलावा मियाँ अचपल के खानदान के अन्य पुत्र-पुत्रियों से संगी खां साब के परिवार के कई बेटों, भतीजों तथा अन्य रिश्तेदारों की शादियाँ हुई हैं। मैं एक-दो उदाहरण आपको दे देती हूँ। जैसे ग़ुलाम हुसैन साब के भाई नन्हें खां की बेटी अमीर बेग़म का निकाह संगी खां के बेटे मम्मन खां के साथ हुआ। ये वंश परंपरा तो पुत्र से चला न। ये एक ही परिवार है। अगर कहें कि ये मियाँ अचपल के परिवार से नहीं है तो ये कहना ग़लत होगा।

 

 

मल्लिका: यानी अचपल खां के भाई के वंशज से वंश चला।

 

कृष्णा: हाँ। जैसे पहले कहते थे कि ये ननिहाल से है। ये भी नहीं कह सकते कि ये ननिहाल से मियाँ अचपल से जुड़े हुए हैं और ददिहाल से कलावंतों से जुड़े हुए हैं। अगर विस्तार में इसे टटोला जाए तो आप पाएंगी कि पुत्र वंश से भी इनके यहाँ विवाह हुए हैं। जैसे मेरे उस्ताद चाँद खां साब को ही देखें तो इनका विवाह रमजानो बेग़म के साथ हुआ था। रमजानो बेग़म नन्हें खां की पोती थीं। इस तरह इस परिवार का ताना-बाना बुनता ही चला गया। इसलिए इसे एक परिवार कह सकते हैं। इनके परिवार में और भी बड़े-बड़े गवैये हुए हैं। अब मैं इनके शिष्य परंपरा पर आती हूँ।

 

मियाँ अचपल के परिवार के अन्य सदस्यों का जिक्र करना भी उचित होगा। जैसे, ग़ुलाम हुसैन खां साब के एक पुत्र थे दीदार खां। उनके वंशज में एक कलाकार हुए विलायत हुसैन खां देहलवी। विलायत हुसैन खां साब आगरे वाले घराने से हैं। ये उनसे अलग हैं। मैंने जहाँ तक सुना है इनकी मृत्यु पचास के दशक में हुई। ये भी ख़याल गाया करते थे पर इनकी पकड़ ध्रुपद पर भी मजबूत थी। इनका अच्छा नाम था। एक और नाम का जिक्र करना होगा यहाँ पर बीबन बेग़म का। ये गुलाम हुसैन खां साब कि सबसे छोटी बेटी थीं। गफूरन बेग़म तो बड़ी बेटी थीं। इनका विवाह मुज़फ्फर खां साब के साथ हुआ था। मुज़फ्फर खां साब ख़याल के बड़े उम्दा गायक हुए हैं। मुझे याद है कि मेरे बचपन में हमारे घर का माहौल भी संगीतमय था। हम लोग ख़याल सुना करते थे 78 आर.पी.एम. के रिकॉर्ड पर। वो जो रिकॉर्ड सुना मैंने मुज़फ्फर खां साब का, उसमें ऐसी तानों की झड़ी थी कि मैं अवाक् रह गयी। मैं उस वक़्त छोटी थी फिर भी समझ कम होने के बावजूद मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे।

 

 

मल्लिका: उनका आर.पी.एम. रिकॉर्ड था?

 

कृष्णा: हाँ। मुझे लगता है कि ढूँढने से शायद आप लोगों को मिल जाए। वो रिकॉर्ड बहुत सुन्दर और अच्छा था। छोटा ही था। जितना उसमें सकता था। उनके यहाँ सूफी भी चलता था और ख्वाल भी चलता था। जैसे हमारे यहाँ भी सूफी और ख़याल दोनों का चलन था पर हमारे गुरु चाँद खां साब दोनों में सिद्धहस्त होने के बावजूद ख़याल को अपने लिए चुना। बाद में इकबाल खां साब भी दोनों में माहिर थे। जैसे मियाँ अचपल सूफी और ख़याल सब में माहिर थे पर ख़याल गाते थे। उसी पंथ का अनुसरण करते हुए हमारे गुरु ने भी ख़याल ही चुना। उनके पिता ने उन्हें ठुमरी की तालीम भी दी थी। वो ठुमरी भी गाते थे लेकिन उन्होंने अपनी विशेषता के लिए ख़याल को ही चुना। मेरे पास उनके गए हुए ठुमरी के भी रिकॉर्डिंग है।

 

हम लोग मुज़फ्फर खां साब पर थे। मुज़फ्फर खां साब के बेटे, मुनव्वर खां ने भी ख़याल नहीं गया। अब थोड़े दिन गाए होंगे तो मैं नहीं कह सकती हूँ। उनके जो बेटे थे, मोहम्मद हयात साब जिनका अभी हाल ही में इंतकाल हुआ है उनकी पकड़ ख़याल पर बड़ी अच्छी थी। उनकी जो हरकत, ज्ञान, पकड़ और बंदिशें थीं उनका कोई जोड़ नहीं है। उनके बाद उनके परिवार में लोग ख्वाल में चले गए। केवल चाँद खां साब और उनके परिवार वाले ही अटूट रूप से ख़याल को ही गा रहें हैं।

 

 

मल्लिका: दीदी अभी तक आपने बताया कि मियाँ अचपल के भाई की वंशावली कैसे आगे बढ़ी। चूकि मियाँ अचपल इस घराने के प्रभात-पुरुष रहें हैं तो उनके कुछ ऐसे भी शिष्य रहें होंगे जिन्होंने सीधा मियाँ अचपल से ही सीखा होगा। उस परंपरा के बारे में कुछ बताएं।

 

कृष्णा: मियां अचपल के बहुत प्रभावशाली शिष्य रहें हैं तानरस खां। ये उत्तर प्रदेश के दासना निवासी थे। ये संगीतज्ञों के परिवार से ही थे। उनका असली नाम कुतबबख्श था। चूकि वो इतनी अच्छी तानें लेते थे कि उनका नाम तानरस खां पड़ गया। उनकी प्रतिभा अतुलनीय थी। आज तक उन जैसा तानों का धनी शायद ही कोई मिले। हम दिल्ली वाले जैसे मियाँ अचपल का ज़िक्र आता है तो कान पकड़ते हैं, वैसे ही तानरस खां का नाम आते ही श्रद्धा से कान पकड़ते हैं। अब जैसे 'मियाँ की तोड़ीकी बंदिश है 'अब मोहे नैय्या पार करो...', जिसे सभी घराने गाते हैं। इस हिसाब से मियाँ तानरस खां युगपुरुष हुए। ये स्वाभाविक है कि उनकी भी शिष्य-परंपरा हुई होगी, उनकी भी वंशावली चली होगी। उन्होंने मियाँ अचपल की परंपरा को और समृद्ध किया होगा। मेरे ज़ेहन में दो नाम हैं। एक उनके पुत्र उमरांव खां और दूसरे उनके पोते सरदार खां। ये दो नाम आप दिल्ली के संगीत जानकारों के सामने लेंगीं तो हर कोई उन्हें एक उम्दा कलाकार के रूप में ही स्वीकार करेगा। मियाँ अचपल का गायन इतना सशक्त था कि उनकी अगली दो पीढ़ी तक ये चली। लेकिन दुर्भाग्यवश मियाँ अचपल तथा मियाँ तानरस खां, दोनों के सम्बन्धियों ने बाद में क़व्वाली को चुना। मियाँ तानरस खां तो ग़दर के बाद हैदरबाद चले गए थे। उस शैली को भी उन्होंने बहुत ऊँचाइयाँ तक पहुँचाया। ऐसा नहीं है कि उसने कव्वालों की तरह गाया।

 

 

मल्लिका: ये कहना क्या उचित होगा कि हैदराबाद में भी जो कव्वालों की परंपरा है वो यहीं से गयी है?

 

कृष्णा: हाँ वो तो बहुत बड़े हुए। उन्होंने बहुत नाम रौशन किया है। बंटवारे के समय सन '47 में मियाँ अचपल के कुछ लोग पकिस्तान चले गए। मियाँ तानरस के परिवार के भी कुछ लोग पाकिस्तान चले गए। इसके अलावा दिल्ली घराने के भी कुछ कलाकार पाकिस्तान चले गए। लेकिन, उनसे बराबर हमारा सम्बन्ध रहा है।

 

 

मल्लिका: दीदी, अगर हम थोडा पीछे जाएँ तो ये पाते हैं कि सदानंद-अदानंद की वजह से ही ख़याल परंपरा फली-फूली। क्या ये कहना गलत होगा कि बाकी सारे घरानों ने दिल्ली घराने से ही ख़याल परंपरा को लिया है और बढ़ाया है?

 

कृष्णा: ऐसा कुछ लोग कहते तो हैं कि दिल्ली घराना सबसे पुराना है पर मैं इस विवाद को नहीं उठाना चाहती हूँ। बाकी सारे घराने भी काफी प्रतिष्ठित हैं। ऐसे देखा जाए तो तानरस खां के शिष्यों में फ़तेह अली खां थे पटियाले के, जिन्होंने अपने घराने के हिसाब से कुछ-कुछ परिवर्तन किये हैं। इसकी वजह से वो सुनने में दिल्ली घराने से थोडा अलग लगता है। जैसे आगरा घराना, आगरा घराना ध्रुपदियों का घराना था, ये लोग किस तरह से ख्वालिये बन गए। घग्गे खुदाबख्श का चलन वहीँ से शुरू हुआ है। उनकी तालीम हालांकि ग्वालियर में हुई है। इस तरह से सारे घराने एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

 

 

मल्लिका: यानी कि ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि कोई भी घराना खुद--खुद प्रचलित हुआ और फिर इसने खुद को स्थापित किया है।

 

कृष्णा: जिस समय की बात हम लोग कर रहें हैं, उस समय ख़याल एक बड़े वृक्ष की तरह बढ़ रहा था जिसकी शाखाएं-प्रशाखाएं बाद में विस्तृत होती चलीं गयीं। मैं आपको छपे हुए दस्तावेज़ दिखा सकती हूँ जिस में कहीं भी घराना शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। उनमें गायकों का जिक्र उनके स्टेट के हिसाब से किया गया है। आप चाहें तो मैं आपको लिखित दस्तावेज़ भी दे सकती हूँ।

 

 

मल्लिका: अब अगर लौटकर दिल्ली घराने पर आयें तो ये कह सकते हैं कि मियाँ अचपल और तानरस खां का घराना साथ-साथ पनपता रहा?

 

कृष्णा: मियाँ अचपल नहीं पर संगी खां साब कि जो वंशावली है वो लोग, अगर बीच का एक-डेढ़ पुश्त छोड़ दें तो आज तक ख़याल गाते चले रहें हैं। बीच में क़रीब एक-डेढ़ पुश्त उन लोगों ने ख़याल से दूरी बना ली थी क्योंकि घर से उनका कुछ विवाद हो गया था। उस बीच भी संगी खां साब गवैये रहे, ऐसा नहीं था कि उन्होंने गाना छोड़ दिया था। उन्होंने अपने पिता मोहम्मद बख्श खां साब से गाना सीखा था। वो बाद में अपने ससुराल चले आये। यहीं उनके पुत्र मम्मन खां साब का जन्म हुआ था। उसके बाद से ये लोग यहीं पर रहे। उन्होंने आगे चल कर उस्ताद चाँद खां के पिता, मम्मन खां साब को गाना तो सिखाया पर उनसे एक वादा ले लिया। उन्होंने कहा कि उसमें उनकी आन है। उनसे उन्होंने कहा कि मैं तुम्हे गाना तो सिखा दूंगा पर तुम्हे सारंगी ही बजानी पड़ेगी। यहाँ मैं एक बात जोड़ दूं कि उन्होंने सारंगी तो बजायी पर ऐसे बजायी कि आज तक हर सारंगी-वादक मम्मन खां साब का ही नाम लेता है। उन्होंने एक बड़ी सी सारंगी यंत्र का ईजाद किया। इसका नाम सुर-सागर दिया। इस में वीणा, सितार के गुण भी और सारंगी के भी हैं। इसे गत से बजाया जाता है। इन्होने बूंदू खां साब जैसे शिष्य तैयार किये जिन्हें सारंगी की दुनिया में 'लीजेंडमाना जाता है। आज भी आप किसी संगीतज्ञ के सामने अगर बूंदू खां साब का नाम ले लें तो वो श्रद्धा से अपने दोनों कान पकड़ लेंगे। आज का जो एकल सारंगी वादन है उसे बूंदू खां साब ने ही प्रतिष्ठित किया है। मम्मन खां साब और मेरे उस्ताद, ये दोनों ही पटियाला दरबार में मुलाज़िम थे। वो वहां राज-वादक थे। मैंने एक कांफ्रेंस की लिखित रिपोर्ट पढ़ी है जो कि करीब 1920 की है। मैं आपको जिस बात का भी जिक्र करूंगी उन सभी के दस्तावेज़ हैं। मैं ऐसे ही सुनी-सुनाई बातों जिक्र नहीं करूंगी। हाँ, तो उस रिपोर्ट में ये जिक्र है, मम्मन खां सेंट बाई महाराज ऑफ़ पटियाला; चाँद खां सेंट बाई महाराज ऑफ़ पटियाला इसका मतलब कि मम्मन खां साब भी सोलो परफॉरमेंस देते थे। बूंदू खां साब इनमें थोड़े और रीसेंट हो गए। बूंदू खां साब जुम्मन खां साब के भांजे थे। दिल्ली के अच्छे गवैयों में हमें कुछ और नाम सुनने को मिलते हैं, जैसेशागिर खां, मुराद खां, शब्भु खां, दिलावर खां और ग़ुलाम हुसैन खां के अनुयायी विलायत हुसैन खां देहलवी का नाम मैंने पहले ले लिया है।

 

 

मल्लिका: दीदी, अभी आपने बताया कि मियाँ अचपल खां साब और मियाँ तानरस खां साब के ढेरों शिष्य हुए जो कि कई जगह पर फ़ैल गए। लेकिन, आज दिल्ली घराना को केवल उस्ताद इकबाल खां साब से ही जोड़ कर देखा जाता है। ऐसा क्यों है?

 

कृष्णा: ये थोडा जटिल और कठिन प्रश्न  है, पर फिर भी मैं उत्तर देने कि कोशिश करती हूँ। जैसा मैंने शुरू में ही जिक्र किया था कि ख़याल का दिल्ली घराना। मियाँ अचपल अन्य विधाओं में भी पारंगत थे किन्तु वो केवल ख़याल ही गाते थे। इनके जो वंशज हैं, भले ही पुत्र वंशज हों या पुत्री वंशज, या फिर मियाँ तानरस खां साब के वंशज हों, इन सब लोगों ने कुछ ही वर्षों तक ख़याल को अपनाया है। इसके बाद क़व्वाली या अन्य विधाओं की तरफ मुड़ गए।

 

खलीफा इकबाल का सीधा सम्बन्ध मियाँ अचपल के परिवार से है। मियाँ अचबल ख़याल या इसके अंतर्गत जो विधाएं आतीं थीं जैसे चतुरानन वगैरह ही गाते थे। हालांकि उनकी पकड़ अमीर ख़ुसरो साब के समय से चली रही सूफ़ी बंदिशों पर भी उतनी ही मजबूत थी। इसका विवरण आपको चाँद खां साब की डायरी से मिल सकता है। चाँद खां साब भी इन सब के जानकार थे पर इन्हें कम ही गाते थे। उन्होंने हम लोगों को जरूर कुछ बंदिशें सिखायीं थीं, जैसे मैंने आप लोगों को सिखायीं हैं, पर उनका व्यवहार हमेशा ख़याल में ही रहा। इकबाल साब ने भी अपने शिष्यों को कुछ बंदिशें सिखायीं हैं पर जब मंच प्रदर्शन की बात आती है, वंशावली की बात आती है, तो वो ख़याल का ही व्यवहार करते हैं। आपको मैंने काला-उजाला से लेकर चाँद खां साब तक के बारे में बताया, ये सब लोग ख़यालिये थे। इनके घर में जितने भी अच्छे गायक हुए सब के सब ख़यालिये ही हुए। केवल बीच में डेढ़ पुश्त इन्होने ख़याल छोड़ा। अब्दुल गनी साब ने घर में विवाद के कारण छोड़ा और वो दिल्ली गए। कुछ साल उन्होंने गाना ही नहीं गाया और फिर मम्मन खां साब ने सारंगी को अपनाया। उसके बाद फिर से ख़याल शुरू हुआ। उसके बाद उस्ताद चाँद खां साब ने दिल्ली घराने में ख़याल गायकी को फिर से प्रतिष्ठित किया। इस ख़याल गायकी में सबसे पहले तो मैं नाम लेना चाहूंगी उस्ताद रमज़ान खां साब का। ये उस्ताद चाँद खां साब के चचेरे भाई थे। इनके वालिद शुभ्रा खां थे। रमज़ान खां साब बंटवारे के दौरान पाकिस्तान चले गए थे। वहां उन्हें सबसे बड़े पुरस्कार से समानित किया गया। मेरे पास उनकी वृद्धावस्था के कुछ रिकॉर्ड हैं, वो मैं आप लोगों को सुनाउंगी। मैंने पहले सारंगी वादक के रूप में बूंदू खां साब का जिक्र किया है। इनके जो पुत्र थे उमरांव बूंदू खां, वो एक श्रेष्ठ गायक तथा सारंगी वादक दोनों हुए। इनके भी कुछ रिकॉर्ड हमारे पास उपलब्ध हैं, वो भी मैं आप लोगों को सुनाउंगी। इनका जो गायन सुनता था वो इन्हें गायक समझता था और जो इन्हें सारंगी वादन करते थे सुनता था वो इन्हें सारंग समझता था। दोनों ही विधाओं में ये निपुण थे। बूंदू खां साब ने मम्मन खां साब से और उमरांव बूंदू खां साब ने उस्ताद चाँद खां साब से गायन की तालीम पायी थी।

 

 

मल्लिका: बूंदू खां साब क्या बाद में पाकिस्तान चले गए?

 

कृष्णा: जी। जब लड़ाई छिड़ गयी तो उमरांव बूंदू खां साब पाकिस्तान चले गए। जानकार बताते हैं कि बूंदू खां साब को उमरांव साब हद से ज्यादा अज़ीज थे। जब वो बड़े हो गए थे तब भी वो उन्हें पीठ पर लाड कर घुमते थे। इसलिए फिर उनके पीछे-पीछे बूंदू खां साब भी चले गए। सरकार ने उन्हें वापस लाने कि बहुत कोशिश की और उनकी भी इच्छा थी यहाँ आने की पर ये हो नहीं पाया। खैर, ये तो दूसरी ही कड़ी है।

 

 

मल्लिका: अच्छा तो उनका परिवार जो वहां चला गया तो अभी भी उनके लोग गायन करते हैं?

 

कृष्णा: उमरांव बूंदू खां साब के साथ-साथ बुलंद इक़बाल कर के उनके एक और बेटे थे। ये ज्यादातर पकिस्तान रेडियो के साथ कम्पोजिंग में रहे। इनके बाद मुझे नहीं लगता कि कोई और भी है जो इतना अच्छा गायन करता है। इसका कारण है कि पाकिस्तान में गाने के लिए इस तरह से कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है। एक और हुए हैं, अमीर अहमद। उनकी रिकॉर्डिंग भी है मेरे पास। उन्हें मैंने बुलाया था अपने फैकल्टी में भी। ये भी मियां अचपल के वंशज ही हैं। उस परिवार से जुड़े हुए हैं।

 

अब हम लौटते हैं इंडिया में। उस्ताद चाँद खां साब के बड़े भतीजे थे उस्ताद हिलाल अहमद खां साब। इनका ज्यादा नाम नहीं हो पाया पर ये बहुत बढ़िया गाते थे। ये दिल्ली रेडियो ब्रॉडकास्ट के साथ जुड़े थे। (मल्लिका: इनकी मृत्यु भी जल्दी हो गयी थी)—नहीं मृत्यु तो जल्दी नहीं हुई थी, ये अस्वस्थ हो गए थे। इसके अलावा नसीर अहमद खां साब तान सम्राट। आप अभी भी कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक, कहीं भी उनका नाम ले लीजिये, लोग कहेंगे, 'नसीर साब ग्रेट!' कलकत्ते में तो लोग उनको छोड़ते ही नहीं थे। उनसे मैंने कुछ तानें लीं हुईं हैं। उनकी तानें ऐसी जातीं थीं कि पीछे बैठे हुए लोग कुर्सी पर खड़े हो कर देखते थे कि यही इंसान तान ले रहा है या कोई और ले रहा है। इस तरह का जलवा था उनका। दिल्ली का ओहदा उन्होंने जो उठाया है अलग-अलग कांफ्रेंस में जाकर, उतना किसी और ने नहीं किया है। उस वक़्त दिल्ली में कोई और इतना बड़ा गवैया नहीं था। इनकी मृत्यु काफी जल्दी हो गयी थी। ये दो बड़े कलाकार हो गए दिल्ली से। उस के अलावा कुछ लोगों ने इन के यहाँ सितार और वायलिन को भी अपनाया। सितार की भी तीन पीढ़ी हो गयी। उस्ताद ज़फर अहमद खां (अहमद खां साब के छोटे भाई), सईद ज़फर और फिर उनके बेटे, ये तीसरी पीढ़ी चल रही है। यहाँ हम गाने पर ही बात कर रहें हैंख़याल राग के ऊपर। नसीर अहमद खां साब के बाद हमारे आज के खलीफ़ा उस्ताद इक्बाद अहमद खां आते हैं, जिन्हें  उस्ताद चाँद खां साब ने गोद लिया था। उस्ताद चाँद खां साब के दो बेटे हुए जिनका इंतकाल बहुत कम उम्र में हो गया। इसके बाद उन्हें तीन बेटियाँ हुईं। इनकी शादी उनकी भतीजे से हुई। इकबाल के पिताजी उस्ताद चाँद खां सब के भतीजे भी थे और दामाद भी। इस तरह से उस्ताद इकबाल अहमद को गोद ले लिया गया। वो हमारे खलीफ़ा हुए। उन्हें घराने की साड़ी चीज़ें याद हैं। ख़याल तो खैर है ही उन्हें सूफी भी याद है। मैं इस दिल्ली घराने को मियाँ अचपल का घराना इस लिए भी मानती हूँ क्योंकि एक तो सीधा सम्बन्ध है। उनका रिश्ता है इस से। इसके बाद उनकी जो ख़याल गायकी थी वही अपनाया गया है दिल्ली घराने के द्वारा। तीसरी बात ये है कि सिर्फ बीच में डेढ़ पुश्त छोड़कर पीढ़ी दर पीढ़ी लोग ख़याल गाते ही चले  रहें हैं। बीच में किसी ने क़व्वाली  नहीं गाई। हमारे यहाँ जिस रचना से शिक्षा आरम्भ होती है—'गुरु बिन कैसे गुण गावे'ये मियाँ अचपल की रचना है। जब भी दिल्ली घराने में कोई शिक्षा शुरू होती है तो इसी बंदिश से शुरू होती है।

 

अब ये बात और है कि जब कोई नदी पहाड़ से चलती है तो कभी चौड़ी हो जाती है तो कभी पतली हो जाती है पर वो चलती रहती है। इसी तरह दिल्ली घराना मियाँ अचपल के समय से शुरू हो कर कभी चौड़ी होती हुई तो कभी पतली होती हुई आज भी चल रही है। आज तक अक्षुण्ण है।

 

 

मल्लिका: दीदी आप बात कर रहीं थीं कि पाकिस्तान काफी लोग चले गए तो क्या अभी भी उन लोगों में सो कोई बाकी है?

 

कृष्णा: आमिर हमद खां को मैंने एक प्रतिनिधि के तौर पर बुलाया था। उनके बाद कोई और है अभी, ऐसा मुझे नहीं लगता है। वैसे हैं तो बहुत लोग, शिष्य परंपरा के भी हैं पर वो किस स्तर का गाना गा रहें हैं ये मैं नहीं कह सकती हूँ। एक और नाम मैंने हाल ही में टीवी के माध्यम से सुना हैनसीरुद्दीन सामी का। वो अपने आप को दिल्ली घराने का बताते हैं। ये बड़ी प्रसन्नता की बात है कि दिल्ली घराना का आज भी कोई पाकिस्तान में पनप रहा है। वहाँ ख़याल का उस कदर कोई चलन तो है नहीं। मुझे लगता है ये तानरस खां साब के परिवार से होंगे या किसी और परिवार के माध्यम से जरूर दिल्ली घराने से जुड़े हुए होंगे।

 

 

मल्लिका: दीदी अब आते हैं गायकी पर। घराने की गायकी के बारे में आप कुछ बताइए।

 

कृष्णा: आवाज़ का जो धर्म है यानी जो उसका मुख-विलास है, उसके ऊपर सारे घरानों का दारोमदार है।

 

 

मल्लिका: दीदी इस मुख-विलास शब्द को थोडा समझा दीजिये।

 

कृष्णा: मुख-विलास के अलग-अलग मायने अलग लोग बतलाते हैं। मेरे हिसाब से मुख-विलास का अर्थ मुंह खोलने की तमीज के बारे में है। आपको किस तरह से मुंह खोलना है, कितना खोलना है, ये गुरु सिखाते हैं। आपको 'अ' कर के खोलना है या 'आ' कर के खोलना है, इस तरह की बातें। ऐसा कह सकते हैं कि उच्चारण किस तरह से करना है, ये सिखलाते हैं। हर घराने में उच्चारण का बड़ा महत्व है। कुछ लोग बड़े जोर-शोर से उच्चारण करते हैं तो कुछ लोग बड़े प्यार से उच्चारण करते हैं। सब ठीक है अपने-अपने जगह पर। कोई कुश्ती लड़ना तो है नहीं (मल्लिका: बिल्कुल, ये अलग-अलग रंग हैं) जी। ख़याल है कर के शब्दों का हथौड़ा चलाने की जरूरत तो है नहीं। शब्दों को थोडा प्यार से ही बोला जाए तो ज्यादा अच्छा लगता है। हमारे घराने में ख़याल के विभिन्न अंगों को विस्तार दिया जाता है। कोई कहता है कि उनका घराना अष्टांग प्रधान है, किसी का ताल-प्रधान है तो किसी का अलाप प्रधान है। मैंने भी अपने उस्ताद से शुरुआत में आलाप कि शिक्षा ली है। आप कह सकती हैं कि प्रारंभिक ख़याल में आलाप का भी महत्व है। ध्रुपद के प्रारंभ में तो आलाप ही सब कुछ है। थोडा सा आलाप करके आप को ये तो मालूम चलना चाहिए ना कि आप कौनसा राग गा रहें हैं। उसके बाद विलंबित ख़याल है।

 

विलंबित ख़याल में पहले स्थायी भरते हैं। देखो मैंने स्थायी गाते हैं नहीं कहा, स्थायी भरते हैं कहा। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि स्थायी का अर्थ स्थायित्व से है। स्थायी यानी जो पहला भाव है उसे हम जमाते हैं पहले। स्थायित्व को प्रमाणित और प्रकाशित करते हैं। इसलिए हम लोग दो बार स्थायित्वा गाते हैं। इसे हम लोग अदल-बदल कर भी गा लेते हैं। ध्रुव का अर्थ भी वही है, स्थायी। इसलिए हम लोग शुरुआत ध्रुवत्व या स्थायित्व से करते हैं। पहले हम स्थायी भर लेते हैं फिर उसके बाद विस्तार शुरू करते हैं। एक बात जो दिल्ली घराने में फर्क है, जो कि किराना या इंदौर से अलग है, कि अगर किसी राग में ऊपर का सुर भी लगाने की जरूरत पड़े तो उसकी हमें इजाज़त है। अगर हम गंधार की आलाप कर रहें हैं और उसमें मा या पा की जरूरत है तो हम उस में लगायेंगे। पूरे स्थायी का आलाप हो जाने के बाद हम अंतरे में जायेंगे। अंतरे के और स्थायी के आलाप के विस्तार में अन्तर को समझना चाहिए। लोग समझते हैं कि जो स्थायी में विस्तार किया अगर उसी का तार सप्तक में विस्तार कर दें तो ये अंतरे का विस्तार हो जाएगा, ऐसा नहीं है। उसके भी कुछ नियम होते हैं। आप को हम लोग सुनवायेंगे। इस के बाद अंतरे में जितना ऊपर तक विस्तार करना है वो करके पुनः स्थायी में लौट आते हैं। राग एक दूसरे से कैसे अलग होते हैं? राग एक दूसरे से अलंकरण की वजह से अलग होते हैं। आप किस राग में कैसा अलंकार उपयोग में लाते हैं, इस से ही रागों में अंतर आता है। इसलिए खटका हो या गमक हो, कुछ भी हो उन्हें उचित स्थान पर प्रयोग करना चाहिए।

 

इसके बाद हम विलंबित में लय को थोडा सा बढ़ा देते हैं। हम बोल और तालों की लड़ियों को एक गुच्छे में पिरोकर बहलावा के शक्ल में तालों का आनंद लेने की कवायद में ढालते हैं। दिल्ली घराने में तिहाई का बहुत प्रयोग होता है। दूसरे घरानों में भी है पर हम इसका ज्यादा प्रयोग करते हैं। हम लोग जब सीखते थे तो खां साब इस बात पर बराबर जोर देते थे कि शब्द पूरे उच्चारित किये जाएँ। कुछ लोग 'मोरा घर आयोमें मोरा को 'मो-मो-मो' में तोड़ देते हैं या फिर घर को '--घ' में। खां साब कहते थे कि ये शब्दों का दुरुपयोग है। इंस्ट्रूमेंट में शब्द नहीं होते हैं। वो तो पूरा ही लेती है। इसलिए आपको भी शब्दों को तोड़-मरोड़ कर नहीं पेश करना चाहिए। एक बंदिश है मालकौंस में , 'पग ला गंदे' अब ये तो गाली हो गयी। 'पगला-पगला' करते रही फिर 'गंदे-गंदे' करते रहो। ये भेद हमें सिखाया गया है। आप शब्द का किस तरह से इस्तेमाल करते हैं ये जरूरी है। तिहाईयाँ केवल यही नहीं हैं इसका भी ख़याल रखना है। इसके बाद तानों पर आते हैं।

 

 

मल्लिका: दीदी यहाँ बस एक चीज़ टोक रहीं हूँ। हमारे यहाँ आमद भी कुछ खासियत रखता है।

 

कृष्णा: बड़ी अच्छी बात उठायी आपने। विलंबित में आलाप कि आमद? आमद माने सम पे आना। विलंबित में जो आलाप के हैं और तान के हैं, दोनों में अंतर है। मुझे अभी भी याद है कि विलंबित में कभी-कभी मैं धीरे-धीरे सम पे जाती थी तो खां साब कहते थे कि, 'एक तरफ़ तुम आलापों की झड़ियाँ लगा रही हो और दूसरी तरफ़ तुम इतनी सुस्त तान दे रही हो। दोनों में मेल होना चाहिए, है !' ये तो नहीं हो सकता है कि खूबसूरत साड़ी पहन कर बाथरूम चप्पल पहन लें। एक बैलेंस होना चाहिए। बैलेंस कैसे होगा? यही तालीम है। हम लोगों को इसके लिए कोई पेंसिल या पेपर ले जाने की अनुमति नहीं थी। कुछ भी नहीं। बस सुन कर और रियाज़ से पक्का करना होता था। इस से क्या फायदा हुआ कि आज भी आप यदि कुछ मुझसे पूछेंगी तो मुझे सब याद है। मैं आप को अपने यादों के सहारे सब बता सकती हूँ।

 

 

मल्लिका: दीदी जैसे हम जब हम एक-एक स्वर से आगे बढ़ते हैं तो मुखड़े का न्यास भी उसी स्वर का आभास देने लगता है। एक ये भी बात हमारे घराने में मैं ख़ास समझती हूँ।

 

कृष्णा: बिल्कुल। ये बात आपकी सही है। अक्सर हम मुखड़े को बदल कर उसी स्वर  में डाल देते हैं जिस स्वर का विस्तार हो रहा है। 

 

 

मल्लिका: जैसे दीदी सम पर ज़ोर देने के लिए मैंने और बाकी लोगों ने भी आप से बहुत डांट सुना है। आप कहती थीं कि खां सब कहते थे इसे दंगालिया गायकी बनाने कि जरूरत नहीं है।

 

कृष्णा: हाँ, उनका कहना था कि ये गाना है, कोई कुश्ती का अखाड़ा थोड़े ही है।

 

 

मल्लिका: आप हमारे घराने में देखेंगे कि सम पर भी हम अपनी नाजुकता बनाए रखते हैं जबकि कई जगह आप को ये देखने को मिलेगा कि सम पर आते ही गायक भी और तबलची भी दोनों पूरे ज़ोर में जाते हैं। अगर गवैया अपना ज़ोर दिखाता है तो तबलची और ज़ोर से थाप देकर उसे चुनौती देता है। ऐसा लगता है मानो प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन ज्यादा ज़ोर लगा सकता है।

 

कृष्णा: संगतिया को सजाना और संवारना का मेल समझना चाहिए। ये दो शब्द हैं सजाना और संवारना। एक जना अगर सजा रहा है तो दूसरे को संवारना चाहिए। आपस में मेल-जोल करके ही आप निखार ला सकते हैं। ये संगत है , यहाँ साथ का महत्व है। अच्छा एक बात और जब हम विलंबित के मुखड़े पर आते हैं तो वो सपाट तान से आते हैं। मैंने आप लोगों को बताया है ये कि जो उसका एंडिंग तान है वो सपाट तान से आते हैं। ये मुखड़े के ठीक पहले कि बात है। ये तिहाई कि सपाट भी हो सकती या अन्य सपाट भी हो सकती है। ये जो छोटा ख़याल है उसमें हम लोग शुरुआत में बोल-बनाव करते हैं। माने पहला लाइन लेने के बाद उसमें तरह-तरह के वेरिएशन करते हैं। उसे अलग-अलग तरह से प्रयोग कर के देखते हैं, उसे सजाते हैं विभिन्न तरीके से। लेकिन, ये जो सजाना है और ठुमरी का जो सजाना है, बोल-बनाव में, दोनों में बहुत अंतर है। इसका फर्क आपको इलस्ट्रेशन में सुनाई देगा। उसके बाद बंदिश गाई जाती है। कुछ लयकारी गाई जाती है और आजकल सदम भी गाई जाती है। इसकी शुरुआत खां साब से हुई। उसके पहले हमारे घराने में सदम नहीं गाई जाती थी। लय बिना बढाए चौगुन की ताल होती है। लय वही रहती है, उसमें आप चौगुन, अठगुण कुछ भी ले सकते हैं। बाद में अंतिम चरण में लय बढ़ा कर तानें लेते हैं। इस प्रकार से दिल्ली की गायकी चली रही है। एक ही घर में हर व्यक्ति की आवाज़ में अंतर होता है, उसी प्रकार गायकी में भी अंतर हो जाता है। जैसे उस्ताद हिलाल अहमद खां थे, उनकी आवाज़ थोड़ी भारी थी तो वो आलाप ज्यादा पसंद करते थे, गमक के तान ज्यादा पसंद करते थे। उनकी गायकी नसीर अहमद खां साब की गायकी से थोड़ी अलग थी। नसीर अहमद खां साब की आवाज़ थोड़ी तरल प्रकृति की थी, मीठी थी। उस हिसाब से उन्होंने अपने गानों में हरकत ज्यादा बढ़ा लिए थे और तानें तो खैर क्या ही कहना!

 

 

. गोपालकृष्णन: यहाँ एक बात का उल्लेख जरूरी है कि इन लोगों के कमर्शियल क्षेत्र में घुसने का एक बड़ा कारण ये था कि इनकी गायकी के सारे परफॉरमेंस सरकार द्वारा रिकॉर्ड किये जाते थे और वो उन्हीं के पास रखे रह जाते थे। उस से इन्हें कोई फायदा नहीं पहुँचता था। जैसे आज मैं किसी भी गायक को सुन सकता हूँ, सब के रिकॉर्डिंग हर जगह सुलभ हैं पर अगर मैं चाँद खां साब को सुनना चाहूँ तो वो मुमकिन नहीं है क्योंकि उनकी सारी परफॉरमेंस की रिकॉर्डिंग सरकार के पास है। ये एक बड़ी वजह बनी ऐसे गायकों द्वारा कमर्शियल गायकी की तरफ मुड़ने की।

 

मल्लिका: इसी बात में मैं इनकी विनम्रता का जिक्र भी करना चाहूंगी। अभी मैंने ये देखा है कि इन्हें इनके परफॉरमेंस के लिए किसी के द्वारा चेक मिलता है तो वो उसे मना नहीं कर पाते पर इनको उसके बारे में जानकारी भी नहीं है। वो इसके लिए अपने घर से किसी को बुलाते हैं और उससे कहते हैं कि जाकर बैंक वाले को बोलो कि भाई! इस चेक के बदले मुझे पैसे दे दें, मैं इसका इस्तेमाल करना नहीं जानता।

 

कृष्णा: जब नसीर अहमद खां साब महज 21 साल के थे उसी वक़्त उन्होंने एच.एम.वी के साथ राग केदार और मियाँ की तोड़ी रिकॉर्ड की थी। वो काफी ज्यादा अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति थे पर फिर भी ये रिकॉर्डिंग स्टूडियो वाले उनके पास आये। उनके साथ एक समस्या ये भी थी कि वो अपनी फ़ी भी नहीं बढाते थे। उस दौरान मुझे याद है कि अमीर रजा साब लगभग 1200-1500 चार्ज करते थे और खां साब 1000 लेते थे। उनके लिए ये काम मैं देखती थी। कभी-कभी मैं उनका फ़ी बढ़ा देती थी। जब कोई लैटर आता था तो चौंक कर कहते कि, 'अरे! कृष्णा, तुमने ये कितना लिख दिया था? ये क्या गया है?' मैं कहती कि, 'अभी आप चुपचाप जाइए और गाकर आइये। ये सही है।'

 

 

मल्लिका: दीदी हमने दिल्ली घराने के बारे में इतनी बात कर ली पर अभी तक हमने सिर्फ गायकों के बारे में ही बात की है जबकि दिल्ली घराने में गायिकाएं भी हुई हैं। आप उनके बारे में बतलाइये। कब से महिलाओं का प्रवेश दिल्ली घराने में हुआ और फिर किस प्रकार। कौन से लोगों ने इसमें महारत हासिल किया?

 

कृष्णा: महिला गायिकाओं के बारे में मैंने बहुत ज्यादा चर्चा तो उस्ताद से नहीं की है पर एक बड़ी मशहूर कलाकार हुई हैं इक़बाल बानो। वो पाकिस्तान से आई थीं और उनके बड़े कार्यक्रम हुए दिल्ली में। वो मुझसे मिलना चाह रही थीं पर कुछ ऐसा हुआ कि मैं उनसे मिल नहीं सकी। उन्होंने उस्ताद से तालीम ली थी। उनके इतिहास के बारे में तो मुझे जानकारी नहीं है। उनकी कई सारी शर्तें थीं। जैसे जिसे भी सीखना है वो घर में कर सीखे। अब औरतें कहाँ घर जाकर सीख पातीं! मैं और मेरी बहन भारती चक्रवर्ती पहले लोग थे जो उनकी शर्तें मानते हुए उनके घर जाकर सीखा है। कोई एक बड़ा कला-केंद्र था जहाँ वो कभी-कभी चले जाते थे। वहां उनसे खुर्शीद मेहता ने सीखा था।

 

 

मल्लिका: लेकिन वो गायन में आयीं नहीं?

 

कृष्णा: वो हमसे बहुत पहले की बात है। हो सकता है वो उस वक़्त गाती होंगी। एक निर्मला जोशी भी थीं, वो भी इस पीढ़ी की नहीं है। हमसे पहले की थीं। इन लोगों ने उस केंद्र में सीखा था। इस बारे में कि वहां किसने-किसने सीखा, श्रीमती कपिला वात्स्यायन जी को मालूम है। मुझे इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं है।

 

 

मल्लिका: क्या इन्होंने अपने घर की महिलाओं को गायन नहीं सिखाया?

 

कृष्णा: नहीं। महिलाओं को तो नहीं ही सिखाया जाता है। किसी भी उस्ताद ने अपने घर की महिलाओं को नहीं सिखाया है जबकि वो इतना अच्छा गातीं हैं। कई बंदिशें ऐसी हैं जो मेरे रियाज़ के वक़्त अगर हिलतीं थीं तो अम्माजी यानी मेरी गुरु माँ, उस्ताद साब की पत्नी उसे ठीक करातीं थीं।

 

 

मल्लिका: उन्हें रागों का ज्ञान भी था?

 

कृष्णा: पूरा। वो जितनी भी तालीम चलती थी सुनतीं रहतीं थीं।

 

 

मल्लिका: दीदी जैसा कि आप बता रहीं हैं कि आप ही लोग सबसे पहले उनके घर सीखने गयीं तो ये कैसे संभव हुआ? क्या पहले से आपके घर वाले उस्ताद चाँद खां साब को जानते थे? आप किस उम्र में गयीं हैं उनके पास?

 

कृष्णा: ये तो बड़ी लम्बी कहानी है। हम लोग, मैं और मेरी बहन, बचपन में रेडियो पर गाते थे, बाल कार्यक्रम में। उन दिनों सब कुछ लाइव हुआ करता था। एक बार सर्दियों के दिनों में जब हम गा कर बाहर निकले तो देखा कि एक उस्ताद जैसे कोई खड़े हैं और उन्हें शिष्यों ने घेर रखा है। मेरे पिताजी ने कहा, 'प्रणाम करो ये उस्ताद साब हैं।' हमें कुछ ज्यादा समझ तो थी नहीं, हम ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी ओर देख रहीं थीं। मेरे पिताजी ने कहा, 'उस्ताद जी यही मेरी दोनों बेटियाँ हैं जिन के बारे में मैंने आप से बात की थी। आप को इन्हें संभालना है, जब ये बड़ी हो जायेंगी तब।' उस्ताद साब एक लम्बा कोट पहने हुए थे। उस में दोनों तरफ जेबें थीं। उन्होंने अपने दोनों हाथों को उन जेबों में डाल कर कहा कि, 'चक्रवर्ती साब इन दोनों को मैंने इन जेबों में डाल लिया है, अब मैं इनके बारे में जरूर सोचूंगा।' ये हमारी कहानी है। हालांकि उन के घर मैंने काफी समय बाद जाना शुरू किया। उस्ताद हिलाल अहमद खां साब तो आते थे हमारे घर, उन्हें मैं जानती थी। उनके प्रोग्राम होते थे तो उस तरह से उन से परिचित थी। उस जमाने में कनाट सर्किल पर दो-तीन कमरों के एक फ्लैट में फर्स्ट फ्लोर पर गन्धर्व महाविद्यालय चलता था। बड़ा छोटा सा, कोजी और आरामदायक सा था। वहां सारे अच्छे घरों कि लडकियां आती थीं सीखने सो हम भी जाते थे। घर पर उस्ताद हिलाल अहमद खां साब आते थे सिखाने। ऐसे तो नहीं जा सकते उस्ताद से सीखने, कुछ तैयारी तो जरूरी थी। जब उम्र ही और समय आया तो उस्ताद ने कहा कि, 'मैं घर तो नहीं सकता सिखाने।' ये बात 1959-60 की है। अब ये समस्या हो गयी क्योंकि हम एक कंजरवेटिव ब्राह्मण फॅमिली से थे (मल्लिका: हाँ आप लोग वैष्णव परिवार के हो कर मुसलमान के यहाँ जाने वाली बात उठी होगी) हाँ। मेरी मदर को इस पर बहुत ज्यादा ऑब्जेक्शन था। वो राज़ी ही नहीं हो रहीं थीं। उन के लिए ये सब संगीत वगैरह सीखना सही था पर इस के लिए वहां, उन गलियों में जाना, ये सोचने से भी बाहर की बात थी। खैर बड़ी मुश्किल से वो राज़ी हुईं तो हमारे भाई साब फिर हमें ले कर वहां जाते थे। हमें वहां जाते देखते-देखते वहां के लोगों को ये मालूम हुआ कि हम उस्ताद चाँ  खान  साब के यहाँ सीखने आते हैं तो उनका व्यवहार भी बदल गया। उसके बाद किसी तरह कि कोई छेड़खानी या कुछ बोलना, बिल्कुल नहीं होता था। उनके नज़र में हमारे लिए स्नेह था। इतनी इज्ज़त थी उस्ताद की वहां पर। बल्कि कई बार जब हम गली भूल जातीं थीं तो वो हमारी मदद ही करतीं थीं।

 

 

मल्लिका: करीबन कितने वर्ष आप ने उनसे सीखा?

 

कृष्णा: जब तक वो रहे।

 

 

मल्लिका: जी। लगभग दस वर्षा या उस से भी ज्यादा?

 

कृष्णा: देखिये '60 तक तो हम वहां पहुँच ही गए थे। अस्सी में उन का देहांत हुआ। पहले तो जब हम वहां जाते थे तो हमारी परीक्षा लेते थे कि हमें सच में रूचि है या नहीं। कोई भी तान बताकर चले जाते थे नमाज़ पढ़ने। हमें उसे 101 तक पहुँचाना होता था। कभी अगर बीच में कोई ग़लती हो जाए तो फिर 1 से शुरू करो और 101 तक जाओ। ये सब हमारी परीक्षा का हिस्सा था कि हमारा इंटरेस्ट जेन्युइन है या नहीं। इस तरह से फायदा बहुत होता है। कोई भी तान निकालना निकालना आसान हो जाता है। इस तरह से वो हमें आजमाने लगे। कभी दोपहर में धूप में बुला लिया, कभी किसी और वक़्त बुला लिया। इस तरह से जब उन्होंने हमें परख लिया तो इसके बाद, बाद में कभी-कभी वो घर पे रिक्शे से आने लगे। पैसे उन्होंने कभी नहीं लिया हमसे। हम बस रिक्शे के पैसे दे दिया करते थे। उनका नाम तो आपने पूछा नहीं, उनका नाम था शफीकुल रहमान।

 

 

मल्लिका: जी। यही पूछने वाली थी। दीदी आपने तो उन्हें देखा है। चाँद खां साब के व्यक्तित्व के बारे में कुछ बताइए।

 

कृष्णा: उनका नाम चाँद खां पड़ने के पीछे भी किस्सा है। वो बड़े मज़े में सुनाते थे। वो चाँद रात के दिन यानी मुहर्रम के रात को पैदा हुए थे। वो कहते थे, 'मेरे अब्बा छत से चाँद देख कर उतरे और मैं तशरीफ़ लाया, इस तरह मेरा नाम चाँद खां पड़ गया। वो बड़े सीधे-सादे थे। दिल्ली की तहजीब को पूरी तरह से निभाते थे। वो अपने उसी अंदाज़ में रहना पसंद करते थे। आज के मॉडर्न समय में आने के बाद में वो कहते थे कि तांगा या रिक्शा जैसे कोई और सवारी नहीं है। उनका पहनावा कभी तड़क-भड़क वाला नहीं रहा लेकिन भव्य पहनावा रहता था। शेरवानी पहनते थे और सर पर एक टोपी रहती थी।

 

 

मल्लिका: दीदी, वो बड़े मिलनसार किस्म के इंसान थे?

 

कृष्णा: बहुत ज्यादा पर साथ ही स्पष्टवादी भी थे।

 

 

मल्लिका: क्या वो गुस्सा नहीं करते थे।

कृष्णा: बिल्कुल करते थे। लेकिन वो जल्द ही ठंडे भी हो जाते थे।

 

 

मल्लिका: आप को कभी डांटा उन्होंने?

 

कृष्णा: मुझे बड़ा डर लगता था शुरू-शुरू में। लेकिन वो बहुत जल्द ही फिर ठंडे भी हो जाते थे। उनके हाथ में हमेशा एक छड़ी रहती थी। वो छड़ी लेकर चलते थे। शुक्र है उसका कभी इस्तेमाल नहीं हुआ।

 

 

मल्लिका: दीदी, हमने यहाँ तक की यात्रा में देखा कि घराने में पुरुष ही इस आगे ले जाने वाले हुए हैं। पुरुषों की गायकी में दमखम या उनका कॉन्फिडेंस महिलाओं से अलग रहता है। ऐसे में सीखते वक़्त आप को खुद महसूस हुआ हो या चाँद खां साब ने कभी कहा हो कि आप इसे अपनी तरह से बदल कर आजमाइए?

 

कृष्णा: नहीं ऐसा तो कभी नहीं कहा।

 

 

मल्लिका: वो सिखाते वक़्त आप को थोड़ी छोट देते थे या आप को बिल्कुल उनके हिसाब से ही गाना पड़ता था?

 

कृष्णा: देखिये, उस्तादी तालीम में ऐसा होता है कि आप अपने उस्ताद को बस फॉलो करते हैं। जैसा वो गा रहें हैं वैसा ही आप को भी गाना है। यहाँ तक कि आप शब्द भी नहीं बदल सकते हैं। एक बार वो 'मेघा बरसे' सिखा रहे थे; इधर मैं और भारती, हम आपस में 'ये हाँ' ही समझ कर गाते रहे। कई दिनों तक हम यही समझ कर गाते रहे। हमारी हिम्मत ही नहीं हुई पूछने की। हम ये भी नहीं पूछ सकते थे कि अब कब आना है। हम बस उन्हें फॉलो करते जाते थे। मेरी आवाज़ ऊंची थी और पतली थी। उन्हें बस फॉलो करते हुए मेरी आवाज़ की प्रकृति में वो अंदाज़ ढल गया। हमारे घराने में फीलिंग को बड़ी तवज्जो दी जाती है। खां साब ने इसी लिए हमें शिष्या भी बनाया। उन्हें हमारी आवाज़ में वो रूहदारी नज़र आई।

 

 

मल्लिका: दीदी, दिल्ली घराने की जो महिला गायकी है उसमें आपका बहुत बड़ा कॉन्ट्रिब्यूशन है। ये अंदाज़ आपने विकसित किया या फिर आप के गले के मिजाज़ के अनुसार के खुद एक शक्ल लेती चली गयी।

 

कृष्णा: कुछ हद तक तो निश्चित तौर पर अपने-आप हुई है। लेकिन कुछ चीज़ें जैसे गमक की तानें या फिर भारी-मोटी चीज़ें वो मैंने जान-बूझ कर विकसित किया है। पहले तो मैंने सिर्फ फॉलो किया, उसके बाद ये चीज़ें होती चली गयीं।

 

 

मल्लिका: अन्य घरानों की जो महिला गायिकाएं हैं वो भी बड़ी प्रसिद्द और सिद्ध हैं। लेकिन उनकी गायकी में उनके घराने के पुरुषों का अंदाज़ साफ़ तौर पर सामने आता है। यहाँ तक कि स्टेज पर उनके हाव-भाव भी उनके घरानों के पुरुषों जैसे ही होते हैं। आप में ये बात नहीं दिखती है। क्या ये जान बूझ कर ऐसा आपने किया या फिर कैसे हुआ?

 

कृष्णा: कुछ हद तक तो ये धीरे-धीरे अपने आप हुआ। मेरा स्वभाव ही ऐसा था। मैं काफी चुप रहती थी। आप इक़बाल साब से पूछियेगा, वो हमारे साथ ही सीखते थे। हालांकि वो काफी बच्चे थे पर सीखते साथ में ही थे। एक बार मैं ऐसे ही बैठ कर गा रही थी तो उस्ताद साब ने कर कहा कि कुछ हाव-भाव तो दिखलाओ। पता ही नहीं चल रहा कि तुम गा रही हो या आवाज़ कहीं और से रही है।  इस तरह से चुप बैठ कर क्यों गाती हो? मतलब मेरा स्वभाव ही ऐसा है। ये हाव-भाव अपने आप भी सकते हैं और आप इन्हें विकसित भी कर सकते हैं। मेरे हिसाब से स्त्रियों की गायकी उनके स्वभाव के अनुसार मधुर होनी चाहिए। लेकिन उसके जो तत्व हैं उन्हें अक्षुण रखते हुए। उसको डिस्टर्ब मत कीजिये। जैसे पहले फैयाज़ खां साब के ज़माने में माइक का प्रयोग नहीं होता था। इसलिए लोग सीने के पूरे दमखम से गाते थे। ये भी एक कारण है गाने में जोर देने का। फिर जब माइक या माइक्रोफोन वगैरह आया तो लोगों ने उस हिसाब से एडजस्ट किया। ये भी एक वजह रही है बदलाव की हमने हालांकि कभी इन चीज़ों का इस्तेमाल नहीं किया कभी। रियाज़ करते वक़्त आप सीधे कान से सुन कर रियाज़ करिए तो वही अच्छा होता है। वो पक्का रियाज़ होता है। मेरा कहने का मतलब है कि एक कृत्रिमता नहीं होनी चाहिए, कि चीज़ें आर्टिफीसियल लगने लगे।

 

 

मल्लिका: दीदी, एक घराने में केवल गायक या गायकी ही नहीं होती बल्कि वाद्यकारों का भी बड़ा रोल होता है उस गायकी को या उन रागों को पिरोये रखने के लिए। हमारे दिल्ली घराने में ऐसे कौन से वाद्यकार हुए, उन के बारे में बताइए ज़रा।

 

कृष्णा: पहली बात तो ये है कि मियाँ सदानंद-अदानंद की बंदिशें हर घराने में गाई जाती हैं। उसमें केवल ये लड़ाई है कि हर घराना कहता है कि हम जो वर्जन गा रहें हैं वही सही है। घरानों के बीच में अंतरे का फर्क है और बोल का फर्क है। जैसे एक घराने में 'घननन घोर' में अंतरा हमसे फर्क है और उस में मियाँ सदानंद का नाम ही नहीं है। हमारे यहाँ वो सदानंद के नाम से गाई जाती है। ऐसे ही 'गरजे घटा घन' सप्त ताल में है और हमारे यहाँ अंतरा बिल्कुल फर्क है। उसमें सदानंद का असली नाम नियामत खां के नाम से है। इस तरह से आप को थोडा-थोडा भेद हर जगह देखने को मिलेगा। आज के समय सारे घराने सदानंद-अदानंद को बंदिशों का पितामह मानते हैं। हमने जितना काम किया है इन दोनों पर उस हिसाब से ये पाया कि जहाँ सदानंद की बंदिशें श्रृंगार वगैरह से प्रभावित हैं वही अदानंद की बंदिशें सूफियाना हैं। जैसे 'साँची कहत है' या 'कालम मानते हो' वगैरह। इस तरह से थोडा फर्क देखा है हमने। इस से भी अगर पहले जाएँ हम लोग तो अमीर ख़ुसरो का नाम ले सकते हैं। अमीर ख़ुसरो की बंदिश दिल्ली घराने में गाई जाती है। देखा जाए तो उनकी एक ही बंदिश उपलब्ध है, 'बहार' कर के, जिसे दिल्ली घराने में शहाना राग के नाम से गाया जाता है। 'सकल बन फूल रहीं सरसों'—इसके ऐतिहासिक दृष्टि से भी हम प्रमाण दे सकते हैं। ये एकमात्र बंदिश उपलब्ध है अमीर ख़ुसरो की। लेकिन ये कहीं भी ख़याल के नाम से नहीं लिखा गया है। उनकी रचना के नाम से ही मिलती है ये। एक जगह ख़याल कर के जिक्र है लेकिन वो किसी दूसरे अर्थ में है।

 

 

मल्लिका: इस बंदिश को तो कव्वाल लोग बहुत गाते हैं।

 

कृष्णा: इस बंदिश को सभी गाते हैं। इस के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। कोई-कोई इसे 'सघन वन' भी कह देते हैं पर हमने 'सकल वन' ही सुना है। सभी घराने में इसे गाया जाता है। हमारे दिल्ली घराने में इसे शहाना राग कहते हैं। इसके बारे में मैं ये कह दूं कि इस के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि राग शहाना अमीर ख़ुसरो ने बनाया था। आप को बहार शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। इतनी सारी किताबें हैं, किसी में आप को इसका जिक्र नहीं मिलेगा। ना ही संस्कृत ग्रंथावलियों में, ना ही पश्चिमी या अरबी की किताबों में ना ही सत्रहवीं सदी कि किताबों में, कहीं नहीं। 'बहार' शब्द का उल्लेख ही नहीं मिलता है। ये जो है हमें बहुत बाद में कहीं अठारहवीं सदी में मिलता है। मेरा ये मानना है कि शहाना और बहार दोनों में काफी समानता है तो कहीं शहाना से ही बहार निकल कर आया है। बहार में अमीर ख़ुसरो की और कई सारी बंदिशें मिलती हैं। कई सारी ऐसी मिलती हैं जिनमें अंतरा पर्शियन में है। अमीर ख़ुसरो की आज जो ये बंदिशें मिलती हैं उन्हें तो हम रचना कह देते हैं। जिन्हें हम ख़याल के नाम से गा रहें हैं वो सारी बंदिशें आज भी आप दिल्ली घराने में सुन सकते हैं। ये मैंने आप को दो बातें बता दीं। अब हम मियाँ अचपल को लेते हैं। सदानंद-अदानंद को तो बंदिशों का पितामह माना ही जाता है पर मियाँ अचपल के समय ही सबसे ज्यादा ख़याल परंपरा का प्रचार-प्रसार हुआ था। मियाँ अचपल को बहुत बड़ा वाग्यकार माना जाता है। मौखिक परंपरा के सहारे इन्होने ही सारे घरानों तक ख़याल को पहुँचाया है। आज जो थोड़ी बंदिशें हैं वो इसी कारण से आज तक हैं।

 

 

मल्लिका: मिया अचपल जी के बाद?

 

कृष्णा: मियाँ अचपल जी के बाद तानरस खां साब। वो बड़े अच्छे रचनाकार माने जाते हैं। उनकी कई सारी बंदिशें प्रचलित हुई हैं। इनके बाद फिर जो हमारे रीसेंट रचनाकार हैं बीसवीं सदी के, उन्हीं के बारे में बता सकती हूँ। इसके बाद हुए मम्मन खां साब। वो खुद तो ख़याल नहीं गाते थे पर औरों की गायकी में उनकी बंदिशें मिल जाती हैं। खां साब कि गायकी में भी उनकी बंदिशें मिल जातीं हैं। इन लोगों के घरों में बंदिशों की एक पुस्तिका होती है। इनके घर जो बहुत मोटी सी पुस्तिका है जिस में कई सारी बंदिशें हैं, उस में  एक जगह ये लिखा हुआ है कि एक बार खां साब बहुत बीमार हो गए थे तो मम्मन खां साब ने अल्लाह से दुआ मांगते हुए एक बंदिश बनायी खम्बावती में। इसका मतलब वो बहुत बंदिश किया करते थे। जो भी शागिर्द आते गए वो सब को सिखाते गए। ममान खां साब ने जो बंदिशें बनायीं हैं उन के ऐतिहासिक प्रमाण भी मिल जाते हैं। इसके अलावा जैसे मारू विहार या श्याम कल्याण में जो बंदिशें मिलती हैं वो उन्होंने नहीं बनायीं हैं। हमारे उस्ताद ने बना कर उनके नाम डाल दियें हैं। इसके बाद आते हैं चाँद खां साब पर। चाँद खां साब ने तो बहुत सारी बंदिशें बनायीं है और उन्हें गाया भी है। उनके अलावा इन के भाई जहां खां साब। उन्होंने भी बंदिशें बनायीं हैं। हालाँकि उन्होंने स्वयं गाया नहीं। वो बाद में फिर पाकिस्तान चले गए थे। वहां पर भी उन्होंने कुछ शिष्यों को सिखाया। यहाँ वो जितने दिन रहे, बंदिशें ही करते रहे। उसके बाद तो फिर नसीर अहमद खां साब ने खुसरन नाम से कुछ बंदिशें की हैं।

 

 

मल्लिका: दीदी आप की भी काफी बंदिशें हमने सीखी हैं या आपने यूनिवर्सिटी में काफी विद्यार्थियों को सिखाया है। उनकी रचना के समय आप ने क्या कोई अपना पेन नेम रखा या फिर अपने नाम से ही लिखा या कोई भी नाम नहीं रखा?

 

कृष्णा: मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं बंदिश बना रही हूँ। मैं अपने धुन में, मौज में हूँ और गुनगुना रही हूँ तो एक शक्ल दे दिया उसे। जैसे कभी मुझे लगा कि इस राग या इस ताल के अलावा इस से अच्छी बंदिश की जरूरतमंद है तो मैंने उस तरह से कोशिश की। इस तरह से मैंने बंदिशें बनायीं हैं। कोई कम्पोजीशन सोच कर नहीं बनाया कि मुझे करना है। जैसे रत मल्लार या फिर गोरख कल्याण है, इसमें कोई छोटा ख़याल नहीं था तो मैंने अपने अनुसार इन्हें ढाल दिया। जैसे चतुरंग हैं तो काफी सीमित हैं, उन्हें विस्तार देने के कारण कुछ बंदिशें बनीं। जैसे कभी कुछ सिखाते वक़्त मुझे किसी में कोई अंग कम लगती थी तो दूसरे में कोई और अंग। मैंने सोचा कि क्यों सारे अंगों को उठा कर एक बंदिश बना लूं।

 

 

मल्लिका: दीदी यहाँ मैं ये पूछना चाहती हूँ कि कभी आप ने खां साब के रहते ये काम किया है या खां साब के शांत हो जाने के बाद ही ये काम करना शुरू किया। मेरा पूछने का कारण ये है कि...

 

कृष्णा: मैं समझ गयी हूँ आप के पूछने का आशय। ऐसा है कि कुछ राग खां साब नहीं गाते थे। जैसे नट भैरव वो गाते ही नहीं थे, कहते थे कि लडकियां तुम लोग गा लो इसे। (मल्लिकाआप को सिखा दिया था?) नहीं। जब गाते ही नहीं थे तो सिखाने का प्रश्न ही नहीं उठता। वो उस अपने व्यवहार में ही नहीं रखते थे। पहले हर महीने कार्यक्रम होता था। अब अपने समाज का कार्यक्रम है तो आप को गाना तो है ही और आप कि स्वयं की इच्छा भी होती है प्रदर्शन करने की। मैंने नट भैरव में कुछ ख़याल बनाए, उनके रहते हुए। उनमें से कुछ ख़याल मैंने उन्हें डेडीकेट कर दिया। कुछ ख़याल मैंने मुश्किल बनाये अपने गाने के लिए और कुछ थोड़े हलके बनाये जिन्हें क्लास में बच्चे भी गा लें। इन में दो छोटे ख़याल थे और दो बड़े ख़याल थे। वो बच्चे एम्. के होते हैं वो गा ही लेते हैं। ये बंदिशें खां साब ने रेडियो पर सुना। इसके अलावा मैंने एक बंदिश बनायी थी राग शोभावली में। शोभावली में सन '30-'40 के बाद किसी और ने बनाया नहीं था। मैं खां साब से पुछा कि मैं शोभावली गा लूं? उन्होंने कहा कि, 'गा लो, मैं सीधे प्रदर्शन में सुनूंगा।' उन्होंने वही रेडियो में सुना फिर। बाद में मैंने उनको पूछा तो उन्होंने एक रुपये के नोट पर मुझे लिख कर दिया कि, 'तुमने बहुत अच्छा गाया है।'

 

 

मल्लिका: द्रुत की बंदिश आपकी है?

 

कृष्णा: द्रुत की नहीं, द्रुत कि बंदिश पुरानी है। ये मैंने अपने पति रवीन्द्र सिंह बिष्ट से सीखी थी। विलंबित मैंने बनायी।

 

 

मल्लिका: इस बात से ये झलकता है कि चाँद खां साब का व्यक्तित्व इस मामले में भी सराहनीय है कि उन्होंने अपनी शिष्या को कहीं भी टोका नहीं। जो राग वो ख़ुद अपने रेपेर्टिरे में नहीं रख रहें वो अपनी शिष्या के लिए उन्होंने स्वीकार किया। यही नहीं अपने जीवित रहते हुए उन्होंने आप का बंदिशें बनना  सिर्फ स्वीकार किया बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया। इसके अलावा कुछ ऐसी बंदिशें भी होंगीं जो उन्होंने अपने बच्चों को करने के लिए प्रोत्साहित किया होगा।

 

कृष्णा: नहीं वो तो बहुत वृद्धावस्था में थे। मैंने भी जब बंदिशें बनानी शुरू कीं तो मैं बड़ी हो गयी थीमुझे एक्सपीरियंस हो गया था। बंदिश ऐसे नहीं बनायी जाती, पहले आप को काफी सारी बंदिशें याद होनी चाहिए तब आप अपना बना सकते हैं। उन्होंने मुझे भी इसीलिए इजाज़त दी कि उन्हें लगा कि इसके पास सैकड़ों बंदिशें हैं। आजकल ऐसा होने लगा है कि एक-दो बंदिशें सीख कर हो जाता है। पहले ऐसा नहीं था।

 

 

मल्लिका: इस बात पर ज़ोर इसलिए देने कि ज़रूरत है क्योंकि कोई मानता नहीं है। ख़ास कर उस जमाने के लोग तो बिल्कुल भी इस तरह के विचार के लिए नहीं जाने जाते हैं।

 

कृष्णा: क्योंकि उस वक़्त वो वृद्ध हो चुके थे और मैंने बंदिशें बनानी अपनी उम्र के पैन्तीश्वें साल में शुरू किया। मैंने गाना बहुत जल्दी शुरू कर दिया था। मैंने सिर्फ यमन उन से एक साल सीखा। जब इस तरह से तालीम होती है तो आप को बहुत सारी बंदिशें सीखने को मिलती हैं। उस अनुभव का फायदा भी तो है।

 

 

मल्लिका: आपने स्टेज पर किस उम्र में अपना पहला परफॉरमेंस दिया था?

 

कृष्णा: ये '62 की बात होगी। उस वक़्त मैं 18-19 साल की थी। जब टेलीविज़न का उद्घाटन हुआ था राजेन्द्र प्रसाद द्वारा 1959 में, उस वक़्त मैंने और मेरी बहन भारती ने लाइव गाया था। वो काफ़ी यादगार परफॉरमेंस है। उस वक़्त लतीफ़ अहमद खां साब बहुत छोटे थे, उन्होंने मेरे साथ तबला बजाया था। दूरदर्शन ने मुझे बुलाया था अपने पचासवें साल में ये अनुभव सुनने के लिए।

 

 

मल्लिका: दीदी, अंत में एक ये प्रशन  करूंगी कि दिल्ली घराने के वर्तमान कलाकारों का कुछ जिक्र करें।

 

कृष्णा: मुझे बहुत ज्यादा मालूम तो है नहीं। एक उस्ताद इक़बाल खां साब के यहाँ दो-तीन बच्चे बहुत अच्छी तरह तैयार हो रहें हैं। उनमें से एक उस्ताद नसीर अहमद खां साब का नवासा है, फ़रीद हसन। वो बहुत अच्छा गा रहा है। उस से हमें बहुत उम्मीद है। अभी बहुत छोटा है। कुछ समय में वो कॉन्सर्ट शुरू करेगा। वो फिर से दिल्ली घराने को उसकी ऊँचाइयों तक ले जाने की क्षमता रखता है। इसके अलावा इक़बाल अहमद खां के छोटे भाई हैं, अनीस अहमद खां साब। वो भी बहुत अच्छा रियाज़ कर रहें हैं। वो ब्रॉडकास्ट भी करते हैं। इसके अलावा इक़बाल खां साब के दोनों बच्चे, इमरान और तनवीर, दोनों डुएट परफॉरमेंस देते हैं। इस के अलावा पांच- बच्चे और हैं जो 16-18 की उम्र के हैं। आने वाले समय में मुझे पूरी उम्मीद है कि कुछ बच्चे तो आयेंगे। बाकी लोगों के शिष्यों के बारे में मुझे जानकारी नहीं है। मैंने अपनी ओर से शिष्य परंपरा को आगे बढाने की कोशिश की है। उसमें से एक आप सामने बैठीं हैं और आपकी अन्य गुरुबहनें भी हैं। मेरी तालीम देने के तरीक़ा से आप परिचित हैं। मैं हर किसी को अकेले तालीम देती हूँ। किस की आवाज़ कैसी है, उस की क्या खूबियाँ हैं, ये अकेले में ही निखरती हैं। इसलिए मैंने सब का अलग दिन बाँध रखा था। फैकल्टी से कर मैं सीधा म्यूजिक रूम में चली जाती थी, एक गिलास पानी पी कर।  ये आपने देखा होगा।

 

 

मल्लिका: जी। पर हमें आप पहले नाश्ता करातीं थीं, उसके बाद ही हमें रियाज़ के लिए ले जातीं थीं।

 

कृष्णा: इस तरह से मैंने अपनी ओर से कोशिश की है। मैं इस बात को तवज्जो देती हूँ कि सब के गले का धर्म अलग होता है। किसी के गले में राग उतरता है, किसी में नहीं उतरता है। जैसे, देखो , नारायण राव व्यास या फिर पटवर्धन जी हुए। उनके गुरु ने दोनों को अलग-अलग सिखाया। दोनों की आवाज़ अलग-अलग है। आप लोग भी आगे ये ख़याल रखियेगा। हर गले का धर्म अलग होता है।

 

 

. गोपालकृष्णन:  मेरा एक छोटा-सा  प्रश्न है: अभ्यास दो तरह से किये गए हैं, एक तो गुरु-शिष्य परंपरा रही है और दूसरी संस्थागत प्रशिक्षण। ऐसा शुरू से रहा है। आप इन दोनों को कैसे देखतीं हैं?

 

कृष्णा: मेरी अभ्यास दोनों तरीके से हुई है। मैं मानती हूँ ये दोनों बिल्कुल ही अलग हैं। इन दोनों का लक्ष्य अलग है, प्रक्रिया अलग है, दोनों की प्रकृति अलग है। संस्थागत प्रशिक्षण में एक समूह में अभ्यास कराया जाता है जो कि घरानों में नहीं कराया जाता। घराने में प्रशिक्षण का एक ही लक्ष्य है: अच्छा कलाकार बनना। जबकि संस्था में ऐसा नहीं है। वहां आप को बस तालीम से अवगत करा दिया जाता है। इन दोनों के मूल में ही फर्क है।

 

 

मल्लिका: संस्थागत ट्रेनिंग में आप म्यूजिक के थ्योरी पर भी ध्यान देते हैं। आपकी उसमें पकड़ होती है, जबकि यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ आप बस रियाज़ पर केन्द्रित रहते हैं।

 

कृष्णा: यूनिवर्सिटी आधारित ट्रेनिंग आप के युनिवर्सल अभ्यास के लिए होता है। आप के बहुमुखी विकास के प्रति ध्यान दिया जाता है। जैसे अगर आप फिलोसोफी भी पढ़ रहें हैं तो आप को साथ में इंग्लिश भी सीखना होता है। आप को सब कुछ से अवगत होना होता है। यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ आप को थ्योरी पढने की कोई जरूरत नहीं है। आप का ध्यान बाद रियाज़ पर केन्द्रित रहता है। यहाँ इसे समय की बर्बादी माना जाता है। एक बार मेरे उस्ताद इंग्लिश सीखने गए। ये बात उन के पिताजी को मालूम हुई तो उन्होंने उस्ताद जी को समय बरबाद करने के लिए बहुत डांटा। वो इसे समय की बर्बादी ही मानते हैं।

 

 

. गोपालकृष्णन: एक छोटा सा प्रश्न और है। आपने ये चर्चा किया कि किस तरह से आप के उस्ताद कमर्शियल गायकी से दूर रहे या उस से भागते थे। इस का प्रभाव दिल्ली घराने पर किस तरह से पड़ा?

 

कृष्णा: मेरे ख़याल से इस से बहुत नुकसान हुआ है। उन्हें रिकॉर्डिंग किसी किसी के साथ करनी चाहिए थी। आखिरकार उनकी अगली पीढ़ी किस प्रकार उन के स्टाइल या गायकी से परिचित होगी? उन्हें उस वक़्त ये बात समझ नहीं आई और कोई समझाने वाला भी नहीं था कि ये सिर्फ उनके लिए नहीं है बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए हैं। इस परंपरा को आगे बढाने के लिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर परंपरा आगे कैसे बढ़ेगी? ये दुखद है।