गोदना: सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ/Godna: Tattooing as Cultural and Social Practice

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Published on: 15 October 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

गोदना एक प्राचीन कला है। विश्व भर में इसे आदिवासी संस्कृति का अंग माना जाता है। आधुनिक समय में इसका जो रूप और सन्दर्भ बन गया है वह एक अलग कहानी है, परन्तु हम यहां इसके पारम्परिक चरित्र की ही चर्चा कर रहे हैं। 

गोदना शब्द का अर्थ है किसी सतह को बार बार छेदना, अर्थात अनेक बार छिद्रित करना। इस प्रकार यह शब्द उस क्रिया का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पुनरावृति से इसे सम्पादित किया जाता है। 

समूचे भारत की भांति छत्तीसगढ़ में भी गोदना, यहाँ की आदिवासी एवं ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग है। परिस्थितिवश गोदना को आदिवासी और दलितों के साथ जोड़कर देखा जाता है। इन्हे बनाने वाले और इन्हे बनवाने वाले इन्हीं पृष्ठभूमियों से आते हैं। गोदना करने के लिए मानव त्वचा को छेदना और उससे निकले रक्त को पोंछना होता है। यह कार्य उच्च समझी जाने वाली जातियों में अपवित्र और हेय माना जाता है, जिसे चाण्डालों का कार्य समझा जाता है। इस कारण गोदना अथवा गुदना करने वाली जातियां भी समाज में निम्न स्थान रखती हैं। सामान्यतः गोदना करने का कार्य बादी जाति के लोग करते हैं। कहीं कहीं ओझा और जोगी जाति के लोग भी करते हैं। 

A woman with godna on her chest and hands

एक महिला जिसके शरीर के विभिन्न हिस्सों पर गोदना है

 

A woman with godna on her neck

गोदना के साथ एक महिला

 

A man getting godna on his arm

मेले में गोदना करवाते लोग 

 

आमतौर पर युवतियों द्वारा गोदना गुदवाने का काम किशोरावस्था में विवाह से पहले कराया जाता है। कुछ समुदायों में विवाह के उपरांत भी गोदना करना आवश्यक माना जाता है। छत्तीसगढ़ में सर्वमान्य मान्यता यह है कि गोदना स्त्रियों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आभूषण हैं। मृत्यु के बाद सारे आभूषण इसी संसार में रह जाते हैं, केवल गोदना ही देह के साथ परलोक तक साथ जायेगा। इस विश्वास के चलते गोदना को स्थानापन्न गहनों की भांति शरीर के उन अंगों पर बनवाया जाता है जहाँ अन्य आभूषण पहने जाते हैं। कालांतर में स्थानीय परिस्थितियों एवं जातिगत विश्वासों के चलते गोदना के साथ अनेक मान्यताएं जुड़ गई। अपनी जातिगत पहचान दर्शाने के लिए भी कुछ जातियों में अंग विशेष पर एक विशिष्ट गोदना पैटर्न गुदवाया जाने लगा। भिन्न भिन्न समुदायों ने भिन्न भिन्न प्रकार से शरीर पर गोदना करवाकर उसे अपनी जातीय अस्मिता से जोड़ दिया, जैसे बैगा आदिवासी स्त्रियां अपने समूचे शरीर पर चौड़ी-चौड़ी समांनांतर रेखाओं की पुनरावृति से गोदना संयोजित कराती हैं। ओडिशा की कुट्टीआ कोंध आदिवासी स्त्रियां चेहरे पर मोटी-मोटी रेखाएं गुदवाती हैं ताकि उनके चेहरे का सौंदर्य विद्रूप हो जाए। कहा जाता है, कोंध स्त्रियों की सुंदरता के कारण आक्रमणकारी सेनाओं के सैनिक उन्हें उठा ले जाते थे। इससे बचने के लिए कोंध युवतियों के चेहरे पर गोदना करवाकर उन्हें आकर्षण विहीन बनाने का प्रयास किया जाता था।   

गोदने का चिकित्सकीय उपयोग भी किया जाता है, बच्चों के अपंग होने पर उनके हाथ-पैर पर किसी विशेष स्थान पर गोदना कराया जाता है जिससे वह अंग क्रियाशील हो सके। स्त्रयों के बच्चे न होने पर नाभि के नीचे गोदना करवाकर उनकी कोख खुलवाई जाती है। इस प्रकार की अनेक मान्यताएं ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलन में हैं। इस सब के अतिरिक्त कई लोग अपना स्वयं का, अपने प्रिय का, अपने मित्र का, अपने इष्ट देवी देवता का नाम अथवा चित्र गुदवाते हैं। 

छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय ने गोदना का प्रयोग एक सामाजिक प्रतिकार के रूप में आरम्भ किया। दलित होने के कारण उन्हें मंदिर प्रवेश एवं शास्त्र पाठन की वर्जना थी अतः उन्होंने इस वर्जना के विरोध स्वरुप अपने सामूचे शरीर पर राम-राम शब्द का गोदना करना आरम्भ कर दिया। यह समुदाय आज भी अल्पमात्रा में ही सही पर इस परिपाटी का पालन कर रहा है। 

A man with ram-ram godna on his forehand

राम-राम गोदना 

 

A ramnami man with ram-ram godna on his face

राम-राम गोदना 

 

छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र में गोदना बनाने का कार्य बादी समुदाय के लोग करते हैं। अंबिकापुर से रामानुजगंज जाने वाले मुख्य सड़क मार्ग पर सूरजपुर के पास बोबगा गांव में अनेक बादी रहते हैं। कुसमी क्षेत्र के डीपाडीह के पास एक छोटे पहाड़ी टीले पर स्थित बादा गाँव में तो समूची आबादी बादी जाति के लोगों की है। यहाँ लगभग बीस-पच्चीस बादी परिवार रहते हैं। इनकी स्त्रियां गांव-गांव घूम कर गोदना करती हैं। इस क्षेत्र में जमड़ी और मानपुर गांवों में भी बादी रहते हैं। लोकस पुर और बगाड़ी गांव में भी बादी रहते हैं।    

यहाँ के बादी बताते हैं कि नगेसिया और पहाड़ी कोरबा आदिवासी गोदना नहीं कराते, इनके अतिरिक्त सभी आदिवासी गोदना कराते हैं। भिन्न-भिन्न आदिवासी समुदायों की पसंद भी अलग-अलग होती है। कंवर आदिवासी हाथी का मोटिफ अधिक बनवाते हैं। बड़ीला कंवर बुंदकिया गोदना और पोथी मोटिफ बनवते हैं। रजवार जाति की महिलाएं जट मोटिफ बनवाना पसंद करतीं हैं। इस क्षेत्र में सींकरी, डोरा, लवंगफूल, करेला चानी, हाथी, पोथी, चक्कर, जट, चाउर, फुलवारी, चिरई गोड़, चंदरमा, कोंहड़ा फूल, अरंडी डार,  मछरी, भैसा सींघ, करंजुआ पक्षी, कडाकुल सेर, सैंधरा और मछरी कांटा जैसे मोटिफ लोकप्रिय हैं।

बादी अपने आप को मूलतः गोंड मानते हैं। गोदना काम करने के कारण गोंड भी इन्हें निम्न मानाने लगे हैं। वे इनका बनाया  खाना नहीं खाते, इनका छुआ पानी भी नहीं पीते। सामान्य धारणा यह है कि आदिवासी समाज में ऊंच-नीच की भावना नहीं होती। परन्तु उनमें भी यह भावना काफी हद तक कार्य करती है। गोंड आदिवासियों में यह भावना अन्य आदिवासियों की अपेक्षा अधिक है।

बादी कहते हैं सींकरी देव हमारा सबसे बड़ा देव है, इसके साथ हम बूढ़ी माई और बूढ़ा देव की पूजा करते हैं। इनका वास साजा झाड़ में मानते हैं। साजा झाड़ के नीचे देवल बनाते हैं जिसे सरना कहते हैं। सींकरी देव की वार्षिक जात्रा भादों माह की एकादशी को होती है, इस दिन उसे काली मुर्गी चढाई जाती है। घर के अंदर इनका स्थान रसोई में माना जाता है। गोदना के काम में स्त्रियों के मासिक धर्म  का बहुत ध्यान रखते हैं उस समय कोई बादी स्त्री गोदना नहीं करती। यदि उसने ऐसा किया तो गोदना के जख्म पक जाते हैं। यदि कोई बादी स्त्री मासिकधर्म के दौरान धोके से भी गोदना करने के सामान को हाथ लगाए तो वह सामान अपवित्र मन जाता है। इसे पुनः पवित्र करने के लये सिंकरी देव की पूजा करनी पड़ती है।    

बस्तर में गोदना का काम ओझा जाति के लोग करते हैं इन्हें नाग भी कहा जाता है। कोंडागांव क्षेत्र के सोनबाल के पास स्थित कनैरा गांव में कुछ ओझा परिवार रहते हैं। यहाँ रहने वाले चन्दन नाग की पत्नी लक्खमी नाग गोदना करने के लिए दूर दूर तक प्रसिद्द है।

Godna artist, Laxmi Naag

गोदना कलाकार, लक्खमी नाग

 

Laxmi Naag

काजल का घोल बनती लक्खमी नाग 

 

लगभग पैतीस वर्षीय लक्खमी कहती हैं, हमारे बस्तर मैं मरार, गौक, मुरिया, गांडा, कलार, लोहार, तेली और हल्बा लोग गोदना करते हैं। स्त्रियां अधिक और पुरुष थोड़ी मात्रा में। यहाँ छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाके से अलग बुंदकिया गोदना अधिक लोकप्रिय है। अर्थात बिंदुओं के समूह से बने पैटर्न। यहाँ पहुंची, बिच्छू, पुतरा, तिकोनिआ, हथौड़ी एवं चूढ़ा जैसे पैटर्न अधिक प्रचलन में हैं।   

गोदना करने के लिए दो, तीन या चार माध्यम मोटाई की सुइयों को आपस में बाँध लिया जाता है। अब चिमनी जलाकर उसका धुंआ इकठ्ठा कर लिया जाता है। इकठ्ठा किये गए काजल के पावडर को पानी अथवा मिटटी के तेल में घोलकर गाड़ा घोल बना लिया जाता है। बंधी हुई सुइयों को इस घोल में डुबाकर शरीर के उस अंग की त्वचा पर बार-बार चुभाते हैं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे की जाती है ताकि गोदना करवाने वाला कष्ट से बेहाल न हो जाए। गोदने का काम सामान्यतः सुबह ठंडे समय में किया जाता है। वांछित आकृति बन जाने पर उस पर स्याही का घोल लगाया जाता है ताकि काला रंग त्वचा में समां जाए। इसके बाद गोदना की गई जगह को पानी से धोकर वहाँ तेल और हल्दी का लेप पर देते हैं।

Kajal paste for godna

काजल का घोल

 

A woman getting godna on her hand

गोदना करवाती महिला 

 

Kohl (kajal) is applied on the newly etched godna

गोदने पे काजल का लेप लगाती लक्खमी नाग

 

Turmeric paste is applied to the newly etched godna

गोदने पे हल्दी का लेप लगाती लक्खमी नाग

 

गोदना करने हेतु आंतरिक गांवों में आज भी इसी पारम्परिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है परन्तु आजकल गोदना करने की छोटी सी मशीन भी बाजार में आ गई है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण हाट बाजारों में मशीन से गोदने का काम बहुत लोकप्रिय हो गया है।  इस पद्यति से कम समय और कष्टरहित तरीके से गोदना हो जाता है। यहाँ गोदना करनेवाले भिन्न पैटर्न के प्रिंट साथ रखते हैं, जिन्हें देखकर ग्राहक आसानी से तय कर लेता है कि उसे कहाँ और कौनसा पैटर्न गुदवाना है।

New godna machine

गोदना मशीन 

 

A small godna stall

गोदना कियोस्क 

 

एक समय आदिवासी समाज में गोदना को लेकर बहुत उद्वेलन रहा। छत्तीसगढ़ में १९५० से १९९० तक ऐसा भी दौर आया जब आदिवासियों को प्रेरित किया गया कि वे गोदना न कराएं क्योंकि यह पिछड़ेपन और अशिक्षित होने की निशानी है। दिग्भ्रमित आदिवासी दुविधा में भी रहे, पर अंततः यह परम्परा अपना अस्तित्व बचा पाने में सफल रही।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.