भोपाल की तारीख़-ओ-तख़लीक़ और ज़बान

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Published on: 31 August 2019

विमलेश घोडेस्वार (Vimalesh Ghodeswar)

विमलेश घोडेस्वार, शायर, लेखक है| सत्यजित रे फिल्म संस्थान से फिल्म मेकिंग में डिप्लोमा के बाद मुंबई में रह कर पटकथा लेखन और फिल्म निर्देशन का कार्य कर रहे है|

ज़बान अवाम बनाती है, उनकी बसाहट से जैसे शहर तामीर[1] होता है, वैसे ही ज़बान भी।  ज़बान दरबारों से नहीं उसे बोलने वाले लोगों से हयात रहती है, उगती और हरहराती है। ये सिलसिला-ए-ज़बान-ए-भोपाली वहीं से शुरू होता है जब से यहाँ बररु के दरख़्त काटे गए और ये शहर-ए-गौहर भोपाल आबाद हुआ, ये बात सन् 1700 के आस-पास की है जब रानी कमलापति ने दोस्त मोहम्मद ख़ान को अपनी मदद के लिए दरख़्वास्त की, और इतनी बड़ी इमदाद के बदले में उन्होंने दोस्त मोहम्मद ख़ान को भोपाल में बस जाने के लिए मदऊ किया। दोस्त मोहम्मद ख़ान अपनी बेगम फ़तेह बीवी के साथ भोपाल तशरीफ़ लाये और उनके साथ आये उनके लोग जो पश्तो और फ़ारसी जानते थे। अपनी किताब सिर्फ नक़्शे क़दम रह गए में श्याम मुंशी कहते हैं :

निज़ामशाह को उसके भतीजे ने धोखे से क़त्ल कर दिया, और हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की। उन दिनों मंगलगढ़ पर दोस्त मोहमद ख़ान का कब्ज़ा था। उसकी बहादुरी की तूती बोल रही थी। रानी कमलापति ने दोस्त मोहम्मद ख़ान के पास राखी भेजी और गुज़ारिश की कि आपकी बहन मुश्किल में है, उसे आपकी मदद की सख़्त ज़रूरत है। दोस्त मोहम्मद ख़ान अपनी बहादुर फ़ौज के साथ रानी के पास पहुँचा और रानी के तमाम दुश्मनों का सफ़ाया कर दिया।  रानी ने अपने भाई दोस्त मोहम्मद ख़ान को भोपाल का इलाक़ा तोहफ़े में दे दिया। ये सन १७२० के आस-पास का वाक़या है। उस वक़्त भोपाल एक मामूली से गाँव की शक्ल में था और यहाँ गोंड ही रहा करते थे।[2]

 

मुख़्तलिफ़ ज़बानों की हिस्सेदारी
दोस्त मोहम्मद ख़ान ने यहाँ बहुत से लोगों को आने का न्यौता दिया, ख़ास कर के मारवाड़ी लोगों को, ताकि तिजारत को बढ़ावा मिल सके बहुत से मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, बुन्देलखंडी, लोगों का बसना शुरू होने लगा। ज़ाहिर सी बात है वो अपनी ज़बानें अपने साथ लाये थे, तब भोपाल रियासत की ज़बान फ़ारसी थी। पर आम लोगों की बोलचाल में खड़ी बोली, बुन्देलखंडी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, गोंडी का ग़लबा था जो फ़ारसी और पश्तो के साथ घुलने-मिलने लगी। धीरे-धीरे जो ज़बान तामीर हुई वो उर्दू से मिलती-जुलती थी पर ये दिल्ली वालों की करखंदारी उर्दू और लखनऊ की लचीली उर्दू से ज़रा अलहदा थी, जिसका बायस यहाँ की मिली जुली ज़बान का इसमें मिलना था। बुन्देलखंडी या गोंडी के लफ़्ज़ जो कि जैसे उसी ज़बान में बोले जाते थे वैसे ही समाते चले गए। ‘और ख़ां’ में ख़ां लफ़्ज़ का इस्तेमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ भोपाल में ही होता है, ख़ां यहाँ आला तबक़ों में काम करने वाले अफ़सरों को बराए एहतेराम बोला जाता था जो धीरे-धीरे आम बोल-चाल का हिस्सा बनता चला गया।   

दरबार में चलने वाली फ़ारसी और आलिमो-दरबारियों के बीच बोली जाने वाली उर्दू में फ़ारसी और अरबी के लफ़्ज़ ज़्यादा रहे पर आम लोगों- सब्ज़ी बेचने वालों, पंसारी की दुकान चलाने वालों, मज़दूर पेशा, कारोबार पेशा, चाय की दुकान वालों के बीच उर्दू, फारसी और बुन्देलखंडी, मालवी, सभी ज़बानों को बराबर की इज्ज़त हासिल हुई। जहाँ इसकी व्याकरण उर्दू-हिंदी ही बनी वहीं लफ़्ज़ तरह-तरह की ज़बानों से आते रहे पर एक अहम् और ख़ास बात ये हुई कि जो लफ़्ज़ दूसरी ज़बानों से आये वो उसी की फोनेटिक लेकर इस ज़बान में शामिल हो गए। मिसाल के तौर पर बिल्लौची का लफ़्ज़ भौंरा भोपाली में भोंरा बन गया, हिंदी के काट लफ़्ज़  को काईट की तरह बोला जाने लगा   

उर्दू और फारसी के आलिम रहे और टीवी और रेडियो में कई साल काम कर चुके, भोपाल के रहवासी जनाब ख़ालिद आबिदी[3] साहब कहते हैं, ‘बचपन में इस ज़बान में बात करना मायूब समझा जाता था क्यूँकि ये तांगे चलाने वालो की ज़बान थी, मेरे अब्बा इस ज़बान को बिगड़ी हुई ज़बान कहा करते थे, पर यही आम बोल-चाल की ज़बान थी।’[4] और वहीं ‘उर्दू अदब की तरक़्क़ी में भोपाल का हिस्सा’ में डाक्टर सलीम हामिद रिज़वी लिखते हैं :

भोपाल असल मालवीय और बुन्देली ज़बानो के ख़िते में वाक़े है इसलिए यहाँ के रहने वालों के लबो लहजे और ज़बान पर मालवीय और बुन्देली के असरात है, इस क़िस्म के मक़ामी असरात हर मरकज़ की ज़बान में नुमाया है चुनाचे डाक्टर मसउद हसन ख़ां के कौल के मुताबिक़ लखनऊ की सौतायत और ग्रामर की बाज़ खुसूसियत के ऐतबार से अवधि ज़बान से मुतासिर है जिसने इस में एक क़िस्म का ज़नानापन पैदा कर दिया है जबकि दिल्ली और उसके नवाह में रहने वालों की ज़बान लबो लहजे से मर्दाना है। पंजाबी उर्दू का लबो लहजा भी किसी क़दर खड़ा है। डाक्टर साहब की तहक़ीक़ के मुताबिक़ सेंट्रल इंडिया जहाँ मुख़्तलिफ़ ज़बानों की सरहदें आकर मिलती हैं। बुन्देली ज़बान उनके लबो लहजे से मुतासिर है दूसरी ख़ुसूसियत आम बोलचाल की मुनासबत के लिए ख़ान का नून गुन्ने के साथ बकसरत इस्तेमाल है, भोपाल के लफ़्ज़ ख़ां के साथ बड़ेपन का अहसाह भी है। भोपाल की ज़बान में कुछ ऐसे अलफ़ाज़ भी मिलते है जो भोपाल में ख़ासतौर से इस्तेमाल होते हैं उनमें से एक लफ़्ज़ है ‘अपन’ जो ‘मैं’ या ‘ख़ुद’ की जगह इस्तेमाल होता है दरसल अपन के मानी न तो ‘मैं’ से अदा किये जा सकते है न ‘हम’ से।[5]

लफ़्ज़ों का इस्तमाल और मुहावरे
भोपाली ज़बान में दूसरी ज़बानों के लफ्जों का इस्तमाल बख़ूबी हुआ है। उसमें ख़ास तौर पर अरबी, मराठी, हिंदी, पश्तो, बिल्लोची और फ़ारसी के लफ़्ज़ हैं। नीचे कुछ मिसालें पेश हैं-

पश्तो
१। ग़टा यानी पत्थर

२। गच्चा यानी धोखा देना

फ़ारसी
१।  आफ़ताबा यानी लोटा

२।  ताउस यानी मोर

अरबी
१।  इदार यानी पैजामा

२।  शम्स यानी सूरज

३।  क़मर यानी चाँद

बिल्लोची
१।  भोंरा यानी लट्टू

२।  पिशवाज़ यानी बिल्लोची औरतों का एक लिबास

हिंदी
१।  अजगर

२।  भजिया

मराठी
१।  पगार यानी तनखाह

२।  पटेल यानी सरदार

यहाँ ख़वातीन के एहतराम के लिए ‘बिया’ का लफ़्ज़ ख़ास अहमियत रखता है, पहले ये शहज़ादियों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था। उसी तरह मर्दों के लिए ‘मियाँ’ का लफ़्ज़ बेहद इज़्ज़त से इस्तेमाल होता है, किसी की शराफ़त के लिये ‘वो तो मियाँ आदमी है’ या छोटे बच्चों को ‘मियाँ ज़रा इधर आइये’ कहा जाता है। भोपाल में ‘न’ या ‘नहीं’ की जगह पर ‘मत’ का बहुत इस्तेमाल होता है, ये ‘न कर’ की जगह ‘ये मत कीजिये’ और बेरोज़गारों को ‘मत कमाऊ’ कहा जाता है।

बोलने का लहजा
जहाँ तक ज़बान का ताल्लुक़ है भोपाली अपने आप में कोई पूरी ज़बान नहीं, ये उर्दू की तरह ही है बस इसे बोलने का फ़र्क़ इस ज़बान को मुख़्तलिफ़ मेयार पर खड़ा करता है। बहुत से लफ्ज़ों में जो बोलने का तरीक़ा है वो बुन्देली और मालवी से आया है, जैसे मीम या ‘म’ का जगह-जगह पर इस्तेमाल, मिसाल के तौर पर : दोस्त–मोस्त, गाड़ी–माड़ी, खातिर-मातिर वगैरह।  
यहाँ पर ‘बहुत’ को ‘भोत’, ‘मैं’ को ‘में’, ‘पैर’ को ‘पेर’, ‘आ रहा हूँ’ को ‘आ रिया हूँ’, ‘पत्थर’ को ‘फत्थर’, ‘काटने’ को ‘काईटना’, ‘बैठने’ को ‘बेठना’, ‘सौ’ को ‘सो’ कहा जाता है। कुछ बातों को संक्षेप में जैसे ‘नई बात लाये’ को ‘नई लाए’ और ‘मुँह की बात कहने दो’ को ‘मुँह की कहने दो’ वग़ैरह कहा जाता है।

यहाँ कुछ लफ़्ज़ बक़सरत इस्तमाल में लाये जाते है उनमें सबसे ख़ास है ‘ख़ां’, ख़ां लफ़्ज़ ख़ान से बना है, जल्दी में लोग इसे ख़ां ही कहते है, ‘क्यूँ’ या ‘क्या’ को लोग ‘को’ कहते हैं, अगर किसी भोपाली को किसी से पूछना हो कि कैसे हो तो वो कहेगा ‘को ख़ां’। क्यूँकि भोपालियों के रहन सहन में ख़ुशमिज़ाजी, तंज़-ओ-मिज़ाह पाया जाता है उनकी ज़बान में भी वो साफ़ दिखाई पड़ता है, वो किसी भी चीज़ को अंदाज़ या मुहावरों के साथ बोलते और सुनाते हैं, जैसे मुसीबत में फँस जाने को वो ‘फिलिम उलझ गई’ कहेंगे। किसी चीज़ का असर बताने के लिए कहेंगे ‘भोत तेज़’, किसी चीज़ की तारीफ़ करना हो ‘भोत कररा था वो ख़ां’ कहा जाएगा (ज़बरदस्त की जगह पर ‘कररा’ भोपाली मुहावरों में अक्सर इस्तमाल होता है)। इन बरसों में अंग्रेजी का प्रभाव भोपाली पर भी पड़ा और इस ज़बान में आते ही अंग्रेज़ी इस ज़बान की मालूम पड़ने लगी मसलन ‘ब्लाक’ बदलकर ‘बिलाक’ हो गया। ज़रूरत से ज़यादा नुक्तेदारी से इस ज़बान की साफ़गोई जो की दरबारों की ज़बानों को हासिल था वो तो जाती रही है पर अपना मख़सूस लहजा ज़रूर बन गया।  

कैसे ज़बान जगहों के नाम बुनती है उसकी एक छोटी सी मिसाल ये है की भोपाल में एक रेहट घाट हुआ करता था, भोपाली ज़बान में रेहट लफ़्ज़ रेट हो गया और अब उसे सब रेत घाट के नाम से जानते है।  

पटियेबाज़ी
एक ज़माने में लोग अपने घर के सामने बैठने की जगह बनवाया करते थे, ताकि लोग इत्मीनान से गुफ़्तगू कर सकें, धीरे-धीरे ये चलन इतना बढ़ा कि लोग कसरत से ये करने लगे, इन जगहों को पटियों का नाम दिया गया, यहाँ बड़े-बड़े मसलों पर बातचीत होने लगी, मजमे, शायरी की महफ़िलें, सियासती मुद्दों से लेकर, तारीखी मंज़र से लेकर आवाम के आम और नीजी मसाइल तक, यहाँ तक कि ये इतना बढ़ा कि भोपाल रियासत ने ख़ास पटियों को तामीर करवाया और तो और लोगों के बैठने की जगहें ठंडी रहे इसलिए उन्होंने वहाँ रोज़ पानी डालने का फ़रमान जारी किया, बल्कि रईस लोग तो इन पर बाक़ायदा बर्फ़ की सिल्लियाँ डालते थे ताकि शाम को लोगों को गर्मी दिक़्क़त पेश न आये। डॉ. रज़िया हामिद की किताब भोपाल दर्पण के एक क़िस्सा में जनाब मक़सूद असग़र[6] भोपाल के ख़ास पटियों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं :

भोपाल के यही पटिये थे, जिन्होंने डाक्टर शंकर दयाल शर्मा की सूरत में एक अज़ीम सपूत मुल्क को अता किया। जिसको सदरेजम्हूरियत का इफ्तिख़ार हासिल हुआ है भोपाल के इन्हीं पटियों पर मुल्क को आज़ाद कराने की जंग से लेकर आज़ाद हिन्दुस्तान बनाने की कोशिशो में हमारे बुज़ुर्ग लीडर मौलाना साइफ़दुल्ला ख़ां रजमी, मौलाना तरजी मशरिकी, ठाकुर लाल सिंह, बिहारी लाल घट, सुलतान मुहम्मद ख़ां, ख़ां हाशमी, अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान, शाकिर अली ख़ान, सय्यद प्रसाद, पंडित शिव नारायण वैद्य, मधुरा बाबु, पंडित चतुर नारायण मालवीय, लुत्फुल्लाह ख़ां नज़मी, और हमारे इज्ज़त मआब डाक्टर शंकर दयाल शर्मा न सिर्फ भोपाल के इन पटियों की शोभा बढाते रहे, बल्कि इन पटियों की वजह से ही इन हज़रात ने हमेशा रहने वाली शोहरत हासिल की और अपनी ज़िन्दगी में वो कारनामे अंजाम दिए जिनको सुनकर आज की नस्ल हैरत और ताज्जुब के समंदर में ग़ोते लगाने लगती है। इन बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा और कई तो इस बात पर यक़ीन की नहीं करेंगे कि भोपाल के इन्हीं पटियों ने मध्य प्रदेश की सियासी तारीख़ों  को नया मोड़, रियासत भोपाल के इन्डियन यूनियन में मिलने की तहरीक की शक्ल में दिया|[7]

ये पटिये भोपाल शहर की मुख़्तलिफ़ जगहों में वाक़े रहे है उस पर असग़र साहब की नज़र कहती है :

क़दीम भोपाल के पटियों में जुम्मेराती चौराहे के स्वर्गीय लखी भैया और मरहूम छोटे भैया की दुकान, अत्ता शुजा ख़ां में सय्यद ज़हूर हाश्मी के मकान, ठाकुर प्रसाद जी के मकान, पंडित ख़ुशी लाल वैद्य के मकान, नादिरा मेडिकल हाल, बुधवारे में गली फ़िरोज़ खेलान, इब्राहीमपूरा में मरहूम अहद होटल के सामने, यूनानी शिफ़ाख़ाने के मैदान की जूनूबी सिम्त लम्बे चौड़े पटिये, लक्ष्मी टॉकीज़ के समाने शर्मी टेलर मास्टर की दुकान के पटिये चौका बाज़ार में जामा मस्जिद, सराफ़ा बाज़ार के पटिये ख़ास अहमियत रखते हैं।[8]

आख़री
भोपाली पहली नज़र में सुनने वालों को एक मसालेदार और एक मज़ाहिया लहजा लिए हुई दिखाई दे सकती है, ये ज़ाहिर है कि आम बोल-चाल की ये ज़बान ग़ैर संजीदा है, पर ये अंदाज़े बयानी का फर्क है जो संजीदगी को भी मज़ाक का एक जामा पहना कर पेश कर देती है, और गहरी से गहरी बात लुत्फ़ो-अंदाज़ से कह देती है। बहुत से लिसानियात के तालिबे इल्म, हिस्टोरियन, बहुत बड़े आलिम जब भोपाली लहजे में बात करते हैं, सुनने वालों की दिलचस्पी बढ़ती जाती है, और वो हँसते खेलते बहुत सी बातें जान जाते हैं।  

इस ज़बान को वहाँ की अदबी ताक़तों और फ़रमाबरदारों ने फलने फूलने की जगह दी, और पटियेबाज़ी जैसी तहज़ीबी रवायतों से भोपाली ज़बान तरक़्क़ी की मनाज़िल तय करती चली गयी। अब भी मज़दूर पेशा, तांगा-ऑटो चलाने वाले, गैराज और चाय वाले, यानि कि वहाँ की असल अवाम इसका बकसरत इस्तेमाल करती है। क्यूंकि अहले भोपाल ख़ुद तंज़-ओ-मज़ाह पसंद थे, सो उनकी ज़बान में भी ये असर आना जायज़ था। जहाँ ये ज़बान बड़ी से बड़ी संजीदा बात मज़ाहिया ढंग से कहने का मोजज़ा रखती है, वहीं इसके घुमावदार लहजे को हर किसी का दिल जीत लेने का शफ़ा हासिल है।

 

[1] कुछ लफ़्ज़ों के मायने :

तारीख़-ओ-तख़लीक़ – इतिहास और निर्माण                                                  

तामीर – निर्माण

हयात – ज़िन्दा

मदऊ – आमंत्रण

मायूब – बुरा

मुख़्तलिफ़ – अलग-अलग

ग़लबा – मेलजोल, जोड़

करखनदारी - दिल्ली में बोली जाने वाली उर्दू को कहते हैं

बराए एहतेराम – एहतेराम (इज़्ज़त, सम्मान) के साथ

ख्वातीन – औरतें

बिया – शहज़ादियों को इज़्ज़त से कहा जाता था

मेयार – जगह

तंज़-ओ-मज़ाह – व्यंग्य

मज़ाहिया – मज़ाकिया

लिसानियात – भाषा शास्त्र

तालिबे इल्म – छात्र

फ़रमाबरदारों – फ़रमान देने वाले यानी, निज़ाम, नवाब

मनाज़िल – मंज़िल का बहुवचन

मोजज़ा – जादू 

शफ़ा – ताक़त

[2] मुंशी, सिर्फ नक़्शे क़दम बाक़ी रह गए .

[3] ख़ालिद आबिदी – लेखक, पत्रकार, टीवी तथा रेडियो में कई सालों तक काम किया.  

[4] जैसा कि उन्होंने लेखक से साक्षात्कार के दौरान बताया.

[5] रिज़वी, र्दू अदब की तरक़्क़ी में भोपाल का हिस्सा .

[6] मक़सूद असग़र – लेखक, पत्रकार, अफ़सानानिगार, पत्रिकाओं-रिसालों में लेखन.

[7] हामिद, भोपाल दर्पण .

[8] हामिद, भोपाल दर्पण .

सन्दर्भ
मुंशी, श्याम. सिर्फ नक़्शे क़दम बाक़ी रह गए. भोपाल: पहले पहल प्रकशन, 2017.

 रिज़वी, सलीम हामिद. उर्दू अदब की तरक़्क़ी में भोपाल का हिस्सा. दिल्ली: बाबुल इल्म प्रकशन, 2014.

 हामिद, रज़िया. भोपाल दर्पण. दिल्ली: बाबुल इल्म प्रकाशन, 1998.