हमारी दुनिया आज विकास के जिस सोपान पर है वहाँ तक पहुंच पाने का श्रेय उस धातु को है जिसे लोहा कहते हैं। इस चमत्कारी धातु के आदिम अविष्कारक और निर्माता.कलाकार के रूप में जिस भारत के जिस मानव समूह को चिन्हित किया जाता हैए वे हैं भारत के असुरए बिरजिया और अगरिया आदिवासी समुदाय। हालांकि अब इनकी नई पीढ़ी यह लोहा बनाने की कला भूल चुकी है। यह प्राचीनतम कला जो कम से कम दस हज़ार साल पुरानी हैए इन समुदायों के बीच से विलुप्त होने की कगार पर है। झारखण्ड राज्य के ‘असुर’ (जनसंख्या 8000) आदिवासी समुदायए जिन्होंने लेटेराइट खनिज खोजा और लोहा बनायाए उनके बीच भी अब लौहनिर्माण कला जानने वाले नहीं बचे हैं। असुर भारत के उन 75 अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं जिन्हें ष्विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूहष् (पी.वी.टी.जी) माना जाता है।
यूनेस्को के ष्वर्ल्ड एटलस ऑफ एनडेंजर्ड लैंग्वेजेज़ के अनुसार इनकी भाषा भी इनके लौहज्ञान की तरह विलुप्तिकरण की स्थिति में है। असुरों द्वारा लोहा बनाने की आदिम और पारंपरिक तकनीक पर औपनिवेशिक भारत में एसण्सीण् रायए वैरियर एलविन और केण्केण् लेउबा जैसे सुप्रसिद्ध मानवविज्ञानियों ने अध्ययन किया हैए लेकिन आज़ादी के बाद भारत की इस प्राचीन लौहकला पर कोई उल्लेखनीय अध्ययन का कार्य नहीं हुआ।
इस मॉड्यूल में असुरों की विलुप्त होती ष्लौहकलाष् के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने की कोशिश की गई है ताकि लोहा बनाने की इस आदिम विधि और कला परंपरा से आम लोग अवगत हो सकें। मॉड्यूल का पहला लेख लौह निर्माता आदिम आदिवासी समुदाय असुर सुमदाय का परिचय प्रस्तुत करता है। दूसरा आलेख असुरों की लौह कला परंपरा पर है। तीसरे लेख में असुर समुदाय की लौह कला की चित्रात्मक जानकारी प्रस्तुत की गई है।
नोट: इस मॉड्यूल में इस्तेमाल ज़्यादातर फोटोग्राफ स्वर्गीय श्री विजय गुप्ता के लिए हुए हैं। 5 जनवरीए 1979 को जन्मे विजय गुप्ता रांचीए झारखंड के युवा फोटो जर्नलिस्टए सिनेमेटोग्राफर और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर थे। मात्र 35 वर्ष की आयु में इनका असामयिक निधन 2 अक्टूबरए 2014 को हो गया। ये आदिवासियों के सामुदायिक संगठन ष्झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ाष् के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे और अपनी मृत्यु से पहले असुरों का विजुअल डॉक्यूमेंटेशन कर रहे थे। इस मॉड्यूल में शामिल उनके फोटोग्राफ लेखिका को उनकी पत्नी मनोनीत तोपनो और अखड़ा संगठन ने उपलब्ध कराए हैं।