मुक्तिबोध हिंदी कविता के प्रगतिशील व नई कविता आंदोलन से जुड़े कवि, आलोचक हैं | 13 नवंबर, 1917 को मध्यप्रदेश में जन्मे मुक्तिबोध 20वीं शताब्दी के सबसे सशक्त कवि, आलोचक माने जाते हैं | वे ‘नया खून’ और ‘वसुधा’ के सहायक संपादक भी रहे |
मुक्तिबोध को अपने जीवन काल में न तो बहुत पहचान मिली और न ही उनका कोई भी कविता संग्रह प्रकाशित हो सका | लेकिन उनकी असमय मृत्यु के बाद अचानक ही मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर छा गये | सबसे पहले उनकी कवितायें अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1943) में प्रकाशित हुई थीं | मुक्तिबोध ने कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना आदि लिखी और हर क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप अलग से महसूस किया जा सकता है | उन्हें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि साहित्यिक आंदोलनों के साथ जोड़कर देखा जाता है|
‘अंधेरे में’ और ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं | ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में कवि ने ‘ब्रह्मराक्षस’ के मिथक के जरिये बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और आम जनता से उसके अलगाव की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है | इस कविता के संदेश को यदि एक पंक्ति में व्यक्त करना हो तो कहा जा सकता है कि ‘अच्छे व बुरे के संघर्ष से भी उग्रतर/ अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर’ | लगभग इन्हीं आशयों की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ भी उन्होंने लिखी |
‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की अंतिम कविता है और शायद सबसे महत्वपूर्ण भी | इस कविता में सत्ता और बौद्धक वर्ग के बीच गठजोड़, उनके बेनकाब होने, सत्ता द्वारा लोगों पर दमन, पुराने के ध्वंस पर नये के सृजन, इतिहास के बारे में नयी अंतर्दृष्टि आदि देखने को मिलती है | ‘अंधेरे में’ स्वतंत्रता के बाद के भारत के दो दशकों का अख्यान नहीं है, उसमें हमारा संपूर्ण अतीत मुखरित होता सुना जा सकता है | शायद यही वजह है कि मुक्तिबोध को ‘सभ्यता समीक्षा’ शब्द बहुत प्रिय है | वे वर्तमान की घटनाओं को महज़ एक असंबद्ध घटना की तरह नहीं बल्कि उसके पीछे की पूरी कार्यकारण श्रृंखला के बतौर समझने की कोशिश करते हैं | जब वे इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, तो उनकी कवितायें लंबी होती चली जाती है | उन्होंने खुद भी लिखा है कि उनकी जो भी कवितायें छोटी हैं, वे छोटी नहीं बल्कि अधूरी है | मुक्तिबोध ने कविताओं के अलावा कहानियां भी लिखीं | उनकी कहानियां भी कविताओं का ही विस्तार और कई बार उनका पूर्वाभ्यास लगती हैं | कहानियों ने भी वही जटिलता और संश्लिष्ट बिंबों वाली भाषा मौजूद है, जो उनकी कविताओं की विशिष्टता है |
मुक्तिबोध ने हिंदी आलोचना में भी महत्वपूर्ण योगदान किया | उन्होंने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्तक के जरिये कामायनी पर चली आ रही तमाम बहसों को एक नये स्तर तक उठा दिया | उन्होंने कामायनी को एक विशाल फैंटेसी के रूप में पढ़ने की कोशिश की, जिसमें ढहते हुए सामंती मूल्यों की छाया स्पष्ट देखी जा सकती है | रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक ‘उर्वशी’ पर चली बहस में उनका हस्तक्षेप बहुत कारगर था, जिसमें उन्होंने ‘उर्वशी’ को व्यर्थ में महिमामंडित करने का तीखा प्रतिवाद किया | मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन का भी नये सिरे से मूल्यांकन किया और स्थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का शोषक जातियों के खिलाफ विद्रोह था | बाद में शोषक जातियों ने इस आंदोलन पर नियंत्रण हासिल कर लिया और भक्ति आंदोलन पूरी तरह बिखर गया | उन्होंने साहित्य की रचना प्रक्रिया के बारे में भी महत्वपूर्ण लेखन किया | रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में ‘कला का तीसरा क्षण’ हिंदी साहित्य की बड़ी उपलब्धि है |
कुछ विद्वान मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित बताते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते है | डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया है | लेकिन मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे | आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया |
मुक्तिबोध के बाद के कवियों पर उनका व्यापक असर है | अनेक विश्वविद्यालयों में मुक्तिबोध की कविताओं व आलोचना पर शोधकार्य हुए हैं और हो रहे हैं | निर्देशक मणि कौल ने उनकी कहानी ‘सहत से उठता आदमी’ पर एक फिल्म का निर्माण किया | 2004 में मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और बलदेव मिश्र की स्मृति में राजनांदगांव में एक स्मारक का निर्माण किया गया |
मुक्तिबोध की रचनाएं
चांद का मुंह टेढ़ा है (कविता संग्रह), 1964, भारतीय ज्ञानपीठ
काठ का सपना (कहानियों का संकलन), 1967, भारतीय ज्ञानपीठ
सतह से उठता आदमी (कहानियों का संकलन), 1971, भारतीय ज्ञानपीठ
नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध (निबंध), 1964, विश्वभारती प्रकाशन
एक साहित्यिक की डायरी (निबंध), 1964, भारतीय ज्ञानपीठ
विपात्र (उपन्यास), 1970, भारतीय ज्ञानपीठ
नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र, 1971, राधाकृष्ण प्रकाशन
कामायनी : एक पुनर्विचार, 1973, साहित्य भारती
भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), 1980, राजकमल प्रकाशन
मुक्तिबोध रचनावली (समग्र, 6 खंडों में), संपादक: नेमिचंद्र जैन, 1980, राजकमल प्रकाशन
समीक्षा की समस्यायें, 1982, राजकमल प्रकाशन
डबरे पर सूरज का बिंब, 2002, नेशनल बुक ट्रस्ट
मुक्तिबोध की कवितायें, (कविताओं का संकलन), 2004, साहित्य अकादमी