बदलती-बिगड़ती और बिखरती हिंदी

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Published on: 13 September 2018

पल्लव

पल्लव दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं, साथ ही 'बनास जन' के सम्पादक हैं। यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।

किसी भी बनती हुई भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं रहता और वह समय के साथ बदलती रहती है। हिंदी का जीवन मुश्किल से दो सौ साल का है। एक युवा भाषा के इस छोटे से जीवन में बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया सतत रही है। (Photo: Day Translations Team/Wikimedia Commons)

 

हिन्दी के लिए यह संक्रमण का दौर है। यह ऐसा दौर है जिसमें भूमंडलीकरण की शक्तियां किसी भी ऐसे विचार का विरोध कर उसे नष्ट करने या अप्रासंगिक बनाने पर आमादा हैं जो मनुष्य को महज उपभोक्ता बनाने का विरोध करता है। हम जानते हैं कि भाषा विचारों की वाहक होती है और किसी भाषा का गद्य जितना परिमार्जित और सुथरा होगा वह भाषा और उसे बोलने वाली जाति उतनी ही प्रभावशाली होती है, अंग्रेजी का उदाहरण हमारे समक्ष है ही। हिन्दी पर इस दौर में जो आक्रमण हुए हैं उनमें मुख्यत: तीन आक्रमण हैं: पहला है इतिहास की गति में स्वत: होने वाले बदलाव, दूसरा है विचार विरोधियों का भाषा को बिगाड़ना, और तीसरा मान्यता के नाम पर बोलियों-उपभाषाओं का विखण्डनवादी रवैया। 

 

किसी भी बनती हुई भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं रहता और वह समय के साथ बदलती रहती है। हिंदी का जीवन मुश्किल से दो सौ साल का है। एक युवा भाषा के इस छोटे से जीवन में बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया सतत रही है। किसी हिन्दी भाषी के मुंह से अब 'आवेंगे', 'जावेंगे' जैसे शब्द मुश्किल से सुनाई देते हैं, जबकि ७०-८० वर्ष पूर्व की हिंदी में ये शब्द अत्यंत स्वाभाविक थे। यह भाषा की स्वाभाविक गति है कि वह कठिनता से सरलता की तरफ बढ़े। इसी तरह एक भाषा में दूसरी भाषाओं-बोलियों के शब्दों का मिलना भी स्वाभाविक है, हिंदी अपने क्षेत्रों की बोलियों से बनी है तो उसमें यह मिलावट और अधिक है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, भोजपुरी, कुमाऊंनी और गढ़वाली के साथ मैथिल तथा पंजाबी के शब्द भी हिंदी में बहुतायत से आते रहे हैं और अभी भी यह प्रक्रिया जारी है। अपने शब्दों, क्रिया पदों का धीरे-धीरे विलोप होते जाना भी इसी प्रसंग में समझना चाहिए। इसमें ध्यान रखना होगा कि देशज भाषाओँ-बोलियों के शब्दों का हिंदी में आगमन हिंदी के स्वाभाविक स्वरुप को विकृत न करे। मसलन - 'मैंने खाना खाया' के स्थान पर 'हम खाना खा लिया हूँ' को सही मानने की हड़बड़ी न फ़ैल जाए। 

 

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इसी तरह हिंदी में दूसरी भाषाओँ के शब्दों के घालमेल का सवाल है। आज की हिंदी में संस्कृत, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट अत्यंत सहज और स्वीकार्य लगती है लेकिन कई शुद्धतावादी इसे उचित नहीं समझते। इस पर विचार किया जाना चाहिए और हिंदी की प्रकृति तथा आवश्यकता के अनुसार लचीला रूख अपनाया जाना सही होगा। मसलन ट्रेन के लिए 'रेल' शब्द का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन चाय के प्याले या प्याली के लिए 'कप्स' का उपयोग नितांत फूहड़ होगा। इसका सहज तर्क हमारी भाषा के बुनियादी संस्कारों और परिवेशजन्य विशिष्टताओं से है। कंप्यूटर हो या ट्रैक्टर यदि ये पश्चिम से आए हैं अंग्रेजी शब्दावली में इन्हें समझा जा सकता है तो इसमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए जैसे अरबों के साथ आई जलेबी हमारी भाषा ही नहीं जीवन का अंग हो गई। इस प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि ऑक्सफ़ोर्ड द्वारा प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी शब्दकोष के प्रत्येक नए संस्करण में समाहित हिंदी शब्दों पर हम लोगों को प्रसन्नता होती है तो एक युवा और बन रही भाषा हिंदी में दो-चार सौ अंग्रेजी भाषा के शब्द आ जाने में कोई हेठी न समझी जानी चाहिए।  

 

दूसरा सवाल है भाषा का विरूपीकरण। हिन्दी अखबारों और टीवी चैनलों को नये फैशन में ढालने की चाहत और जिद में यह काम दुतरफा हो रहा है। एक तरफ बाजारवादी शक्तियां हैं जो भाषा को बिगाड़ने में अपने स्वार्थों की सिद्धि देखती है वहीं हमारे हिंदी भाषी युवा पत्रकार और टीवी पर समाचार-कार्यक्रम प्रस्तोता अपने को आधुनिक दिखाने की चाह में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह सर्वथा फूहड़ और हास्यास्पद होती है। असल में वे आधुनिक होने को विचारों से नहीं फैशन से जोड़ते हैं जबकि आधुनिक होना विचारों से सम्भव होता है। यह हिन्दी बहुत नुकसान करने वाली है जिसमें - 'यह दिल मांगे मोर' या 'दिवाली सेलिब्रेशन' जैसे पदबंध होते हैं। असल में यह भाषा को विरूपित और अंतत: नष्ट करने का रास्ता है जिसमें भाषा की गति इस तरह की हो जाती है जिसमें वह किसी गंभीर विचार को वहन करने की स्थिति में ही न रह जाए। जब भाषा असमर्थ हो जाएगी तभी तो मानसिक गुलामी सम्भव हो सकेगी। मोबाइल फोन के एसएमएस ने यह काम कर दिया है जहां न हिंदी है और न अंग्रेजी, इस भाषा के साथ आगे आने वाली पीढ़ियाँ क्या अपनी बात किसी समर्थ ढंग से कह भी सकेंगी? बिगड़ी हुई भाषा में संवादोत्सुक युवा इस अभ्यास के बाद क्या एक प्रेम पत्र लिखने में भी समर्थ रह जायेंगे? अभी चिट्ठियाँ खत्म हुई हैं और उनके साथ विचार करने की आत्मीयता, संबंधों की गर्मजोशी और कल्पना-लालित्य की भी जैसे भाषा से विदाई की शुरुआत हो गई है। हालत यह है कि एक युवा अपने बारे में १० मिनिट नहीं बोल सकता। यह भाषा को बिगाड़ने और उसे 'फन' की चीज़ बनाने का ही परिणाम है। अनेक ऐसे युवा मिलेंगे जो किसी विषय पर विचार करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन गंभीर भाषा का अभ्यास न होने से वे कोई कायदे की बात कह पाने में असमर्थ ही रहते हैं। इस कारण उनका विचार भी आधा-अधूरा और अपरिपक्व रह जाता है उनकी हालत कुछ ऐसी होती है कि वे विडंबनाओं के अजब पुतले भर रह जाते हैं। यह विचारशून्य युवा समूह केवल उपभोक्ता हो सकता है जो बाजार की चाहतों को पूरा करने के अलावा कुछ भी करने में असमर्थ रहता है। वह न कला संस्कृति की समझ रख पाता है और न ही किसी गंभीर कला सृजन का आस्वादन कर ले पाने में ही समर्थ हो पाता है।

 

भाषा के असमर्थ होते जाने का ही परिणाम है कि हलका और अगंभीर बोलने वाले राजनेता भी उच्च पदों पर पहुँचते जा रहे हैं। आजादी के बाद बनी संसद में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद और राममनोहर लोहिया ही नहीं अनेक ऐसे नेता थे जिन्होंने समर्थ भाषा के कारण अपनी मान्यताओं को देश के सामने रखा।  

 

तीसरा खतरा भीतर से है और जिसे बहुत चिंताजनक मानना चाहिए। हिन्दी की बोलियाँ रही विभिन्न उपभाषाएँ-भाषाएँ अब अपने स्वतन्त्र अस्तित्त्व की आकांक्षा में हिन्दी से अलग होना चाहती हैं और इसके लिए वे संविधान से मान्यता चाहती हैं। ऊपर से इसमें अधिक बुराई न देख सकने वाले मित्र विखंडन की इस प्रक्रिया को भाषाओं के विकास से जोड़ देते हैं। लेकिन क्या यह सचमुच भाषाओं का विकास है?

 

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भारतीय गणराज्य के समर्थन और लगभग अधिकांश लोगों द्वारा नैतिक रूप से राष्ट्रभाषा मान ली गई हिन्दी को जब हम ६० साल में ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने में सफल नहीं हो सके तब राजस्थानी और भोजपुरी जैसी भाषाओं में इस बात की कल्पना ही कठिन है कि वैज्ञानिक विचार या राजनैतिक दर्शन पर कोई आधुनिक अध्ययन इन भाषाओं में मिले। दैनंदिन जीवन के तमाम काम भी जब हम इन भाषाओँ में नहीं कर पा रहे हैं तब पुराने साहित्य के भरोसे अलग अस्तित्व की मांग करना सचमुच अनोखा है। यह सही है कि ये भाषाएँ माँ के दूध के साथ हमें मिली हैं लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए ब्रज और अवधी ने अपने को हिंदी ही मान लिया था। 

 

आज भी कुछ लोगों को लगता है कि सुनहरे अतीत वाली इन भाषाओं का स्वतंत्र अस्तित्व अधिक समीचीन होता लेकिन विचारणीय है कि जिस आधुनिक संवेदना ने हिंदी का स्वरूप निर्मित किया था उस संवेदना का निर्वाहन  गद्य में इन भाषाओं के लिए कितना सम्भव था। कवि सुमित्राननदन पंत ने इस बात पर लम्बी बहस की है कि काव्य भाषा ब्रज के स्थान पर खड़ी बोली हिंदी को क्यों होना चाहिए। रोज़मर्रा की आवश्यकता पूर्ति के साथ ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली से संपन्न होकर ही कोई भाषा सचमुच भाषा हो सकती है, कविताओं से साहित्य का निर्माण हो सकता है, लेकिन जीवन की कठोर वास्तविकताएं भाषा को व्यापक और मजबूत गद्य वाली होने की मांग करती हैं। भला आज भी सूरदास और तुलसीदास सरीखा लेखन किन बोलियों-भाषाओं में कोई कर पाया है? 

 

इस दौर में असल चुनौती मनुष्य को उपभोक्ता बन जाने से रोकने की है जिसकी अंतिम परिणति धन पशु हो जाने में है। भाषा वह औजार है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करती है और विचारवान बनाती है। इस चुनौती के समय हमें विखंडन का नहीं सामूहिकता का मार्ग चुनना होगा जो हमारी भाषा को सचमुच आधुनिक बनाए और जिसमें ज्ञान-विज्ञान का निर्माण सुगम बन सके। 

 

इस लेख के लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं, साथ ही  'बनास जन' के सम्पादक हैं। यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।