उधमपुर केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर का एक सुरम्य पर्वतीय जिला है। जनश्रुति के आधार पर कहा जा सकता है कि उधमपुर का पुराना नाम बुद्धापुर था। इस जिले का आधुनिक नाम महाराजा गुलाब सिंह (1792-1857 ईसवी) के सबसे बड़े सुपुत्र राजा उधम सिंह के नाम पर रखा गया था[1]। राजा उधम सिंह इस इलाके में अक्सर शिकार खेलने आया करते थे और उनकी दुर्घटनावश मृत्यु हो जाने पर, उनकी स्मृति में महाराजा गुलाब सिंह ने इस प्रदेश का नामकरण किया था। उधमपुर में बहने वाली पवित्र देविका नदी, जिसका उल्लेख हमें छठीं शताब्दी अथवा उस से भी प्राचीन समय में कश्मीर में लिखे गये ग्रन्थ नीलमत पुराण में मिलता है[2], इसी पवित्र देविका नदी के कारण उधमपुर को देविका नगरी भी कहा जाता है। नीलमत पुराण के अनुसार माता पार्वती ही मद्र देश (जोकि जम्मू संभाग अथवा डुग्गर प्रदेश का प्राचीन नाम है) के कल्याणार्थ देविका नदी के रूप में इस धरा पर अवतरित हुई थीं। इसी क्रम में अगर इस जिले की ऐतिहासिकता की बात की जाए तो कुछेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं– उधमपुर के मनवाल नामक छोटे से कस्बे में नन्द बबौर मन्दिर, देवी भगवती मन्दिर, काला डेरा मन्दिर, डेरा मन्दिर इत्यादि प्राचीन मन्दिर हैं जो कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित हैं और इनका समयकाल दसवीं शताब्दी का स्वीकृत किया जाता है[3]। इसी तरह उधमपुर के क्रिमची नामक गाँव में प्राचीन सात मन्दिरों का समूह मिलता है जो कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार आठवीं से नौंवीं शताब्दी में बनाए गये थे। स्थानीय जनश्रुति के आधार पर माना जाता है कि महाभारतकालीन पात्र कीचक इसी क्षेत्र का अधिपति था और पाण्डवों के वनवास का भी इस क्षेत्र से संबंध था। सुद्ध महादेव मन्दिर, जोकि किसी समय शुद्ध महादेव के नाम से प्रसिद्ध रहा होगा, भी आज के उधमपुर की प्राचीनता को कम से कम दो हज़ार साल पीछे ले जाता है। इसका कारण इस प्राचीन मन्दिर में अवस्थित एक प्राचीन त्रिशूल है, जिस पर ब्राह्मी लिपि में एक अभिलेख प्राप्त होता है और यह सर्वविदित तथ्य है कि ब्राह्मी लिपि का समयकाल छठी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी तक माना जाता है[4]
उपर्युक्त उद्धरणों से उधमपुर जिले की ऐतिहासिकता अपने आप में सिद्ध होती है। ऐतिहासिक स्थलों के साथ साथ उधमपुर में पत्नीटाप, नत्थाटाप और सनासर जैसे पर्यटक स्थल भी हैं जहाँ जाकर पर्यटक जीवन की आपाधापी को एक क्षण में भुलाकर मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।
उधमपुर के प्राकृतिक जलस्रोत (बावलियाँ) और उनके आकार-प्रकार–
लोकमान्यता के अनुसार उधमपुर को बावलियों, चश्मों की धरती कहा जाता था जिसके अवशेष आज भी इस प्रदेश के कोने-कोने में दिखाई देते हैं। कहा जा सकता है कि जल प्रबन्धन की ये स्थानीय परम्परा थी। यहाँ की आँचलिक डोगरी भाषा में किसी भी प्राकृतिक जलस्रोत, चश्मे अथवा सोते को बौली, बाँ, सुत्ता, नाडू और नौण भी कहा जाता था, जो कि बावली के आकार–प्रकार पर निर्भर करता था। इनमें अधिकांशतः पत्थर या लकड़ी का नल या सामान्य भाषा में टोंटी लगाकर इनकी जलधारा को सन्तुलित किया जाता था।
कश्मीर या हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में इन जलस्रोतों वाली जगहों को नाग कहा जाता था, ऐसे स्थानों के नाम आज भी हमें सुनने को मिलते हैं जैसे वेरीनाग, अनन्तनाग और भागसूनाग इत्यादि। इन बावलियों के आकार भी दो से दस फुट तक की गहराई तक के होते थे, जिनमें जलधारा गिरती थी, और ये चौकोर उल्टे पिरामिड की तरह बनाए जाते थे[5] चूंकि उधमपुर एक पर्वतीय प्रदेश है तो बनावट पूरी तरह पत्थरों की ही रहती थी। आधुनिक दौर में अब सीमेंट और टाइल्स भी दिखने लगी हैं।
बावलियों का महत्व–
ये बावलियाँ न केवल पीने का पानी, नहाने, जानवरों, मवेशियों हेतु पानी और सिंचाई के साधन के रूप में काम करती थीं बल्कि ये अपने आप में गाँव-देहात की चौपाल हुआ करती थीं, जहाँ पर सब गाँव वालों के सुख–दुख की ख़बर मिला करती थी। स्नान के बाद स्थानीय जन अपनी धार्मिक क्रियायें भी कर लिया करते थे, इसीलिए बावलियों की शिलाओं पर देवमूर्तियाँ निर्मित की जाती थीं और जम्मू संभाग, जिसमें उधमपुर भी आता है, में अधिकांश बावलियों के पास छोटे–छोटे देवमन्दिर या शिवालय अवश्य मिलेंगे। समय के साथ जिनका स्वरूप बढ़ता घटता रहा है। ये छोटे–छोटे मन्दिर चाहे वे शैव, वैष्णव, शाक्त, अथवा स्थानीय कुलदेवताओं से सम्बन्धित थे, इनको स्थानीय डोगरी भाषा में चकुण्डी कहा जाता था। क्योंकि सामान्यतः ये मन्दिर चार स्तम्भों वाले होते थे और आकार में भी छोटे ही होते थे। हालांकि बदलते समय ने बावलियों के साथ–साथ इनके स्वरूप में भी बदलाव लाए हैं, परन्तु ग्रामीण इलाकों में ये परम्परा अभी भी जीवित है।
तो कहा जा सकता है कि जल रूपी जीवन देने के साथ–साथ इन बावलियों का सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व भी था।
उधमपुर की बावलियों की पाषाण कलाकृतियों के विषय–
उधमपुर की बावलियों पर स्थापित पाषाण कलाकृतियाँ स्थानीय रूप से उपलब्ध पत्थरों पर ही उकेरी गयी हैं और अधिकांशतः चौकोर पत्थर जो कि एक फुट से लेकर चार या उससे अधिक आकार में भी उपलब्ध होते हैं। इन मूर्तियों के विषय धार्मिक से लेकर तत्कालीन प्रथाओं और राजशाही तक को अभिव्यक्त करते हैं। ज़्यादातर कलाकृतियों के विषय धार्मिक ही हैं, उसके पीछे कारण ये है कि स्थानीय डोगरा जो समाज है वह प्राचीन काल से ही अत्यन्त धार्मिक एवं वीर समाज रहा है। इन कलाकृतियों में शैव कलाकृतियाँ, वैष्णव कलाकृतियाँ, शाक्त कलाकृतियाँ, नाग, यक्ष, गन्धर्व, स्थानीय देवी–देवता, युद्धों में वीरगति प्राप्त किये हुए योद्धा (जिनको स्थानीय समाज में देवता समान पूजा जाता था), सती देवियाँ (जिनको आँचलिक डोगरी भाषा में शीलावन्ती कह कर पूजा जाता था), तान्त्रिक मण्डल जैसे नागबन्ध, भैरव, स्थानीय सामन्त अथवा रजवाड़ों इत्यादि की कलाकृतियाँ प्राप्त होती हैं। इन कलाकृतियों का अध्ययन करने पर एक बात साफ हो जाती है कि उधमपुर ही नहीं अपितु पूरे जम्मू संभाग की ऐसी कोई बावली या चश्मा न होगा जहाँ पर नागमूर्ति न हो। कहा जा सकता है कि जम्मू संभाग जिसे डुग्गर अथवा डोगरा प्रदेश कहा जाता है यहाँ नागों को जलस्रोतों के रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता था[6]
नागपूजा का इतिहास एवं परिचय–
नाग उपासना का पूरे भारत में प्राचीन काल से प्रचार रहा है, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चाहे कितनी ही भाषाएं, संस्कृतियाँ, मौसम, प्राकृतिक परिवेश बदल जाएं परन्तु नाग पूजा का अस्तित्व सब जगह था और अभी भी ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है। प्राचीन मिस्र एवं यूनानी सभ्यताओं में भी नागपूजा के संकेत मिलते हैं[7]। नागपूजन अथवा नागों का उल्लेख वैदिक साहित्य में यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता में भी मिलता है। इसी प्रकार अथर्ववेद में भी नाग उपासना का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण और आश्वलायन गृह्यसूत्र जैसे ग्रन्थों में नागपूजन के उदाहरण प्राप्त होते हैं। अमरकोश, जोकि संस्कृत का प्राचीन (चतुर्थ सदी ईसवी) शब्दकोश माना जाता है, में भी नाग अथवा सर्प शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं। नाट्यशास्त्र जिसका समयकाल पाँच सौ ईसा पूर्व से पाँच सौ ईसवी के बीच का स्वीकृत किया गया है, उसमें भी नाटक प्रारम्भ करने से पहले जो देव प्रार्थना की गयी है उसमें नागों से भी प्रार्थना की गयी है। पुराण साहित्य में मत्स्यपुराण और पद्मपुराण में ऐसे उल्लेख मिलते हैं। बौद्धधर्म की जातक कथाएं भी नागों के उल्लेख से अछूती नहीं हैं। महाभारत के आदिपर्व में भी नागों की उत्पत्ति की कथा वर्णित है। आगे चलकर स्वयं अर्जुन नागकन्या उलूपी एवं चित्रांगदा से विवाह करते हैं।
लोक अथवा समाज में नाग–
भारतीय समाज में परम्परा से ही श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम और श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण जी को शेषनाग के अवतार के रूप में मान्यता प्राप्त है। साधारण जनमानस में नागों का धार्मिक महत्व तो रहा ही है रोजमर्रा के जीवन से भी नागों का सम्बन्ध रहा है। सामान्य जनमानस में भी नागमणि और इच्छाधारी नागों की कई कथाएं प्रचलित रही हैं, आज भी कोई भी भारतीय विवाह नागिन नृत्य के बिना अधूरा ही माना जाता है। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री भी इस विषय से अछूती नहीं है। योग आसनों में भुजंगासन और कुण्डलिनी शक्ति जैसी यौगिक क्रियाओं का भी सीधा सम्बन्ध नागों से है। हमारे समाज की कई कहावतें भी नागों अथवा साँपों से जुड़ी हुई हैं।
जम्मू-कश्मीर में नागपूजा–
जम्मू-कश्मीर के स्थानीय ऐतिहासिक ग्रन्थ जैसे नीलमत पुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, वासुकि पुराण और राजतरंगिणी जैसे ग्रन्थ स्थानीय नाग सम्प्रदायों, नागपूजन के विधि–विधानों, नाग वंशों (जैसे कश्मीर का कर्कोटक वंश) आदि की कथाओं से भरे पड़े हैं। अबुल फजल आईने अकबरी में लिखते हैं कि तत्कालीन कश्मीर में नागों अथवा सर्पों से सम्बन्धित सात सौ पवित्र तीर्थस्थल थे[8]। नीलमत पुराण में तो नागों को ही कश्मीर के पहले निवासी कहा गया है, कालान्तर में मनुष्यों का कश्मीर में निवास हुआ। कश्मीर के ग्याहरवीं सदी के कवि क्षेमेन्द्र अपनी समयमातृका नामक रचना में कश्मीर में होने वाले तक्षक–यात्रा नाम के महोत्सव का वर्णन करते हैं। जम्मू संभाग में नागों को स्थानीय कुल–देवता के रूप में लगभग प्रत्येक घर गाँव में आज भी पूजा जाता है। स्थानीय कुलदेवता या ग्रामदेवता के रूप में पूजित इन नाग देवताओं के नाम कुछ इस प्रकार हैं– भैड देवता, सुरगल देवता, भुड्डर देवता, कै देवता आदि। इन कुल देवताओं के मन्दिर, जिन्हें स्थानीय भाषा में देहरी कहा जाता है, इन मन्दिरों में आज भी वार्षिक पूजा एवं भोज का आयोजन बड़े उत्साह से किया जाता है। जनश्रुति के अनुसार ये सभी वासुकि नाग के पुत्र माने जाते हैं। डुग्गर प्रदेश में किया जाने वाला स्थनीय कुद नृत्य भी नाग देवता की प्रसन्नता अथवा कृपा प्राप्त करने के लिये किया जाता है जोकि आज भी एक जीवित परम्परा है।
उधमपुर क्षेत्र की बावलियों में नागमूर्तियाँ–
उधमपुर की बावलियों में विभिन्न प्रकार की नाग अथवा सर्प कलाकृतियाँ प्राप्त होती हैं जैसे सामान्य कुण्डली मार कर बैठा हुआ नाग, दो अथवा अधिक नागों के संयोग से निर्मित नागबन्ध जिसे तान्त्रिक मण्डल भी कहा जाता है[9], और बलराम अथवा लक्ष्मण के स्वरूप में शेषनाग जोकि आधे मनुष्य और आधे नाग के स्वरूप में चित्रित हैं। ज़्यादातर कुण्डली मारी हुई आकृति लगभग प्रत्येक बावली पर मिल जाती है।
तान्त्रिक मण्डलों के अन्तर्गत नागबन्ध वाली दो सुन्दर कलाकृतियाँ भी देखने योग्य हैं, समय के प्रभाव के बावजूद जो अपने प्राचीन वैभव को अपने में संजोये हुये हैं।
बलराम अथवा लक्ष्मण के माध्यम से शेषनाग का चित्रण भी देखने योग्य है।
इसी अध्ययन के दौरान ही उधमपुर की सैन्कड बावली में मूर्तिकला की जो वैकुण्ठ चतुर्मूर्ति अथवा वैकुण्ठ विष्णु शैली है उसकी भी झलक मिलती है। जो कि गान्धार मूर्तिकला एवं गुप्त काल से अभिप्रेरित थी और जिसके उद्भव और प्रचार प्रसार का श्रेय पूरी तरह से कश्मीर को जाता है। ये शैली कश्मीर में आठवीं से बाहरवीं शताब्दी तक प्रचार में थी। खजुराहो के लक्ष्मण मन्दिर में भी जिसकी झलक मिलती है। इस शैली का इस छोटे से प्रदेश की एक अज्ञात सी बाबली में मिलना एक आश्चर्यजनक संयोग है, जिसके अध्ययन और संरक्षण की नितान्त आवश्यकता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि केन्द्रशासित जम्मू और कश्मीर का यह उधमपुर जिला अपने आप में इतिहास के एक बड़े अध्याय को संजोए हुए है, जिसे समय रहते सहेजना आज के समय की आवश्यकता है अन्यथा हम अतीत की इस धरोहर को खो देंगे।
[1] https://hindi.indiawaterportal.org/content/udhampur-land-natural-springs/content-type-page/56957
[2] Reclaiming Holy Devika, Daily Excelsior, 15 August, 2016
[3] Ashok Jerath, Dogra Legends of Art & Culture, (New Delhi: Indus Publishing, 1998).
[4] गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, (संस्करण 1996), शब्द महिमा प्रकाशन जयपुर
[5] प्रो० ललित गुप्ता, अप्रकाशित पाण्डुलिपि
[6] वही
[7] Meenu Chib, ‘Naga Worship in Jammu & Kashmir’, Ijrar issue 4, vol. 4 (2017).
[8] Abul Fazl, Ain-i-Akbari, Vol-2, 2nd Edition.
[9] Ashok Jerath, Folk Art of Duggar, (New Delhi: Atlantic Publishers, 1999).
सन्दर्भ सूची–
Jerath, Ashok. Dogra Legends of Art & Culture. New Delhi: Indus Publishing, 1998.
Jerath, Ashok. Folk Art of Duggar. B-2, Vishal Enclave, Najafgarh Road, New Delhi: Atlantic Publishers, 1999.
News Article by Bivek Mathur, Udhampur: Once a town of 500 Bowlis Is Fast Losing its Springs, Kashmir Ink, September 10, 2018 http://www.kashmirink.in/news/specialreport/udhampur-once-a-town-of-500-bowlis-is-fast- losing-its-springs/692.htm
News Article by Chander M. Bhat, Udhampur the Land of Natural Springs. https://hindi.indiawaterportal.org/content/udhampur-land-natural-springs/content-type- page/56957
ज्योतीश्वर पथिक. ‘डुग्गर दी मूर्ति कला’, ग्रन्थ – डुग्गर दा सांस्कृतिक इतिहास, दूसरा संस्करण. सम्पादक अशोक गुप्ता. भाषा डोगरी. जम्मू: जे एण्ड के अकैडमी आफ आर्ट कल्चर एंड लैन्ग्वेजिज, २०१०.