हिंदी उपन्यास की परंपरा इतनी तो गहरी और विभिन्न रंगो से भरपूर है की इस छोटे से लेख में इस विषय को न्याय देना असंभव ही है | मगर फिर भी, अगर हिंदी उपन्यास की बात करनी ही हैं, तो उसके लिए एक विशिष्ट पद्धति का विनियोग करना अनिवार्य होगा | मैं समझता हूँ की हिंदी उपन्यास के विकास की बात मील के पत्थर समान कुछ चुने हुए उपन्यास लेकर की जा सकती है | प्रस्तुत लेख में यही मेरी पद्धति और उपक्रम होंगे | इस लेख की संरचना कुछ इस प्रकार हैं - पहले मैं हिंदी में उपन्यास लिखने की जब शुरुआत हुई उस वक्त का ऐतिहासिक संदर्भ दूँगा, और उस संदर्भ के प्रकाश में मैं मील के पहले पत्थर समान श्रीनिवासदास लिखित उपन्यास परीक्षागुरु (१८४३) की बात करूँगा | उसके बाद चर्चा राष्ट्रवाद के समय का संदर्भ देगी, और उसके प्रकाश में हिंदी कथा-साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देनेवाले प्रेमचंद के उपन्यास गोदान (१९३६) की बात की जायेगी | प्रेमचंद के बाद आनेवाली पीढ़ी में सच्चिदानंद हिरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का नाम प्रमुख हैं | ‘अज्ञेय’ का उपन्यास शेखर: एक जीवनी (१९४१-४४) हिंदी में लिखे गए सर्व-श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक हैं | प्रेमचंद की परंपरा से हटकर शेखर: एक जीवनी द्वारा हिंदी-उपन्यास में कौनसे बदलाव आए उसकी बात होगी | अंत में नयी कहानी के बारे में कुछ बात करके इस युग में कैसे उपन्यास का भी रूपान्तर हुआ उसकी चर्चा के साथ इस लेख का समापन किया जायेगा |
हिंदी उपन्यास की शुरुआत और ‘परीक्षागुरु’
लाला श्रीनिवासदास व्यवसाय से एक व्यापारी थे और अपने जीवन अनुभव को उन्होंने बखूबी रूप से इस उपन्यास में ढाला हैं | परीक्षा-गुरु मदनमोहन नाम के एक रईस व्यापारी की कहानी हैं | वह दिल से अच्छा इन्सान है पर गलत संगत में आकर वह पतन को न्योता देता हैं | कर्जे में डूब जाने की वजह से उसे कारावास भुगतना पड़ता है, और उसका वकील दोस्त ब्रजकिशोर उसे मुक्ति दिलाता हैं जिसके बाद उसका ह्रदय-परिवर्तन होता हैं |
इस उपन्यास को ४१ सर्गो में बाँटा गया हैं | इस दौरान लिखे गए उपन्यासों के कुछ सामान्य लक्षण निम्न-लिखित हैं -
1. कर्म के सिद्धांत में अत्यंत श्रद्धा
2. धर्म का पुनर्वास
3. पाप कितने गहरे हैं उसके हिसाब से उसका फल मिलना
4. राजा एवं खुद के धर्म के प्रति एक तरह का भक्तिभाव (Mishra 1973)
आखरी लक्षण के अलावा परीक्षा-गुरु में और सभी लक्षण मौजूद है | यह उपन्यास अंग्रेज़ उपनिवेश के दौरान लिखा गया था | उपन्यास को एक आधुनिक स्वरूप माना जाता है, और जहा तक हिंदी उपन्यास की बात है, तो हम कह सकते है कि हिंदी उपन्यास की गाथा परंपरा और आधुनिकता के बीच के द्वंद्व की गाथा है | परीक्षा-गुरु में भी यह द्वंद्व साफ़ दिखाई देता हैं |
आधुनिकता की पहली निशानी हैं उपन्यास का समय, जो की सिर्फ पाँच दिनों तक सीमित हैं | पुराने कथानकों की तरह पूरी ज़िंदगी की बात करने की जगह यहाँ मदनमोहन के जीवन के पाँच महत्वपूर्ण दिनों का चित्रण हैं | मध्कालीन रूमानी कथाओं की जगह वास्तविक चरित्रों ने ली हैं, और भाषा-कर्म विविध रंगों से खिला हैं | उपन्यास की भाषा में भी परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व दिखाई दे पड़ता हैं | अंग्रेजी पात्रों की प्रस्तुति के कारण कुछ अंग्रेजी शब्दों का उपयोग हैं, तो साथ ही प्रारंभिक हिंदी, एवं संस्कृत और फ़ारसी का भी उपयोग हैं | श्रीनिवासदास भाषा-प्रयोजन के प्रति अति-जागरूक मालूम होते हैं, और अलग अलग परिस्थितियों में वह उचित भाषा का प्रयोग करना जानते हैं | जैसे की नैतिक और उपदेशात्मक सर्गो में संस्कृत-फ़ारसी का ज़्यादा उपयोग हैं, तो सामान्य बातचीत में बोल-चाल की हिंदी का उपयोग हैं |
जहाँ तक चरित्रों की बात हैं, तो प्रस्तुत उपन्यास पहली बार चरित्रों को उनके मनुष्य-स्वरूप में समझने की कोशिश करता हैं | वसुधा दालमिया ने अपने लेख में निर्देश किया हैं कि कैसे परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व चरित्रों को एक-दूसरे के ध्रुवीय विपरीत रखकर दिखाया गया हैं (Dalmia, 2008) |
मदनमोहन को अंग्रेजी जीवन-पद्धति अपनाते हुए दिखाया हैं जो उसके पतन का कारण बनती हैं, जबकि ब्रजकिशोर के चरित्र का आदर्श चित्रण किया गया हैं | वह समझदार हैं, और वह अंग्रेजी जीवन-पद्धति का अँधा अनुकरण करने में नहीं मानता, बल्कि अंग्रेजों से जो चीज़े सीखने लायक हैं, वही अपनाता हैं | ब्रजकिशोर कचेरी (कोर्ट) में काम करता हैं, जो की एक आधुनिक और उपनिवेशी संस्था हैं, मगर अपनी परंपरा को वह बिलकुल नहीं भूला | जहाँ तक स्त्री-पात्रों का सवाल हैं, उपन्यास अपने स्त्री-चरित्रों को उतना उजागर नहीं कर पाया | मदनमोहन की पत्नी उसको कारावास होने पर उसे छोड़ कर चली जाती हैं, पर जब मदनमोहन का ह्रदय-परिवर्तन होता हैं, तब वह वापस भी आ जाती हैं | इसके सिवा उसके हिस्से में ज़्यादा कुछ नहीं हैं करने को |
परीक्षा-गुरु का मुख्य उद्देश्य नैतिक मूल्यों का चित्रण एवं शिक्षण था | कलाकृति बनाने का मोह इसमे इतना नहीं मौजूद जितना उपदेश मौजूद हैं | यह मानसिकता आनेवाले युग में बदल जाएगी |
परीक्षा-गुरु पर अनेक, विध-विध कथाओं व् पुस्तकों का असर था | श्रीनिवासदास अंग्रेजी उपन्यासकार ओलिवर गोल्डस्मिथ से प्रभावित थे, और साथ ही संस्कृत साहित्य की नीति-कथाओ और जातक-कथाओं से भी उन्होंने उतना ही ग्रहण किया था | इससे भी साफ़ नज़र आता हैं कि परीक्षा-गुरु पर आधुनिकता व व परंपरा दोनों का प्रभाव था |
वास्तववादी धरातल पर लिखे गए इस उपन्यास के बाद उपन्यास की वास्तु एवं रूप में किस प्रकार और किस तरह के बदलाव आए? किस ऐतिहासिक संदर्भो ने नए उपन्यास को जन्म दिया?
सामाजिक वास्तव या आदर्श यथार्थवाद? प्रेमचंद युग में हिंदी उपन्यास के प्रश्न
लाला श्रीनिवासदास के समय के कुछ नामांकित उपन्यासकारों में बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, किशोरीलाल गोस्वामी, देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गह्मारी और भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जा सकता हैं | उनके बाद की पीढ़ी में आए धनपतराय उर्फ़ ‘प्रेमचंद’, जो उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखते थे | भारतेंदु युग में हिंदी को हिंदुओ की भाषा ज़ाहिर कर उसे संस्कृत के करीब लाने के प्रयत्न हुए थे, मगर प्रेमचंद उन सबसे अलग थे | उन्होंने अपनी अधिकतर कहानियाँ और कई उपन्यास प्रथम उर्दू और उसके बाद हिंदी में लिखे थे |
प्रेमचंद का जीवन उनकी कहानियों की तरह ही दिलचस्प हैं | यहाँ उनके जीवन की कुछ बातें करनी इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि उनका सीधा संबंध उनकी रचनओं से एवं उस समय की भारत की स्थिति से हैं | प्रेमचंद का जन्म बनारस के करीब लमही नामके एक गाँव में हुआ था | उन्होंने अपने जीवन में गरीबी देखी, सौतेली माँ से अन्याय का अनुभव किया, अपने आसपास के टूटते हुए लोगों को देखा, और साथ ही अंग्रेजों द्वारा किये जानेवाले अत्याचारों को भी देखा | यह सभी अनुभव उनके सर्जन-विश्व का बड़ा हिस्सा बननेवाले थे | बचपन से ही उन्हें पढने-लिखने का बड़ा शौक था, और उन पर चार्ल्स डिकन्स, मेक्सिम गोर्की, टॉलस्टॉय जैसे लेखकों का प्रभाव अधिक था |
प्रेमचंद पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने ‘वास्तव’ का सही ढंग से अपनी रचनओं में विनियोग किया | १९००-१९३० तक भारत में साम्यवादी विचारधारा का सामाजिक एवं राजनैतिक प्रभुत्व रहा | इसका असर उस समय के साहित्य पर भी हुआ | साहित्य-लेखन की प्रमुख धारा थी ‘सामाजिक वास्तव’, और प्रेमचंद उसके प्रमुख कर्ता थे | सामाजिक वास्तव की धारा का लेखन किसानों और गरीबों के जीवन को वस्तु बनाता था, और शुद्ध साहित्यिक हिंदी से दूर हटकर बोल-चाल की हिंदी को प्राधान्य देता था | यह समय गाँधी का भी समय था, और गाँधीवाद एवं राष्ट्रवाद का प्रभाव उतना ही प्रबल था जितना साम्यवाद का | गाँधी द्वारा की गई समाज के निम्न वर्ग और किसानों के उद्धार की बात का समर्थन प्रेमचंद ने अपनी रचनओं द्वारा दिया, और गाँधी के शुरू किये गए ‘असहयोग’ आंदोलन के समर्थन में उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र भी दे दिया |
प्रेमचंद सामजिक वास्तव के अग्रहारी तो थे ही, लेकिन उन्होंने ‘आदर्श यथार्थवाद’ को भी प्राधान्य दिया, बल्कि अपनी रचनाओं में ‘आदर्श यथार्थवाद’ का विनियोग करने का हमेशा प्रयत्न किया | इससे उनका मतलब यह था कि रचना यथार्थ का चित्रण करते हुए भी किसी आदर्श की तरफ अंगुलिनिर्देश करनी चाहिए |
यहाँ पर प्रेमचंद के उपन्यास गोदान (१९६३) के द्वारा यह देखा जाएगा कैसे हिंदी उपन्यास में भारी बदलाव आए, और कैसे राष्ट्रवाद, साम्यवाद जैसे आंदोलनोंने इस रचना को प्रभावित किया |
गोदान होरी नाम के एक किसान की कहानी हैं, जो गोदान करना चाहता हैं | होरी और उसकी पत्नी धनिया गोदान के लिए एक के बाद एक मुश्किलों का सामना करते हैं, और गोदान की संभावना के साथ उपन्यास समाप्त होता हैं | यह बात प्रेमचंद के ‘आदर्श यथार्थवाद’ का नमूना हैं, क्योंकि पूरा उपन्यास नग्न यथार्थ का चित्रण कर होरी के दर्द और मुश्किलों का दस्तावेज़ हैं, लेकिन अंत में होरी के मौत के साथ गोदान की संभावना खड़ी होती हैं | गोदान की स्थिति होरी के लिए एक आदर्श स्थिति हैं जहाँ वह कभी पहुँच नहीं पाता, लेकिन उस स्थिति का अंगुलिनिर्देश ज़रूर किया गया हैं | उल्का अंजारिया के अनुसार प्रेमचंद के लेखन को भिन्नता युक्त यथार्थ और समानता युक्त आदर्श के बीच के तकरार का लेखन माना जा सकता हैं (Anjaria, 2012) |
यह उपन्यास अनेक तरीके से आधुनिक हैं | भाषा, जैसा कि आगे सूचित किया गया हैं, बोल-चाल की और रोज-ब-रोज की हैं | उपन्यास में होरी की कथा मुख्य हैं, जो गाँव में स्थित हैं, पर गोदान में इसके समान्तर शहर के कथानक का भी उपयोग किया गया हैं | यह दोनों अंतिम एक दूसरे के पूरक साबित होते हैं | प्रेमचंद काफी प्रगतिशील थे | ‘ओल इण्डिया प्रोग्रेसिव राईटर्ज एसोसिएशन’ के उद्घाटन के दौरान अपने वक्तव्य में उन्होंने निर्देश किया था कि लेखक और वकील का काम एक-सा होता हैं, क्योंकि दोनों का धर्म निम्न-वर्ग के शोषित और पीड़ित के लिए लड़ना हैं (प्रेमचंद १९३६) | यह प्रगतिशीलता उनके इस उपन्यास में भी नज़र आती हैं | अपने कथानक में वह अंतरजातीय शादी को समर्थन देते हुए मिलते हैं | यह बात उस समय में बहुत ही क्रांतिकारी थी |
पहली बार निम्न-वर्ग के चरित्रों का बड़ी संकुलता से चित्रण हुआ मिलता हैं | इस उपन्यास में स्त्री-चरित्र का चित्रण भी पहले के उपन्यासों से अलग हैं | धनिया, होरी की पत्नी, एक अत्यंत सबल चरित्र हैं | उसकी आंतरिकता को उजागर करने में भी प्रेमचंद सफल रहे हैं | यह कहा जा सकता हैं कि अगर धनिया न होती तो होरी ने जल्द ही जीवन की विषमताओं के सामने हार मान ली होती | मगर फिर भी, धनिया का पात्र होरी के पात्र का साथ देने के लिए ही हैं - होरी से हटकर उसकी अपनी अलग पहचान नहीं मिलती |
हम देख सकते हैं की कैसे प्रेमचंद ने ‘वास्तव’ का बखूबी निरूपण किया, और अनेक चरित्रों को मिलकर एक संकुल वास्तविक सृष्टि की रचना की, जिसका नाता परंपरा से ज़रूर हैं, मगर बहुत तरीके से वह आधुनिक हैं |
प्रेमचंदोत्तर युग में उपन्यास और शेखर: एक जीवनी
प्रेमचंद के बाद आई पीढ़ी के लेखकों में जैनेन्द्र कुमार, सच्चिदानंद हिरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, उपेन्द्रनाथ अश्क और यशपाल का नाम बड़े आदर से लिया जाता हैं | जैनेन्द्र कुमार को मनोवैज्ञानिक उपन्यास की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता हैं | उनके उपन्यास सुनीता और त्यागपत्र इसके प्रमाण हैं | जैनेन्द्र के दोस्त ‘अज्ञेय’ ने भी उनकी राह पर चलकर शेखर: एक जीवनी द्वारा मनोवैज्ञानिक उपन्यास को एक नयी ऊंचाई पर पहुँचाया | अज्ञेय की बात करने में जैनेन्द्र की बात करनी भी आवश्यक हैं, क्योंकि जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास सुनीता और त्यागपत्र से जो हिंदी भाषा को तोडा-मरोड़ा और पात्रों की आंतरिकता, ख़ास करके भय, काम-वासना और यादों की अनेक परतों को उजागर करने के लिए नयी हिंदी का प्रयोग किया, उसी से प्रभावित होकर ‘अज्ञेय’ ने उस भाषा, वातावरण एवं स्वरूप के नवोन्मेष को शेखर:एक जीवनी द्वारा नया आयाम दिया |
कौन-सी परिस्थियों की वजह से हिंदी साहित्य में एसे बदलाव आए? उस समय की सामाजिक और राजकीय स्थिति क्या थी? यह जानने से शायद हिंदी उपन्यास में अचानक आए परिवर्तन का पता चले |
अज्ञेय की पीढ़ी गाँधी के विचारों से प्रभावित ज़रूर थी, मगर साथ ही वह गाँधी का अँधा अनुकरण करने में नहीं मानती थी | गाँधी से हटकर यह क्रांतिकारियों की पीढ़ी हिंसा को देश की आज़ादी के लिए इस्तेमाल करने में हिचकिचाती नहीं थी | अज्ञेय को कारावास की सज़ा मिली थी क्योंकि वह चंद्रशेखर आज़ाद और साथियों के साथ बम बनाते हुए पकड़े गए थे | कारावास का अनुभव शेखर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं क्योंकि यह उपन्यास अज्ञेयने कारावास में ही लिखा था, जो बाद में दो हिस्सों में प्रकाशित हुआ |
उस समय के अज्ञेय जैसे क्रांतिकारियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे लोग न तो गाँधी के असहयोग और अहिंसा के मार्ग पर चलने को तैयार थे, और न ही अपनी क्रान्ति छोड़ देने को | साथ ही यह क्रांतिकारी मार्क्सवादी विचारधारा में मानते थे, और जितना तीव्र उनका राष्ट्रवाद था, उतनी ही तीव्र उनकी सामाजिक चेतना भी थी | यह क्रांतिकारियों की ज़िंदगी भी कायदे-कानून से बचने के लिए रास्तों पर या जंगलों में गुज़री, और इन असामान्य विस्तारों में युवा स्त्री-पुरुष क्रांतिकारियों ने काफी समय साथ में बिताया, जिससे प्रेम और कामावेग की अभिव्यक्ति के नए पहलू उन्मुक्त हुए | एक विस्तार था यह कामावेग और प्रेम का विस्तार, एक विस्तार था कारावास का जो इन्हें अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचने और चिंतन करने के लिए आवश्यक समय एवं जगह देता था |
शेखर: एक जीवनी कारावास में ही शुरू होती हैं, जहाँ शेखर अपनी फाँसी के लिए इंतज़ार कर रहा हैं | उपन्यास सामयिक और स्थानिक आयामों को तोड़ मरोड़ देता हैं, क्योंकि कथा वर्तमान और भूतकाल के बीच घूमती रहती हैं, और इसी की वजह से स्थल भी बदलते रहते हैं | शेखर खुद क्रांतिकारी होने के साथ एक लेखक भी हैं, और इसी वजह से उपन्यास की भाषा हिंदी एवं संस्कृत शब्दों से संपन्न हैं, और उसकी काव्यात्मकता उपन्यास ख़तम होने पर भी पाठक को पूरी तरह नहीं छोडती | यह उपन्यास प्रेमचंद के उपन्यासों से बहुत ही अलग हैं क्योंकि ‘यहाँ व्यक्ति का मनश्लोक आख्यान की अग्रभूमि में है, जबकि सामाजिक जीवन पृष्ठभूमि में’ (कुमार 2012) |
कथानक प्रथम पुरुष एकवचन और तृतीय पुरुष एकवचन के बीच झोंके खाता रहता हैं जिससे बाहर का सामाजिक वास्तव और अंदर का आंतरिक वास्तव दोनों की बात कही जा सके | यह प्रयोग शेखर को गोदान से अधिकतर आधुनिक स्थापित कर देते हैं | प्रेम और कामावेग का कथानक में जिस तरह अन्वेषण हुआ हैं वह भी नयेपन का ही प्रमाण हैं | क्रांतिकारी पहलू यह हैं की यह प्रेम और वासना का संबंध दूर के भाई-बहन शेखर और शशी के बीच स्थापित होता हैं, जिससे कई पारंपरिक मूल्यों का ह्रास होता दिखता हैं |
शशी हिंदी साहित्य के सबसे चहेते और सबसे करुण चरित्रों में से एक हैं | शेखर में मुख्य पात्र शेखर का विकास शशी के पतन के साथ ही होता हैं (Sawhney, 2012) | शशी का चरित्र मज़बूत हैं, वह अपने पति को छोड़कर शेखर के साथ एक गुन्हेगार की ज़िंदगी जीने लगती हैं, और आखिर शेखर के लिए अपनी जान दे देती हैं | जो उपन्यास शेखर की मृत्यु की बात से शुरू होता हैं, वह शशी के मृत्यु के साथ समाप्त होता हैं | निखिल गोविन्द सूचित करते हैं कि कैसे अपनी मृत्यु के मूल्य के कारण शशी उपन्यास के केंद्र में आ जाती हैं (Govind, 2014), और अंत में वह शशी ही हैं जो पाठक के साथ रहती हैं, न कि शेखर |
यह देखा जा सकता हैं कि कैसे शेखर: एक जीवनी से हिंदी उपन्यास ने एक नयी दिशा में ही प्रस्थान किया, जिस दिशा में नयी कहानी के लेखकों की पीढ़ी बढती हैं |
निष्कर्ष
हमने इस लेख में तीन मील के पत्थर समान उपन्यासों की मदद से देखा कि कैसे हिंदी उपन्यास में परिवर्तन आए | अज्ञेय के बाद की पीढ़ी में नयी कविता और नयी कहानी के आंदोलन ज़्यादा प्रचलित रहे, हालाँकि उपन्यास की विधा में भी इन लेखकों का उतना ही बड़ा योगदान रहा | यहाँ कुछ बात नयी कहानी के बारे में भी करना आवश्यक हैं |
नयी कहानी आंदोलन हिंदी साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा हैं’ | पश्चिम के ‘हाई-मोडर्निज्म’ (आधुनिकतावाद) से यह आंदोलन प्रभावित ज़रूर था, मगर नयी कहानी के लेखक अपनी भारतीयता को भूलकर पश्चिम का अँधा अनुकरण नहीं कर रहे थे | उनके लिए पश्चिम एक संदर्भ मात्र था | नयी कहानी आंदोलन अपने पूर्व-सूरिओ से नाता तोड़ता भी हैं और जोड़ता भी | प्रगतिवादी लेखकों का १९३६ में जो आंदोलन हुआ, उसके बाद बहुत से प्रगतिवादी लेखक सामाजिक चेतना के साहित्य को ही सच्चा साहित्य मानने लगे थे | उनकी कहानियाँ निम्न और गरीब वर्ग की, स्त्रियों की बात करती ज़रूर थी, मगर मार्क्सवादी विचारधारा रखने वाले लेखक और वैसी मानसिकता वाले साहित्य को ही अच्छा साहित्य समझना उनकी बहुत बड़ी भूल थी | प्रगतिवादी लेखकों में अहमद अली, उपेन्द्रनाथ अश्क, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद इत्यादि लेखक शामिल थे |
इक तरफ था प्रगतिवादी लेखकों का वर्ग, दूसरी ओर था अज्ञेय और जैनेन्द्र जैसे रूमानी कथाकारों का वर्ग | नये कहानीकार इन दोनों वर्गों से असहमत थे | उनके लिए सामाजिक चेतना का उतना ही मूल्य था जितना आंतरिक चेतना का | उसी तरह, स्त्री-पुरुष संबंधो के बारे में लिखी गई रूमानी कथाओं में उन्हें आंतरिक चेतना तो दिखती थी, मगर उनके लिए यह बहुत ही संकुचित दृष्टिवाला साहित्य था | दोनों वर्गों में से उचित और ज़रूरी सामग्री लेकर नये कहानीकार अपनी खुद की ही साहित्यिक दुनिया बनाने में जुड़ गए |
नयी कहानी आंदोलन प्रेमचंद के साथ भी कुछ ऐसा ही ‘लव-हैट’ का नाता रखता हैं | यह कहानीकार प्रेमचंद के ‘यथार्थ’ के विचार को सम्मान देते थे और यथार्थ को किसी भी कहानी का ज़रूरी आयाम मानते थे, मगर साथ ही यह प्रेमचंद के आदर्शवाद को नकारते थे | प्रेमचंद के लिए यथार्थ साधन था, और आदर्श साध्य, जबकि नयी कहानी के लेखकों के लिए यथार्थ ही साध्य था, और उस यथार्थ को सिद्ध करने के लिए जो भी कुछ सामग्री ज़रूरी थी, वह सब साधन |
नयी कहानी के लेखक यथार्थ के बहुमुखी परिमाण का अन्वेषण करने में मानते थे, और वह इसमें ज़्यादातर सफल भी रहे | निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, फणीश्वरनाथ रेणु आदि लेखकों ने अपने स्थल-काल से प्रमाणिक रहकर नए तरीके की कहानियों का और उपन्यासों का सर्जन किया, जिसमे बटवारें की वेदना थी, आज़ादी मिलने के बाद सामाजिक विषमताओं में कोई सुधार न आने पर मोहभंग की अनूभूति थी, जातीयता के नए आयामों का अन्वेषण था, और मनुष्य का दूसरे मनुष्य से संपर्क-संचार का टूट जाना, मूल्यों का ह्रास इत्यादि कथा-वस्तुओं का समावेश था, और उसका अध्ययन भी उतना ही रसप्रद हैं जितना कि बटवारें के पहले के उपन्यासों का अभ्यास |
संदर्भ-सूची
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