हमारा देश विभिन्न संस्कृतियों का देश है। भाषा, पहनावा, जलवायु, खान–पान, साहित्य व संगीत इत्यादि जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में विविधता हमें अपने भारत वर्ष में प्राप्त होती है। हालांकि आज संचार क्रान्ति के कारण हम अपनी क्षेत्रीय अथवा आँचलिक विशेषताओं को भूलते जा रहे हैं चाहे वे खान–पान की आदतें हों अथवा पहनावा और चाहे ललित कलाओं का ही क्षेत्र हो। समय के साथ बदलाव एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, परन्तु आज के समय की यह भी माँग है कि हम अपनी क्षेत्रीय भाषा अथवा बोली को आने वाली पीढी तक पहुँचा पाएं, अपने विशिष्ट क्षेत्रीय व्यंजनों के अस्तित्व को न मिटने दें, अपनी परम्पराओं मूल्यों और संस्कृति का संप्रेषण भावी पीढियों में कर पाएं और साथ ही साथ अपने क्षेत्रीय अथवा आँचलिक इतिहास और विरासत को संजोकर रखें।
हर क्षेत्र का अपना एक विशिष्ट इतिहास होता है जो लोकगाथाओं, लोकगीतों, आख्यानों, स्मारकों व परम्पराओं के माध्यम से जीवित रहता है। केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू–कश्मीर की बात की जाए तो कहा जा सकता है कि ये दोनों प्रदेश (जम्मू और कश्मीर) भाषा, खान–पान, पहनावा, संगीत, संस्कृति इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में एक दूसरे से वैविध्य रखते हैं। इतिहास की भी बात की जाए तो कहा जा सकता है कि कश्मीर के इतिहास पर बहुत शोधकार्य हुआ है जबकि इसके विपरीत जम्मू संभाग की संस्कृति और इतिहास पर अत्यन्त कम शोध हुए हैं। इतिहास और संस्कृति की बात की जाए तो जम्मू संभाग जिसे डुग्गर प्रदेश भी कहा जाता है, अपने आप में इतिहास और संस्कृति के किसी खजाने से कम नहीं है, जिसके हर एक जनपद का अपना एक विशिष्ट इतिहास है। इस डुग्गर प्रदेश में आदिम सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं जिनके तार सिन्धु घाटी की सभ्यता से जुड़ते हैं। बौद्ध स्तूपों के अवशेष भी मिलते हैं। आठवीं शताब्दी से ग्याहरवीं शताब्दी के प्राचीन मन्दिर आज भी देखने को मिलते हैं। दो हज़ार साल पुराने ब्राह्मी लिपि के अभिलेख भी यहाँ प्राप्त होते हैं। वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में जम्मू संभाग का अपना एक विशिष्ट और विलक्षण इतिहास है परन्तु खेद की बात है कि इस क्षेत्र पर उतने व्यापक शोधकार्य नहीं हुए जितने होने चाहिए थे। चूंकि प्राचीन स्मारक, अभिलेख, मूर्तियाँ इत्यादि ये सब समय के साथ मिटते चले जाते हैं। अगर समय रहते इनका संरक्षण न किया जाए, इनके इतिहास को संजोया न जाए, तो समय के साथ ये धरोहरें लोगों की स्मृति और क्षेत्र विशेष से भी मिटती चली जाती हैं। ऐसी ही ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों से भरपूर जनपद उधमपुर है जोकि जम्मू संभाग का एक अभिन्न हिस्सा है। कहा जा सकता है कि उधमपुर जनपद के प्रत्येक गाँव–क़स्बे का अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है, जिसे ध्यान से देखने समझने और लिपिबद्ध करने की नितांत आवश्यकता है।
इस जनपद की अनेक विशेषताओं में से एक है यहाँ की प्राचीन बावलियाँ और उनकी मूर्तिकला। इन मूर्तियों के माध्यम से मूर्तिकारों ने (जिनको स्थानीय भाषा में बटैह्डे कहा जाता था) तत्कालीन जीवन के लगभग प्रत्येक अंश को छुआ है, उसे मूर्तिमान किया है। दिलचस्प बात यह है कि लगभग प्रत्येक बावली की अपनी एक अलग कहानी अथवा इतिहास है।
प्रस्तुत लेख में उधमपुर जनपद की कुछेक बावलियों के इतिहास को खंगालते हुए इस तथ्य को साबित करने का प्रयास रहेगा कि कैसे प्रत्येक बावली का अपना एक अलग इतिहास और कहानी होती है, जिनको आज सहेजने, संभालने और जानने की आवश्यकता है।
उधमपुर की कुछेक बावलियाँ और उनकी कहानियाँ–
साकन अथवा सैन्कड बावली उधमपुर–
इस बावली के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार पद्मश्री प्रो० शिव दत्त निर्मोही जी लिखते हैं[1] कि इस बावली के निर्माण में जिन प्रस्तर शिलाओं का प्रयोग किया गया है, वे स्थानीय हैं। इस बावली का उल्लेख प्रो० शिव दत्त निर्मोही जी साकन नाम से करते हैं और समय के प्रभाव से आज इसे सैन्कड बावली भी कहा जाता है, जोकि साकन का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है।
डुग्गर प्रदेश के ही प्रसिद्ध कला इतिहासविद् और इतिहासकार प्रो० ललित गुप्ता[2] जी के अनुसार यहाँ की मूर्तियों में वैकुण्ठ चतुर्भुज विष्णु शैली[3]प्राप्त होती है जो इन मूर्तियों के समयकाल को आठवीं से बाहरवीं शताब्दी से जोड़ती है। पूर्वोन्मुख ये बावली अनुमानतः छः मीटर के घेरे में है। कहा जाता है कि पहले इस बावली में सत्तर के क़रीब मूर्तियाँ थीं, किन्तु आज केवल बीस के क़रीब ही बचीं हैं। जो मूर्तिकला कश्मीर में आठवीं से बाहरवीं शताब्दी ईसवी में विकसित हुई और जिसके चिह्न हमें खजुराहो के लक्ष्मण मन्दिर से भी प्राप्त होते हैं जिसे दसवीं शताब्दी में चन्देल राजाओं द्वारा बनाया गया था, कैसे ये मूर्तिकला उधमपुर में पहुँची होगी, कहना मुश्किल है।
उपरोक्त बातें इस बावली की महत्ता को और भी बढ़ाती हैं। इस बावली के सम्बन्ध में कई दन्तकथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार इस बावली का निर्माण एक सम्पन्न परिवार की सौत ने करवाया था[4]। सौत को डोगरी भाषा में साकन कहते हैं, अतः इस बावली का नाम इसी नाम से प्रचलन में आया।
लौण्डना बावली उधमपुर–
स्थानीय नाग देवता लौण्डना को समर्पित धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल पर निर्मित यह बावली अत्यन्त पवित्र मानी जाती है। पुण्यतिथियों पर सैंकड़ोंश्रद्धालु इस बावली में स्नान करते हैं। बावली के रखरखाव की दृष्टि से समय समय पर जो जीर्णोद्धार किये गये, उससे बावली का प्राचीन स्वरूप बहुत हद तक बदल चुका है और ये बात अनेक अन्य बावलियों में भी दृष्टिगोचर होती है जिनमें जीर्णोद्धार की दृष्टि से अथवा मन्तव्य से सदियों पुरानी मूर्तिकला को उखाड़कर या उन्हीं प्राचीन मूर्तियों पर आधुनिक टाइल्स को लगा दिया गया है। तो भी कुछ हद तक इस बावली का प्राचीन स्वरूप अपनी प्राचीन भव्यता का बखान करता हुआ प्रतीत होता है। इस बावली पर आज भी बड़ी संख्या में चर्मरोगी और सन्तानसुख से वंचित महिलाएं स्नान हेतु आती हैं।
स्थानीय मान्यता के अनुसार बाबा लौण्डना इसी क्षेत्र के एक शक्तिशाली योद्धा थे[5]। जिनका पास में ही एक भव्य मन्दिर भी है जिसे स्थानीय भाषा डोगरी में देवता की मंडी कहा जाता है, जहाँ उनकी नागरूप में पूजा की जाती है।
सालन अथवा सलैन्ड बावली–
ये बावली उधमपुर जनपद की सबसे सुन्दर बावलियों में से एक कही जा सकती है। पूर्वोन्मुख इस बावली का घेरा लगभग बीस मीटर है। जिस स्थान पर यह बावली निर्मित है, वहाँ का प्राकृतिक दृश्य अतीव मनोहर है। इस बावली में लगभग 52 मूर्तियाँ हैं जो कि विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक विषयों पर आधारित हैं। यह बावली देखने में एक छोटा सरोवर प्रतीत होती है।
बावली के निर्माता के सम्बन्ध में विभिन्न मत प्राप्त होते हैं[6]। एक मत यह है कि इसका निर्माण स्यालकोट के राजा शालिवाहन अथवा सालवाहन ने करवाया था, जिनका समय दसवीं सदी का माना जाता है। दूसरा मत है कि किसी रानी ने इसका निर्माण करवाया था। इसी कारण से इसका दूसरा नाम रानी की बावली भी है।
प्रसिद्ध इतिहासकार डा० अशोक जेरथ (1999) के अनुसार इस बावली का निर्माण दो स्थानीय लोगों ने करवाया जिनके नाम साल और लोनी थे। दोनों के नाम पर ही इसे सालन बावली कहा जाता है। इतना तो स्पष्ट है कि इस का निर्माण जिसने भी करवाया हो वह अवश्य कोई राजपरिवार का सदस्य अथवा धनाढ्य व्यक्ति रहा होगा, क्योंकि इतनी भव्य बावली का निर्माण किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं प्रतीत होती।
तलडसू की बावली–
ये बावली उधमपुर जनपद में स्थित प्राचीन तीर्थस्थल उधमपुर के मार्ग में स्थित है। प्रतीत होता है कि जैसे पैदल तीर्थयात्रियों के विश्राम हेतु इसका निर्माण करवाया गया था। यहाँ की जो बची खुची मूर्तियाँ हैं उनके अवलोकन से लगता है कि यह बावली काफ़ी प्राचीन है।
इस बावली के साथ ही एक प्राचीन तलडसू माता का मन्दिर था[7]। यह बावली उसी मन्दिर के परिसर में थी, आज के समय में जो आधुनिक मन्दिर यहाँ निर्मित है उसे दुर्गा माता मन्दिर कहा जाता है।
इस बावली के विषय में प्रो० शिव निर्मोही जी डोगरी लेखिका प्रेम प्यारी जी के एक शोध लेख का उद्धरण देते हुए कहते हैं[8]–
एक बार राजा केदारचन्द (चनैनी रियासत के तत्कालीन राजा) पर आक्रमण करने के लिये सिक्ख सेना ने चढाई की। राजा उस समय अपनी राजधानी चनैनी से दूर मानतलाई नामक स्थान पर था। सिक्ख सेना राजा की तलाश में चनैनी से मानतलाई की ओर बढ़ी। सेना जब मार्ग में तलडसू स्थान पर पहुँची तो एक युवा लड़की उनके मार्ग के बीच में आकर खड़ी होकर कहने लगी– आप वापस लौट जाओ, आप न तो हमारे राजा को पकड़ सकते हैं और न ही मार सकते हैं।
एक सिक्ख सैनिक लड़की को मार्ग से हटाने के लिए आगे बढ़ा। किन्तु जब वह लड़की अपने स्थान पर डटी रही तो उस सैनिक ने उस युवा लड़की का सिर काट दिया। इस घटना के तत्काल बाद वहाँ विषैले उड़ने वाले कीड़ों का आक्रमण हुआ, जिससे घबराकर सिक्ख सेना भाग खड़ी हुई। सिक्ख सैनिकों ने जिस लड़की का सिर काटा था, गाँव वालों ने बाद में उसको एक देवी के रूप में पूजना प्रारम्भ कर दिया। उसके नाम की एक भव्य बावली बनवाई जिसे तलडसू की बावली के रूप में जाना जाता है।
चढेयाई की बावलियाँ–
जिला उधमपुर की उपतहसील टिक्करी में एक ऐतिहासिक गाँव है चढेयाई। यह गाँव भव्य और विशाल बावलियों के लिए पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध है। इस गाँव में एक प्राचीन बाग है। जनश्रुति के अनुसार स्थानीय सामन्त अथवा राजा घग्घा सिंह जिज्ज (इस इलाके में जिज्ज जाति के राजपूत रहा करते थे, जिनके वंशज आज भी जिज्ज उपाधि का प्रयोग करते हैं) ने सत्रहवीं सदी में इस बाग, मन्दिर एवं बावलियों का निर्माण करवाया था। कहते हैं राजा घग्घा सिंह जिज्ज के शासनकाल में राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो वहाँ से कई शिल्पकार अपने परिवारों को साथ शिवालिक पहाडियों में बसे इस इलाके में आए। जब वे राजा घग्घा सिंह से मिले तो राजा ने उनको बावलियों के निर्माण का काम सौंपा। इस तरह ये बावलियाँ अस्तित्व में आयीं।
एक और दन्त कथा के अनुसार यह भी कहा जाता है कि सत्रहवीं सदी में जम्मू-कश्मीर में स्थित पांगी–पाडर नामक स्थान से एक सन्त चढेयाई गाँव में आए। राजा उनका अत्यन्त सम्मान करता था, उन्हीं के अनुरोध पर राजा ने इन बावलियों का निर्माण करवाया था।
पुरातत्व विभाग द्वारा स्थापित नाम पट्ट के अनुसार इन बावलियों का निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी में स्थानीय जागीरदार राजा चग्गर सिंह ने करवाया[9]
ये बावलियाँ आज जीर्ण–शीर्ण अवस्था में हैं लोगों द्वारा अतिक्रमण की मार भी झेल रहीं हैं। आज भी इन भग्नावशेषों को देखकर इनके प्राचीन वैभव का अनुमान लगाया जा सकता है, इनके पर्याप्त संरक्षण की नितान्त आवश्यकता है।
उपसंहार–
तो इस प्रकार से कहा जा सकता है कि प्रत्येक बावली का अपना एक अलग इतिहास है और उनकी मूर्तिकला का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है। उधमपुर जनपद इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों से भरा पड़ा है जोकि बहुत तेजी से नष्ट होती जा रहीं हैं। इनके अध्ययन, इन पर विस्तृत शोध और इनका संरक्षण आज समय की मांग है अन्यथा हम इस जीते जागते इतिहास को खो देंगे।
आभार प्रदर्शन–
सौभाग्यवश इस शोधकार्य में लेखक को जम्मू संभाग के प्रसिद्ध इतिहासकार पद्मश्री प्रो० शिव दत्त निर्मोही जी एवं डुग्गर प्रदेश के ही प्रसिद्ध कला इतिहासविद् और इतिहासकार प्रो० ललित गुप्ता जी का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त हुआ। उपरोक्त दोनों ही इतिहासकार जम्मू संभाग की बावलियों के इतिहास पर शोध कर रहे हैं जो कि प्रकाशित हो रहा है। लेखक दोनों के प्रति आभार व्यक्त करता है कि उन्होंने अपनी अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँउपलब्ध करवा कर न केवल लेखक का सहयोग, मार्गदर्शन ही किया अपितु उत्साहवर्धन भी किया।
उधमपुर के ही उभरते हुए युवा कलाकार श्री अभिनव बहल ने भी अपने छायाचित्रों के माध्यम से इस शोध में अपना अमूल्य योगदान दिया और लेखक के साथ इन सुदूर स्थलों की यात्राएं भी कीं। जिसके बिना यह शोध परिपूर्ण न हो पाता।
[1] प्रो० शिव निर्मोही जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपि
[2] प्रो० ललित गुप्ता जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपि
[3] वैकुण्ठ चतुर्मूर्ति या वैकुण्ठ विष्णु एक चार-सिरों वाले हिंदू देवता विष्णु, ज्यादातर कश्मीर में पायी जाने वाली शैली
[4] प्रो० शिव निर्मोही जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपि
[5] वही
[6] वही
[7] वही
[8] वही
[9] वही
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
प्रो० शिव निर्मोही जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपि।
प्रो० ललित गुप्ता जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपि।
पथिक, ज्योतीश्वर. ‘डुग्गर दी मूर्ति कला’, ग्रन्थ – डुग्गर दा सांस्कृतिक इतिहास, दूसरा संस्करण. सम्पादक अशोक गुप्ता, भाषा डोगरी. जम्मू: जे एण्ड के अकैडमी आफ आर्ट कल्चर एंड लैन्ग्वेजिज, २०१०.
Jerath, Ashok. Folk Art of Duggar. B-2, Vishal Enclave, Najafgarh Road, New Delhi: Atlantic Publishers, 1999.